Monday, November 8, 2021

किताबों की दुनिया - 244

मौसम के घर ये कौनसे मेहमान आ गये 
देहलीज़ पर उतारी हैं पत्तों की चप्पलें  

कितनी नमी है सूनी हवेली में हर तरफ़ 
आया था कौन टांकने अश्क़ों की छागलें 
  *
पत्थरों के दौर को जुग बीते लेकिन 
क्या कहेंगे जो ज़माना सामने है 
*
गले मिल के नाचे है मिट्टी से अक्सर 
है बे-बाक कैसी हवा सीधी-सादी 

समंदर को मैंने तो पत्थर से मारा 
मगर मौज थी बेहया मुस्कुरा दी
*
वक्त की सुर्ख आंखे कहती हैं
 जाने वाले हैं काफिले दिन के 

नींद लेते हुए वो डरते हैं 
ख्वाब के घर बिखर गए जिनके 
*
बैठा बैठा गली में सन्नाटा 
चादरे-शब कुतर रहा है क्या 

खोल कर फेंक दे कबा ए जिस्म 
ऐसे घुट घट के मर रहा है क्या
*
गया है किस तरफ सायों का मेला 
ज़मीं पैरों तले सूनी पड़ी है
*
नगर में भी कहीं उस का न डर हो 
वही जो दश्त में बिखरा पड़ा है 
*
बदन तो फूल से पाए हैं हर किसी ने मगर 
हरेक शख़्श यहाँ खार जान पड़ता है

मुझे लगता है कि इसे मेरी पीढ़ी के लोग भी शायद भूल चुके होंगे, नयी पीढ़ी ने तो शायद इसे सुना भी न हो।  मेरी मुराद सं 1959 में आयी फिल्म 'लव मैरिज' के एक गाने 'टीन कनस्तर पीट पीट कर गला फाड़ के चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान ये गाना है न बजाना' से है। इस गाने के गीतकार शैलेन्द्र, संगीतकार शंकर जयकिशन, गायक मोहम्मद रफ़ी और कलाकार देवानंद को शायद सपने में भी अंदाजा नहीं होगा कि आने वाले समय में शोर और गला फाड़ना ही संगीत का पर्याय बन जाएगा। संगीत का सुरीलापन अब पुरानी बात हो गयी है। सुरीलापन भागदौड़ से नहीं आता उसके लिए पर्याप्त वक़्त और साधना चाहिए। अफ़सोस अब हमारे पास वक़्त ही नहीं है साधना तो बहुत दूर की बात है। अज़ीब सी स्तिथि में हम सब भाग रहे हैं, क्यों ? क्यूंकि हमें बहुत थोड़े वक़्त में बहुत कुछ हासिल करना है और अभी करना है। हमारे पास अपने लिए ही वक़्त नहीं है दूसरे के लिए कहाँ से निकालें ? इसका नतीज़ा आप देख ही रहे हैं, जिस काम को सुकून से करने पर हमें जो ख़ुशी मिलती थी वो अब हासिल नहीं होती। हमारे काम की गुणवत्ता पर असर पड़ा है ,ख़ास तौर पर ललित कलाओं से सम्बंधित कामों पर। 

शायरी भी उनमें से एक है। रातोंरात लोकप्रियता के शिखर को छू लेने की हमारी कामना के चलते जल्दबाज़ी में हम दोयम दर्ज़े की शायरी करने लगे हैं। सोशल मीडिया के विस्फोट का असर ये हो रहा है कि जिस रफ़्तार से नित रोज नए शायर पैदा हो रहे हैं उसी रफ़्तार से वो गुमनामी के अँधेरे में खो रहे हैं। 

हमारे आज के शायर उस पीढ़ी के हैं जब शायरी इबादत की तरह की जाती थी। उस्ताद की जूतियाँ उठाई जाती थीं और एक एक मिसरे पर महीनों काम किया जाता था, बावजूद इसके सालों में वो कोई एक ऐसा शेर कह पाते थे जो लोगों के जेहन में जगह बना ले। उस दौर के शायर अपने दीवान की संख्या की वज़ह से नहीं बल्कि अपने कहे किसी एक शेर और कभी कभी तो सिर्फ एक मिसरे की वज़ह से बरसों लोगों के ज़ेहन में रहते थे।

मैं अंधेरों की कैद से छूटा 
तो उजालों से डर गया साहिब
*
ख़ार पत्थर चटान जैसा वो 
ख़ाक पानी गुलाब जैसा मैं 

कौन से रुख़ चलूँ नहीं मालूम 
हो गया हूंँ हवा का झोंका मैं 
*
मोम कागज़ कपास ऐसा मैं 
धूप शोला ग़ुबार बार ऐसा तू 

क्यों ना ख़ुद में ही ढूंढले सब कुछ
देखता क्या है ऐसे नक़्शा तू
*
सबके चेहरों की किताबें पढ़ चुका 
आरज़ू है एक दिन खुद को पढ़ूँ 

रहना होगा कब तलक गूँगा मुझे 
कब तलक बहरों की नगरी में रहूंँ
*
उसे कर दी वापस तो क्या हो गया 
उसी ने तो दी थी उसी की तो थी
*
आँखें तो आंँखें ही है 
कितना है बारिश का ज़ोर 

फिर सूरज की खूँटी से 
टूटी है किरनों की डोर

जोधपुर के मास्टर सिकंदर शाह 'ख़ुशदिल' के घर समझो शहनाइयाँ सी बजीं जब उनके यहाँ 10 फ़रवरी 1956 को एकलौता बेटा पैदा हुआ। मास्टर साहब ने बड़े प्यार से उसका नाम रक्खा 'सरफ़राज़' याने कि वो जो सम्मानित हो। उन्हें उम्मीद थी कि बेटा पढ़ लिख कर अपना और खानदान का नाम गौरवान्वित करेगा। उनकी उम्मीद पूरी तो हुई लेकिन किसी और वज़ह से। सरफ़राज़ साहब के वालिद जोधपुर से लगभग 80 की मी दूर खारिया मीठापुर गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे। 'सरफ़राज़' का बचपन उसी गाँव की गलियों में खेलते कूदते बीता। उसी स्कूल से जहाँ उनके वालिद साहब पढ़ाते थे सरफ़राज़ की पढाई का आगाज़ हुआ। कक्षा चार तक सब कुछ ठीक था तभी वालिद साहब का ट्रांसफर जोधपुर हो गया तो वो जोधपुर के प्राइमरी स्कूल में दाख़िल हुए और कक्षा पाँच भी पास कर ली। आगे की पढाई के लिए उनका दाखिला उस मिडिल स्कूल में हुआ जिस स्कूल में उनके पिता नहीं पढ़ाते थे। गाँव के स्कूल से पढ़ा बच्चा जोधपुर शहर के मिडिल स्कूल में जा कर बाकी बच्चों से घुलमिल नहीं सका। वालिद भी पहले की तरह उनके साथ स्कूल में नहीं थे। स्कूल में उनकी और किसी ने विशेष ध्यान भी नहीं दिया  इस सब के चलते वो कक्षा छठी क्लास में फेल हो गए। पढाई से मन उचट गया लेकिन वालिद की मर्ज़ी की वजह से अगले साल छठी की परीक्षा फिर से दी और उस में पास हुए। इसी तरह  उसी स्कूल से जैसे तैसे आठवीं तक पढाई भी कर ली। नौवीं कक्षा में उन्होंने जोधपुर के 'महात्मा गांघी स्कूल में दाखिला' लिया। बड़ा स्कूल था मुश्किल पढाई थी भी कोर्स की किताबों में मन नहीं लगता था नतीजा वो नौवीं की वार्षिक परीक्षा में फेल हो गए। फेल होने का कोई अफ़सोस भी उन्हें नहीं हुआ, मज़े की बात ये है कि सरफ़राज़ साहब आज भी अपनी छठी और नवीं क्लास में फेल होने के किस्से जोरदार ठहाके लगाते हुए सुनाते हैं।    

कोर्स की किताबों से जो तालीम हमें स्कूल कॉलेजों में जा कर मिलती है वो बहुत जरूरी है लेकिन जो तालीम हमें ज़िन्दगी की किताब से मिलती है वो सबसे अहम् होती है। मैंने बहुत से पढ़े लिखे बड़ी बड़ी डिग्रीधारी लोगों को ऐसी मूर्खता पूर्ण बातें करते सुना है कि जिसे तथाकथिक महा मूर्ख व्यक्ति भी सुन कर अपना सर पकड़ ले। भले ही सरफ़राज़ साहब ने कोर्स की किताबें नहीं पढ़ीं लेकिन उनकी रूचि पढ़ने में जरूर रही। उन्होंने हिंदी में छपी ढेरों साहित्यिक किताबों और पत्रिकाओं को खूब दिलचस्पी से पढ़ा। 'सारिका' 'धर्मयुग' 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' 'रविवार' 'दिनमान' आदि पत्रिकाओं के वो नियमित पाठक रहे। 

किसे पता था कि नवीं क्लास की परीक्षा में फेल लेकिन ज़िन्दगी की क्लास में पास सरफ़राज़ कभी 'सरफ़राज़ शाकिर' के नाम से शायरी की दुनिया में अपना एक अलग मुकाम बनाएगा और हम उसकी किताब 'बादलों से किरन' की चर्चा अपनी किताबों की दुनिया में करेंगे।   


और तो किसके पीछे मैं जाता 
चल दिया एतबार के पीछे
*
जितने मंजर थे साहिल पर 
सब पानी में उल्टे निकले 
*
मौजें उलट-पुलट उसे करती रही मगर 
तिनका था एक झील में, जो तैरता रहा
*
झलकता है बाहर अंधेरा मेरा 
कोई रोशनी से भरा मुझ में है
*
जुड़ते जुड़ते ही टूट जाता है 
आदमी क्या कोई खिलौना है 

करवटें जिस पर ले रही है हवा 
झील है या कोई बिछौना है
*
न जाने ऐसा किस को ढूंँढ़ना था 
खुद अपने आप को गुम कर दिया हूंँ
*
ख़ामुशी गुफ़्तगू से अच्छी है 
तीर रक्खे रहो कमान के पास
*
अंँधेरा तआक़ुब में मेरे रहा 
मैं काग़ज़ पर लिखता गया रोशनी 
तआक़ुब: पीछा करने में

मेरा घर सुलगता रहा आग में 
कोई देखता रह गया रोशनी

आप ही बतायें यदि चौदह पंद्रह साल के बच्चे को उसका पिता कहे कि 'बेटा क्यूंकि तेरा पढाई लिखाई की तरफ जरा भी रुझान नहीं है इसलिए तेरी पढाई पर कुछ भी खर्च करना बेकार है कल से तेरा स्कूल जाना बंद, अब तू आज़ाद है' तो वो क्या करेगा ? सीधा सा जवाब है -आवारगी। घर का इकलौता लाड़ला बच्चा बेलगाम घोड़े की तरह जोधपुर की सड़कों पर अपने जैसे ही आवारा दोस्तों के साथ सारा सारा दिन इधर उधर घूमता रहता। लोगों ने जब उनके वालिद को इस बारे में समझाया तो उन्होंने सोचा कि लड़के को किसी काम-काज में लगा दिया जाय ताकि इसकी आवारगी भी कम हो और घर में चार पैसे भी आएं। अब आठवीं पास या यूँ कहें कि नवीं फेल बच्चे को कोई अफसर की नौकरी तो देगा नहीं लिहाज़ा उसे कभी पी.डबल्यू डी. में ,कभी वाटर वर्क्स में तो कभी बिजली विभाग में या फिर एयर फ़ोर्स में दिहाड़ी मज़दूर की हैसियत से मजदूरी वाला काम करना पड़ता। एक दिन उन्हें एयर फ़ोर्स में केजुएल वर्कर की नौकरी मिल गयी, तब सरफ़राज़ साहब लगभग बीस साल के होंगे। दो साल बाद उनके काम में दिलचस्पी,लगन और मेहनत की बदौलत याने 1978 में उन्हें मिलिट्री के गैरिसन इंजीनियर ऑफिस में परमानेंट वर्कर की नौकरी मिल गयी। यूँ समझिये कि उनकी लॉटरी खुल गयी क्यूंकि गैरिसन इंजीनियर के ऑफिस की नौकरी सेन्ट्रल गोवेर्मेंट की नौकरी होती है। इस नौकरी के मिलते ही सरफ़राज़ साहब की ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी। ज़िन्दगी में सुकून सा आ गया। यही वो वक़्त था जब वो तुकबंदी करने लगे।

सरफ़राज़ साहब के खून में शायरी के जरासीम या कीटाणु पैदा होते ही आ गए थे क्यों की उनके पिता जनाब 'सिकंदर शाह 'खुशदिल' तो अपनी शायरी की वज़ह से पूरे हलके में मशहूर थे ही उनके दादा और परदादा का भी शायरी में खासा दबदबा रहा था। पुरखों से विरासत में मिले इस गुण का असर उनमें अब दिखाई देने लगा था। डाक्टर का बेटा डाक्टर या वकील का बेटा वकील या अभिनेता का बेटा अभिनेता तो बन सकता है लेकिन शायर का बेटा शायर ही बने ये कम ही देखने में आया है। शायरी किसी को सिखाई नहीं जा सकती ये आपके अंदर होती है। उस्ताद अपनी इस्लाह से उसे तराश सकते हैं बस।

ज़र्द पत्तों को हवाएं छू गईं 
टूटना उनका भी वाजिब हो गया

मैं बहुत बरसा हूंँ बादल की तरह 
और फिर मिट्टी में ग़ाइब हो गया
*
वो एक ख़ुशबू जो अंदर समाई है मेरे 
मैं दर-ब-दर उसे बेकार भागता देखूंँ

वो अपने घर के अज़ीज़ों के साथ रहता है 
मगर कहीं न कहीं उसको गुमशुदा देखूंँ
*
हवा के आगे आगे चल रहा है 
हरिक तिनका मेरे जैसा लगे है
*
ज़माने से तो डर मुझे कुछ न था 
मुझे ख़ोफ़ तो मेरे अंदर का था

निकाली है सूरज ने फिर से ज़बीं 
घना सा अंधेरा तो शब भर का 
*
आप-अपने से डर न जायें कहीं 
ताक़ से आईना हटा लीजे 

खुद से मिलने का रास्ता ढूंँढें 
आप अपनी अना गिरा लीजे 

अकलमंदी इसी में है शाकिर 
जाहिलों से भी मशवरा लीजे

सरफ़राज़ साहब की तुकबंदियों को सुन कर जब उनके दोस्त, अहबाब दाद देने लगे तो उन्हें लगने लगा कि वो एक पुख्ता शायर हो चुके हैं जिनकी ग़ज़लों को कोई भी अखबार या पत्रिका वाले छापने को तैयार हो जाएंगे। इसी ग़लतफहमी के चलते वो एक दिन अपनी एक ग़ज़ल लिए 'जलते दीप' अखबार के दफ़्तर पहुँच गए जहाँ उनके वालिद के तालिबे-इल्म याने शिष्य और उरूज़ के उस्ताद जनाब सुशील व्यास बैठे हुए थे। दोनों एक दूसरे को जानते थे इसलिए सरफ़राज़ साहब ने अखबार के दफ्तर में अपने आने का मक़सद बताते हुए उन्हें अपनी ग़ज़ल दिखाई जिसे देख कर व्यास जी ने कहा 'मियाँ साहबज़ादे क्या मास्टर साहब ने आपको मीटर नहीं सिखलाये ?' 'मीटर ? ये क्या होता है ?' सरफ़राज़ चौंकते हुए बोले। मुस्कुराते हुए व्यास जी ने कहा कि 'बरखुरदार अपने घर जाओ और वालिद से ग़ज़ल का व्याकरण सीखो, जब अच्छे से सीख लो तो ग़ज़ल कहने की कोशिश करना।'

मायूस सरफ़राज़ घर लौटे और अपने वालिद साहब को पूरी दास्तान सुनाई जिसे सुन कर वो बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने समझाया कि शायरी बेकारों-नाकारा क़िस्म के लोगों का काम है शाइर बदनाम, बीमार और लाचार होते हैं। वालिद चाहते थे कि उनका इकलौता बेटा इस झमेले न पड़े लेकिन बेटे के खून में मौजूद शायरी के कीटाणु उसे इस सलाह को न मानने को उकसा रहे थे।बेटे की ज़िद के सामने वालिद ने घुटने टेक दिए और उन्हें ग़ज़ल के उरूज़ की बारीकियाँ समझानी शुरू कर दीं। अपने साथ वो उन्हें मुशायरों में ले जाने लगे ताकि उनकी शायरी की समझ में इज़ाफ़ा हो। धीरे धीरे मुशायरे के आयोजक कभी कभी उनको भी अपना कलाम पढ़ने का मौका देने लगे।

जोधपुर के इस्हाक़िया स्कूल के बाहर 31 दिसंबर 1979 को मुस्लिम यूथ कॉर्नर ने एक शानदार मुशाइरे का आयोजन किया जिसमें सरफ़राज़ साहब भी अपने वालिद साहब शिरक़त के लिए पहुंचे। मुशाइरे की निज़ामत की बागडोर जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब को सौंपी गयी। सरफ़राज़ साहब ने जब अपना नंबर आने पर ग़ज़ल पढ़ी तो निज़ाम साहब उनके वालिद से बोले 'वाह मास्टर सैय्यद सिकंदर शाह खुशदिल को मैं मुबारकबाद पेश करता हूँ कि उनके साहबज़ादे ने उम्दा ग़ज़ल सुना कर दिल खुश कर दिया। खुशदिल साहब जहाँ सोलवीं सत्रहवीं सदी की बातें करते हैं वहां उनके बेटे शाकिर ने इक्कीसवीं सदी की बात कर कमाल कर दिया।मुशाइरे के बाद निज़ाम साहब सरफ़राज़ साहब की पीठ थपथापे हुए बोले बेटे ऐसी कितनी ग़ज़लें हैं तुम्हारे पास उन्हें लेकर मेरे पास आ जाओ। दूसरे दिन सुबह सवेरे सरफ़राज़ साहब के दौलतखाने पहुँच गए। निज़ाम साहब ने उन्हें अपना शागिर्द क़बूल किया और यहाँ से सरफ़राज़ साहब का शेरी सफर शुरू हुआ।

बात बढ़ सकती है शोलों की तरह 
तिनके मत रखो शरर के सामने
*
क्या फलों से भरा हुआ था मैं 
रख दिया उसने क्यूँ हिला के मुझे
*
तेरा हिस्सा हूँ ये तस्लीम, लेकिन 
समंदर में जज़ीरे की तरह हूँ
*
अंधेरों में भटका नहीं था मगर 
वो क्यूँ हो गया है उजालों में गुम 

कोई उसको पहचानेगा किस तरह 
हो पहचान जिस की हवालों में गुम
*
मैं अपने आप में इक घोंसला हूँ
परिंदा मेरे अंदर बोलता है 

उसी को आईना कहते हैं शायद 
वही जो सब के मुंँह पर बोलता है
*
रह गए सब उलट-पुलट हो कर 
लोग सारे किताब लगने लगे 

देखते-देखते बिखर जायें 
घर के बच्चे गुलाब लगने लगे
*
जैसा मैं कल था आज भी वैसा ही हूंँ जनाब 
लौटा हूंँ मैं उधर से ज़माना जिधर गया

निज़ाम साहब ने, जैसे पारस पत्थर लोहे को सोने में बदल देता है वैसे ही, सरफ़राज़ शाह साहब को सरफ़राज़ 'शाकिर' बना दिया। एक बार का ज़िक्र है पद्मश्री कालिदास गुप्ता रिज़ा साहब जिन्होंने ग़ालिब पर ग़ज़ब का काम किया है जोधपुर पधारे। निज़ाम साहब उनसे मिलने 'घूमर' होटल गए और वहाँ शाकिर साहब को भी बुलवा लिया। कालीदास गुप्ता साहब ने शाकिर साहब से कहा कि मियाँ शाकिर आज आप मुझे वो ग़ज़लें सुनाओ जिसे आपके उस्ताद ए  मोहतरम ने न देखा सुना हो। किसी भी शागिर्द के लिए ये मुमकिन नहीं होता कि वो उस्ताद को दिखाए बगैर अपना क़लाम मंज़र-ए-आम पर लाये। सरफ़राज़ साहब सकपकाए और निज़ाम साहब की और देखा,उस्ताद मुस्कुराये और गर्दन हिला कर इजाजत देदी। शाकिर साहब ने अपनी दो ग़ज़लें कालीदास साहब को सुनाईं जिसे सुन कर वो झूमते हुए निज़ाम साहब से बोले कि 'अरे निज़ाम मुबारक़ हो यार 'शाकिर' शायर हो गया।' उस्ताद के सामने किसी के द्वारा शागिर्द की तारीफ़ सुन कर शागिर्द तो खुश होता ही है उस्ताद की छाती भी गर्व से चौड़ी हो जाती है। उस्ताद के लिए उसका शागिर्द उसकी अपनी औलाद से कम हैसियत नहीं रखता। आज के दौर में उस्ताद-शागिर्द की ये परम्परा धीरे धीरे ख़तम होती जा रही है। 

'शाकिर' साहब यूँ तो देश की मशहूर अखबारों रिसालों में छपते रहे हैं मुशायरों में शिरक़त भी करते रहे हैं आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी आते रहे हैं लेकिन बावजूद इसके उन्हें वो मुक़ाम हासिल नहीं हो पाया जिसके वो हक़दार थे। सीधी सादी तबियत के मालिक और हर हाल में खुश रहने की आदत की वजह से वो अपने आपको बाजार में बेचने का हुनर नहीं सीख पाए। वैसे भी मक़बूलियत और मयार का आपस में कोई रिश्ता नहीं है। ऐसे बहुत से शायर हैं जिनकी शायरी में मयार ढूंढें नहीं नहीं मिलता लेकिन वो बहुत मक़बूल हैं। निदा फाज़ली और हबीब कैफ़ी साहब उनकी शायरी के बड़े प्रशंसकों में से रहे हैं।  

आप फुरसत में उनसे उनके मोबाईल न 9649810520 पर संपर्क करें. उनको तो आपसे बात करके ख़ुशी होगी ही आप भी निराश नहीं होंगे। ऐसे सरल मोहब्बत से भरे इंसान जिनके पास आपके लिए हमेशा वक़्त हो आजकल गुफ़्तगू के लिए कहाँ मिलते हैं। ये किताब जिसमें शाकिर साहब की 107 ग़ज़लों के अलावा कुछ लाजवाब दोहे भी हैं सं 2005 में अनुराधा आर्ट्स जोधपुर ने नरेंद्र आडवाणी और अनुराधा आडवाणी के सहयोग से प्रकाशित की थी। अब ये किताब बाजार में उपलब्ब्ध है या नहीं इसकी सूचना आपको सरफ़राज़ साहब ही दे पाएंगे। 

उनका अपना एक यू ट्यूब चैनल भी है जिसे ज़ाहिर है उनके बच्चों ने ही लॉंच किया होगा जिसके एक विडिओ में वो जोधपुर की किसी झील के किनारे पड़े पत्थरों और चट्टानों पर देव आनंद की तरह टोपी पहन कर चलते हुए अपनी शायरी सुनाते नज़र आते हैं। आप देखें और उसका मज़ा लें। विडिओ का लिंक ये रहा https://youtu.be/oOFqFEs4JBM

आखिर में उनके कुछ फुटकर शेर आपको और पढ़वाता चलता हूँ।       

चला हूँ साथ मैं दुनिया के बरसों 
अब अपने साथ चलना चाहता हूंँ 

उतरने दो उतरती है तो सर पर 
मैं कब साये में पलना चाहता हूंँ
*
तुझको लिखता है खुद को पड़ता है 
आदमी बा-कमाल है अल्लाह 

जिंदगी और किसको कहते हैं 
मौसमों की मिसाल है अल्लाह
*
जाने किसने ख़ाक से बांधा मुझे 
खुलने वाला हूंँ हवा सा मैं कोई

मेरे अंदर जंगलों का वास है 
और उसमें क़ाफ़िला सा मैं कोई

शक्ल सूरत हूंँ वगरना हर तरफ़ 
कुछ भी न होता ख़ला सा मैं कोई
*
रोशनी है, तो रोशनी से है 
वरना अंधा मकान है, है क्या 

कायनात तेरी और मेरा वजूद 
नुक्ते का सा निशान है, है क्या
*
रोक मत मुझ को यूंँ ही बहने दे 
थम गया तो निशान छोडूंँगा

28 comments:

चोवा राम "बादल" said...

किताबों की दुनिया में चहलकदमी करने का सुअवसर मिला। बादलों से किरण से मुलाकात करके शुकुन मिला। हार्दिक आभार आपका गोस्वामी जी।

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद चौवाराम भाई

mgtapish said...

सबके चेहरों की किताबें पढ़ चुका
आरज़ू है एक दिन खुद को पढ़ूँ-
ख़ामुशी गुफ़्तगू से अच्छी है
तीर रक्खे रहो कमान के पास-
चला हूँ साथ मैं दुनिया के बरसों
अब अपने साथ चलना चाहता हूंँ -
आप-अपने से डर न जायें कहीं
ताक़ से आईना हटा लीजे -
क्या ख़ूबसूरत अशआर पढ़वाये हैं नीरज जी अपकी लेखनी तो ग़ज़ब है ही ज़िन्दाबाद वाह वाह क्या कहना ज़िन्दाबाद बेहतरीन स्वस्थ रहिये ख़ुश रहिये
मोनी गोपाल 'तपिश'

नीरज गोस्वामी said...

बहुत शुक्रिया मोनी भाई...🙏

Unknown said...

आप का अंदाज बहुत अनूठा है।शायर व उसकी शायरी से आप जिस तरह परिचय कराते हैं वो प्रशसनीय है।आप नव पाठकों में साहित्यिक प्यास जगा रहे हैं।सादर प्रणाम

नीरज गोस्वामी said...

बहुत शुक्रिया जी

मिथिलेश वामनकर said...

अंदाज़-ए-बयाँ आपका जैसे कि गुफ्तगू।
लगता कि जैसे हो गए शायर से रूबरू।

आदरणीय नीरज जी, एक और शानदार शायर और उनकी शायरी से परिचय कराने के लिए आपका हार्दिक आभार। सरफ़राज़ शाकिर साहब की शायरी पढ़कर दिल खुश हो गया और आपने उनकी शायरी को जिस नायाब तरीके से पेश किया, वह भी क़ाबिल-ए-तारीफ है। एक एक शेर से गुजरते हुए शायर से मिलना सुखद अनुभव होता है। सरफ़राज़ साहब खुद को भले ही नौंवी फेल मानते हों लेकिन शायरी में पीएचडी उनके अशआर में झलकती है। उस्ताद शागिर्द वाली बात भी गौर करने लायक है। इस परंपरा का खत्म होना दुखद है। सरफ़राज़ साहब के वालिद साहब ने क्या खूब समझाया कि शायरी बेकारों-नाकारा क़िस्म के लोगों का काम है शाइर बदनाम, बीमार और लाचार होते हैं। हम भी बदनाम, बीमार और लाचार होने की कोशिश में हैं। खैर। इस लाजवाब प्रस्तुति पर आपका हार्दिक आभार और प्रस्तुति की सफलता हेतु आपको हार्दिक बधाई।
सरफ़राज़ साहब ने क्या ही खूब कहा है-
सबके चेहरों की किताबें पढ़ चुका 
आरज़ू है एक दिन खुद को पढ़ूँ ।

सादर।

मिथिलेश वामनकर

प्रदीप कांत said...

बात बढ़ सकती है शोलों की तरह
तिनके मत रखो शरर के सामने

वाह

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद प्रदीप भाई

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद मिथिलेश जी

तिलक राज कपूर said...

साहित्य जगत में यह तो स्थापित तथ्य है मूल्यांकन मात्रा से नहीं गुणवत्ता से होता है और शायरी में यह बात और स्पष्ट हो जाती है जब शेर अमर हो जाते हैं।

वो एक ख़ुशबू जो अंदर समाई है मेरे
मैं दर-ब-दर उसे बेकार भागता देखूंँ

वो अपने घर के अज़ीज़ों के साथ रहता है
मगर कहीं न कहीं उसको गुमशुदा देखूंँ

जैसे शेर रोज-रोज नहीं होते लेकिन जिसने पढ़-सुन लिए उसकी जुबान पर हमेशा के ठहर जाते हैं।
सरफ़राज़ साहब की यह किताब उपलब्ध है तो प्राप्ति में आपकी मदद चाहिये।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया तिलक भाई...अगर सरफ़राज़ साहब से किताब नहीं मिली तो मैं भिजवाऊंगा...🙏

नीरज गोस्वामी said...

सरफ़राज़ शाकिर जी की "बादलों से किरन" पर आपकी ख़ास पारिवारिक ढंग से की गई बातचीत और उनमें से कुछ परंतु विशिष्ट शेरों का चयन सब कुछ हर बार की तरह मेयारी और शायर की एक सच्ची और पूरी बानगी देने में समर्थ।मुझे भी उनसे दो एक गोष्ठियों में मिलने और सुनने का शरफ़ हासिल है।उनकी सरलता जहां उनकी आदमीयत की बानगी पेश करती है वहीं शेरों की एक ख़ास तरह की बुनावट ठहर कर और between the lines पढ़ने की तवक़्क़ो की भी डिमांड करती है।आपकी इस नायाब मगर गुमनाम सी तलाश को नमन।

अखिलेश तिवारी
जयपुर

SATISH said...

Waaaaah waaaaah bahut khoob mohtaram Neeraj Sahib maza aa gaya padhkar ... Ek aur nayaab heere se milwane aur umda ashaar padhwane ke liye aapka haardik aabhar ... Sarfaraaz Sahib ko dili Mubarakbaad ... Raqeeb Lucknowi

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya Satish bhai...

Anonymous said...

बहुत बढ़िया सर
शैलेश सोनी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद शैलेश भाई...

नीरज गोस्वामी said...

वाह ! बहुत ख़ूब लिखा है आपने।एक बेहतरीन शायर से परिचय करवाया है इस बार भी। आप जिस शायर का परिचय करवाते हैं वो तो उम्दा होते ही हैं ,लेकिन आपका परिचय करवाने का अंदाज़ उन्हें एक नया मुकाम देता है, आप जिस तरह से शब्दों को बांधकर, किसी भी शायर के लिए लिखते हैं ,वो अद्भुत है। आपकी लेखनी को नमन करती हूं 🙏😊

योगिता जीनत
जयपुर

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

वाह

Unknown said...

Mohtrim ijjatmaab janab niraj ji .... Bahut umda likha he aapne .... Me aapki shukargujaar hu..... Dili mubarkbaad ..

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya bhai

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya bhai

नीरज गोस्वामी said...

श्री सरफ़राज़ शाकिर के बारे में आप ने बहुत अच्छा मक़ाला तैयार किया है। जोधपुर में शाकिर जी से मेरी अक्सर मुलाक़ात होती रही है। इन के वालिद साहब जनाब सिकन्दर शाह 'ख़ुशदिल' भी अच्छे शाइर थे और ख़ाकसार से बहुत स्नेह रखते थे। कई बार 5 - 6 कि०मी० पैदल ही चल कर मेरे ग़रीबखाने पर मिलने चले आते थे फिर मैं उन्हें छोड़ने उन के यहाँ जाया करता था। शाकिर साहब की बेटी उल्फ़त शाकिर भी छोटी उम्र से ही अच्छी ग़ज़लें कह रही है। मेरे रिसाले - 'मरु गुलशन' में इन दोनों को ही सम्मान के साथ प्रकाशित किया गया है। सरफ़राज़ शाकिर के वालिद साहब के ग़ज़ल संग्रह का इज़्रा भी मैंने ही करवाया था।

अनिल अनवर
जोधपुर

Sarwar shah said...

Neeraj sir Aapka bahut shukriya jis behtreen andaz se aapne papa ki shayari ke bare mai samiksha ki h utne aache se kisi ne nahi ki,aur bahut acche se inko samjha gya
Bhahut shukriya

नीरज गोस्वामी said...

Sarbhai bhai aapke papa hain hi is laayak ki unki tareef ki jaay...Mujhe khushi hai ki logon ne unki shayri ko bahut pasand kiya hai...

नीरज गोस्वामी said...

बहुत ही बढिया आलेख नीरज जी। पहली बार इनका नाम सुना और इन्हें पढकर बहुत अच्छा लगा। ख़ूबसूरत शायरी है और रोज के हक़ीकी जीवन के अशार लिखे हैं! शुक्रिया बहुत इस तोहफ़े के लिये।

Pooja Anil
Spain
Europe

Unknown said...

अभी पढ़ा...जिस तरह से सरफ़राज़ साहब के बारे में और उनके कुछ अशआर आपने यहां प्रस्तुत किये.. उससे पूरी तरह उन्हें व उनकी शायरी का मिजाज़ जानने का मौका मिला..बेहतरीन अशआर पढ़कर आज का दिन बन गया... बहुत धन्यवाद आपका..ममता किरण

Anonymous said...

मौसम के घर ये कौनसे मेहमान आ गये
देहलीज़ पर उतारी हैं पत्तों की चप्पलें
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खूबसूरत आग़ाज़ के साथ ये अंक भी ...
बधाई सर जी ।
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उमेश मौर्य