Monday, June 17, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -5


मुतमइन था दिन के बिखराव से मैं लेकिन ये रात 
दाना दाना फिर अ'जब ढंग से पिरोती है मुझे
*
इश्क़ में मैं भी बहुत मुहतात था सब झूठ है 
और ये साबित कर गया कल रात का रोना मेरा 
मोहतात:सावधान
*
समझ में कुछ नहीं आता मगर दिलचस्पी क़ायम है 
यही तो कारनामा है इस अलबेले मदारी का
*
कई दिनों से मैं एक बात कहना चाहता हूं 
तू लब हिला तो सही हां कोई सवाल तो कर

मैं चाह कर भी तेरे साथ रह नहीं पाऊं 
तू मेरे ग़म मेरी मजबूरी पर मलाल तो कर
*
हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई 
कि तेरी याद हमें रात भी नहीं आई 

बिछड़ते वक़्त जो गरजे तो कैसे बादले थे 
ये कैसा हिज़्र कि बरसात भी नहीं आई
*
सुकून चाहता हूं मैं सुकून चाहता हूं 
खुली फिज़ा में नहीं तो क़फ़स में दे दे तू
*
उस पे तक़्सीम तो कीजे खुद को
क्या ज़रूरी है कि हासिल आए
*
मैं बांध ही रहा था ग़ज़ल में उसे अभी 
वो ज़ीना ए ख़्याल से नीचे उतर गया
*

आपको याद ही होगा की सन 2019 में एक भयंकर बीमारी ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। उस बीमारी ने न गरीब देखा न अमीर, न गोरे देखे न काले, न देश देखे न मज़हब, उसने सबको, बिना भेदभाव के, अपनी चपेट में ले लिया था। 

उस बीमारी का इलाज तो खैर इंसान ने बहुत हद तक ढूंढ लिया है लेकिन एक और इससे भी बड़ी बीमारी का इलाज कोई इंसान अब तक नहीं ढूंढ पाया है। ढूंढ लिया होता तो आप, जो मैं लिख रहा हूं, यकीनन न पढ़ रहे होते। जी आप सही समझे, मैं 'सोशल मीडिया' की बात कर रहा हूं।जहां हर कोई 'मुझे देखो, मुझे पढ़ो, मुझे सुनो' की गुहार लगाता नज़र आता है।इसकी पकड़ में भी बहुत कम लोग ही आने से बच पाए हैं। जो लोग 'फेसबुक' 'यूट्यूब' 'ट्विटर' 'इंस्टाग्राम' आदि से बच गए वो 'व्हाट्सएप' की भेंट चढ़ गए। सोशल मीडिया में कोई बुराई नहीं है, बुराई सिर्फ इसकी अति में है। 

वैसे साहब ये पोस्ट 'सोशल मीडिया' के बारे में ज्ञान बांटने के लिए नहीं है क्योंकि पसंद अपनी अपनी ख़्याल अपना अपना। दरअसल ये पोस्ट उस शाइर के बारे में है जो 'सोशल मीडिया' में होकर भी वहां नहीं है। 

जनाब "शहराम सरमदी" साहब जिनकी किताब "किताब गुमराह कर रही है" पर लिखने का मन तो दो सालों से था लेकिन उनके बारे में कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा था। 'फेसबुक' पर भी वो हैं 'इंस्टा' पर भी और 'यू ट्यूब' पर भी लेकिन बस हैं। वहां से आप उनके बारे में कुछ पता नहीं लगा सकते। यूं समझें हो कर भी नहीं हैं ।इंटरनेट पर कहीं उनका कोई इंटरव्यू या उन पर आर्टिकल भी देखने सुनने को नहीं मिलता, मुशाइरों के वीडियोज की बात तो भूल ही जाइए। 

हमने भी थक हार कर सोचा कि अगर 'शहराम सरमदी' साहब, एकांत में रहना चाहते हैं तो क्यों बेवजह उनकी प्राइवेसी में दखल दिया जाए।

आप 'रेख़्ता' से या 'अमेजन' से "किताब गुमराह कर रही है" को मंगवाइए और इत्मीनान से पढ़िए। याने आम खाइए, पेड़ मत गिनिए।
और हां,जब तक वो किताब आपके हाथ आए तब तक यहां 'सरमदी' साहब के ये चंद अशआर पढ़िए और पढ़िए फिर वो जहां, जैसे भी हैं, उन्हें दुआ दीजिए:

तो ज़मीं को आसमां करने की कोशिश ठीक है
सुनते हैं हर चीज हो जाती है मुमकिन वक्त पर
*
याद की बस्ती का यूं तो हर मकां खाली हुआ 
बस गया था जो खला सा वो कहां खाली हुआ

रफ़्ता रफ़्ता भर गया हर सूद से अपना भी जी 
रफ़्ता रफ़्ता दिल से एहसास ए जियां खाली हुआ 
सूद: फायदा, एहसास ए जियां: नुकसान
*
मैं अपनी फ़त्ह पर नाजां नहीं हूं 
प सुनता हूं कि थी दुनिया मुक़ाबिल
*
आज भी रोशन है वो इक नाम ताक़ ए याद में 
आज भी देती है जो इक लौ दिखाई उससे है
*
पहलू में कोई बैठ गया है कुछ इस तरह 
गोया किसी का साथ नहीं चाहिए हमें
*
हमेशा मुझसे ख़फा ही रही है तन्हाई 
सबब ये है कि तेरी याद जो बचा ली है
*
बस सलीक़े से जरा बर्बाद होना है तुम्हें 
इस ख़राबे में अगर आबाद होना है तुम्हें 
*
कई दिनों से बहुत काम था सो दफ़्तर में 
तेरे ख़्याल की लौ मैंने थोड़ी मद्धम की
*
उसने कहा था कि दिल का कहा मान इश्क़ है 
उस दिन खुला के वाकई आसान इश्क़ है 

हैरान मत हो देख के दीवानगी मेरी
तू महज़ तू नहीं है मेरी जान इश्क़ है

ऐसा नहीं है कि 'शहराम सरमदी' साहब के बारे में कुछ भी नहीं मालूम लेकिन जितना मालूम है वो मालूम होने की हद से बहुत दूर है। रेख़्ता की साइट पर जो जानकारी मौजूद है वो सिर्फ़ इतनी सी ही है
"शहराम सरमदी 1975 को अ’लीगढ़ में पैदा हुए। अ’लीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम. ए. किया। मुम्बई यूनिवर्सिटी से डाक्टरेट की डिग्री हासिल की और वहीं कई बर्सों तक तदरीसी फ़राएज़ भी अनजाम दिए। बा’द-अज़ाँ वज़ारत-ए-उमूर-ए-ख़ारजा, हुकूमत-ए-हिन्द से वाबस्ता हुए और इन दिनों हुकूमत-ए-हिन्द की जानिब से ताजिकिस्तान में मामूर हैं।"
हांलांकि मेरे पास उनका वाट्सएप नंबर है लेकिन मैं उसे आपसे शेयर करने से परहेज़ करूंगा। मैं नहीं चाहता कि मेरी वज़्ह से उनकी प्राइवेसी में खलल पड़े।
आखिर में आपको इस किताब से कुछ और अशआर पढ़वाता चलता हूं:

तेरे जुनून ने इक नाम दे दिया वरना 
मुझे तो यूं भी ये सहरा उबूर करना था 
उबूर: पार
*
कभी जो फुर्सत ए लम्हा भी मिले तो देख 
कि दश्त ए याद में बिखरा पड़ा है तू कैसा
*
क्या मजा देता है बा'ज औक़ात कोई झूठ भी 
जैसे ये अफ़वाह दिल से ग़म की सुल्तानी गई
*
वो देख रोशनियों से भरा है पस मंजर 
मलूल क्यों है अगर सामने उजाला नहीं
मलूल: उदास
*
लग गई क्या इसके भी बैसाखियां 
तेज़ी से वक्त ढलता क्यों नहीं









1 comments: