Monday, July 2, 2018

किताबों की दुनिया - 184

लायक़ कुछ नालायक़ बच्चे होते हैं 
शे'र कहाँ सारे ही अच्छे होते हैं 

बच्चोँ की खुशियाँ ढेरों सुख देती हैं 
हाथ में उम्मीदों के लच्छे होते हैं 

हम ही उल्टा-सीधा सोचा करते हैं 
रिश्ते थोड़े पक्के-कच्चे होते हैं 

जब आँखों का एक भरोसा ढहता है 
सपनों के लाखों परखच्चे होते हैं 

बहुत मुश्किल काम है भाई , बहुत मतलब हद से ज्यादा मुश्किल । मुझे लगता है इस से आसान तो बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़ना हो सकता है। आप ही बताएं जिस किताब पर इंटरनेट खोलते ही ढेरों समीक्षाएं पढ़ने को मिलें , वो भी एक से बढ़ कर एक धुरंदर समीक्षकों द्वारा लिखी हुई ,टी.वी अख़बारों और पत्रिकाओं में किताब की चर्चा छाई हो, और तो और लोगों की ज़बान पर जिस किताब के शे'र लोकोक्ति मुहावरों की तरह आएं ,उस किताब पर मुझ जैसा अदना सा नौसिखिया भला कैसे और क्या लिख पायेगा ? इसी सोच के चलते ये किताब मेरे पास काफी अर्से से मेरी अलमारी में बंद रही। तभी अन्तर्मन से आवाज़ आयी -कभी कभी आती है ,विशेष रूप से जब मैं उलझन में होता हूँ तब -इस बार जरा देर से आयी लेकिन आयी- कि, रे मूर्ख नीरज गोस्वामी तू किस दुविधा में घिरा है ? तू कोई समीक्षक है ? तू तो एक साधारण सा पाठक है तू अब तक भी तो एक पाठक की हैसियत से ही लिखता आया तो अब भी लिख। 

 घर से बाहर झाँकती कुछ खिड़कियाँ अच्छी लगीं 
खिलखिलाती, चहचहाती बेटियाँ अच्छी लगीं 

मैंने उस एक्वेरियम की घुटती साँसे देख लीं 
कैसे कह देता मुझे वो मछलियाँ अच्छी लगीं 

था वो बचपन या जवानी या कि फिर अब इन दिनों 
मुझको बालों में टहलती उँगलियाँ अच्छी लगीं 

कुछ भी कहें ये अंतरआत्मा की आवाज़ होती जबरदस्त है ,हालाँकि ये अलग बात है कि हम में से अधिकांश इस की बात नहीं सुनते। मैं सुनता हूँ इसलिए जो कुछ ग़ज़ल की इस किताब के बारे में यहाँ लिख रहा हूँ वो एक पाठक की दृष्टि से लिख रहा हूँ , एक ऐसे पाठक की दृष्टि से जिसका शायरी पढ़ना जूनून बन चुका है। इस किताब को पढ़ते वक्त यूँ लगता है जैसे लफ्ज़ बहुत हौले से मिसरे में पिरोये गए हैं , जरा सी भी आवाज़ नहीं करते जैसे कोई गहरी नदी मंथर गति से बहे जा रही हो। सिर्फ गहरी नदी ही मंथर गति से बहती है और उथली शोर मचाती हुई. सलीके से बरते हुए लफ्ज़ मिसरों में मोतियों से जड़े लगते हैं। शे'र इतने सरल हैं कि हैरानी होती है। मेरे देखे सरल लिखना सबसे मुश्किल काम है क्यूंकि सरल लिखने के चक्कर में शे'र के सपाट होने का डर बना रहता है जरा सा चूके नहीं कि शे'र का कचरा हुआ समझिये। 

दोनों में बने रहना अपने से भी धोखा है 
चाहे तो इधर जाएँ, चाहे तो उधर जाएँ 

पहचान बुरे दिन की ऐसे ही तो होती है 
कुछ लोग बिना देखे आगे से गुज़र जाएँ 

वे खोखले बादल थे पानी ही न था उनमें 
बस यूँ ही गरजते थे चाहें सभी डर जाएँ 

शायर का काम होता है भाव पर लफ़्ज़ का मुलम्मा चढ़ाना। मुलम्मा चढाने में जो शायर खूबसूरत रंगों का और चढ़ाई गयी परत की मोटाई का खास ध्यान रखता है वो कामयाब कहलाता है। कुछ शायर निहायत बदरंग मुलम्मा चढ़ाते हैं तो कुछ इतना मोटा मुलम्मा चढ़ा देते हैं कि भाव उसमें घुट कर दम तोड़ देते हैं।आप जो कहना चाहते हैं अगर वो खूबसूरत तरीके से पेश किया गया है और पाठक की समझ में आ रहा है तो पाठक से वाह-वाही की भीख नहीं मांगनी पड़ती वो खुद ही उत्साहित हो कर वाह वाह करने लगता है। हमारे आज के शायर जनाब "प्रताप सोमवंशी " जिनकी किताब "इतवार छोटा पड़ गया " की बात मैं कर रहा हूँ को ये हुनर बखूबी आता है. इस किताब की ग़ज़लों के शे'र बेहद सरल हैं लेकिन सपाट नहीं। 


नहीं कुछ और, नतीजा है अपनी कमियों का
खुद अपने आप के बारे में पूछते रहना 

थका ही जानिये हमको, हमारे बस का नहीं 
जिधर हो भीड़ उसी और दौड़ते रहना 

ये उसका खुद को छिपाने का इक तरीका है 
किसी भी शख़्स से मिलते ही बोलते रहना

20 दिसम्बर 1968 को गाँव हरखपुर,प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में पैदा हुए प्रताप सोमवंशी ने हिंदी में एम् ऐ करने के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा और इसी से उनकी समाज और इंसान की गतिविधियों को देखने, परखने की दृष्टि बदल गयी। हम जिन छोटी मोटी बातों पर अमूमन ध्यान नहीं देते उन्हीं को प्रताप जी अपने अनोखे अंदाज़ में अपनी ग़ज़लों में पिरो देते हैं। उन्हें पढ़ कर लगता है कि अरे ये तो जैसे मेरी या फिर मेरे आस पड़ौस में रहने वालों की ही बात कर रहे हैं. हमें कोई भी शायरी तब पसंद आती है जब हम उस से खुद को कनेक्ट कर लेते हैं वरना तो वो बे-पढ़े लिखे वालों के लिए फ़ारसी के समान है। 

राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था 
दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था

शाम ढले ये टीस तो भीतर उठती है 
मेरा खुद से हर इक वादा झूठा था 

मेरे दौर को कुछ यूँ लिखा जायेगा 
राजा का किरदार बहुत ही बौना था 

राम तुम्हारे युग का - शेर तो बरसों से दशहरे पर बार बार व्हाट्सएप के ग्रुप्स में घूम घूम कर वॉयरल की श्रेणी में पहुँच चुका है. किस बला की सादगी से प्रताप जी ने रावण के माध्यम से आज के दौर के इंसान के दोगले-पन को नंगा किया है। इस विषय पर बहुत से शायरों ने क़लम चलाई है लेकिन जिस तरह प्रताप जी ने इसे बयां किया है वो विलक्षण है। इस किताब में ऐसे बहुत से शेर हैं जो पढ़ते ही झकझोर देते हैं और जेहन में अपनी जगह पक्की कर लेते हैं। विषय वही हैं जो बरसों बरस से चले आ रहे हैं लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण ही उन्हें यादगार बना देता है। नए विषय खोजना आसान नहीं होता लेकिन हज़ारों बार कहे गए विषयों पर नए ढंग से कुछ कहना एक बहुत ही कठिन कला है और प्रताप जी इस कला के माहिर खिलाडी हैं। 

चोटी तक पहुँची राहों से सीखो भी 
कैसे पर्वत काट के आना पड़ता है 

सच का कपड़ा फूल-सा हल्का होता है 
झूठ को पर्वत लाद के जाना पड़ता है 

दिल का क्या है जो कह दो सुन लेता है 
आँखों को ज़्यादा समझाना पड़ता है

30 वर्षों के लेखन के पश्चात जब प्रताप जी ने अपने इस पहले ग़ज़ल संग्रह पर काम करना शुरू किया तब उनके पास अधिक ग़ज़लें नहीं थी क्यूंकि उन्होंने अपनी ग़ज़लों का कहीं संग्रह किया ही नहीं था ना किसी पत्रिका को जिसमें उनकी ग़ज़लें छपी सहेजा और न ही अखबार में छपी ग़ज़लों की कतरनों को लेकिन जब इस बात का पता उनके इष्ट मित्रों को चला तो बहुत से परिचितों ने उनकी पुरानी संग्रह कर रखी हुई ग़ज़लें जो कभी किसी अखबार या पत्रिका में बरसों पहले छपी होगी उन तक पहुँचाने का काम किया। उनकी पत्नी ने घर के कोने कोने से ढूंढ ढूंढ कर उनकी डायरियों और पर्चियों को इकठ्ठा किया और इस तरह उनकी लगभग 100 ग़ज़लें इकठ्ठा हो गयीं इसीलिए वो कहते हैं कि ये ग़ज़ल संग्रह सब का है सिर्फ लिखा हुआ मेरा है। लगभग तीस वर्षों के पत्रकारिता के अनुभव का निचोड़ हैं सोमवंशी जी की ग़ज़लें। 

हर मौके की, हर रिश्ते की ढेर निशानी उसके पास 
अल्बम के हर इक फ़ोटो की एक कहानी उसके पास 

कई ख़ज़ाने किस्से वाले इक बच्चे के पास मिले 
दादा-दादी उसके पास, नाना-नानी उसके पास 

सोच रहा हूँ गाँव में जाकर कुछ दिन अब आराम करूँ  
वहीँ कहीं पर रख आया हूँ नींद पुरानी उसके पास 

पत्रकारिता और ग़ज़ल या कविता लेखन यूँ तो दो विरोधभासी काम हैं लेकिन सोमवंशी जी ने दोनों को बहुत खूबी से अंजाम दिया है। पत्रकारिता ने उनके अनुभव का विस्तार किया जिसकी बदौलत उनके ग़ज़ल लेखन को नए आयाम मिले। पत्रकारिता ने उन्हें देश दुनिया के खूबसूरत -बदसूरत चेहरे देखने समझने का मौका दिया तो ग़ज़ल लेखन ने उन्हें शब्द बद्ध करने की संवेदना दी। बहुत अच्छी बुरी घटनाओं को और नयी पुरानी यादों को वो बहुत अद्भुत ढंग से अपनी ग़ज़लों में ले आते हैं। कविता या ग़ज़लें लिखना उन्हें सुकून देता है। 

आह, उदासी, बेचैनी, कोहराम लिखूं 
यादों के मैं आखिर क्या-क्या नाम लिखूं 

यादें ढोये ,ख्वाब भी पाले, धड़के भी 
इक बेचारे दिल को कितने काम लिखूं 

एक नया फ़रमान मुझे मिल जाता है 
जब ये चाहा इक पल का आराम लिखूं 

प्रताप जी के बारे में प्रसिद्ध शायर एहतराम इस्लाम साहब लिखते हैं कि "सोमवंशी जी की समाजी हैसियत कितनी भी बुलंद क्यों न हो गयी हो वो आज भी ज़मीन के ही आदमी हैं। आज भी उनका मुआमला यही है कि सामने चुने हुए पुर-तकल्लुफ़ दस्तरख़्वान पर सजी ढेर सारी आधुनिक थालियों के बीच किसी देसी थाली पर उनकी निगाह सबसे पहले पहुँचती है। तले हुए काजुओं पर भुने हुए चनों को तरजीह देना उनकी पहचान है। इसीलिए उनके अशआर में अवामी परिवेश अपनी तमामतर गर्माहट के साथ मौजूद नज़र आता है। उसमें भी 'बाज़ार' की तुलना में 'घर' पर बात करना प्रताप को अधिक प्रिय है " 

सब केवल अपनी कमज़ोरी जीते हैं 
रिश्ता तो कोई बीमार नहीं होता 

सुनना, सहना, चुप रहना फिर हंसना भी 
खुद पे इतना अत्याचार नहीं होता 

ये सच है वो हर हफ्ते ही आता है 
सबकी किस्मत में इतवार नहीं होता 

पत्रकारिता के अलावा उनकी रूचि कविता ,कहानी, कृषि, पर्यावरण, शिक्षा और राजनीती के क्षेत्र में भी है। बहु आयामी प्रतिभा के धनी प्रताप जी की मलाला युसुफ़ज़ई पर लिखी कविता का अनेक भाषाओँ में अनुवाद और प्रकाशन हुआ है। वो बुंदेलखंड में किसानों की आत्महत्या और खेती के सवालों पर लगातार लिखते आ रहे हैं। बच्चों के लिए भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। प्रताप जी इनदिनों हिंदी दैनिक अखबार हिंदुस्तान में वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं और मयूर विहार फेज़ -1 दिल्ली में रहते हैं। 

रिश्तों के उलझे धागों को धीरे धीरे खोल रही है 
बिटिया कुछ-कुछ बोल रही है ,पूरे घर में डोल रही है 

दिल के कहे से आँखों ने बाज़ार में इक सामान चुना है 
हाथ बिचारा सोच रहा है जेब भी खुद को तोल रही है 

एक अकेला कुछ भी बोले कौन शहर में उसकी सुनता 
पेड़ पे एक अकेली कोयल जंगल में रस घोल रही है

 "इतवार छोटा पड़ गया " वाणी प्रकाशन की "दास्ताँ कहते कहते " श्रृंखला की किताब है जो हार्ड बाउन्ड और पेपरबैक दोनों में उपलब्ब्ध है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वाणी प्रकाशन को vaniprkashan@gmail.com पर मेल करें या इनकी वेब साइट www .vaniprkashan.in पर लॉग इन करके ऑन लाइन मंगवा लें। ये किताब अमेज़न के अलावा और भी साहित्य की बहुत सी इंटरनेट साइट पर उपलब्ध है। सबसे श्रेष्ठ तो ये है कि आप सोमवंशी जी को उनके मोबाईल न 9650938886 पर संपर्क कर इन बेजोड़ ग़ज़लों के लिए बधाई दें। आप उन्हें pratapsomvanshi@gmail.com पर मेल से बधाई भेज सकते हैं। 

दर्जनों किस्से-कहानी खुद ही चलकर आ गये 
उससे मैं जब भी मिला इतवार छोटा पड़ गया 

उसने तो एहसास के बदले में सब कुछ दे दिया 
फायदा-नुक़सान का व्यापार छोटा पड़ गया 

चाहतों की उँगलियों ने उसका काँधा छू लिया 
सोने,चाँदी, मोतियों का हार छोटा पड़ गया 

सौ से अधिक ग़ज़लों से सजी इस किताब में से कुछ एक शेर छांटना बाकि के शेरों के साथ नाइंसाफी होती है।जो शेर इस पोस्ट में आ नहीं पाए उनसे माज़रत के साथ अर्ज़ करना चाहूंगा कि लॉटरी का टिकट सब खरीदते हैं लेकिन नंबर किसी-किसी का ही निकलता है इसका मतलब ये तो नहीं कि जिनका नंबर नहीं निकला वो निकम्मे हैं या उन्होंने टिकट के पैसे कम दिए हैं ये तो महज़ चांस की बात है। तो पाठको अगर आपको सभी शेरों का आनंद लेना है तो इस किताब की और हाथ बढ़ाना ही होगा ,आपके हाथ बढ़ाने से ये किताब आपको गले लगा लेगी। लीजिये चलते चलते पढ़िए इस किताब से लिए गए कुछ फुटकर शेर :  

कभी खत में कोई ख़्वाहिश न आयी 
ये घर मज़बूरियां पढता बहुत है 
*** 
छपा हो जिसके दोनों और मतलब 
वो सिक्का आजकल चलता बहुत है
*** 
पहले दिन छोटे पड़ते थे 
अब लगता है रात बड़ी है 
*** 
किसी के साथ रहना और उससे बच के रह लेना 
बताओ किस तरह से लोग ये रिश्ता निभाते हैं
***
 तेरा-मेरा , लेना-देना ,खोना-पाना कौन गिने
 इतना ज्यादा जोड़-घटाना मेरे वश की बात नहीं 
 ***
 हर कमरे की अपनी दुनिया होती है 
 आँगन ही बस तन्हा-तन्हा दिखता है 
*** 
दिन कुछ उलटी-सीधी हरकत करता है 
इसीलिए मन रात को बोझिल होता है

20 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

सोमवार की प्रतीक्षा दिनोदिन और भी बेहतर फल देने लगी है ,शानदार समीक्षा .

Unknown said...

Brilliant. Waiting for more lines from you has become more fruitful as it has true essence everytime in narration.

How do we know said...

Vakai Pratap Somvanshi ji ki Kavita par Wah khud hi nikalti hai!

Unknown said...

इतने शानदार धारदार शेर पढ़ मेरे वाह छोटे पड़ गए

सुनीता शानू said...

सही कहा नीरज जी, इस किताब की इतनी ज्यादा समीक्षा हो चुकी है कि यह समझना मुश्किल होगा कि क्या लिखा जाये, लेकिन आपने भी किताब के बेहतरीन शेर चुन कर एक खूबसूरत तस्वीर बना ही डाली है,बहुत बहुत बधाई अब प्रताब जी की अगली पुस्तक का इन्तजार है...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-07-2018) को "ब्लागिंग दिवस पर...." (चर्चा अंक-3020) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

दिगम्बर नासवा said...

प्रताप जी की गजलों और आपकी समीक्षा ... दोनों मुश्किल हुए भी इतनी सहज हैं की वाह वाह करते हुए दिल खुश हो जाता है ...
हर शेर बेमिसाल है और गज़ब का अर्थपूर्ण है ....
बहुत बधाई इस किताब की प्रताप जी को और को लाजवाब समीक्षा के लिए ....

Unknown said...

लाजवाब ... प्रताप जी और नीरज जी दोनों को बधाई|

सुधीर सिंह said...

संवेदना के सघन स्पर्श की कविताओं से खूबसूरत मुलाकात

Unknown said...

हम ही उल्टा-सीधा सोचा करते हैं
रिश्ते थोड़े पक्के-कच्चे होते हैं
था वो बचपन या जवानी या कि फिर अब इन दिनों
मुझको बालों में टहलती उँगलियाँ अच्छी लगीं
दिल का क्या है जो कह दो सुन लेता है
आँखों को ज़्यादा समझाना पड़ता है
दर्जनों किस्से-कहानी खुद ही चलकर आ गये
उससे मैं जब भी मिला इतवार छोटा पड़ गया।
प्रताप सोमवंशी , बहुत ही सरल और प्रभावशाली शायरी

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

Bahut khub

Unknown said...

नीरज जी कितनी ही समीक्षाएं हो जाए और आपको संकोच हो कि क्या लिखूं ये वाक्य तो गलत सिद्ध हो गया.. आपने अपने ढंग से संग्रह पढ़ा और बेहद उम्दा लिखा...यही संग्रह की सार्थकता है कि कितने सच्चे और अच्छे शेर हैं ...लेखक और समीक्षक दोनों को बधाई...

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

प्रताप सोमवंशी एक जागरूक पत्रकार हैं। उनकी यह जागरूकता उनकी ग़ज़लों में भी दिखाई पड़ती है। वह अपने आसपास घटित घटनाओं को ग़ज़ल के सांचे में ढाल देते हैं। वह एक ऐसे समर्थ शायर हैं जो अपने आसपास की दुनिया को एक बेहतरीन दस्तावेज़ के रूप में पेश करते हैं। इसीलिए उनके ग़ज़लों में बहुत नयापन है। उनकी ग़ज़लें हमारे समय का सही प्रतिनिधित्व करती हैं। एक असरदार शायर को शानदार तरीके से पेश करने के लिए नीरज भाई आपको बहुत-बहुत बधाई।

SATISH said...

Bahut sunder prastuti...Neeraj Ji ... Pratap ji ko badhai.. Raqeeb

Unknown said...

पहले दिन छोटे पड़ते थे
अब लगता है रात बड़ी है
इतने ख़ूबसूरत, उम्दा और सार्थक अश्आर से सजी-सँवरी इस किताब पर जितना ही कहा जायेगा, कम ही पड़ेगा।
किताब के ख़ालिक़ और इसके तब्सिराकार ---दोनों के लिए नेक ख़्वाहिशात के साथ.......
'दरवेश' भारती, मो.09268798930

Onkar said...

बहुत बढ़िया

mgtapish said...

ये उसका खुद को छिपाने का इक तरीका है
किसी भी शख़्स से मिलते ही बोलते रहना
Kya hi achcha hai waah khoob apko Naman
Kya khoobsoorat ashaar padhwate Hain kahan se moti Chun late Hain

Parul Singh said...
This comment has been removed by the author.
Kahkashan Adabi Baithak said...

Congratulations Neeraj
You have written the blog with an excellent analysis and flow. Your own selection of words is superb. Keep it up.

Umesh Maurya said...

लायक़ कुछ नालायक़ बच्चे होते हैं
शे'र कहाँ सारे ही अच्छे होते हैं

बच्चोँ की खुशियाँ ढेरों सुख देती हैं
हाथ में उम्मीदों के लच्छे होते हैं

हम ही उल्टा-सीधा सोचा करते हैं
रिश्ते थोड़े पक्के-कच्चे होते हैं -

ख़ूबसूरत अशआर से सजा बेहतरीन अंक
। बधाई सर जी ...
.
उमेश मौर्य