Monday, September 3, 2018

किताबों की दुनिया - 193

दिल ना उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
 लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
 ***
तुझको तकमील कर रहा हूँ मैं
 वर्ना तुझसे तो मुझको प्यार नहीं
 तकमील =पूर्णता
 ***
है वही बात यूँ भी और यूँ भी
 तुम सितम या करम की बात करो
 ***
 दिल से तो हर मुआम्ला करके चले थे साफ़ हम
 कहने में उनके सामने बात बदल बदल गई
 ***
आये तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ
 भूले तो यूँ कि गोया कभी आशना न थे
 ***
आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार
 जाते जाते यूँ ही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है
 ***
अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें
 रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम
 ***
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं 
 देखने वालो कभी उनका जिगर तो देखो 

 1985 कराची का नेशनल स्टेडियम , जनरल जिया उल हक़ द्वारा आयोजित कल्चरल प्रोग्राम का आयोजन था। जनरल ने 5 जुलाई 1977 को जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का तख्ता पलट के सत्ता हथियाली थी और सितम्बर 1978 से खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित कर दिया था। इस्लाम के नाम पर जुल्म और दमन का नंगा नाच चल रहा था। लोग संगीनों के साये में सांस लेने को मज़बूर थे। घुट रहे थे। उस दिन स्टेडियम में लगभग 50,000 से ज्यादा लोगों की भीड़ अपनी चहेती गायिका को सुनने इकठ्ठा हुई थी। पाकिस्तान आर्मी के आला अफसर भी पूरी आन-बान-शान से मौजूद थे। कुछ ही दिन पहले जनरल ने पाकिस्तान में महिलाओं को साड़ी पहनने पर पाबन्दी लगा दी थी. गायिका को स्टेज पर बुलाया गया उसके आते ही जैसे सारे आर्मी आफिसर्स को मानो सांप सूंघ गया क्यूंकि गायिका काली साड़ी पहने हौले हौले स्टेज पर आयी। जनरल के हुक्म की सरे आम धज्जियाँ उड़ाती हुई। अफसर इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थे , माना वो देश के करोड़ों चाहने वालों की कलाकार थी लेकिन थी तो एक औरत ही न - औरत होकर हुक्म उदूली ?

 तुम आये हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है 
 तलाश में है सहर बार बार गुज़री है 

 वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था 
 वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है 

 न गुल खिले हैं न उनसे मिले न मै पी है 
 अजीब रंग में अबके बहार गुज़री है 

 आर्मी अफसरों के विपरीत भीड़ ने गायिका के हौसले की दाद देते हुए तालियां बजायीं। इस से पहले की अफसर कुछ कार्यवाही करते गायिका ने गला साफ़ किया ,तबले सारंगी वाले को इशारा किया और गाने लगी - "हम देखेंगे , लाज़िम है कि हम भी देखेंगे -" ये सुनना कि भीड़ ख़ुशी से चीखने लगी पूरे स्टेडियम में जैसे तूफ़ान आ गया। जैसे जैसे गायिका गाती गई वैसे वैसे भीड़ का उन्माद बढ़ता गया। आर्मी अफसरों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं , तुरंत स्टेडियम की लाइट्स बंद कर दी गयीं , माइक बंद कर दिया गया लेकिन गायिका गाती गई और तब तक गाती रही जब तक ये नज़्म ख़तम नहीं हो गयी. लोग बरसों बाद सामूहिक रूप से इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लगाने लगे, बाद में बहुत सी कार्यवाहियाँ हुईं गायिका को पाकिस्तान में किसी भी जगह से गाने पर बैन कर दिया गया , बहुत से दर्शकों के खिलाफ फ़र्ज़ी कार्यवाही हुई लेकिन जो होना था वो हो गया। रातों रात इस ऐतिहासिक पल का कैसेट दिल्ली पहुँचाया गया जहाँ से इसकी हज़ारों कापियां लोगों के यहाँ पहुंचीं। आप सोचेंगे कि ऐसा क्या था उस नज़्म में ? तो आपसे गुज़ारिश है कि अगर आपने इक़बाल बानो को फैज़ अहमद फैज़ की इस नज़्म को गाते नहीं सुना है तो यू ट्यूब पर इसे सर्च करके सुनें। सुनते वक्त आपके रोंगटे अगर खड़े न हों तो समझना कि आपके लेफ्ट साइड में जो हिस्सा धक् धक् करता है वो दिल नहीं महज़ शरीर में खून पहुँचाने वाला एक पंप है।

 शेख़ साहब से रस्मो-राह न की 
 शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की 

 तुझको देखा तो सेर-चश्म हुए
 तुझको चाहा तो और चाह न की 
 सेर-चश्म =आँखों की भूख मिटी 

 कौन क़ातिल बचा है शहर में 'फ़ैज' 
जिसे से यारों ने रस्मो-राह न की 

 13 फरवरी 1911 को सियालकोट पाकिस्तान में जन्में 'फैज़ अहमद फैज़' साहब को शायद ही कोई ऐसा शायरी प्रेमी होगा जो न जानता हो. फैज़ साहब के बारे में इतना कुछ इंटरनेट किताबों और पत्रिकाओं में उपलब्ध है की उसमें एक लफ्ज़ भी और नहीं जोड़ा जा सकता ,ऐसे में किताबों की दुनिया में उनकी किताब की चर्चा करना है तो जोखिम का काम। फिर सोचा बहुत से युवा पाठक ऐसे होंगे जिन तक शायद उनकी ग़ज़लें न पहुंची हो तो चलो ये पोस्ट उनके लिए ही सही इसलिए मैंने "फैज़ की ग़ज़लें और नज़्मे " किताब का चुनाव किया। इस किताब में उनकी अधिकतर ग़ज़लों का रंग प्रेम का है जो उनकी बाद की ग़ज़लों से गायब हो गया। आज के युवा को उस शायर के बारे में मालूम होना चाहिए जिसकी शायरी आज भी मजलूमों के लिए हिम्मत का काम करती है. फैज पहले सूफी संतों से प्रभावित थे. 1936 में वे सज्जाद जहीर और प्रेमचंद जैसे लेखकों के नेतृत्व में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए. फैज़ इसके बाद एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गए.


 दोनों जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के 
 वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के 

 वीरां है मैकदा खुमो-सागर उदास है
 तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के 

 दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया 
 तुझसे भी दिल फरेब हैं ग़म रोज़गार के 

 उर्दू शायरी और नज्म में प्रेम या इश्क का बड़ा जोर रहता है. फैज भी पहले इश्किया शायरी ही किया करते थे, जिसपर सूफीवाद का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है. प्रगतिशील लेखक संघ का नारा था- ‘हमें हुस्न के मयार को बदलना होगा’ यानी कविता और शायरी में प्रेम-मोहब्बत की जगह आम लोगों, मजलूमों और मजदूरों के बारे में लिखने की अपील की गई.फैज़ ने भी अपनी शायरी के मिजाज को बदला और शायरी में आम लोगों के दुख-दर्द को जगह दी. फैज़ ने बिल्कुल शायराना अंदाज में प्रेम-मोहब्बत की शायरी न लिखने की घोषणा की. मार्क्सवाद की तरफ झुकाव के चलते सन 1962 में उन्हें लेनिन पीस प्राइज़ से नवाज़ा गया जो नोबेल पीस प्राइज के बराबर समझा जाता है ।

 कर रहा था ग़मे-जहाँ का हिसाब 
 आज तुम याद बे-हिसाब आये 

 न गयी तेरे ग़म की सरदारी 
 दिल में यूँ रोज़ इंकलाब आये 

 इस तरह अपनी ख़ामुशी गूंजी 
 गोया हर सिम्त से जवाब आये 

 फैज़ ने ख़ूबसूरती और रोमांस के सुनहरी पर्दे के पार हक़ीक़त की तल्ख़ सच्चाइयों को करीब से देखा है। उन्होंने आरज़ूओं का क़त्ल होते हुए देखा है , भूख उगाने वाले खेत और ख़ाक में लिथड़े, खून में नहाये हुए ज़िस्म देखे हैं ,बाज़ारों में बिकता मज़दूर का गोश्त और गरीब लोगों के हाथों से उनका निवाला झपटते हुए बाज़ देखे हैं। नासूरों से बहती हुई पीप की दुर्गन्ध सूंघी है तभी वो कहते हैं " मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे मेहबूब न मांग " फैज़ किसी एक मुल्क के शायर नहीं है , कोई भी शायर किसी एक मुल्क का नहीं हो सकता, पूरी दुनिया के ज़ुल्म सहते हुए लोग उनकी पीड़ाएँ शायर को व्यथित करती हैं उन्हें बगावत पर उकसाती हैं। फैज़ इस मायने में एक अंतरराष्ट्रीय शायर हैं जिसकी शायरी शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ी है.

 दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं 
 जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं 

 एक इक करके हुए जाते हैं तारे रोशन 
 मेरी मंज़िल की तरफ तेरे क़दम आते हैं 

 और कुछ देर न गुज़रे शबे-फ़ुर्क़त से कहो
 दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं 

 फैज़ के इस संग्रह में उनकी क्रांतिकारी ग़ज़लें या नज़्में शामिल नहीं की गयी हैं , उनके तीन संग्रहों 'नक़्शे-फ़रियादी,'दस्ते-सबा', और 'जिन्दानामा' में से कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को ही इसमें शामिल किया गया है जिनका अंतर-स्वर इश्क है जबकि फैज़ अहमद फैज़ क्रांति में विश्वास करने और जगाने वाले शायर थे. फैज़ की शायरी सताए हुए लोगों के लिए है और उनकी उम्मीदों और सपनों को आवाज देने वाली है. भारत-पाकिस्तान विभाजन से मिलने वाली आजादी से फैज खुश नहीं थे. उन्होंने साफ-साफ लिखा: " ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शब गज़ीदा सहर वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं " 'इस किताब में फैज़ साहब की लगभग 40 प्रसिद्ध ग़ज़लें संग्रहित हैं इसके अलावा उनकी कालजयी रचनाएँ जैसे "मुझसे पहले सी मोहब्बत मिरि महबूब न मांग", चंद रोज़ और मिरि जान ,आखरी खत , कुत्ते , बोल.... याद ,आदि 60 के लगभग भी पढ़ने को मिलती हैं। आखिरी में कुछ लाजवाब शेर भी दिए गए हैं।

 वस्ल की शब थी तो किस दर्ज़ा सुबुक गुज़री थी 
 हिज़्र की शब है तो क्या सख़्त गरां ठहरी है 

 इक दफ़ा बिखरी तो हाथ हाई है कब मौजे-शमीम 
 दिल से निकली है तो क्या लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है 
 मौजे-शमीम =खुशबू की लहर , फ़ुग़ाँ =आह 

 आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार 
 जाते जाते यूँ ही दम भर को ख़िज़ाँ ठहरी है 

 आईये फैज़ साहब के बारे में फिर से बात शुरू करें। बहुत कम लोग जानते होंगे कि फैज़ साहब ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कप्तान की हैसियत से नौकरी की और तरक्की करते हुए पहले मेजर और बाद में लेफ्टिनेंट कर्नल पद तक पहुंचे। उन्होंने ब्रिटिश एम्पायर मैडल भी प्राप्त किया। विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान रहना पसंद किया और वो वहां के प्रमुख अख़बार 'पाकिस्तान टाइम्स' के एडिटर और साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी बने ,इसी के चलते 1951 में उन पर लियाक़त खां की सरकार को गिरा कर कम्युनिस्ट सरकार बनाने में मदद करने का अभियोग लगाया गया और जेल भेज दिया गया। चार साल जेल में गुज़ारने के बाद वो भुट्टो सरकार के साथ जुड़ गए। भुट्टो सरकार के साथ उन्होंने बरसों काम किया ,जिया उलहक़ द्वारा भुट्टो की गिरफ़्तारी और फांसी के बाद उनके हर कार्यकलाप पर नज़र रखी जाने लगी इसलिए उनका दिल पाकिस्तान से उचट गया और वो बेरुत जा बसे। बेरुत में कुछ साल गुजरने के बाद वो वापस पाकिस्तान कराची लौट आये और वहीँ 20 नवम्बर 1984 को उनका देहावसान हो गया।

 राज़े -उल्फ़त छुपा के देख लिया 
 दिल बहुत कुछ जला के देख लिया 

 और क्या देखने को बाकी है 
 आपसे दिल लगा के देख लिया 

 आज उनकी नज़र में कुछ हमने 
 सबकी नज़रें बचा के देख लिया 

 फैज़ साहब की ग़ज़लों को भारत पकिस्तान के आला गायकों ने अपने स्वर दिए हैं। मेहदी हसन साहब को बुलंदियों पर पहुँचाने में फैज़ की ग़ज़ल " गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले , चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले " को कौन भूल सकता है। इक़बाल बानो के अलावा 'टीना सानी , बेग़म अख्तर , रेखा भारद्वाज और आबिदा परवीन ने भी उन्हें खूब गाया है। फैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों को किसी देश विशेष की सीमा में बाँध कर नहीं रखा जा सकता सकता। उनके चाहने वाले दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं। जब तक उर्दू शायरी है फैज़ का नाम ज़िंदा रहेगा। फ़िराक़, साहिर और फैज़ एक की कालखंड में हुए और तीनो अपने अपने क्षेत्रों में किसी से कम नहीं आंके जा सकते। हिंदी में उनकी किताबें अमेज़न पर उपलब्ध हैं और ये किताब जिसका जिक्र किया जा रहा है ,जिसे नारायण दत्त शगल एन्ड सन्स दरीबा कलाँ दिल्ली ने सन 1959 में प्रकाशित किया और जनाब नूरनबी अब्बासी साहब ने सम्पादित किया था अब शायद ही कहीं मिले।

 तुम्हारी याद के जब ज़ख्म भरने लगते हैं 
 किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं 

 हदीसे-यार के उन्वां निखारने लगते हैं 
 तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं 

 दरे-कफ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है 
 तो 'फैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं 

 पाकिस्तान सरकार ने फैज़ साहब के गुज़रने के 6 साल बाद उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सिविलियन पुरूस्कार "निशान-ऐ-इम्तियाज़" प्रदान किया। पंजाबी , रशियन , इंग्लिश ,उर्दू ,अरबी और पर्शियन भाषा के विद्वान फैज़ साहब अपने लिखे कलाम से हमेशा ज़िंदा रहेंगे। दुनिया भर में फैले शायरी के लाखों दीवाने उन्हें कभी नहीं भूलेंगे। आईये चलने से पहले पढ़े उनके कुछ कताआत जो लोगों को जबानी याद हैं और रहेंगे :

 रात यूँ दिल में तिरि खोई हुई याद आई 
 जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाये 
 जैसे सहराओं में हौले से चले बादे - नसीम 
 जैसे बीमार को बे-व्जह करार आ जाये 
 ***
 मता-ऐ-लौहो-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है 
 कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने 
 ज़ुबाँ पे मुहर लगी है तो क्या कि रखदी है
 हरेक हल्फ़-ऐ-ज़ंज़ीर में ज़ुबाँ मैंने
 *** 
तिरा जमाल निगाहों में ले के उठ्ठा हूँ
 निखर गई है फ़िज़ा तेरे पैरहन की सी 
 नसीम तेरे शबिस्ताँ से होक आई है
 मिरी सहरा में महक है तिरे बदन की सी 
 *** 
सुब्ह फूटी तो आसमाँ पे तिरे 
 रंगे-रुख़्सार की फुहार गिरी 
 रात छाई तो रू-ऐ-आलम पर 
 तेरी ज़ुल्फ़ों की आबशार गिरी 
 *** 
न आज लुत्फ़ कर इतना कि कल गुज़र न सके 
 वो रात जो कि तिरे गेसुओं की रात नहीं 
 ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम 
 विसाले-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं 
 *** 
सारी दुनिया से दूर हो जाये 
 जो ज़रा तेरे पास हो बैठे 
 न गई तेरी बेरुखी न गई 
 हम तेरी आरज़ू भी खो बैठे


लीजिये सुनिए उस ऐतिहासिक कलाम को जिसने लाखों मज़बूर मज़लूम लोगों में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का साहस जगाया और पहचानिये एक औरत की ताकत को जो एक खूंखार तानाशाह को सरे आम चुनौती पेश करती है । क्या हुआ अगर आपने इसे पहले से ही सुना हुआ है -एक बार और दिल के धड़कने का सबब याद आये तो क्या बुरा है :- 


9 comments:

Parul Singh said...

इसे बहुत अच्छी समीक्षा,किताब या शायर कहें तो गलत होगा। इस ब्लॉग की समीक्षाऐ,ये किताब और शायर बहुत अच्छेपन के दायरे से बहुत ऊपर उठ चुके हैं। ये शायरी इश्क़ और इंक़लाब की ज़ुबान बन चुकी है दुनिया भर में। और ये समीक्षाएँ शायरी की एक मुकम्मल दुनिया। यँहा शायर व उसकी शायरी को जिया जाता। कमाल की महफ़िल है आज की पोस्ट,क्योंकि क़िताब तो हासिल नही हो सकती। सो महफ़िल कहना उचित होगा।

Unknown said...

आपके तब्सिरे का खैरमक़दम, लेकिन पारुल जी की बात पर भी ग़ौर किया जाये। पूरी किताब पढ़ने के लिए उसका दस्तयाब होना भी ज़रूरी है।

~~~दरवेश भारती, मो.9268798930/8383809043.

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

'जो अपने इल्म का फ़ैज़ान आम कर न सके
..............................नाग है दफ़ीने का'

किसी बड़े शायर अधूरा (इस लिए कि मुझे याद नहीं आ रहा) शे'र जिसका मफ़हूम यह है कि जो ज्ञानवान व्यक्ति जो अपने ज्ञान का फल बाँट न सके यानि आम न कर सके वह ख़ज़ाने
पर कुंडली मार कर बैठे हुए नाग की तरह होता है।

बड़े भाई नीरज शायरी के ज्ञानकोश में निरंतर डुबकियाँ लगाते राहतें है और हर डुबकी के साथ कोई न कोई नायाब मोती लेकर लौटते हैं! और फिर उसकी चमक उसकी सुंदरता पाठक तक भी पहुँचाते हैं!

आपकी आजकी पोस्ट तो है ही मेरे सबसे अधिक प्रिय शायर की शायरी पर। मेरे लिए तो आज जश्न हो गया।

इक़बाल बानो साहिबा की आवाज़ में
यह तहलका यह मोजिजा यह जादू यह करिश्मा मैंने 'Magic of the East'
नाम कीcollection में सुना था और मैं इसे संगीत की दुनिया के सबसे करिश्मों में से एक मानता हूँ। गायक की आवाज़ हारमोनियम और तबले का संगीत और श्रोता की तालियों ने मिलकर जो जादू बुना है कमाल है ! इसके इलावा मुझे नहीं पता करिश्मा क्या होता है!

शायरी सुर और संगीत की आजकी महफ़िल के लिए आभार भाई साहिब🙏🌹

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री कृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

avenindra said...

वआआह,,बेहतरीन

Unknown said...

bahut khoob bahut khoob .. zindabaad

SagarSialkoti said...

सर ये किताब नहीं आने बाली 201शायरों का इतिहासिक दस्तावेज है जिसको जनाब नीरज गोस्वामी के नाम जाना जाएगा मुझे अपने भाई पर नाज़ है ख़ुदा आप को उम्र दराज़ करे"फ़ैज़ अहमद फ़ैज़"

kamalbhai said...

फ़ैज़ साहब की याद को जैसे रु ब रु ला खड़ा कर दिया आपने।...हम देखेंगे..अक्सर सुनता हूँ पर आज आपके लेख के साथ सुनने का लुत्फ ही कुछ और हैं। शुक्रिया!!

anuragbharadwaj said...

फ़ैज़ पर इससे बेहतरीन मजमुआ और क्या हो सकता है? फ़ैज़ मेरे पसंदीदा शायर है और एक दौर वो भी था जब मैं उनको ग़ालिब से आगे रखता था. फ़ेज़ का मार्क्सवाद subjective था. ये कहने के लिए इससे बड़ी बात क्या होगी कि वो agnost थे. उन्होंने ख़ुदा को अपनाया न ठुकराया. जिस प्रकार ग़ालिब हर दौर में पढ़े जायेंगे, फ़ेज़ को भी ये एजाज़ हासिल है.