Monday, September 24, 2018

किताबों की दुनिया - 196

हम तो रात का मतलब समझे, ख़्वाब, सितारे, चाँद, चराग़  
आगे का अहवाल वो जाने जिसने रात गुज़ारी हो 
 अहवाल =हाल 
 *** 
मुझे कमी नहीं रहती कभी मोहब्बत की
 ये मेरा रिज़्क़ है और आस्मां से आता है 
 रिज़्क़=जीविका
 *** 
वो शोला है तो मुझे ख़ाक भी करे आख़िर 
 अगर दिया है तो कुछ अपनी लौ बढाए भी
 *** 
अपने लहू के शोर से तंग आ चुका हूँ मैं 
 किसने इसे बदन में नज़र-बंद कर दिया 
 *** 
रंग आसान हैं पहचान लिए जाते हैं
 देखने से कहीं ख़ुश्बू का पता चलता है
 *** 
रेत पर थक के गिरा हूँ तो हवा पूछती है 
 आप इस दश्त में क्यों आए थे वहशत के बगैर 
 वहशत=दीवानगी 
 *** 
जिस्म की रानाइयों तक ख्वाइशों की भीड़ है
 ये तमाशा ख़त्म हो जाए तो घर जाएंगे लोग 
 *** 
 ऐसा गुमराह किया था तिरी ख़ामोशी ने 
 सब समझते थे तिरा चाहने वाला मुझको
 *** 
उदास ख़ुश्क लबों पर लरज़ रहा होगा 
 वो एक बोसा जो अब तक मिरी जबीं पे नहीं 
 ***
 वो रुक गया था मिरे बाम से उतरते हुए
 जहां पे देख रहे हो चराग़ जीने में
 *** 
आशिकी के भी कुछ आदाब हुआ करते हैं 
 ज़ख्म खाया है तो क्या हश्र उठाने लग जाएँ 
 हश्र =हंगामा

 मेरी समझ में दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं - ये अलग बात है कि मेरी समझ कोई ज्यादा नहीं है लेकिन जितनी भी है उस हिसाब से कह रहा हूँ- पहले वो लोग जिनके पास क़ाबलियत का समंदर होता है लेकिन वो ज़ाहिर ऐसे करते हैं जैसे उनके पास बस बूँद भर क़ाबलियत है दूसरे वो जिनके पास बूँद भर क़ाबलियत होती है लेकिन वो दुनिया को बताते हैं की उनके पास क़ाबलियत का समंदर है तीसरे वो जिनके पास क़ाबलियत का समंदर तो छोड़ें एक बूँद भी नहीं होती लेकिन ज़ाहिर ऐसे करते हैं जैसे दुनिया में अगर किसी के पास काबलियत है तो सिर्फ उनके पास। दूसरे और तीसरे किस्म के लोग सोशल मिडिया में छाये हुए हैं इसलिए उनका जिक्र किताबों की दुनिया में करके क्यों अपना और आपका वक्त बर्बाद किया जाय।

 लग्ज़िशें कौन सँभाले कि मोहब्बत में यहाँ 
 हमने पहले भी बहुत बोझ उठाया हुआ है 
 लग्ज़िशें =भूल 
 *** 
मिली है जान तो उसपर निसार क्यों न करूँ
 तू ऐ बदन मिरे रस्ते में आने वाला कौन ? 
*** 
इश्क में कहते हैं फरहाद ने काटा था पहाड़ 
 हमने दिन काट दिए ये भी हुनर है साईं 
 *** 
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ 
 तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ 
 मसीहा =मुर्दे में जान डालने वाला 
 *** 
बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूँ मैं 
 कि छू रहा हूँ तुझे और पिघल रहा हूँ मैं 
 *** 
हवा गुलाब को छू कर गुज़रती रहती है 
 सो मैं भी इतना गुनहगार रहना चाहता हूँ
 *** 
मैं झपटने के लिए ढूंढ रहा हूँ मौक़ा 
 और वो शोख़ समझता है कि शर्माता हूँ 
 *** 
लिपट भी जाता था अक्सर वो मेरे सीने से
 और एक फ़ासला सा दर्मियाँ भी रखता था
 *** 
रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़ 
 कम से कम रात का नुक्सान बहुत करता है 

 आज जिस शायर की किताब की बात हम कर रहे हैं वो पहली श्रेणी के शायर हैं ,अफसोस इस बात का नहीं है कि इस शायर ने अपनी काबलियत का ढिंढोरा नहीं पीटा अफ़सोस इस बात का है कि हमने उनकी काबलियत को उनके रहते उतना नहीं पहचाना जिसके वो हकदार थे। एक बात तो तय है भले ही किसी शायर को उसके जीते जी इतनी तवज्जो न मिले लेकिन जिस किसी में भी क़ाबलियत होती है उसका काम उसके सामने नहीं तो उसके बाद बोलता है, लेकिन बोलता जरूर है। किसी ने कहा है -किसने ? ये याद नहीं कि आपके लिखे को अगर कोई दौ-चार सौ साल बाद पढता है या पहचानता है तो समझिये आपने वाकई कुछ किया है वर्ना तो प्रसिद्धि पानी पर बने बुलबुले की तरह होती है ,इधर से मिली उधर से गयी। आज जिनको लोग सर माथे पे बिठाते हैं कल उन्हें को गिराने में वक्त नहीं लगाते। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं ,सिर्फ शायरी में ही नहीं हर क्षेत्र में जहाँ हमने कथाकथित महान लोगों को अर्श से फर्श पर औंधे मुंह गिरते देखा है।

 मैं तेरी मन्ज़िल-ए-जां तक पहुँच तो सकता हूँ 
 मगर ये राह बदन की तरफ़ से आती है 

 ये मुश्क है कि मोहब्बत मुझे नहीं मालूम 
 महक सी मेरे हिरन की तरफ़ से आती है 

 किसी के वादा-ए-फ़र्दा के बर्ग-ओ-बार की खैर
 ये आग हिज़्र के बन की तरफ से आती है
 वादा-ए-फ़र्दा=कल मिलने का वादा , बर्गफल -ओ-बार=फल पत्ते फूल 

आप शायरी भी पढ़ते चलिए और साथ में मेरी बकबक भी जैसे खेत में फसल के साथ खरपतवार होती हैं न वैसे ही। अब ये बताइये कि क्यों काबिलियत होते हुए भी किसी को उसके जीते जी उतनी प्रसिद्धि नहीं मिलती ? मेरे ख्याल से उसका कारण शायद ये है कि क़ाबिल लोग ज्यादातर जो बात करते हैं वो उनके समय से आगे की होती है या फिर बात वो होती है जिसे बहुमत समझ नहीं पाता। हम जिसे समझ नहीं पाते उसे या तो नकार देते हैं या सर पर बिठा लेते हैं। नकारना अपेक्षाकृत आसान होता है इसलिए ज्यादातर बुद्धिजीवियों को नकार दिया जाता है फिर सदियों में उसकी कही लिखी बातों का विश्लेषण होता है तब कहीं जा के समझ में आता है कि जिसे हमें नकारा था वो कितना महान था। देखा ये गया है कि अकेले चलने वाले से अक्सर भीड़ में चलने के आदी लोग कतराते हैं उन्हें वो अपनी जमात का नहीं लगता। हम दरअसल धडों में बटें लोग हैं, आप चाहे इस बात को माने न मानें। हमें लगता है कि जिस धड़े में हम हैं वो सर्वश्रेष्ठ है। दूसरे धड़े के लोग हमारी क्या बराबरी करेंगे। धड़े के मठाधीश दूसरे धड़े के क़ाबिल इंसान की क़ाबिलियत को या तो सिरे से नकार देते हैं या उसकी और ध्यान ही नहीं देते।

 बस इक उमीद पे हमने गुज़ार दी इक उम्र 
 बस एक बूँद से कुहसार कट गया आखिर 
 कुहसार=पहाड़

 बचा रहा था मैं शहज़ोर दुश्मनों से उसे 
 मगर वो शख़्स मुझी से लिपट गया आखिर 
 शहज़ोर =ताक़तवर 

 हमारे दाग़ छुपाती रिवायतें कब तक 
 लिबास भी तो पुराना था फट गया आख़िर

 चलिए अब आज की ग़ज़ल की किताब की और रुख करते हैं जिसका शीर्षक है "मन्ज़र-ए-शब-ताब" जिसके शायर हैं जनाब 'इरफ़ान सिद्द्की' साहब। वही इरफ़ान सिद्द्की जो 11 मार्च 1939 को उत्तरप्रदेश के बदायूँ में पैदा हुए , बरेली में पढ़े लिखे और 15 अप्रेल 2004 को लख़नऊ में इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए। बहुत से लोग बदायूँ में पैदा होते हैं और लखनऊ में जन्नत नशीन होते हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई 'इरफान सिद्द्की 'जैसा होता है। मुझे ये बात कहने में कोई शर्म नहीं कि मेरे लिए ये नाम अब तक अनजाना था। आपने जरूर इनके बारे में पढ़ा सुना होगा लेकिन हम जैसे लोग जो उर्दू से मोहब्बत तो करते हैं लेकिन पढ़ नहीं सकते, इरफ़ान सिद्द्की साहब तक आसानी से नहीं पहुँच सकते। कारण ? ये भी बताना पड़ेगा ? वैसे सीधा सा है -इनकी कोई किताब हिंदी में किसी बड़े प्रकाशक द्वारा प्रकाशित नहीं हुई - किसी पत्रिका या अखबार में कभी छपे हों तो मुझे पता नहीं - मुशायरों में खूब गए हों इसका भी कहीं जिक्र नहीं मिलता - सोशल मिडिया में इनके किसी फैन क्लब की भी सूचना मुझे नहीं है -तो बताइये कैसे पता चलेगा इनके बारे में ?


 ढक गईं फिर संदली शाखें सुनहरी बौर से 
 लड़कियां धानी दोपट्टे सर पे ताने आ गईं

 फिर धनक के रंग बाज़ारों में लहराने लगे
 तितलियाँ मासूम बच्चों को रिझाने आ गईं 

 खुल रहे होंगे छतों पर सांवली शामों के बाल 
 कितनी यादें हमको घर वापस बुलाने आ गईं 

 बिल्ली के भाग्य से छींका तब टूटा जब रेख़्ता बुक्स वालों ने उनकी ग़ज़लों की ये किताब शाया की। आप उनकी शायरी पढ़ते हुए अब तक समझ ही होंगे कि वो किस क़ाबलियत के शायर थे। उनकी शायरी के बारे में मेरे जैसा अनाड़ी तो भला क्या कह पायेगा अलबत्ता इरफ़ान साहब के बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी मैंने जुटाई है वो ही आपसे साझा कर रहा हूँ। वैसे आपकी सूचना के लिए बता हूँ कि ये जो गूगल महाशय हैं ये भी बहुमत के हिसाब से ही चलते हैं ,इनसे किसी इरफ़ान सिद्दीकी साहब जैसे शायर की जानकारी प्राप्त करना आसान काम नहीं। वहां से जो हासिल हुआ वो था की इरफ़ान साहब 1962 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की केंद्रीय सूचना सर्विसेस से जुड़ गए. नौकरी के सिलसिले में दिल्ली, लखनऊ आदि स्थानों पर रहे. यह नियाज़ बदायूंनी के छोटे भाई थे. उनके पुस्तकों के नाम हैं: ‘कैनवस’, ‘इश्क नामा’, ‘शबे दरमयाँ’, ‘सात समावात’ . इसके अलावा “हवाए दश्ते मारया” और “दरया” भी उनके कुछ रिसाला नुमा किताबों में शामिल हैं. ये किताबें पाकिस्तान से प्रकाशित हुईं 

ज़मीं छुटी तो भटक जाओगे ख़लाओं में 
 तुम उड़ते उड़ते कहीं आस्मां न छू लेना 

 नहीं तो बर्फ़ सा पानी तुम्हें जला देगा 
 गिलास लेते हुए उँगलियाँ न छू लेना 

 उड़े तो फिर न मिलेंगे रिफ़ाक़तों के परिन्द
 शिकायतों से भरी टहनियां न छू लेना
 रिफ़ाक़तों =दोस्ती 

 इरफ़ान साहब की शायरी के बारे में इस किताब की भूमिका में जनाब शारिब रुदौलवी लिखते हैं कि 'इरफ़ान सिद्द्की की शायरी में इश्क की दो कैफ़ियतें मिलती हैं। एक जिसमें गर्मी है, लम्स है ,एहसास की शिद्दत है और कुर्बत (समीपता ) का लुत्फ़ है और दूसरे में एहसास-ए-जमाल (सौंदर्य बोध )है , मोहब्बत है, खुशबू है. इरफ़ान सिद्दीकी के यहाँ जिस्म,लम्स और विसाल का जिक्र है। इस कैफ़ियत (अवस्था )में भी उनके यहाँ बड़ा तवाजुन (संतुलन )है। ये नाज़ुक मरहला था लेकिन उन्होंने उसे बहुत ख़ूबसूरती से तय किया है। उनके यहाँ इश्क़ न तो सिर्फ तसव्वुराती (काल्पनिक) और ख़याली है और न वो तहज़ीबी ज़वाल (पतन) के ज़माने के बाला-खानो (कोठों) में परवरिश पाने वाला इश्क है। एक ज़िंदा शख़्स का ज़िंदा शख़्स से इश्क है। इरफ़ान सिद्दीकी ने उसे जिस तरह अपनी शायरी में बरता है उसने उर्दू की इश्क़िया शायरी के वक़ार ( प्रतिष्ठा ) में इज़ाफा किया है। " शारिब साहब के इस कथन की पुष्टि इस किताब को पढ़ते वक्त होती जाती है।

 उठो ये मंज़र-ए-शब्-ताब देखने के लिए
 कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए 
 मंज़र-ए-शब्-ताब=रात को रोशन करने वाला दृश्य 

 अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया 
 मिरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए
 हरीफ़ =प्रतिद्वंदी ,ग़र्क़ाब =डूबना 

 जो हो सके तो जरा शहसवार लौट के आएं
 पियादगां को ज़फ़रयाब देखने के लिए 
 शहसवार =अच्छा घुड़सवार , पियादगां =पैदल सिपाही , ज़फ़रयाब =विजयी

 लखनऊ जहाँ शायर पनपते थे वहीँ उनमें आपसी धड़ेबंदी भी खूब चलती थी। इरफान साहब जैसा कि मैंने पहले बताया है इस घटिया किस्म की अदबी सफबन्दी के खिलाफ थे लिहाज़ा इसका खामियाज़ा भी उन्हें भुगतना पड़ा। वो बहुत से ऐसे सम्मानों से जिसे उनके समकालीन शायरों को नवाज़ा गया था , महरूम रह गए। इस बात की टीस उन्हें रही भी। एक बेइंतिहा पढ़े-लिखे ,बेपनाह अच्छे शायर और एक शरीफ आदमी के लिए ये अदबी नाइंसाफियां नाक़ाबिले बर्दाश्त होती हैं कभी कभी तो ये पीड़ा भावुक आदमी की जान भी ले लेती है। अगर उनके साथ ज़माने का सलूक थोड़ा भी दोस्ताना होता तो शायद वो कुछ बरस और जी लेते। ऐसा नहीं है कि ये घटिया रिवायत अब नहीं रही अब भी है और पहले से कहीं ज्यादा खूंखार रूप में है। टीवी शो हों ,मुशायरे हों, अदबी रिसालों में छपने की बात हो या फिर किताब छपवाने की कवायद हो अगर आप किसी धड़े का हिस्सा नहीं है तो फिर फेसबुक या सोशल मिडिया के सहारे दिन काटिये और पढ़ने वालों का इंतज़ार कीजिये।

 उसको मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी 
 और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है 

 अपने किस काम में लाएगा बताता भी नहीं 
 हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है 

 मेरे लफ़्ज़ों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
 दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है 

 लखनऊ के शायरों का जिक्र हो और जनाब वाली आसी का नाम ज़हन में न आये ऐसा तो हो ही नहीं सकता। जो लोग किताबों की दुनिया नियमित रूप से पढ़ते आये हैं उन्हें याद होगा कि वाली साहब का जिक्र भारत भूषण पंत साहब की किताब वाली पोस्ट में विस्तार से किया था। वाली आसी साहब की लखनऊ में किताबों की दूकान थी जहाँ सभी शायर शाम के वक्त गपशप करने और शायरी पर संजीदा गुफ्तगू करने इकठ्ठा हुआ करते थे। इरफ़ान साहब वाली साहब के चहेते शायर थे और उनके कितने ही शेर उन्हें ज़बानी याद थे। इरफ़ान साहब की शायरी अपने वतन से ज्यादा पकिस्तान में मशहूर थी बल्कि बहुत से लोग उन्हें पाकिस्तानी शायर ही समझते थे। मुनव्वर राणा साहब ने अपनी किताब 'मीर आके लौट गया ' में इरफ़ान साहब के बारे में एक रोचक किस्सा दर्ज़ किया है। आप इरफ़ान साहब के ये शेर पढ़ें फिर वो किस्सा बताता हूँ :

 अब इसके बाद घने जंगलों की मंज़िल है 
 ये वक्त है कि पलट जाएँ हमसफ़र मेरे 

 ख़बर नहीं है मिरे घर न आने वाले को 
 कि उसके क़द से तो ऊंचे हैं बाम-ओ-दर मेरे 

 हरीफ़े-ऐ-तेग़-ए-सितमगर तो कर दिया है तुझे 
 अब और मुझसे तू क्या चाहता है सर मेरे 
 हरीफ़े-ऐ-तेग़-ए-सितमगर=अत्याचारी की तलवार का प्रतिद्वंदी

 हुआ यूँ कि एक दफह पकिस्तान के मशहूर शायर जनाब 'इफ़्तिख़ार आरिफ़' साहब लखनऊ अपने वतन तशरीफ़ लाये। आरिफ़ साहब के नाम की तूती उस वक्त पूरे उर्दू जगत में बजती थी -उनके मुकाबले का तो छोड़िये उनके आस पास भी किसी शायर का नाम फटकता नहीं था। उन्होंने मुनव्वर साहब से जो अपनी कार से आरिफ़ साहब को होटल छोड़ने जा रहे थे पूछा कि 'मुनव्वर मियां आपकी अदबी सूझ-बूझ और मुतालिए (अध्ययन )के सभी कायल हैं - आप बताइये कि इरफ़ान सिद्दीकी अच्छे शायर हैं या मैं ? मुनव्वर साहब एक पल को चौंके फिर उन्होंने कहा कि 'देखिये इफ़्तिख़ार भाई मेरी इल्मी हैसियत के हिसाब से आपकी ग़ज़लों का दायरा महदूद (सीमित ) है लेकिन इरफ़ान भाई ने ग़ज़ल में नए मौज़ूआत के ढेर लगा दिए हैं " ये सुन कर इफ्तिखार साहब ने कहा 'मुनव्वर इस लिहाज़ से तुम्हारा तजज़िया गैर जानिब दाराना (पक्षपात रहित ) है -पाकिस्तान में भी इरफ़ान भाई मुझसे बड़े शायर माने जाते हैं "

 हट के देखेंगे उसे रौनक-ए-महफ़िल से कभी 
 सब्ज़ मौसम में तो हर पेड़ हरा लगता है 

 ऐसी बेरंग भी शायद न हो कल की दुनिया 
 फूल से बच्चों के चेहरों से पता लगता है 

 देखने वालो मुझे उससे अलग मत जानो 
 यूं तो हर साया ही पैकर से जुदा लगता है 

 इरफ़ान साहब को उर्दू अकादमी उत्तर प्रदेश और ग़ालिब इंस्टीट्यूट ने सम्मानित किया है। उनके अदबी सफर पर मगध बुद्ध विश्विद्यालय से डॉक्टरेट किया गया है। पाकिस्तान के बहावलपुर विश्विद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों उनके किये काम पर थीसिस लिखी। जिन्हें शायरी में कुछ अलग हट कर पढ़ने की चाह है उनके लिए तो ये किताब किसी वरदान से कम नहीं। सच्ची और अच्छी शायरी पढ़ने वालों के लिए इस किताब का उनके हाथ में होना जरूरी है। किताब को आसानी से आप अमेज़न से आन लाइन मंगवा सकते हैं। दिल्ली में कोई परिचित हो तो उसकी मदद से आप इसे रेख़्ता के दफ्तर से ख़रीद कर भी मंगवा सकते हैं। आप क्या करते हैं ये आप पर है लेकिन मेरी तो सिर्फ इतनी सी गुज़ारिश है कि इस किताब को पढ़ें जरूर। चलते चलते उनकी एक लाजवाब ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :

 सख्त-जां हम सा कोई तुमने न देखा होगा 
 हमने क़ातिल कई देखे हैं तुम्हारे जैसे 

 दीदनी है मुझे सीने से लगाना उसका 
 अपने शानों से कोई बोझ उतारे जैसे 
 दीदनी =देखने योग्य 

 अब जो चमका है ये खंज़र तो ख्याल आता है 
 तुझको देखा हो कभी नहर किनारे जैसे 

 उसकी आँखें हैं कि इक डूबने वाला इंसां
 दूसरे डूबने वाले को पुकारे जैसे

12 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-09-2018) को "जीवित माता-पिता को, मत देना सन्ताप" (चर्चा अंक-3105) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

avenindra said...

bemisaal shayar ki bemisaal taareef

Unknown said...

बहुत ही खूबसूरत कलाम पर तब्सिरा पेश करने के लिए शुक्रिया।
---दरवेश भारती, मोब 9268798930/8383809043

शारदा अरोरा said...

बहुत ही खूबसूरत शेर , एक कसक सी महसूस होती हुई ,बयान हो पाने का एक सुकून सा देते हुए , लाजवाब। और हाँ ये बक बक ने तो जान डाल दी है पूरी पोस्ट में। सब सच कहा है आपने।

Ajay Agyat said...

कमाल की शाइरी। लाजवाब।

रश्मि प्रभा... said...

https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/09/blog-post_24.html

Anita said...

वाह ! लाजवाब शायरी..शुक्रिया "मन्ज़र-ए-शब-ताब" से परिचय करने के लिए..

अरुण चन्द्र रॉय said...

आप हर बार चकित कर देते हैं।

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन एकात्म मानववाद के प्रणेता को सादर नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

mgtapish said...

उसको मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
वो शोला है तो मुझे ख़ाक भी करे आख़िर
अगर दिया है तो कुछ अपनी लौ बढाए भी
अपने लहू के शोर से तंग आ चुका हूँ मैं
किसने इसे बदन में नज़र-बंद कर दिया
***
रंग आसान हैं पहचान लिए जाते हैं
देखने से कहीं ख़ुश्बू का पता चलता है
***
नीरज जी एक से बढ़कर एक शे'र पढवाए आपने वाह क्या कहना बहुत सुन्दर लेख वाह वाह

Parul Singh said...

पढ़ते पढ़ते अचानक ही पोस्ट ख़त्म हो गई, तो लगा नीरज जी ने अधूरी पोस्ट क्यूँ लिखी आज? स्क्रोल किया तो पाया पोस्ट तो सामान्य से भी लंबी थी,पर शायरी और समीक्षा इतनी दिलचस्प थी कि समय का ख़्याल नही रहा। मैं पहले भी कह चुकी हूं इस ब्लॉग की समीक्षाएँ समीक्षा के दायरे से फैल कर क़िस्सा गोई हो गयी हैं। ब्लॉग से इतर इस लेखनी का दायरा बढ़ना चाहिये। उर्दू के कठिन शब्दों का हिंदी अनुवाद देते जाने का कठिन प्रयास बहुत ही स्वागत योग्य है। धन्यवाद एक और नई क़िताब की जानकारी का।

Dinesh Naidu said...

नीरज सर आपने बिलकुल सही कहा , बेशक़ इरफ़ान साहब पहले श्रेणी के शायर है।

उनकी शायरी पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे हर घड़ी कोई नया मंज़र आप पर खुल रहा हो !!!

आपकी समीक्षा पढ़कर बहुत अच्छा लगा, शेर दर शेर आपका इंतिखाब दिल में घर करता जाता है

और ऐसे शेरो के गुलदस्ते के दरमियान आपकी प्यारी बातें, बेबाक राय, और इरफ़ान साहब से जुड़े हुए क़िस्से, पढ़ते पढ़ते पता ही नहीं चला कब पोस्ट ख़त्म हो गयी |

इरफ़ान साहब की किताब का आपके पास होना कम्पलसरी है !!!

बहुत शुक्रिआ ,

आपका

दिनेश नायडू