दर्द जाएगा तो कुछ-कुछ जाएगा पर देखना
चैन जब जाएगा तो सारा का सारा जाएगा
*
हमसे एक एक शेर लेकर हमको ख़ाली कर दिया
और ग़ज़ल ने कर लिया भरपूर अपने आप को
ज़ुल्म का मौसम था और तक़रीर आती थी मुझे
दो ही दिन में कर लिया मशहूर अपने आप को
*
हालात ना बदलें तो इसी बात पे रोना
बदलें तो बदलते हुए हालात पे रोना
*
इस सर की ज़रूरत कभी उस सर की ज़रूरत
पूरी नहीं होती मेरे पत्थर की ज़रूरत
*
इतना पता है बस कि हमारे लिए नहीं
किसके लिए है सारा जहाँ कुछ नहीं पता
*
बात यह है कि मसाइल तो वहांँ नीचे हैं
और मुलाक़ात हुआ करती है रब से ऊपर
मसाइल :समस्याएं
*
आलिमाना ये बयाँ ज़ुल्म का अच्छा है मगर
ख़त्म होगा कि नहीं साफ बताओ उस्ताद
आलिमाना: विद्वानों के ढंग से
काम इसका भी नहीं चलता दिवानों के बग़ैर
लो बहार आ गई फिर हाथ मिलाओ उस्ताद
*
सितम को देखते रहना सितम से कम नहीं होता
मेरा दावा है कि क़ातिल गवाहों में भी होते हैं
इण्डिया टुडे के अक्टूबर 1977 अंक में, श्रीमती इंदिरा गाँधी की जनता सरकार के कार्यकाल में हुई गिरफ़्तारी की बहुत दिलचस्प कहानी छपी थी। पूरी कहानी यहाँ देने का कोई मतलब नहीं है क्यूंकि उस कहानी का ग़ज़लों से कोई लेनादेना नहीं है तो फिर उस कहानी का ज़िक्र ही क्यों ? कारण बताते हैं, हुआ ये कि मोरारजी देसाई जी की केबिनेट के गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह जो इंदिरा जी की गिरफ़्तारी के विचार से खुश नहीं थे तब के कद्दावर नेताओं के दबाव में आ गए। ये नेता चाहते थे कि इंदिरा जी की गिरफ़्तारी हर हाल में हो। पुलिस द्वारा गुपचुप जो एफ आई आर इंदिरा जी के ख़िलाफ़ दर्ज़ की गयी थी उसे पढ़ कर चौधरी जी भड़क गए क्यूंकि उसमें गिरफ़्तारी के लिए दिए गए कारण ठोस नहीं थे। चौधरी साहब चाहते थे कि इस अत्यधिक संवेदनशील गिरफ़्तारी को अंजाम देने के लिए बहुत कुशल पुलिस अधिकारी का चुनाव होना चाहिए। लिहाज़ा उन्होंने दिल्ली के सभी उच्च अधिकारीयों की लिस्ट और उनकी कार्य कुशलता की रिपोर्ट मंगवाई। गहरे चिंतन-मनन के बाद इस काम के लिए दो पुलिस अधिकारी चुने गए जिनकी देखरेख में ये कार्यवाही होनी थी। इन दो
आई.पी.एस
अधिकारीयों में से एक थे जनाब 'असद फ़ारूक़ी' और दूसरे हमारे आज के शायर।
है न मज़े की बात कहाँ पुलिस की नौकरी और कहाँ शायरी ? दोनों में कोई ताल-मेल है ही नहीं। शायरी दिल से होती है और उसके लिए व्यक्ति का संवेदनशील होना लाज़मी है। पुलिस के लोग अगर शायर की तरह संवेदनशील हो जाएँ तो मुज़रिम के ख़िलाफ़ डंडा या गोली चलाने से पहले हज़ार बार उसके और उसके परिवार वालों के बारे में सोचने लगें। पुलिस में जहाँ तक मैं समझता हूँ आर्डर की तामील करना ही पहला फ़र्ज़ होता है, उसके अंजाम के बारे में सोचना नहीं। खैर ! तो हमारे आज के शायर जब अपनी संवेदनाओं और पुलिस की नौकरी में ताल-मेल बिठाने में क़ामयाब नहीं हुए तो अपनी सालों की रुतबेदार नौकरी और उससे कमाई प्रतिष्ठा को त्याग कर पूरी तरह से शायरी में डूब गए। शायरी के लिए ऐसी शानदार पुलिस की सरकारी नौकरी को छोड़ने वाले बिरले ही हुए होंगे। दिमाग़ पर दिल की जीत की ये बेहतरीन मिसाल है।
बदन बदन से और लबों से लब मिलते हैं
इससे ज़्यादा हम तुमसे भी कब मिलते हैं
फुरकत में तो हरदम साम्ने रहते हैं वो
पर गायब हो जाते हैं जब जब मिलते हैं
*
एक नहीं सब मंजर देख
बाहर क्या है अंदर देख
और निकल शीशा बन कर
ले वो आया पत्थर देख
यूं तकना बदज़ौक़ी है
चांद को छत पर चढ़कर देख
बदज़ौक़ी: बेढंगापन
*
जो ज़िन्दा हो उसे तो मार देते हैं यहाँ वाले
जो मरना चाहता हो उसको जिन्दा छोड़ देते हैं
क़लम में जोर जितना है जुदाई की बदौलत है
मिलन के बाद लिखने वाले लिखना छोड़ देते हैं
कभी सैराब कर जाता है खाली अब्र का मंजर
कभी सावन बरस कर भी प्यासा छोड़ देते हैं
सैराब: पानी से तर , अब्र: बादल
*
अपने अल्लाह से हो जब शिकवा
सबके अल्लाह को पुकारा कर
*
फक़ीरे शहर सीधा मत खड़ा हो
अमीरे शहर छोटा लग रहा है
पुरानी दिल्ली-6 के रोद ग्रान स्ट्रीट बाज़ार लालकुआँ इलाक़े में 24 दिसंबर 1948 को 'आमिर हुसैन' साहब के यहाँ पैदा हुए जनाब 'शुजाउद्दीन साज़िद' बचपन से ही पढाई में बहुत होशियार रहे। शुजाउद्दीन ने अपनी पहली ग़ज़ल 1964 में कही। पोस्ट 'ग्रेजुएशन के बाद कुछ साल बतौर लेक्चरार दिल्ली यूनिवर्सिटी के दिल्ली कॉलेज में अंग्रेजी विषय पढ़ाया और फिर आई.पी.एस की परीक्षा दी, पास हुए और दिल्ली पुलिस के अधिकारी बने। सन 1994 के किसी एक दिन, अचानक, दिल के हाथों मज़बूर हो कर आई.पी.एस अधिकारी शुजाउद्दीन साज़िद' साहब ने पुलिस महकमे को हमेशा के लिए अलविदा कह अपनी 30 साल पुरानी मेहबूबा 'उर्दू शायरी' की बाहों में पनाह ली, कहते हैं न 'मन लागा यार फ़कीरी में' और वो मुक़म्मल तौर पर शायर 'शुजा ख़ावर' में तब्दील हो गए। इस बात को देखिये किस ख़ूबसूरती से उन्होंने अपने एक शेर में बयाँ किया है - कहते हैं "थोड़ा सा बदल जाये तो बस ताज हो और तख़्त , इस दिल का मगर क्या करें सुनता नहीं कमबख़्त " शायरी ने उन्हें और उन्होंने सब कुछ छोड़ कर शायरी को अपना लिया। ये एक शायर के पुलिस की ख़ाकी वर्दी के पहनने और फिर उसे हमेशा के लिए उतार कर वापस शायर बन जाने की कहानी है। .
आज हम उनकी हिंदी में छपी किताब 'बात' अपने सामने ले कर बैठे हैं। नहीं नहीं ,हाथ में लेकर नहीं अपने लैपटॉप पर क्यूंकि 1993 में 'सिराज दर्पण' द्वारा प्रकाशित ये किताब अब या तो किसी शायरी के दीवाने के पास से लेकर या किसी लाइब्रेरी में या फिर रेख़्ता की साइट पर ही पढ़ी जा सकती है। पहले दो ऑप्शन छोड़ कर हमने रेख़्ता की साइट का दामन थामा है। किताबों की दुनिया की इस लम्बी श्रृंखला में ये पहला मौका है जब हम उस किताब की बात कर रहे हैं जो हाथ में पकड़ी हुई नहीं है। काश कभी ये किताब फिर से बाजार में आसानी से सबको मिले। 'आमीन' कहें।
मात्र 178 पेज की इस किताब में 'शुजा ख़ावर' साहब की छोटी बड़ी 151 ग़ज़लें संकलित हैं जिन्हें एक बार पढ़ के छोड़ देना ना इंसाफ़ी होगी। अधिकतर ग़ज़लें आपको उन्हें बार बार पढ़ने पर मज़बूर करेंगी।
इसी पर खुश हैं कि एक दूसरे के साथ रहते हैं
अभी तन्हाई का मतलब नहीं समझे हैं घरवाले
*
न पूरी हो सकी जो आरजू अब तक वो कहती है
जो पूरी हो गई उस आरजू से कुछ नहीं होगा
*
ज़रा सोचो तो तन्हाई का मतलब जान जाओगे
अगरचे देखने में कोई भी तन्हा नहीं लगता
मजे की बात है दुनिया मुझे मुर्दा समझती है
मुझे अपने अलावा कोई भी जिंदा नहीं लगता
*
यार क्या बेताबियां रहती थी हमको विन दिनों
और अब हम सांस ले सकते हैं तेरे बिन, दिनों
उससे थोड़ी देर को भी गुफ्तगू हो तो मियां
बात अपने आप से होती नहीं मुमकिन, दिनों
*
यह कोई मेहरबानी नहीं तंज है तायरों
अब तो सय्याद पर भी कतरना नहीं चाहता
तायरों: पक्षियो ं
खूब है कशमकश खामोशी और इज़हार की
झील जो चाहती है वह झरना नहीं चाहता
*
सर झुका कर हाथ फैला कर ज़बाने काटकर
जिंदा रहने वाले- किस्सा मुख्तसर- जिंदा रहे
*
पहले कहते हैं कि सब कुछ कब्ज़ाए कुदरत में है
फिर यह कहते हैं कि हमने यूँ किया और वूँ किया
शुजा खावर ने शायरी शुरू तो 1964 में की लेकिन उन्हें पहचान मिली तब जब उन्होंने सं 1967 में आकाशवाणी ऑल इण्डिया रेडियो के स्वाधीनता सम्बंधित वार्षिक मुशायरे में सबसे कम उम्र वाले शायर के तौर पर श्री रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी के साथ अपनी शायरी पढ़ी। उस वक़्त फ़िराक़ साहब के साथ पढ़ने वाले बाक़ी शायर भारत की स्वाधीनता से बहुत पहले के जन्मे हुए थे, अकेले शुजा थे जिनका जन्म भारत के स्वाधीन होने के बाद हुआ था।
शुजा साहब को उनका ही एक शेर मुकम्मल तौर पर बयाँ करता है - फरमाते हैं कि 'पहुँचा हुज़ूर-ए-शाह हर एक रंग का फ़क़ीर , पहुँचा नहीं जो था वही पहुँचा हुआ
फ़क़ीर
'। उन्हें दिल्ली का कलंदर शायर इसीलिए कहा जाता है कि उन्होंने ज़िन्दगी में कभी किसी चीज़ की परवाह नहीं की न दाम की न नाम की। शुजा चाहते तो ज़िन्दगी में बड़ी आसानी से नाम और दाम दोनों भरपूर कमा सकते थे लेकिन उन्हें अपने उसूलों से समझौता मंज़ूर नहीं था। 'हालत उसे दिल की न दिखाई न बयाँ की , खैर उसने न की बात तो हमने भी कहाँ की ' जैसे शेर कहने वाले शुजा साहब ग़ज़ब के खुद्दार इंसान थे, जब तक जिये अपनी शर्तों पे जिये।
हो गया इस बात पर सब मुंसिफ़ों में इत्तेफ़ाक़
मैं लगा पत्थर को पहले फिर मुझे पत्थर लगा
*
इस तरह खामोश रहने से तो यह मिट जाएगा
सोचिए इस शहर के बारे में बलके बोलिए
*
हर एक शै मिल गई है ढूंढने पर
सुकूँ जाने किधर रख़्खा हुआ है
मेरे हालात को बस यूँ समझ लो
परिंदे पर शजर रख़्ख़ा हुआ है
*
क्या जरा सी बात का शिकवा करें
शुक्रिये से उसको शर्मिंदा करें
*
यहां वहां की बुलंदी में शान थोड़ी है
पहाड़ कुछ भी सही आसमान थोड़ी है
मिले बिना कोई रुत हमसे जा नहीं सकती
हमारे सर पे कोई साइबान थोड़ी है
साइबान: सर पर छाया
*
मैं बेरुख़ी की शिकायत करूं भी क्या उससे
जो मुझ को गौर से देखें तो दम निकलता है
*
हर एक खूबी नजर आ गई तुम्हारे में
कमी बस एक यही रह गई हमारे में
*
कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अंदर से शुजा
और अगर बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा
शुजा ख़ावर साहब की दस ग़ज़लों को जनाब 'तुफ़ैल चतुर्वेदी' साहब ने पत्रिका 'लफ़्ज़' के सितम्बर-ऑक्टूबर 2012 अंकों में छापा था। वो शुजा साहब के बारे में लिखते हैं कि 'ग़ज़ल की परंपरागत कहन में दिल्ली की गलियों,कारख़ानों में बोली जाने वाली जबान, मुहावरे, तू-तड़ाक, फक्कडपन शुजाअ खावर साहब ने इस ख़ूबसूरती से घोले कि नीची नज़र से देखी जाने वाली ये बोली ग़ज़ल का हिस्सा बन गयी और शुजाअ खावर ग़ज़ल के दरबार में अमर हो गये. दिल्ली और लखनऊ के उसूलों के बीच बंटी और उन्हें मानने के लिए बाध्य उर्दू, उसके हमलावर दस्तों की मौजूदगी में जिस ज़बान और लहजे पर शुजाअ क़ायम और साबित-क़दम रहे उसे सिर्फ दीदादिलेरी और हेकड़ी का नाम दिया जा सकता है.ज़ाहिर है मेरे ये अल्फाज़ शालीन नहीं कहे जा सकते मगर क्या कीजिये की शुजाअ इसी वज़अ पर क़ायम रहे और इसी राह पर चले. यही वो लोग हैं जिन्होंने प्रगतिशीलता की धूल-ग़ुबार को साफ़ किया. शुजाअ खावर साहब और अमीर क़ज़िलबाश साहब ग़ज़ल के सबसे बड़े स्कूल दिल्ली के आख़िरी उस्तादों में से थे. ये सफ़ अपने इन चराग़ों के साथ ख़त्म हो गयी. शुजाअ खावर साहब दिल्ली की करखंदारी बोली की चाट के साथ ग़ज़ल की ज़बान में इज़ाफ़ा करते हैं ।'
लफ़्ज़ के इन्हीं अंकों में ग़ज़ल की बारीकियों के उस्ताद, शायर 'मयंक अवस्थी' साहब ने लिखा है "शुजा ख़ावर साहब की गज़लें अपनी इंफिरादियत और अविस्मरणीय शैली के कारण एक बार पढ कर नहीं भूली जा सकती।जैसे बंग्ला के लेखक शरत्चन्द चट्टोपाध्याय को ” आवारा मसीहा” कहा जाता है-क्योंकि उनके पात्रों को आम आदमी खुद में तलाश लेता है और उनके साथ खुद को हम आहंग कर लेता है वैसे ही –शुजाअ साहब की ग़ज़ल को सामईन का हर तबका खुद में से निकलता हुआ देख सकता है — ज़बान के इतना नज़दीक और दिल के इतना नज़दीक बयान देना कमाल का काम है। शुजाअ साहब के पास जो ताज़गी और प्रभाव है उससे बाहर रह कर उनको नहीं पढा जा सकता — हर शेर अजब रंग ले कर आता है और दिल पर जादू कर जाता है — पाठकों और सामईन के लिये तो ये तेवर खासे असरदार हैं ही लेकिन ग़ज़ल के विध्यार्थी के लिये यह शाइर एक समन्दर से कम नहीं जिसकी गहराई नापने में बडे से बड़ा शिनावर भी असहज हो जाता है –सवाल यही है कि क्या इतनी क्रियेटिविटी किसी के पास हो सकती है??!! कि हर शेर नया कह सके — लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या — जिस साहस और जिस अधिकार के साथ वो नया शेर कहते हैं उससे इस शाइर के लिये अपार श्रध्धा मन में उमड़ती है ।"
आज के दौर के नौजवान शायर जनाब सौरभ शेखर साहब ने लफ़्ज़ के इन अंकों में कमेंट करते हुए लिखा कि 'शुज़ाअ साहब की शायरी से गुजरना एक आदमकद इंसान से बावस्ता होना है;बड़े दिलवाला;एक गैरमामूली कलमदस्त जो मामूली चीज़ों पर एक अलग ज़ाविये से निगाह डाल कर उसके अनदेखे पहलू सामने ला कर धर देते हैं'।
घर भी महफिल भी बस्ती भी
तन्हाई के नाम बहुत हैं
अंदर अंदर बेकारी है
बाहर बाहर काम बहुत है
*
सरसरी अंदाज़ से देखो तो महफिल रंग में है
गौर से देखो तो एक एक आदमी तन्हा लगेगा
*
वो रास्ते मिलें जो मंजिलों से भी अज़ीम हों
कभी उठा कर देखिए तो एक-दो कदम ग़लत
*
सोचना हो तो बस सोचिए उम्र भर
देखने में तो हर आदमी ठीक है
*
यूँ टूटना वैसे तो अच्छा नहीं होता है
अब टूट गए हो तो हर सम्त बिखर जाओ
*
यहां पर ठीक है बाहर से बे-हिस ही बने रहना
मगर अंदर की है बात और अंदर से सजे रहना
मुसीबत तो तब आती है जब अपनी बात कहनी हो
बगरना सहल है औरों के मौक़फ़ पर जमे रहना
मौक़फ़: मत
बहुत से दोस्तों के चेहरे घर बैठे नज़र आए
बड़ा अच्छा रहा दुश्मन के घर के सामने रहना
*
ज़रूरत सख़्त इक पत्थर की है शीशों की बस्ती में
ज़रा मालूम तो हो क्या इरादा अपने सर का है
इस क़िताब में शुजा साहब की शायरी के बारे में हिंदी उर्दू के विद्वानों ने जो कहा है उनमें से कुछ के कमेंट्स संक्षेप में यूँ है :
जोगेंद्रपाल
गोया पतलून की जेब में हाथ डालकर सीटियां बजाते हुए गहरी और फ़लसफ़ाना बातें कह जाना, ये शुजा ख़ावर का खास स्टाइल है।
कमलेश्वर:
शुजा की ग़ज़लें मुझे, मेरे लेखन और मेरे वक्त को निजी और गहरी पहचान देती हैं ।ये ग़ज़लें आसान हैं, आम फ़हम हैं, आदमी की आशाओं, निराशाओं और चिंताओं से जुड़ी हुई हैं ।इन्हें पढ़ा जा सकता है, सुना जा सकता है, गुनगुनाया जा सकता है और ज़रूरत पड़ने पर चाबुक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है ।ये ग़ज़लें हमारे अंदर की शोर और बाहर की बेचैनी को बड़े ज़ाती और कलात्मक अंदाज़ से पेश कर देती हैं।
ज़ोय अनसारी
शुजा ख़ावर अपने शेरों में बातचीत और आम से मुहावरे में फ़लसफ़े की जो पुट मिला देते हैं वो ख़ास उन्हीं का बिल्कुल अपना नुस्खा है जो अब तक किसी के हाथ नहीं लगा ।उनके बुजुर्गों और उनके अपने जमाने के लोगों में से किसी ने यह बात इस ढंग से नहीं कही थी।
प्रोफेसर मोहम्मद हसन
शुजा ख़ावर का असली कसरनामा ये है कि उनके अधिकतर अशआर तशबीह याने उपमा व इस्तआरे की बैसाखी के बग़ैर खड़े हैं ।शायद फिराक़ गोरखपुरी के बाद वो तन्हा ग़ज़ल गो शायर हैं जिसने सीधी-सादी वारदात को कैफियत में ढाल दिया है। शुजा ख़ावर की शायरी को मानूस अजनबियतों यह( जाना पहचाना अनजाना पन )की शायरी कहा जा सकता है। हर लफ्ज़ मानूस जाना पहचाना है मगर शुजा ख़ावर को कुछ ऐसा गुर याद है कि यही मानूस जाने पहचाने अल्फाज़ अनोखे बांके, अजनबी से हो जाते हैं।
प्रोफेसर गोपीचंद नारंग
जानी पहचानी बातों से परहेज करते हुए शुजा ख़ावर की शायरी का एक ख़ास अंदाज़ है ।इस शायरी में गहरी मानवियत है ।उनकी ग़ज़ल का लहजा बहुत अधिक बे-तकल्लुफ़, ग़ैर रस्मी और व्यक्तिगत है जो ग़ज़ल में अपने डिक्शन के साथ आया है । अपने तमाम हमअसरों से अलग हटकर एक राह बना लेना बहुत मुश्किल काम होता है जो ख़ावर साहब ने बखूबी किया है।
सितारे चांद सूरज आसमां सब खैरियत से हैं
वहां कुछ भी नहीं होता यहां पर मर रहे हैं लोग
*
कुछ नहीं होता किताबों पे किताबें लिख दो
अगले वक्तों में तो दो लफ्ज़ असर रखते थे
अगले वक्तों: प्राचीन समय
*
तन्हाई का एक और मज़ा लूट रहा हूं
मेहमान मेरे घर में बहुत आए हुए हैं
क्या रखा है इस हलक़ये अहबाब में लेकिन
हम तुमसे न मिलने की कसम खाए हुए हैं
हलक़ये अहबाब: दोस्तों का समूह
*
अपनी ख़लवत में तेरी बज़्म सजाने के बाद
फिर तेरी बज़्म में ख़लवत को तलब करता हूं
ख़लवत: एकांत
*
फुर्सत मिले तो दिन के अंधेरों की सोचिए
तारीकियां तो रोज ही आएंगी शब के साथ
तारीकिया :अंधकार , शब :रात
*
दिल खोल कर ना रोए तो जल जाओगे मियां
गर्मी को तेज करती है बरसात की कमी
*
ग़रक़ाब एक जाम में सब आंसुओं को कर
दरिया तमाम एक समंदर में डाल दे
ग़रक़ाब: डुबोना
*
वाइज़ भी जब से पीने लगा मेरे साथ साथ
बाक़ी नहीं रही कोई लज़्ज़त गुनाह में
*
खूब जाहिल हूंँ के पढ़ता हूँ फ़क़त चेहरों को
गो कुतुब खाने में रखी है किताब एक से एक
कुतुबखाना: पुस्तकालय
हिंदी के एक बड़े शायर हुए हैं -शमशेर बहादुर सिंह, उनकी बड़ी मशहूर पंक्ति है 'बात बोलेगी हम नहीं" । शुजा साहब के यहाँ ये खूबी है कि उनके यहाँ बात बोलती है और वे उसकी ओट में खड़े रहते हैं।
शुजा साहब को क़ौम की ख़िदमत करने का जूनून था शायद इसीलिए वो सं 1994 में राजनीति में आ गए। 'भारतीय जनता पार्टी' ये सोच कर चुनी कि वो इस पार्टी और देश के मुसलामानों के दरम्यान एक पुल का काम करेंगे। उन्हें एक दूसरे के पास लाएंगे। उनकी इस पहल का जहाँ स्वागत किया गया वहीँ उनके कुछ अपने उनसे ख़ासे नाराज़ भी हो गए। जल्द ही शुजा साहब को समझ में आ गया कि एक हस्सास शायर के लिए राजनीति में सफल होना कितना मुश्किल काम है और उन्होंने पॉलिटिक्स से किनारा कर लिया। इसके कुछ समय बाद उन्हें फालिज हुआ और वो बरसों बिस्तर पर रहे।
फालिज से उबरने के बाद वो फिर से शायरी में सक्रिय हुए लेकिन तब तक मुशायरों का निज़ाम बदल चुका था। धड़ेबंदी का बोलबाला था। एक धड़े से जुड़ने के वाले को दूसरे धड़े वाले हिक़ारत की नज़र से देखते थे। टाँग खिचाई का जलवा था और संजीदा शायरी कहीं कोने में पड़ी सुबक रही थी। ऐसे माहौल से शुजा जैसे कलंदर शायर को तालमेल बिठाना मुश्किल लगा। वो धीरे धीरे मुशायरों से दूर होते हुए चुप से हो गए।
इस चुप्पी ने शुजा साहब के दिल पर गहरा असर किया आखिर 21 जनवरी 2012 याने मात्र 64 वर्ष की उम्र में दिल के एक जबरदस्त दौरे ने उनकी रूह को जिस्म से आज़ाद कर दिया। दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार जनाब नुसरत ज़हीर साहब ने रोज़नामा सहारा में उन्हें खीरादे अक़ीदत पेश करते हुए लिखा 'मियाँ ..दिल्ली ख़ामोश हो गयी' । इंतकाल के बाद बहुत से उन अदबी इदारों ने भी शुजा साहब की याद में कार्यक्रम किये जिन्होंने उन्हें जीते जी कभी याद नहीं किया था। उर्दू वालों से उन्हें वो मक़ाम कभी नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे। हिंदी वाले तो शायद उनके नाम से आज भी अच्छे से वाकिफ़ नहीं हैं। शायद हर सच्चे, अच्छे और ख़ुद्दार इंसान का यही अंजाम होता है। ख़ैर !! आप यू ट्यूब पर दुबई में सं 1993 में हुए जश्न-ऐ-जगन्नाथ मुशायरे के दौरान उन्हें एक वीडियो में पढ़ते हुए सुनें और फिर अफ़सोस इस बात करें कि इस खूबसूरत शायर के साथ ऊपर वाले ने भी इन्साफ़ नहीं किया
आखिर में आपके लिए उनकी ग़ज़लों के कुछ शेर और पेश हैं :- मेरी गुज़ारिश है कि आप थोड़ा वक़्त निकल कर शुजा साहब को रेख़्ता की साइट पर पढ़िए और उर्दू शायरी के इस नए अंदाज़ पे वारी वारी जाइये :-
ये कोई बताता नहीं हमको कि करें क्या
घर से तो चले आते हैं बाज़ार की जानिब
बाज़ार में ये सोचते फिरते हैं कि लें क्या
जिस्मानी ताल्लुक़ पे यह शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इससे हमें क्या
*
दुकानें शहर में सारी नई थीं
हमें सब कुछ पुराना चाहिए था
*
प्यास का सुख और पानी का दुख
जोड़ कर देखो कितना बैठा
जो चाहिए हमें वो नहीं है किसी के पास
जो सबके पास है वो हमें चाहिए नहीं
रिश्ते बनाये हमने भी कैसे नये-नये
क्या-क्या क़दम उठाये तेरी याद के ख़िलाफ़
मिट्टी था, किसने चाक पे रख कर घुमा दिया
वो कौन हाथ था कि जो चाहा बना दिया।
37 comments:
बधाई नीरज जी इस शानदार मज़मून के लिए
आप कमाल हैं वाकई
Regards
आपकी ग़ज़ल के प्रति दिलचस्पी और किताबों की समीक्षा का अंदाज़ अनुपम है। शुजा ख़ावर साहब की शख्सियत और शायरी से बेहतरीन तरीके से रूबरू कराने के लिए धन्यवाद।
मिट्टी था, किसने चाक पे रख कर घुमा दिया
वो कौन हाथ था कि जो चाहा बना दिया।
जिस्मानी ताल्लुक़ पे यह शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इससे हमें क्या
*
दुकानें शहर में सारी नई थीं
हमें सब कुछ पुराना चाहिए था
*
प्यास का सुख और पानी का दुख
जोड़ कर देखो कितना बैठा
जो चाहिए हमें वो नहीं है किसी के पास
जो सबके पास है वो हमें चाहिए नहीं
रिश्ते बनाये हमने भी कैसे नये-नये
क्या-क्या क़दम उठाये तेरी याद के ख़िलाफ़
आप भी क्या कमाल करते हैं
वाक़ई बेमिसाल करते हैं
पेश करते है जब शुजा ख़ावर
मौसमे-दिल बहाल करते हैं
बहुत शुक्रिया ! शुजा ख़ावर से रूबरू करने के लिए
आपके आर्टिकल पढ़ कर जी कहता है काश! हम भी ऐसे ज़िंदा अशआर कह पाते
लव यू
Bahut umda Shari sir
Rekhta par zaroor padhungi
Aap ki har post SE bahut kuchh seekhne ko milta hai
Jise bhi Shayri SE shiddat SE pyaar hai wo
Yaqeenan Aapke blog SE Jude rehna chahenge
Itna dilchasp post HOTA hai ki padhte waqt Lagta hai ki aur pasha jaaye is shayr ko
Sadhuwad sir
धन्यवाद विजेंदर भाई...आपके कमेंट से हौसला मिलता है।
श्याम भाई शुक्रिया
शुक्रिया रमेश भाई...
Thankyou Rashmi ji
हो गया इस बात पर सब मुंसिफ़ों में इत्तेफ़ाक़
मैं लगा पत्थर को पहले फिर मुझे पत्थर लगा
*
इस तरह खामोश रहने से तो यह मिट जाएगा
सोचिए इस शहर के बारे में बलके बोलिए
*
हर एक शै मिल गई है ढूंढने पर
सुकूँ जाने किधर रख़्खा हुआ है
मेरे हालात को बस यूँ समझ लो
परिंदे पर शजर रख़्ख़ा हुआ है
*
यहां वहां की बुलंदी में शान थोड़ी है
पहाड़ कुछ भी सही आसमान थोड़ी है
मिले बिना कोई रुत हमसे जा नहीं सकती
हमारे सर पे कोई साइबान थोड़ी है
साइबान: सर पर छाया
*
मैं बेरुख़ी की शिकायत करूं भी क्या उससे
जो मुझ को गौर से देखें तो दम निकलता है
*
हर एक खूबी नजर आ गई तुम्हारे में
कमी बस एक यही रह गई हमारे में
*
कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अंदर से शुजा
और अगर बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा
हर शेर उम्दा। अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए, विचार-प्रवाह को शब्द-प्रवाह की तलाश रहती है और मिलते ही ऐसे शेर निकलते हैं। अफसोसनाक है एक उम्दा शायर का 64 वर्ष की अल्पायु में चला जाना।
एक उत्कृष्ट योद्धा, योद्धा ही रहेगा चाहे वो पश्चिम का हो या पूर्व का, उत्तर का हो या दक्षिण का। शुजा ख़़ावर शाइरी में भी उत्कृष्ट योद्धा ही रहे। उन्हें और आपके क़लम को सलाम और हार्दिक बधाई!
हयाती की ग़ज़ल कहना ज़रूरी है
असीरों की हिफाज़त भी ज़रूरी है
आपको पुनः बधाई !
हर बार की तरह लाजवाब
किताबों की दुनिया 236
"बात"शायर शुजा ख़ावर
नीरज गोस्वामी जी के ब्लॉग तुझको रखे राम तुझ को अल्लाह रक्खे दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे। नीरज जी आज अपने ब्लॉग में एक शायर और कलंदर को पेश किया है जिसे लोग शुजा ख़ावर के नाम से जानते हैं। मुझे ठीक से तो याद नहीं सन 1998या इस के आस पास, लुधियाना में जशने साहिर के मौक़ा पर तशरीफ़ लाए और दो शेरों की बदौलत मुशायरा लूट लिया वो शेर ये थे।
१'मज़े की बात है दुनिया मुझे मुर्दा समझती है
मुझे अपने अलावा कोई भी ज़िंदा नहीं लगता'
२कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अंदर से'शुजा'
और अगर बोला तो फिर बाहर से मर जाएगा'।
ये शेर एक कलंदर ही कह सकता है।एक बेदार शायर ,जिसे शौहरत और दौलत अपने बस में न कर सकीं। पुलिस के बड़े ओहदे से अपने को अलग कर लिया, ज़िन्दगी में शायरी और तबीयतन फ़कीरी को तरजीह दी मुक्तसर इतना ही काफी है बाकी सब कहानीयां हैं। नीरज जी को इस नेक काम के लिए दिली मुबारकबाद पेश करता हूं।
सागर सियालकोटी
लुधियाना
धन्यवाद कविता जी
धन्यवाद तिलक जी
हौंसला अफ़जाही के लिए शुक्रिया कपूर साहब
Sarahneey kary
धन्यवाद शैलेश भाई
बहुत ख़ूब शानदार
ज़ाकिर अदीब बीकानेर
धन्यवाद ज़ाकिर भाई
मेरे पसंदीदा और बहुप्रतीक्षित शायर पर आपके क़लम से कुछ निकलेगा तो वह विशिष्ट ही होगा।शुजा साहब का विशिष्ट लबो लहज़ा ज़बान की चुस्ती लफ़्ज़ों का रखरखाव सभी कुछ बेमिसाल है।'बात' की बात ही अलग है सबसे पहले स्वर्गीय प्रदीप चौबे के पास देखी थी ये किताब।तबसे कोशिश कर रहा हूँ हासिल नहीं हो सकी।क्या क्या शेर उन्होंने कहे और आपने उधृत किये हैं।बहुत बधाई
अखिलेश तिवारी
जयपुर
अहा, क्या सामान ले के आए आज। शुजा साहब को,मेरे ख़ास पसंदीदा शायर। शुक्रिया!!
बहुत शुक्रिया कमल भाई...
नीरज जी, बहुत खूब है आपकी "किताबों की दुनिया"| बात वही, अंदाज़ नया दर्द जाएगा तो कुछ-कुछ जाएगा पर देखना
चैन जब जाएगा तो सारा का सारा जाएगा 👏👏
आलोक मिश्रा
क़लम में जोर जितना है जुदाई की बदौलत है
मिलन के बाद लिखने वाले लिखना छोड़ देते हैं
क्या ही सच्चा शे'र है
नीरज जी आप क्या कमाल लिखते हैं निश्चित ही परमात्मा की कृपा है आप पर आप स्वस्थ सानंद रहें
नमन स्वीकार कीजिये
मोनी गोपाल'तपिश'
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नीरज जी। शुजा साहब से परिचय करवाने के लिए। ग़ज़ब की सुखनफ़्हमी है आपमें।
आपने हमेशा की तरह कमाल का लिखा। आपके जरिए कलंदर शाइर शुजा से मुलाकात ही नहीं, उनकी शायरी से मुहब्बत भी हुई। आपका आभार।
धन्यवाद भाईसाहब...
धन्यवाद सज्जन भाई
धन्यवाद बोड़ा भाईसाहब...
अच्छी वाक़फ़ियत थी शुजा साहब से नब्बे के दशक के शुरुआती सालों में। वे अपना मजमूआ देवनागरी में शाए करवाना चाहते थे। शेर तो ख़ैर वो लाजवाब कहते ही थे। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के निदेशक डॉ. गंगा प्रसाद विमल से बात की, और ये किताब छपी। उसमें इस बात यानी केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के सहयोग का ज़िक्र भी हो शायद।
प्रियदर्शी ठाकुर 'ख़्याल'
बेहतरीन ,शानदार अशआर
अनुज 'अब्र'
Waaaaaa
यकीनन शुजा साहब कमाल के शायर और उससे ऊपर पुलिस की नोकरी
शानदार शायर,बेहतरीन इन्सान
दर्द की ज़बान
बहुत बहुत शुक्रिया विजय मिश्र 'दानिश' साहब 🙏
वाह् वाह् शानदार
धन्यवाद दुर्गा जी
वाह वाह! बहुत ख़ूब सर जी। शुजा खावर जी के बारे में जानकारी देते और उनकी शायरी से परिचित कराने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बढ़िया लिखा हैं आपने।
धन्यवाद श्लेष जी
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