नदी, झरने, किताबें, चाँद, तारे और तन्हाई
वो मुझसे दूर हो कर हर किसी के पास जा बैठा
मैं जब घबरा गया हर रोज़ के सौ बार मरने से
उठा शिद्दत से और फिर ज़िन्दगी के पास जा बैठा
ये मेरी बेख़ुदी है या है उसके प्यार का आलम
उसी के पास से उठ कर उसी के पास जा बैठा
आप ये बात तो मानेंगे कि सोशल मिडिया ने शायरी को फायदा भी पहुँचाया है और नुक्सान भी। फायदा तो ये कि पहले बहुत से लोग जो अच्छी शायरी करते थे बिना अपनी पहचान बनाये गुमनामी के अँधेरे में खो जाते थे किसी रिसाले ने मेहरबानी करदी और छप गए तो और बात वरना उनकी शायरी अपनी गली मोहल्ले तक ही महदूद रहती , अब अच्छी शायरी करने वाले सोशल मिडिया की बदौलत अपनी पुख्ता पहचान बनाने में कामयाब हो रहे हैं, उनका कलाम गली, मोहल्ले, शहर को छोड़ देश की हद पार करने में कामयाब हो रहा है. नुक्सान ये हुआ है बहुत से गैर शायराना किस्म के लोग भी फ़टाफ़ट नाम कमाने के चक्कर में शायरी का सरे आम बेड़ा गर्क कर रहे हैं। शायरी फ़क़त काफिया पैमाइश, रदीफ़ और बहर का ही नाम नहीं है ये अपने ज़ज़्बात को इज़हार करने का अनूठा फ़न है। ये फ़न जितना आसान नज़र आता है उतना होता नहीं तभी तो बहुत कम लोग हैं जो इस भीड़ में अपनी पहचान बना पा रहे हैं। :
ख़ुदा, वाइज़,दरिंदे, देवता और जाने क्या क्या थे
मिला कोई नहीं मुझको अभी तक आदमी जैसा
जो चौराहे पे बच्चे खेलते हैं रोज़ मिटटी में
कोई गौहर तो लाओ ढूंढ के उनकी हंसी जैसा
कभी चूड़ी की बंदिश थी कभी पाजेब की बेड़ी
हमारे पास से गुज़रा न कुछ भी ज़िन्दगी जैसा
मैं अपनी बात को जां निसार अख्तर साहब के एक शेर के हवाले से , जिसे हो सकता है आपने पढ़ा हो ,आप तक पहुँचाने की कोशिश करता हूँ, वो कहते हैं "हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या ,चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाये "और साहब लफ़्ज़ों में आग छुपाने का फ़न हर किसी को नहीं आ सकता। आप अंदर से शायर होने चाहियें तभी बात बन सकती है। किताबें पढ़ कर ,किसी की नक़ल कर के या किसी उस्ताद को गंडा बाँधने भर से शायरी नहीं आ सकती। हाँ , तुकबंदी जरूर आ सकती है और उस तुकबंदी पर आपके मित्र मंडली के सदस्य सोशल मिडिया की साइट पर लाइक या कमेंट्स की झड़ी लगा सकते हैं जिसकी बदौलत आपमें शायर होने का मुगालता पैदा हो सकता है । ।
हथेली पर मेरी लगता है उग आये हैं कांटे
लकीरों में हर इक रिश्ता तभी उलझा रहे अब
तू मेरा है ,नहीं है , है, नहीं है , है नहीं है
सरे-महफ़िल हमारा ही फ़क़त चर्चा रहे अब
गली में खेलते बच्चों में बाँटी कुछ किताबें
किसी खुशबू से मेरा घर सदा महका रहे अब
हमारी "किताबों की दुनिया " श्रृंखला की इस कड़ी की शायरा " रेणु नय्यर " जी ने, जिनका जन्म पंजाब के अबोहर जिले में 9 अगस्त 1970 हुआ था , अपना शेरी सफर सन 2007 में सोशल मिडिया की साइट ऑरकुट से शुरू किया। शुरू में हलकी फुलकी तुकबंदी से शुरू हुआ ये सफर पंजाबी नज़्मों और ग़ज़लों से होता हुआ उर्दू शायरी तक पहुंचा और सन 2017 के आते आते उनका पहला शेरी मज़्मुआ "अभी तो हिज़्र मरहम है " जिसकी हम आज बात करेंगे ,मंज़रे आम पर आ गया। यूँ तो हर साल न जाने कितनी ही ग़ज़लों की किताबे प्रकाशित होती हैं लेकिन उनमें से बहुत कम पाठकों की अपेक्षाओं पर खरी उतरती हैं। ये वो किताबें होती हैं जिनकी एक्सपायरी डेट नहीं होती , ये किताबें सदा बहार होती हैं और इनमें शाया अशआर जिन्हें आप कभी भी कहीं भी पढ़ें हमेशा ताज़ा लगते हैं।
चराग़-ए-ज़ीस्त मद्धम है अभी तू नम न कर आँखें
अभी उम्मीद में दम है , अभी तू नम न कर आँखें
किसी दिन वस्ल की चारागरी भी काम आएगी
अभी तो हिज़्र मरहम है , अभी तू नम न कर आँखें
अभी तो सामने बैठी हूँ, बिलकुल सामने तेरे
अभी किस बात का ग़म है , अभी तू नम न कर आँखें
रेणु जी की किताब बिलकुल वैसी ही है जिसकी एक्सपायरी डेट नहीं होती याने सदाबहार। ये किताब शायरी की किताबों के विशाल रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी है जिसे पढ़ते हुए वैसी ही ठंडक और सुकून हासिल होता है। कामयाब शायर वो होता है जो इंसान के सुख-दुःख ,उसकी फितरत और समाज की अच्छाइयों बुराइयों को एक नए दृष्टिकोण से हमारे सामने रखता है। विषय वही हैं जो हज़ारों साल पहले थे लेकिन उन्हें शायरी में अगर अलग और नए अंदाज़ में ढाला जाय तो ही दिल से वाह निकलती है। बशीर बद्र साहब की शायरी से मुत्तासिर रेणु जी की शायरी में ये बात बार बार नज़र आती है। उनके कहन का निराला पन ही उन्हें भीड़ से अलग करता है। रेणु जी को उर्दू शायरी करते अभी कुलजमा तीन-चार साल ही हुए हैं लेकिन उनके अशआर बरसों से शायरी कर रहे उस्तादों से कम नहीं है। कारण ? जैसा मैंने पहले कहा "वो अंदर से शायरा हैं " शायरी उनकी रूह में बसी हुई है, ओढ़ी हुई नहीं है।
किसी मुश्किल को आसाँ बोल देना है बड़ा आसाँ
वो मेरी ज़िन्दगी जी कर दिखाये , मान जाऊँगी
बस इतना फासला है दरमियाँ अपने तअल्लुक़ में
किसी दिन आ के मुझको तू मनाये , मान जाऊँगी
तली पर ज़िन्दगी रक्खा है तुझ को आबलों जैसा
मेरे नख़रे किसी दिन तू उठाये , मान जाऊँगी
इस किताब की भूमिका में प्रसिद्ध शायर जनाब ख़ुशबीर सिंह 'शाद' ने लिखा है कि " मौजूदा दौर में उग रही शायरों की बेतरतीब खरपतवार में कुछ ख़ुदरौ पौधे ऐसे भी हैं जो अपनी अलग रंगत और ख़ुश्बू से पहचाने जा रहे हैं , रेणु भी उनमें से एक है। अच्छा शेर तभी होता है जब आप अंदर से शायर हों। शायरी की बुनियादी शर्त अपने एहसास का ईमानदाराना इज़हार है। रेणु अपने एहसास के पिघले सोने को ज़ेवर बनाने का हुनर जानती है। सफर लम्बा और दुश्वार है ,मंज़िल भी दूर है लेकिन रेणु ने अपने लिए रास्ता बना लिया है और ये कोई मामूली बात नहीं "
दुनिया को हर चीज़ दिखाई जा सकती है
पत्थर में भी आँख बनाई जा सकती है
हिज़्र का मौसम वो मौसम है जिसमें अक्सर
आँखों में भी रात बिताई जा सकती है
पत्थर को ठोकर तक ही महदूद न समझो
पत्थर से तो आग लगाई जा सकती है
बहुत कम शायर होते हैं जिनकी ग़ज़लें लोग पढ़ते भी चाव से हैं और सुनते भी चाव से हैं। रेणु जी को लोग पढ़ते भी हैं और सुनते भी हैं । कुल हिन्द मुशायरों की मकबूल उर्दू शायरा रेणु जी के कलाम को उनके उस्ताद, जो हालाँकि उम्र में उनसे कम हैं ,जनाब 'शमशीर गाज़ी " ने संवारा। गाज़ी साहब हालांकि अपने आपको उस्ताद कहलवाना पसंद नहीं करते लेकिन रेणु जी को उन्हें सरे आम अपना उस्ताद मानने में कोई गुरेज़ नहीं क्यूँकि उनकी नज़र में उस्ताद का हुनर देखा जाता है उम्र नहीं। गाज़ी साहब ने ही रेणु जी को शायरी में सलीके से अपने एहसासात, ज़ज़्बात और तख़य्युलात का इज़हार करना सिखाया। उन्हीं की रहनुमाई में रेणु जी ने शायरी में ज़िन्दगी के तल्ख़-ओ-तुर्श तजुर्बात की कसक , हुस्न-ओ-इश्क की रानाई ,अंदाज़े बयां में बेसाख़्तगी , नग्मगी और शाइस्तगी पिरोना सीखा।
अजब हूँ मैं, मुझे ये सोच कर भी डर नहीं लगता
मेरा घर क्यों मुझे अक्सर मेरा ही घर नहीं लगता
मिला है ज़ख्म तुमको आज सच कहने पे दुनिया से
अगर तुम झूठ कह देते तो ये पत्थर नहीं लगता
सभी मखमल के रिश्तों को हिफाज़त की जरूरत है
कभी खद्दर के कपड़ों में कोई अस्तर नहीं लगता
18 वर्षों तक शिक्षण के क्षेत्र में प्रबंधन का काम सँभालने वाली और सन 2012 से अपने घर को समर्पित रेणु जी ग़ज़लों के अलावा खूबसूरत नज़्में भी कहती हैं। नज़्में कहना शेर कहने से मुश्किल काम होता है लेकिन रेणु जी ने ये साहस किया है और खूब किया है। 'एनीबुक' प्रकाशन नोएडा से प्रकाशित इस पेपर बैक संस्करण में रेणु जी की 68 ग़ज़लेँ और 11 नज़्में संगृहीत हैं। एनीबुक ने प्रकाशन के क्षेत्र में अभी क़दम रखा ही है लेकिन उनके यहाँ से प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह, नामी गरामी प्रकाशकों से मीलों आगे हैं। नफ़ा-नुकसान की फ़िक्र किये बग़ैर एनीबुक ने जिस तरह से नए-पुराने शायरों के क़लाम को मन्ज़रे आम पर लाने का काम किया है उसकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है। 'अभी तो हिज़्र मरहम है " की प्राप्ति के लिए आप एनीबुक के पराग अग्रवाल साहब को उनके मोबाइल न. 9971698930 पर संपर्क करें और खूबसूरत ग़ज़लों के लिए रेणु जी को उनकी ई मेल आई डी renu.nayyar@ gmail.com पर बधाई सन्देश भेजें।
नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले आपको रेणु जी की, छोटी बहर में कही कुछ एक ग़ज़लों के शेर पढ़वाता चलता हूँ , सूचनार्थ बता दूँ कि इस संग्रह में रेणु जी की बहुत सी छोटी बहर में कही अद्भुत ग़ज़लें संगृहीत हैं :
ये मरज़ हड्डियों को खाता है
हिज़्र को नाम और क्या देदूं
काट के वो निकल ही जाता है
जिसको खुद में से रास्ता दे दूँ
***
ये ख़ामोशी अचानक लग गयी जो
मुसलसल गुफ़्तगू है और क्या है
वहां बस मैं नहीं हूँ, और सब हैं
यहाँ बस तू ही तू है , और क्या है
***
रेत होने तलक का क़िस्सा हूँ
बस तेरी याद तक संभलना है
इश्क है, हाँ ये इश्क ही तो है
इसमें अब और क्या बदलना है ?
9 comments:
"शायरी फ़क़त काफिया पैमाइश, रदीफ़ और बहर का ही नाम नहीं है" यह गैर जरूरी वाक्य है। बाद-बाँकी तो हर दिन के ही तरह अच्छा है।
Waahhh khoob lajwab
Waah kya baat hai
Posted: 24 Dec 2017 08:35 PM PST
नदी, झरने, किताबें, चाँद, तारे और तन्हाई
वो मुझसे दूर हो कर हर किसी के पास जा बैठा
मैं जब घबरा गया हर रोज़ के सौ बार मरने से
उठा शिद्दत से और फिर ज़िन्दगी के पास जा बैठा
ये मेरी बेख़ुदी है या है उसके प्यार का आलम
उसी के पास से उठ कर उसी के पास जा बैठा
सिर्फ़ इन तीन अशआर के हवाले ही से बात करूं तो शायद मुझे यह कहना चाहिए कि:
अपने जज़्बात ओ एहसासात के लिए मोतियों जैसे सुंदर शब्दों का चयन, उन शब्दों क़रीने से माला में पिरोने का हुनर और सहजता,मृदुता और नम्रता से पेश कर देने सलीक़ा ही मन को मोह लेने के लिए काफ़ी है और रेणु नय्यर के आगे की सुखद साहित्यिक यात्रा की भविष्यवाणी करता है.
मेरी ओर से रेणु जी प्राग अग्रवाल और आप को इस सुंदर परिचय के लिए बधाई!
रेणु जी की शायरी क़ाबिले तारीफ है। बधाई।
पूरी पोस्ट एक सांस में पढ़ गया|
शाइर और शाइरी पर बात करने के आपके हुनर को सलाम ! शायद इसी को सम्मोहन विद्या कहते हैं | रेणु जी शाइरी वाकई काबिले तारीफ़ है| संकलन में से शे'रों के जो मोती आप निकाल कर लाए हैं, रेणु जी के कलाम की बुलंदी की निशानदेही करते हैं |
"ये खामोशी अचानक लग गयी जो
मुसलसल गुफ्तगू है और क्या है"
वाह वाह क्या बात है ! शाइरी की सारी प्रक्रिया इस एक शेर में समाई हुई है! मुसलसल गुफ्तगू ही तो है शाइरी भी! लेकिन ख़ामोशी लग के जाने के बाद की! सलाम !!
संकलन संग्रहणीय है !
रेणु जी को हार्दिक बधाई !
सुंदर समीक्षा। रेणु नैयर जी को आपकी क़लम से जाना बहुत अच्छा लगा।
बधाई
Bahut khoobsoorati se kisi shayar ka taarruf padhna ho to Neeraj ji ka blog post khangala Jaye wah wah Renu ji k ashaar bhi apka lekh bhi
बहुत सुन्दर
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