नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उसको न देखा हो
कन्हैया से नहीं कुछ कम सनम मेरा वो हरजाई
मुहब्बत के करूँ भुजबल की मैं तक़रीर क्या यारो
सितम हो तो उसको उठा लेता है ज्यूँ राई
झंकाया था मुझे ज़ाहिद ने कूचा रंजे-दुनिया का
मुगां ने राहते-दुनिया की मुझको बात बतलाई
झंकाया=दिखाया, मुगां= साक़ी
पर इस से क्या कि तेरी ज़ुल्फ़ ने आरिज़ ने आँखों ने
पियारे बाँट ली बाहम मेरी आँखों की बीनाई
आरिज़=गाल, बाहम =आपस में
इंग्लैंड के प्रसिद्ध लेखक जनाब एच जी वेल्स ने सं 1895 में एक उपन्यास लिखा था जिसका नाम था "द टाइम मशीन " इसमें एक ऐसी मशीन का जिक्र था जिसमें बैठ कर आप अपने वर्तमान समय से पीछे या आगे के समय में जा सकते हैं। मुझे इस मशीन की कब से तलाश थी जो आज सुबह घूमते हुए मुझे एक कूड़ा पात्र में पड़ी मिली। किसने कब और क्यों इस मशीन को वहां फेंका इसका पता नहीं चल पाया। मैं तो देखते ही पहचान गया क्यूंकि टाइम मशीन उपन्यास को मैंने बचपन से अब तक न जाने कितनी बार पढ़ा होगा।मैंने फ़ौरन मशीन उठाई और उसे घर ले जाने लगा ,पार्क में घूम रहे लोग मेरी इस हरकत पे ठहाके लगाने लगे। मूर्ख अक्सर समझदार लोगों की हरकतों पर ठहाके लगाते ही हैं, ये कोई नयी बात तो है नहीं। घर आकर मशीन साफ़ की कुछ ढीले पेच कसे पुर्ज़ों में तेल दिया , सीट पर बैठा और स्टार्ट बटन दबा दिया।
निकलके चौखट से घर की प्यारे जो पट के ओझल ठिठक रहा है
समट के चट से तेरे दरस को नयन में जियरा अटक रहा है
समट =सिमट
जिन्हों की छाती से पार बरछी हुई है रन में वो सूरमा है
बड़ा वो सावंत मन में जिसके बिरह का कांटा खटक रहा है
जिन्हों की =जिनकी
मुझे पसीना जो तेरे मुख पर दिखाई दे है तो सोचता हूँ
ये क्यों कि सूरज की जोत आगे हर एक तारा छिटक रहा है
बटन के दबते ही खट खट खटाक की आवाज़ें आयीं एक पंखा बहुत तेज़ी से घूमा और उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं जब होश आया तो देखा मैं एक बाग़ में गिरा पड़ा हूँ कुछ लोग मुझे हैरत से देख रहे हैं और आपस में खुसुर-पुसुर कर रहे हैं। मैंने मरियल सी आवाज़ में पास ही खड़े लम्बी सफ़ेद दाढ़ी और अजीब सी कीमती पगड़ी पहने हुए एक बुजुर्गवार से पूछा कि मैं कहाँ हूँ तो वो मुस्कुराते हुए बोले " मियां तुम लखनऊ में हो नवाब आसफुद्दौला के महल के बाग़ में। "लखनऊ ? नवाब आसफुद्दौला ? मैंने हैरत से कहा लेकिन मन ही मन खुश भी हुआ कि टाइम मशीन काम कर रही है ,शायद जोश और ख़ुशी में मुझसे ही कोई गलत बटन दब गया होगा वरना मेरा इरादा लखनऊ वो भी आसफ़ुद्दौला के समय ,याने सन 1777 के आसपास, में आने का तो कतई नहीं था।
आदम का जिस्म जबकि अनासिर से मिल बना
कुछ आग बच रही थी सो आशिक का दिल बना
अनासिर -तत्व
जब तेशा कोहकन ने लिया हाथ तब ये इश्क़
बोला कि अपनी छाती पे धरने को सिल बना
तेशा =पत्थर काटने का हथियार, कोहकन =फ़रहाद
अपना हुनर दिखाएंगे हम तुझको ए शीशागर
टूटा हुआ किसी का अगर हम से दिल बना
मैंने फक्कड़ से उन बुजुर्गवार से पूछा कि अगर ये 1777 के आसपास का वक्त है तो मियां मीर तकी मीर साहब का आपको कुछ पता है ? अब साहब मीर का नाम सुनना था की बुजुर्गवार के मुंह से फर्राटे से गालियां निकलने लगीं वो भी ऐसी कि अगर उन्हें यहाँ लिख दूँ आप यकीनन मुझे ढूंढते हुए मारने पहुँच जाएँ। गुस्से से कांपते और मुझे गालियाँ देते वो अपनी छड़ी पकडे तुरंत चले गए। उनके वहां से जाते ही पास खड़े एक बुजुर्ग ने धीरे से मेरे कान में कहा ये क्या जुल्म कर दिया मियां इनके सामने मीर का नाम क्यों लिया ? दोनों आपस में एक दूसरे की शक्ल तक नहीं देखते और एक दूसरे पर गालियों की वो बौछार करते हैं कि सुनने वाला कानों पे हाथ धर ले। सच तो ये है कि मीर साहब ने इन्हें अपने बराबर का शायर माना है लेकिन इन्होने अपनी क़ाबलियत का बड़ा हिस्सा लोगों पर कीचड़ उछालने और गालियां देने में खर्च कर दिया। " शायर ? ये जनाब शायर हैं?" - मैंने कहा। "जी हाँ कमाल के शायर हैं आपने इनका नाम नहीं सुना ? ' जी नहीं - मैंने कहा -क्या नाम हैं इनका ? जवाब मिला -मिर्ज़ा 'सौदा'
क्या हुस्नो-इश्क में अब बिगड़ी है बेतरह से
तीरे-निगह तो वां हैं यां बर्छियाँ हैं आहें
आवे वो सैर करने इक बार जो चमन में
गुल आसमाँ पे अपनी फेंकें सदा कुलाहें
कुलाहें =टोपियां
उस दिल में गो हमारी उल्फ़त नहीं रही अब
अपनी तरफ से ऐ दिल हम तो भला निबाहें
टुक मेह्र दे खुदाया काफ़िर बुतों के दिल में
या आशिकों के जी से खो दे उन्हों की चाहें
टुक=थोड़ी, मेह्र=रहम, उन्हों की =उनकी
मैंने बुजुर्गवार से दरख़्वास्त की कि मुझे 'सौदा' के बारे में बताएं क्यूंकि मैंने उनका नाम भले ही कहीं सुना हो लेकिन उनके बारे में कहीं कुछ पढ़ा नहीं है। वो मुझे एक पेड़ के नीचे लेकर बैठ गए। मशक से पानी पिलाया खाने को गुड़ धानी दी और बोले कि मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी "सौदा" के बुजुर्ग काबुल के रहने वाले थे और सिपाही पेशा थे। अच्छा इज़्ज़तदार खानदान था। उनके पिता मिर्ज़ा मुहम्मद शफी व्यापार के सिलसिले में दिल्ली आये और यहीं बस गए। दिल्ली में ही सौदा का जन्म 1713 में हुआ, उनका लालन-पालन शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में ही हुई , मीर साहब के मामू खान आरज़ू और शाह हातिम जैसे शायर उनके उस्ताद थे। मिर्ज़ा पहले फ़ारसी में लिखा करते थे खान आरज़ू के कहने पर ही उन्होंने से फ़ारसी छोड़ उर्दू सीखी और फिर उर्दू में ही कहने लगे। वो खानदानी रईस थे। जवानी मस्ती में काट रहे थे कि दिल्ली पर मराठाओं ने हमला कर दिया तो जनाब फर्रुखाबाद चले गए और बहुत से साल वहीँ शायरी करते हुए गुज़ारे।
सब्रो-आराम कहूं या कि मैं अब होशो-हवास
हो गया उसकी जुदाई में जुदा क्या क्या कुछ
जौफ़-ओ-नाताकती-ओ-सुस्ती-ओ-एज़ाशिकनी
एक घटने में जवानी के बढ़ा क्या क्या कुछ
जौफ़-ओ-नाताकती-ओ-सुस्ती-ओ-एज़ाशिकनी =कमज़ोरी और बदन टूटना
सैर की क़ुदरते-ख़ालिक़ की बुताँ में 'सौदा'
मुश्त भर ख़ाक में जल्वा है भरा क्या क्या कुछ
क़ुदरते-ख़ालिक़ =ईश्वर की लीला , मुश्त =मुठ्ठी
बुजुर्ग अपनी रौ में बोले जा रहे थे और मैं सुने जा रहा था कि "आखिर 1771 में सौदा फर्रुखाबाद से फैज़ाबाद होते हुए लखनऊ आ बसे। सौदा एक और तो बहुत मिलने-जुलने वाले और यारबाश आदमी हैं तुनकमिज़ाज ऐसी कि क्या कहा जाय , जिस पर बिगड़ते उसकी सात पुश्तों की खबर ले डालते और ऐसी ऐसी जगहों से बख़िया उधेड़ते कि शर्म से आँखें नीची हो जाएँ। ये हज़रत औरत मर्द लड़का लड़की बूढा बुढ़िया किसी के भी कपडे उतारने से नहीं चूकते और तो और बेज़बान और नासमझ जानवरों घोडा हाथी वैगरह को भी नहीं छोड़ते।" मैंने ये सुनकर कहा कि "बड़े ही अजीब इंसान हैं मिर्ज़ा सौदा, तो बुजुर्गवार बोले कि " सौदा की ज़बान जितनी ज़हरीली है उनका दिल उतना ही बड़ा है वो सच्चे मायने में बड़े शायर ही नहीं बड़े आदमी भी हैं "
क्या जानिये किस-किस से निगह उनकी लड़ी है
जिस कूचे में जा देखो तो इक लोथ पड़ी है
लोथ =लाश
मैं हाल कहूं किससे तेरे अहद में अपना
रोते हैं कहीं दिल को कहीं जी की पड़ी है
ठहरा है तेरी चाल में और जुल्फ में झगड़ा
हर एक ये कहती है लटक मुझमें बड़ी है
'उर्दू' में कसीदे कहने का चलन अगर देखा जाय तो मिर्ज़ा सौदा ने ही शुरू किया। कसीदों के अलावा उन्होंने मर्सिये लिखने में भी महारत हासिल की .मिर्ज़ा सौदा की शायरी में फ़ारसी शब्दों का बहुत कम प्रयोग हुआ है और जो हुआ है वो इतना पुख्ता है कि वो लफ्ज़ आने वाले समय में भी बने रहेंगे "ये बात कह कर बुजुर्गवार चुप हुए और बोले "बरखुरदार इस से पहले की मिर्ज़ा सौदा तुम्हें गिरफ्तार करने नवाब के सिपाही साथ ले कर आयें तुम फ़ौरन यहाँ से निकल लो।" मैंने भी इसी में अपनी भलाई समझी ,टाइम मशीन में बैठा बटन दबाया तो लिखा आया सन ---? मैंने फ़ौरन 2018 टाइप किया, पंखा तेजी से घूमा खट खट खटाक की आवाज़ हुई और उसके बाद तेज़ झटका सा लगा होश आया तो मैं अपने घर पे अपने बिस्तर पे था. किसी तरह की कोई टाइम मशीन वहां नहीं थी। मुझे लगता है ये सब सपना ही था। शायद मिर्ज़ा सौदा चाहते थे कि मैं उनके बारे में लिखूं ,तभी ये सब कुछ हुआ।
आलूदा -जि-कतराते-अरक़ देख जबीं को
अख़्तर पड़े झांके हैं फ़लक पर से जमीं को
आलूदा -जि-कतराते-अरक़ देख जबीं को =लज्जा से माथे पे आये पसीने को देख कर ,
अख़्तर=तारे
आता है तो आ शोख़ कि मैं रोक रहा हूँ
मानिंदे-हुबाब अपने दमे-बाज़पसीं को
मानिंदे-हुबाब =बुलबुले की तरह , दमे-बाज़पसीं=आखरी सांस
मतलब के मेरे अर्ज़ पे इक बार भी 'सौदा'
'हाँ' ने न छुड़ाया कभी उस लब से 'नहीं' को
होश में आते ही मैंने सौदा की शायरी तलाशने की कोशिश की नतीजतन मुझे राजपाल एन्ड संस् दिल्ली से प्रकाशित 'उर्दू के लोकप्रिय शायर' श्रृंखला के अंतर्गत छपी "सौदा -जीवनी और संकलन " किताब हाथ लगी। आज उसी किताब की ग़ज़लों से कुछ अशआर आपके सामने रख रहा हूँ। ये किताब अब शायद उपलब्ध नहीं है।हिंदी में सौदा को पढ़ने के लिए आपको रेख़्ता की वेबसाइट पर जाना होगा। सौदा की ग़ज़लों में करुणा का पक्ष लगभग नहीं है कारण चाहे उनका मुग़ल बच्चा होना हो ,दरबारियों और सामंत वर्ग के साथ उठना-बैठना हो, प्रेम का वास्तविक अनुभव न होना हो आदि दूसरे उनकी ग़ज़लों में सूफ़ीवाद का प्रभाव न के बराबर है फिर भी सौदा की ग़ज़लों का अपना महत्त्व है और उर्दू साहित्य में एक विशिष्ठ स्थान है। उनका शब्द चयन अनूठा होता था और उनके विषयों की सादगी भी बहुत मनमोहक हुआ करती थी।
जाते हैं लोग काफ़िले के पेशो-पस चले
दुनिया अज़ब सरा है जहाँ आ के बस चले
पेशो-पस =आगे पीछे
ऐ गुंचा आँखें खोल के टुक तो चमन को देख
जमईयते-दिली पे तेरी फूल हँस चले
जमईयते-दिली = इत्मीनान
तेरे सुखन को मैं ब-सरो-चश्म नासेहा
मानूं हज़ार बार अगर दिल पे बस चले
सुख़न=बात , ब-सरो-चश्म=रात-दिन, नासेहा=धर्मोपदेशक
एक बात और जो सौदा को बड़ा शायर बनाती है वो है ईहामगोई से परहेज़। ईहामगोई याने दो अर्थ रखने वाले शब्दों का प्रयोग। इस शाब्दिक कलाबाज़ी में कवित्व की हत्या हो जाती है. सौदा के पूर्व के शायरों ने इस कलाबाज़ी का भरपूर प्रयोग किया था जिसे 'सौदा' ने नक़्क़ारे की चोट पर इस खिलवाड़ को ख़तम कर दिया जबकि उनके समकालीन 'मीर' इसके बड़े शौकीन थे । 'सौदा' ने अलंकारों के प्रयोग से पीछा छुड़ाया और बयान को ज्यादा महत्त्व दिया। 'सौदा' अपने हुनर के प्रदर्शन के लिए एक काम करते थे जिसे आज कोई पसंद नहीं करता वो है मुश्किल से मुश्किल रदीफ़-काफियों में शेर कहना, इसके लिए बड़ी प्रतिभा और अभ्यास की जरुरत होती है लेकिन ये भी है तो कलाबाज़ी ही.
जौहर को जौहरी और सर्राफ़ ज़र को परखे
ऐसा कोई न देखा वो जो बशर को परखे
ज़र=सोना
जौहर न होवे जिसमें जौहर-शनास कब है
जो साहबे -हुनर हो वो ही हुनर को परखे
दर्रे-सुख़न को अपने परखाए आदमी से
हरगिज़ न कह तू 'सौदा' हर जानवर को, परखे
दर्रे-सुख़न=काव्य-मुक्ता
'सौदा' से पहले हिंदी के देशज शब्द अंधाधुंध प्रयोग में लिए जाते थे 'सौदा ' ने इनमें बहुत से खड़खड़ाने वाले शब्द हटा कर फ़ारसी के मीठे शब्द प्रयोग किये।उन्होंने फ़ारसी की उपमाएं रूपक संकेत आदि भी उर्दू में लाने का काम किया जो अभी तक उर्दू काव्य की नींव का काम दे रहे हैं। उर्दू का वर्तमान रूप दरअसल 'सौदा'का ही दिया हुआ है। चलिए अब 'सौदा' की बात को यहीं विराम देते हुए निकलते हैं अगली किताब की तलाश में तब तक आप उनके ये मुख्तलिफ शेर पढ़ें और दाद दें :
दिल को तो हर तरह से दिलासा दिया करूँ
आँखें तो मानती नहीं मैं इसको क्या करूँ
***
ऐ मियां इश्क़ के मारों को कहीं ठौर नहीं
दिल नहीं अब्र नहीं आप नहीं और नहीं
***
मसीहा सुन के उठ जावे जो कुछ कहिये दवा कीजे
मुहब्बत सख्त बीमारी है इसको आह क्या कीजे
***
ऐसा ही जाऊं-जाऊं करते हो तो सिधारो
इस दिल पे कल जो होगी सो आज ही वो हो ले
***
हर आन देखता हूँ मैं अपने सनम को शैख़
तेरे खुदा का तालिबे-दीदार कौन है
तालिबे-दीदार =दर्शन का इच्छुक
***
गैरते-इश्क़ आके ऐ 'सौदा' तू परवानों से सीख
शमअ से अपना भी मिलन देख जल जाते हैं ये
***"
क़ीमत में उनके गो हम दो जग को दे चुके अब
उस यार की निगाहें तिस पर भी सस्तियाँ हैं
***
बे-इख़्तियार मुंह से निकले है नाम तेरा
करता हूँ जिस किसी को प्यारे ख़िताब तुझ बिन
ख़िताब=सम्बोधन
***
किस्मत कि मैं दिल अपना किया पीस के सुरमा
तिस पर भी नहीं चश्म में मंज़ूर किसू के
***
वही जहाँ में रमूज़े-क़लन्दरी जाने
भभूत तन पे जो मलबूस-कैसरी जाने
रमूज़े-क़लन्दरी=फ़कीरी के रहस्य , मलबूस-कैसरी =राजाओं के वस्त्र
9 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-08-2018) को "सीख सिखाते ज्येष्ठ" (चर्चा अंक-3070) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया
बहुत सुंदर तरीके के पेश किया है आपने ।
मज़ा आ गया शायरी पढ़कर
बहुत सुन्दर
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २१५० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
शुक्रिया आपका जो हमसे मिले - 2150 वीं ब्लॉग-बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
राजकमल से भी छपी है आदरणीय
हज़रते सौदा पर किय्या गया तब्सिरा उम्दा रहा, मुबारकबाद क़बूलें , भाई नीरज।
---दरवेश भारती मो 9268798930/ 8383809043
Ashaar apni jagh andaz e bayan nirala behtreen tabsira waah
Great dharam yug
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