भूलना मैं चाहता तो किस क़दर आसान था
याद रखने में तुझे, ये सारी दुश्वारी हुई
तू अगर रूठा रहा मुझसे तो हैरत क्या करूँ
इस जहाँ में किससे तेरी नाज़ बरदारी हुई
सोचता हूँ एक पल में हो गया कैसे तमाम
वो सफ़र जिसके लिए इक उम्र तैय्यारी हुई
"आधुनिकता के जोश में हमारी शायरी, ख़ास तौर पर गज़ल ने समाजी सरोकारों से जो दूरी बना ली थी उसे अपनी ग़ज़लों में इस रिश्ते को दोबारा बहाल करने का सराहनीय प्रयास इन्होने किया है " हमारे आज के शायर और उनकी शायरी के बारे में उस्ताद शायर शहरयार आगे लिखते हैं कि "हकीकत चाहे जो भी हो, शाइर और अदीब आज भी इस खुशफ़हमीमें मुब्तिला हैं कि वो अपनी रचनात्मकता के द्वारा इस दुनिया को बदसूरत होने से बचा सकते हैं और समाज में पाई जाने वाली असमानताओं को दूर कर सकते हैं, इनकी भी शायरी का एक बड़ा हिस्सा इसी खुशफ़हमी का नतीजा मालूम होता है "
ये हमनशीन मेरे खुश हैं कि ग़मज़दा हैं
मातम तो कर रहे हैं बाछें खिली हुई हैं
हमनशीन =साथी
देखा है तुमने ऐसा मंज़र कभी कहीं पर
वीरान घर पड़े हैं सड़कें सजी हुई हैं
साँसों की क़ैद में हूँ, अक्सर ये सोचता हूँ
ये ज़िन्दगी है या फिर मुश्कें कसी हुई हैं
अब क्या है उसके दिल में अंदाज़ा कर रहा हूँ
आँखें चमक रही हैं पलकें झुकी हुई हैं
शहरयार साहब जिस शायर की बात कर रहे थे वो हैं 27 मई 1957 को मेरठ में जन्में जनाब "उबैद सिद्दीक़ी", साहब जिनकी डॉल्फिन बुक्स नई दिल्ली द्वारा 2011 में प्रकाशित किताब "रंग हवा में फैल रहा है" का ज़िक्र करेंगे।उबैद साहब के बारे में जो जानकारी उनकी इस किताब और उनके फेसबुक एकाउंट से प्राप्त हुई है उसी को आपके साथ साझा कर रहा हूँ। दरअसल उबैद साहब के बारे में गूगल महोदय ने भी चुप्पी अख़्तियार कर रखी है, कारण बहुत साफ़ सा है , उबैद साहब अपने में मस्त और भीड़ से अलग रहने वाले लोगों में से हैं। शायरी वो छपवाने और प्रसारित करने के लिए नहीं करते ,शायरी उनके लिए इबादत की तरह है जो उनके और उनके आराध्य के बीच घटित होती है।
मौसम के बदलने से बदल जाता है मंज़र
दुनिया में कोई चीज़ पुरानी नहीं होती
उसको भी हुनर आ गया आँखों से सुखन का
हमसे भी कोई बात ज़बानी नहीं होती
हम भी कोई शै उससे छुपा लेते हैं अक्सर
उसको भी कोई बात बतानी नहीं होती
मजे की बात है कि उनके निकटतम रहने वाले लोगों भी ये पता नहीं चला की वो एक बेहतरीन शायर हैं। उन्होंने शायरी कभी शायरी करनी है ये सोच कर नहीं की। उनकी पहली ग़ज़ल सन 1969 में 'बीसवीं सदी' रिसाले में प्रकाशित हुई। उसके बाद वो कभी कभार ग़ज़लें कहते रहे और ये सिलसिला 1997 तक चला। आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन ये सच है कि सन 1997 से सन 2009 याने 13 बरस तक उन्होंने एक भी ग़ज़ल नहीं कही। उन्हें लगने लगा था कि वो कभी दुबारा शेर नहीं कह पाएंगे क्यूंकि भरपूर कोशिशों के बावजूद उनकी तबियत शेर कहने की और अग्रसर नहीं होती थी। जो लोग शायरी करते हैं वो जानते हैं कि अच्छी ग़ज़ल दिमाग़ पर जोर देने से नहीं कही जा सकती। यही कारण है कि उबैद साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह ,जिसकी हम बात कर रहे हैं ,उनके लेखन के आगाज़ के 25 साल बाद मंज़र-ऐ-आम पर आया है।
आग बुझी तो लोग ख़ुशी से नाचने गाने लगे
मैंने ठंडी राख कुरेदी और शरर देखा
इक मैं हूँ कि जिसने देखे जीते जागते लोग
बाकी सारे सय्याहों ने एक खंडर देखा
सय्याहों =पर्यटक
सारी खुशियां कैसे अचानक बेमानी सी लगीं
दिल के साथ ग़मों को जब से शीरो-शकर देखा
शीरो-शकर =दूध और चीनी की तरह मिला हुआ
शुरुआती दौर में उबैद साहब की शायरी को संवारने में जनाब "हफ़ीज़ मेरठी" मरहूम जो उसी फैज़े-आम इंटर कॉलेज में क्लर्क थे जहाँ से उन्होंने बारहवीं क्लास तक तालीम हासिल की थी ,बहुत मदद की। हफ़ीज़ साहब मुशायरों के मकबूल शायर होने के बावजूद अदबी क़द्रो-क़ीमत की संजीदा ग़ज़ल कहते थे और शेर कहने के शास्त्र से बखूबी परिचित थे। एक और बुजुर्ग शायर जनाब "अंजुम जमाली" जो मेरठ के वाहिद अदीब और होम्योपैथ डॉक्टर भी थे से भी उबैद साहब ने शायरी की बारीकियां सीखीं। उनके क्लिनिक पर इलाहबाद से प्रकाशित उर्दू की मशहूर साहित्यिक पत्रिका "शब ख़ून" को उबैद साहब ने संजीदगी से पढ़ना शुरू किया।
दुनिया ही नहीं दिल को भी इस शहरे-हवस में
मनमानी किसी हाल में करने नहीं देना
महसूस नहीं होगी मसीहा की ज़रूरत
ये ज़ख्म ही ऐसा है कि भरने नहीं देना
मुश्किल है मगर काम ये करना ही पड़ेगा
इन्सान को इन्सान से डरने नहीं देना
उनकी शायरी में उल्लेखनीय मोड़ तब आया जब उन्होंने ग्रेजुएशन के लिए सन 1975 में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। वहां नौजवान शायरों और अदीबों का बहुत बड़ा हलका मौजूद था। उन नौजवानों में फ़रहत एहसास , महताब हैदर नकवी, असद बदायूँनी , जावेद हबीब ,आशुफ़्ता चंगेज़ी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। फ़रहत एहसास साहब से दोस्ती होने के बाद ही उनको शहरयार साहब तक रसाई हासिल हुई. अलीगढ से ग्रेजुएशन के बाद उबैद साहब ने पी एच डी करने के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में दाख़िला लिया जिसके जनाब गोपी चंद नारंग विभागाध्यक्ष थे उन्हीं के निर्देशन में उन्हें मीराजी पर रिसर्च करनी थी लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उबैद साहब ने अध्यापन के बजाय पत्रकारिता को अपना पेशा बनाने का फैसला किया और ऑल इण्डिया रेडिओ में नौकरी कर ली।
ये तो होना ही था इक दिन और ऐसा ही हुआ
ज़ुल्म जब हद से बढ़ा तो सामना करने लगे
नींद आएगी तो ख़्वाबों के सफ़ीने लाएगी
ख़ौफ़ के मारे हुए हम रतजगा करने लगे
सफ़ीने=नाव
दिल के मसरफ़ और भी हैं रंज करने के सिवा
हम उसे किस काम में ये मुब्तला करने लगे
मसरफ़=काम, व्यस्तता
ये नौकरी उन्हें रेडिओ कश्मीर ले गयी जहाँ श्रीनगर में उन्होंने छै साल गुज़ारे। श्रीनगर प्रवास के इस दौरान उन्होंने अच्छी खासी शायरी की फिर दो साल के लिए उनका ट्रांसफर लन्दन कर दिया गया। कश्मीर से लंदन ट्रांसफर के दौरान उनकी वो डायरियां जिनमें ग़ज़लें दर्ज़ थी गुम हो गयीं। इस तरह उनका बहुत कुछ लिखा मंज़र-ऐ-आम पर आने से रह गया। ऑल रेडिओ में दो साल लन्दन में गुज़ारने के बाद बी. बी. सी. वालों ने उन्हें और दो साल के वहाँ रोक लिया। जब ऑल इण्डिया रेडिओ ने उन्हें वापस इंडिया बुलाना चाहा तो वो इस्तीफ़ा दे कर लन्दन में बी.बी. सी की उर्दू सर्विस में काम करने लगे। इस दौरान उन्हें लन्दन में अक्सर होने वाले उर्दू मुशायरों और साहित्यिक गतिविधियों में हिस्सा लेने का खूब मौका मिला।
तभी तो मुस्कुराते फिर रहे हो
तुम्हें जीने की आदत हो गयी है
मुझे चेहरा बदलना पड़ गया है
यहाँ सूरत ही सीरत हो गयी है
तेरे सब चाहने वाले ख़फ़ा हैं
तुझे खुद से मोहब्बत हो गयी है
उबैद साहब 2004 में दिल्ली वापस लौट आये और जामिया मिलिया इस्लामिया के मॉस कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर में प्रोफ़ेसर की हैसियत से पढ़ाने लगे। उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "रंग हवा में फ़ैल रहा है " सबसे पहले सन 2010 में उर्दू लिपि में प्रकाशित हुई थी। एक साल बाद उसका हिंदी में जनाब रहमान मुसव्विर द्वारा लिप्यांतर किया संस्करण प्रकाशित हुआ। उबैद साहब मानते हैं कि उन साहित्य प्रेमियों का तबका बहुत बड़ा है जो उर्दू शायरी से मोहब्बत तो करते हैं लेकिन उर्दू लिपि पढ़ लिख नहीं सकते। ऐसे प्रेमियों के लिए ही है ये किताब जो दो हिस्सों में विभक्त है पहले हिस्से में वो ग़ज़लें हैं जो सन 2009 और 2010 याने लगभग एक साल के वक़्फ़े में कही गयीं और दूसरे भाग में सन 1975 से 1997 के बीच कही ग़ज़लें हैं।
अमीरे-शहर सुनता ही नहीं है
उसे आँखें दिखा कर देखते हैं
ये शाखें फिर भी क्या ऐसी लगेंगी
परिंदों को उड़ा कर देखते हैं
बहुत मुमकिन है रोना सीख जाओ
तुम्हें हंसना सिखा कर देखते हैं
डॉ. महताब हैदर नक़वी साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "अपने आप में सिमटी और सिकुड़ी हुई उर्दू की आधुनिक शायरी के विपरीत उबैद की शायरी अपने अलावा बाहर की दुनिया की तरफ़ झांकती हुई भी दिखाई देती है। ये आदमी की तन्हाई के क्षणों में गाया जाने वाला ऐसा नग़्मा है जो हर उस शख्स से बात करना चाहता है जिसके पास कुछ ख़्वाब हैं और दुनिया की मृगतृष्णा में जीवन जी रहा है। सार्थक और ज़िंदा रहने वाली वही सदाबहार शायरी होती है जो इंसानी भलाई और बड़ाई के गीत गाती है तथा इसके लिए हर स्तर पर विपरीत परिस्थितियों में भी अपना पक्ष रखती है. आने वाले समय में उबैद की शायरी उनके संस्कारों एवं परम्परा से ही पहचानी जाएगी "
ये रौशनी के लिए कब जलाए जाते हैं
यहाँ चराग़ हवा में सजाए जाते हैं
मैं उनको देख के रोता हूँ जो सरे-महफ़िल
हरेक बात प' बस खिलखिलाए जाते हैं
हमारे जैसे बहुत लोग सारी दुनिया में
न जाने किसलिए इतना सताए जाते हैं
इंद्रापुरम, ग़ाज़ियाबाद निवासी उबैद साहब की 131 बेजोड़ ग़ज़लों का ये संग्रह आप डॉल्फिन बुक्स ,4855-56 हरबंस स्ट्रीट अंसारी रोड दरियागंज नयी दिल्ली -110002 को पत्र लिख कर ही मंगवा सकते हैं या उबैद साहब से m_obaid_siddiqui@hotmail.com पर मेल कर के पूछ सकते हैं और सबसे बढ़िया तो ये ही रहेगा कि आप उनसे उनके मोबाईल न 9891941452 पर बात कर उन्हें बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। जनाब ज़ुबैर रज़वी साहब के इस कथन के साथ मैं आपसे विदा लेता हूँ कि " उबैद की हर ग़ज़ल समकालीन ग़ज़ल से कई क़दम आगे का सफर लगती है। बिलकुल अलग परिवेश की ग़ज़लें वर्तमान जीवन पर ऐसी ज्वलंत टिप्पणियां हैं जिनमें शाइर का स्व गहरे निरिक्षण और अनुभव की भांति कभी तहे-आब और कभी सतही-आब पर उछाल लेता नज़र आता है। " चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल ये शेर भी पढ़वा देता हूँ :
ये नादानी मंहगी पड़ेगी तुम्हें
घड़े फोड़ डाले घटा देख कर
क़दम क्यों ज़मीं पर नहीं पड़ रहे
वो आया है क्या आईना देख कर
अजब लोग हैं इनको समझे ख़ुदा
ख़ता कर रहे हैं सज़ा देख कर
9 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-02-2017) को "सेमल ने ऋतुराज सजाया" (चर्चा अंक-2886) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नायब प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
Janab e aala ki lekhni ka ek aur bakamaal sabut hardik badhai
बहुत नायाब शायरी से मुलाक़ात कराने का दिल से शुक्रिया नीरज भाई साहब!
बहुत नायाब शायरी से मुलाक़ात कराने का दिल से शुक्रिया नीरज भाई साहब!
हमेशा की तरह उम्दा
उम्दा शायरी, सिद्दीक़ी साहब को मुबारकबाद...उनकी शायरी से रूबरू कराने के लिए आपका शुक्रिया
बहुत ख़ूब
बेहतरीन
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