उसे तो जाना था , वो जा चुकी, है शिकवा क्या
वो कितना खींच भी सकती थी मेरी व्हील चेयर
वो जिसको पाँव के नीचे से कब का खींच लिया
बना रहा हूँ मैं अब भी उसी ज़मीन पे घर
फ़िराक़ में था वो दीवारो-छत बनाने की
मैं फिर भी कह नहीं पाया कि कोई नींव तो धर
आज के दौर में जो चाहो वो जानकारी सहजता से उपलब्ध है। कुछ भी अब अनजाना नहीं रह गया है ,भला हो इंटरनेट के गूगल महाराज का जिसने हर बात की गोपनीयता को सार्वजनिक करने का ठेका ले रखा है -वो भी मुफ़्त में। ऐसे में आपको 13 सितंबर 1879 को बदायूं जिले के एक मोतबर शायर का नाम मालूम न हो ऐसा हो ही नहीं सकता जब तक कि आपमें उसे जानने की रूचि ही न हो। लेकिन मैं मान के चलता हूँ कि 26 अगस्त 1940 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़्सत फ़रमाने वाले उर्दू के महानतम शायरों में से एक ,जिनका ये शेर "मौत का इंतज़ार बाक़ी है; आप का इंतज़ार था,न रहा" आज भी उतना ही मक़बूल जितना कि ये आज से करीब 100 साल पहले था,ये शेर जनाब ज़नाब "फ़ानी बदायूनी " का है जिनका नाम तो आपने सुना ही होगा। क्या कहा ? नहीं सुना ? ओह !! कोई बात नहीं अब सुन लिया ना , लेकिन इनकी शायरी की बात हम आज नहीं करने वाले , कभी करेंगे , लेकिन आज नहीं , तो फिर आज उनका जिक्र क्यों ? बताते हैं , बताते हैं सब्र तो कीजिये :
चाँद तारों को पुकारूंगा मैं अपनी छत से
जो भी चाहे मेरी आवाज़ में शामिल हो जाय
धूप बिखरी है जो सड़कों पे उठा लो इसको
कल इसे देखना शायद यहाँ मुश्किल हो जाय
सर झुकाये हुए बैठा हूँ मैं कब से 'फ़ानी"
हो जिसे शौक़ वो आ के मेरा क़ातिल हो जाय
दरअसल 'फ़ानी' का जिक्र आते ही जो नाम ज़ेहन में गूंजा वो 'फ़ानी बदायूनी' साहब का ही था इसलिए उनका जिक्र करना पड़ा। सोच लिया है कि बात तो आज हम 'फ़ानी' साहब की ही करेंगे लेकिन "फ़ानी बदायूनी" की नहीं "फ़ानी जोधपुरी" की, जो हमारे पहले वाले 'फ़ानी' साहब से पूरे 106 सालों के बाद याने 24 फ़रवरी 1985 को जोधपुर में पैदा हुए। इन 106 सालों में पूरी दुनिया बदल चुकी है ,इंसान की सोच भी बदल चुकी है लेकिन इंसान के सुख-दुःख, परेशानियां, फ़ितरत आदि में कोई खास बदलाव नहीं आया है। आपके व्हील चेयर पर बैठे होने पर पुराने ज़माने वाली महबूबा आपको छोड़ के नहीं जाती इसकी कोई गारंटी नहीं है ,ये हो सकता है कि सामाजिक दबाव के चलते वो जबरदस्ती मन मार के आपकी चेयर का हैंडल पकडे रहती जबकि आज की महबूबा हैंडल छोड़ने का निर्णय बिना दबाव के ले सकती है और महबूब भी प्रेक्टिकल सोच रखते हुए उसे जाने दे सकता है। ये उस बदलाव का फल है जो इंसानी फितरत में आया है। इंसान अब दिल से कम दिमाग से ज्यादा काम लेने लगा है।
ऋषि दधीचि सा आओ सलूक़ मुझसे करो
जो तुमको चाहिए भरपूर मेरे अंदर है
बनाता रहता है बेचैनियों के महलों को
जो तेरी याद का मज़दूर मेरे अंदर है
न कोई चेहरा न साया न अक्स है 'फ़ानी'
तो किसकी मांग का सिन्दूर मेरे अंदर है
'फ़ानी बदायूनी' और 'फ़ानी जोधपुरी' में सिर्फ फ़ानी ही कॉमन है बाक़ी दोनों की शायरी में ज़मीन आसमान का अंतर है। फ़ानी जोधपुरी की शायरी के तेवर कुछ नए से हैं। रिवायत से दूर लेकिन हक़ीक़त के पास। मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की सेकेट्री जनाब 'नुसरत मेहदी' साहिबा ने, जो खुद भी देश की अव्वल दर्ज़े की शायरा हैं और जिनकी किताब "मैं भी तो हूँ " का जिक्र हम इस श्रृंखला में बहुत पहले कर चुके हैं,'फ़ानी जोधपुरी' साहब की किताब "पानी बैसाखियों पे ' जिसका हम आज जिक्र कर रहे हैं, की भूमिका में लिखा है कि "कोई भी फ़नकार अपने ज़माने का आईना होता है उसे जो कुछ उस आईने में दिखाई देता है उसे वो अपने फ़नकारा अंदाज़ में पेश करता है। इस तरह कोई भी शायर अपने कलाम में ज़िन्दगी के रोज़मर्रा के मसाइल के साथ समाज में आई गिरावट का ज़िक्र करने के साथ साथ उनके इस्लाह की तदबीरों को भी अपने अंदाज़ में पेश करता है। उर्दू ज़बान को सलासत आमफ़हम होने और हरदिल अज़ीज़ बनाने के हवाले से एक नयी शक्ल देना भी शायर अपना अख़लाक़ी फ़र्ज़ समझता है। फ़ानी जोधपुरी ने हुस्नो-इश्क के साथ अपने मुआशरे की बेराहरवी का बहुत सलीके और हुनरमंदी से अपने अशआर में ढाला है "
बदल डालूंगा मैं जब खोखले रस्मो-रिवाज़ों को
मेरे अंदर बसी कमज़ोर औरत जीत जाएगी
मुझे इक डर सताता है सदा बाज़ार जाने से
मेरे बटुवे से मेरी हर जरुरत जीत जाएगी
हिफ़ाज़त से नहीं रक्खा अगर तहज़ीब को 'फ़ानी'
ज़हानत हार जाएगी, जहालत जीत जायेगी
ज़हानत =विद्व्ता, जहालत=अज्ञानता
शायद अप्रेल या जून 2013 में "लफ्ज़" के पोर्टल पर फ़ानी जोधपुरी को पहली बार पढ़ने का मौका मिला था उनके ये शेर मुझे अभी तक याद हैं " फक़त इक दायरे में घूमती है , मगर क्या वक़्त बदला है घड़ी से " और "मैं ही अपनी वफ़ा का क़ैदी हूँ,वो ज़मानत पे छूट जाती है" .जब लोगों से उनके बारे में पता किया तो मालूम पड़ा कि हज़रत सिर्फ 28 साल के युवा है, जोधपुर से तअल्लुक़ रखते हैं अंग्रेजी में एम् ऐ किये हुए हैं और उर्दू-हिंदी में बहुत मयारी शायरी करते हैं। मात्र 28 साल की उम्र में ऐसे उस्तादाना शेर ? फिर ख़्याल आया की प्रतिभा उम्र की मोहताज़ नहीं होती। आपको तो पता ही होगा कि शकेब जलाली ने उर्दू शायरी को मात्र 32 साल की अपनी अल्प उम्र में जिस तरह से मालामाल किया है वैसा करने में लोगों को सदियाँ लग जाती हैं. युवाओं को पढ़ना और उनके बारे में लिखना मुझे बहुत पसंद है क्यूंकि अब ये प्रतिभावान युवा ही शायरी का मुस्तकबिल संवारने का हौंसला रखते हैं और अपनी बात को नए मौलिक अंदाज़ में पेश करते हैं। सोचा था कि इस होनहार शायर की कोई किताब कभी मंज़र-ऐ-आम पे आयी तो जरूर लिखूंगा। किताब आयी लेकिन मुझे पता ही नहीं चला , लेकिन जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है इसलिए जो पहले होना चाहिए था वो अब हो रहा है :
मैं लैम्प पोस्ट का मध्दम सा बल्ब हूँ जिस पर
तमाम शहर की रातों की ज़िम्मेदारी है
मैं ख़्वाब, अक्स, नज़रों में चाहे जो भी हूँ
मुझे संभालना आँखों की ज़िम्मेदारी है
दवा को जिस्म के बीहड़ में डाल आया हूँ
अब इसके बाद दुआओं की ज़िम्मेदारी है
लैम्प पोस्ट का बल्ब और जिस्म के बीहड़ जैसे लफ्ज़ उर्दू शायरी के लिए नए हैं और नया है कहन का ये दिलचस्प अंदाज़। मैंने देखा कि ,फ़ानी की सभी 85 ग़ज़लों में, जो इस किताब में संग्रहित हैं , उनके लहज़े की ये जादूगरी नज़र आती है। मासूम से चेहरे और दिलकश व्यक्तित्व के मालिक सरताज अली रिज़वी उर्फ़ फ़ानी जोधपुरी (जैसा वो फोटो और वीडियो में दिखाई देते हैं ) ये मानते भी हैं कि "आदमी जब होशियार हो जाता है तो रचना की मासूमियत पर खतरा हो जाने का डर भी रहता है। इसलिए रचना के लिए लेखक के भीतर एक बच्चा जरूरी है..."हम दुआ करते हैं की उनके भीतर का बच्चा कभी बड़ा न हो ताकि वो अपनी लाजवाब शायरी से हमें बरसों बरस सराबोर करते रहें। उस्ताद शायर जनाब 'शीन काफ़ निज़ाम" साहब के फ़ानी साहब के लिए कहे ये लफ्ज़ किसी सर्टिफिकेट या पुरूस्कार से कम नहीं है " कि इल्म की उतरन और अखबार की कतरन शायरी नहीं होती फ़ानी की शायरी में चिंगारियां-शरारे हैं। फ़ानी में सीखने का हौसला है "
"
किसी की ख़ुश्बू कॉलर पे मैं जब घर ले के आता था
मुझ ही से रात भर फिर मेरा कमरा बात करता था
किसी की उँगलियाँ बालों से मेरे बात करती थीं
मेरी बातों में जब तक एक बच्चा बात करता था
मेरी आँखों में पलते ख़्वाब पढ़ लेता था जब भी वो
तो लब खामोश हो जाते थे, झुमका बात करता था
ये जो फ़ानी की शायरी में अजीब सी मिठास है ये जोधपुर में रहने के कारण है ,आप में इस बात को कितने लोग जानते हैं ये मेरे लिए कहना मुश्किल है कि जोधपुर में बोली जाने वाली राजस्थानी भाषा की मिठास की तुलना आप बंगाली या मैथिलि से कर सकते हैं , जोधपुरी भाषा वो भाषा है जिसमें दुश्मन को भी सम्मान से पुकारा जाता है. उनकी शायरी में जो नए मिज़ाज़ के तेवर हैं वो ' फ़ानी' की जड़ों याने ददिहाल और ननिहाल से आये हैं, जो इलाहबाद से ताल्लुक रखते हैं। उनकी वालिदा ,जिनकी मौजूदगी में फ़ानी हमेशा बेफ़िक्र बच्चे से बने रहे ,ने उन्हें ज़िन्दगी ज़िंदादिली से जीने का हुनर सिखाया और सिखाया कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में हौंसला बरकरार रखा जा सकता है। उनकी बड़ी बहन ने उन्हें सलीके से जीना सिखाया। फ़ानी की शायरी को संवारने में उनके उस्ताद मोहतरम जनाब 'हसन फतेहपुरी' का बहुत बड़ा हाथ है। उस्ताद ने सिखाया कि कैसे कलम की छैनी-हथौड़ी से लफ़्ज़ों के पत्थर तराश कर ग़ज़ल का हसीन और दिलकश मुजस्समा गढ़ा जाता है:
ये दिन और रात की आवारगी का है सबब इतना
सफ़र इक तयशुदा है और तैयारी से बचना है
सज़ाएं काटते हैं अनगिनत मासूम खत जिसमें
मुझे लोहे की उस बदरंग अल्मारी से बचना है
बितानी है मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरह 'फ़ानी'
गुज़िश्ता दौर की बासी समझदारी से बचना है
प्रसिद्ध ब्लॉगर, शायर और आलोचक जनाब के.पी अनमोल साहब ने अपने ब्लॉग पर फ़ानी साहब के बारे में लिखा है कि " यह नौजवान शायर इतनी कमसिनी में भी ऐसी ज़हीन बातें कह जाता है कि एकबारगी इसकी उम्र पर शक़ होने लगता है। लेकिन यह सच है कि अनुभव उम्र के आंकड़ों से नहीं बल्कि दुनिया में खाये धक्कों से आता है। इस शायर ने कम उम्र में ही कई बड़े-बड़े धक्के खा लिये हैं कि इसे दुनिया के फ़ानी होने का अंदाज़ा बखूबी हो गया है। फ़ानी जोधपुरी की ग़ज़लों को पढ़कर यह सहज ही समझा जा सकता है कि ख़ुदा ने इन्हें दुनिया को देखने/समझने की कितनी बारीक नज़र अता की है। इनकी शायरी में एक नयापन है जो इन्हें आधुनिक ग़ज़लकारों की पहली सफ (पंक्ति) में खड़ा करने में सक्षम है।"
खुद पे नाज़िल तुझे करवा लिया आयत की तरह
मैं न कहता था कि ईज़ाद करूँगा तुझको
ईज़ाद =आविष्कार
नब्ज़ चलती है मेरी मुझ में तेरे होने से
क्या मैं पागल हूँ जो आज़ाद करूँगा तुझको
एक चेहरे के सिवा कुछ न दिया 'फ़ानी' को
ज़िन्दगी फिर भी बहुत याद करूँगा तुझको
"पानी बैसाखियों पे" फ़ानी साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है इस से पहले उनका मजमुआ " आसमां तक सदा नहीं जाती " सन 2016 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है। शेरो-अदब की ख़िदमद के लिए फ़ानी साहब को 'दलित साहित्य अकादमी अवार्ड' ,' निशाने-लतीफ़ सम्मान' 'हिंदुस्तान गौरव सम्मान ' और 'भारतेंदु सम्मान' से नवाज़ा जा चुका है। इसके अलावा देश भर में फैले उनके हज़ारों प्रशंसकों का प्यार सबसे बड़ा सम्मान है। रेडियो और दूरदर्शन के प्रोग्राम्स में शिरकत करने के अलावा उन्हें देश भर में होने वाले ऑल इण्डिया मुशायरों में बहुत एहतराम से बुलाया जाता है। मुल्क की सभी आला उर्दू-हिंदी के रिसालों और अखबारों में उनका कलाम छपता रहता है। इतनी कम उम्र में इतनी शोहरत किसी का भी दिमाग ख़राब कर सकती है लेकिन फ़ानी ज़मीन से जुड़ा शायर है उसे पता है कि जरा सी हवा से भरे, आसमान में उड़ने वाले, गुब्बारे हवा के निकलते ही ज़मीन पे आ गिरते हैं.
अपने अतराफ़ में कुछ फूल से बच्चे रखना
ज़िन्दगी कितनी है आसान समझ जाओगे
अतराफ़ = आसपास
कांच के सामने रख देना किसी पत्थर को
फिर ये जीवन का घमासान समझ जाओगे
ख़्वाब को अपने जला देना किसी की खातिर
तुम सुलगता हुआ लोबान समझ पाओगे
बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित इस किताब के बारे में लिखने का उद्देश्य फ़ानी साहब की शायरी का आंकलन करना नहीं है बल्कि उनके कुछ खूबसूरत अशआर आप तक पहुँचाना है। शायरी पसंद करना न करना हर व्यक्ति की निजी रूचि पर निर्भर करता है। अपनी पसंद को किसी पर आरोपित करना ठीक नहीं होता। आप से गुज़ारिश है कि आप ये किताब बोधि प्रकाशन से जनाब मायामृग साहब को 9829018087 पर फोन करके मंगवाएं और जनाब फ़ानी जोधपुरी साहब को उनके लाजवाब कलाम के लिए 9829270098 पर फोन करके बधाई दें। मुझे पूरी उम्मीद है कि "दस्तख़त पत्रिका" जिस के कि वो संपादक हैं ,के काम से फुर्सत निकाल कर आपसे जरूर बात करेंगे। चलते चलते आपको पढ़वाता हूँ ,उनकी कमाल की ग़ज़लों में से किसी एक ग़ज़ल के ये शेर :-
प्यास तक दौड़ के नहीं आता
पानी बैसाखियों पे चलता है
वहशतें, तीरगी, अकेलापन
चाँद कितने सवाल करता है
ये पतंगे तो खुद लिपटती हैं
पेड़ तो अपनी हद में रहता है
14 comments:
Hamaisha ki tarha umda waaaaaah waaaaaah waaaaaah
बहुत अच्छे ....मगर उलझे हुए बयान हैं.... जानबूझकर गझिन बना कर पेश करना....
शायरी व शायर बेशक उम्दा हैं। पर फ़ानी बदायूँनी का जिक्र जैसे गैर जरूरी था या सही जगह नही था। और भी एक दो जगह समीक्षा पेंचीदा सी जान पड़ी। शायद मेरे ही जेहन में कोई बेचैनी रही हो पढ़ते वक्त। खैर शायर साहब को ऐसी ही और पुरकशिश शायरी की दुआएं।
वाहहह! दादा, बहुत अच्छा विवेचन किया है आपने। फ़ानी भाई को मुझसे बेहतर शायद ही कोई जानता हो, इस बात के आधार पर यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि आपने यह समीक्षा लिखने से पहले कितनी तैयारी की है। आपकी समीक्षा का अंदाज़ भी लाजवाब होता है, जो पाठक को बोर नहीं होने देता। फ़ानी भाई की ओर से शुक्रिया आपका किताब को वक़्त देने के लिए।
सर झुकाये हुए बैठा हूँ मैं कब से 'फ़ानी"
हो जिसे शौक़ वो आ के मेरा क़ातिल हो जाय
Waaaaah Waaaaaah Neeraj Sahib bahut pyara intekhab ... Badhai aur shubhkaamnaayen .... Raqeeb
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (11-04-2018) को ) "सिंह माँद में छिप गये" (चर्चा अंक-2937) पर होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
लाजवाब शायरी। बेहतरीन समीक्षा। हार्दिक बधाई
द्विजेन्द्र ‘द्विज’April 15, 2018 at 9:23 AM
लाजबाब शायर की लाजबाव शायरी पर यह पोस्ट लाजवाब इस लिए भी है कि एक ही सांस में अपनी पोस्ट को पढवाने का भाई नीरज गोस्वामी साहिब का अंदाज भी तो अद्वितीय है| शुरुआत में तो लगा फानी बदायूनी साहिब के कलाम का ख़ज़ाना हाथ लगाने ही वाला है|और जब लगभग ऐसा यकीन हो जाने को हुआ ही था तो ये अशआर आँखों के आगे आ गए:
"चाँद तारों को पुकारूंगा मैं अपनी छत से
जो भी चाहे मेरी आवाज़ में शामिल हो जाय
धूप बिखरी है जो सड़कों पे उठा लो इसको
कल इसे देखना शायद यहाँ मुश्किल हो जाय
सर झुकाये हुए बैठा हूँ मैं कब से 'फ़ानी"
हो जिसे शौक़ वो आ के मेरा क़ातिल हो जाय
पढ़कर मन हुआ कि कहूंगा "फ़ानी" बदायूनी साहिब का कलाम इतना पुराना होकर भी इतना नया और ताज़ा है'
लेकिन तब तक "फ़ानी" बदायूनी साहिब की जगह "फ़ानी" जोधपुरी साहिब आ चुके थे!
पुराने शायर से नए शायर तक लाने का काम| परम्परा से जदीदियत तक लाने का यह ख़ूबसूरत और लाफ़ानी अंदाज़ बहुत भाया हुज़ूर!
रही बात कलाम की !
तो बस इतना ही कहूंगा कि "फ़ानी" बदायूनी साहिब हों या "फ़ानी" जोधपुरी साहिब, कलाम लाफ़ानी है| आप दोनों को बहुत बहुत बधाई!
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १६ अप्रैल २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
निमंत्रण
विशेष : 'सोमवार' १६ अप्रैल २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक में ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीया देवी नागरानी जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
आदरणीय बहुत ही अच्छा ब्लॉग है आपका | इस पोस्ट के क्या कहिये | बहुत ही बेहतरीन शायरी का लुत्फ़ लिया | सादर आभार और नमन इस प्यारी सी शायरी और शायरों के परिचय के लिए | ध्रुव जी का कोटिश आभार जिन्होंने यहाँ का मार्ग प्रशस्त किया | सादर
In ka shakar wala sher bhi baDDa hi sweet hai baDe bhai
आपका ये तब्सरा मुझ में नई रूह फूँकने के लिए काफ़ी है,कोशिश रहेगी कि कुछ नया करूँ
तहे-दिल से आपका शुक्रिया मोहतरम
आपका ये तब्सरा मुझ में नई रूह फूँकने के लिए काफ़ी है,कोशिश रहेगी कि कुछ नया करूँ
तहे-दिल से आपका शुक्रिया मोहतरम
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