तुमसे पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्तनशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यकीं था
ये उस शायर का शेर है जिसके इंतकाल के 15 साल बाद याने 2008 की फरवरी के अंतिम सप्ताह में मुशर्रफ़ समर्थक पाकिस्तान मुस्लिम लीग की हार के बाद पेशावर से कराँची तक लाखों लोगों ने दोहराया। ये कालजयी शेर है जिसे किसी एक मुल्क की हदों में नहीं बाँधा जा सकता। ये शेर हर उस मुल्क के हुक्मरां पर लागू होता है जो सत्ता के नशे में अपने अवाम को भूल जाता है और एक दिन अर्श से फ़र्श पर औंधे मुँह आ गिरता है।जिस ग़ज़ल का ये शेर है उस ग़ज़ल के बाकी शेर भी इसी मिज़ाज़ के हैं ,गौर फरमाएं :
कोई ठहरा है जो लोगों के मुकाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था
आज सोये हैं तरे-ख़ाक न जाने यहाँ कितने
कोई शोला, कोई शबनम कोई मेहताब-जबीं था
तरे-ख़ाक=ज़मीन के नीचे , मेहताब-जबीं=चाँद जैसे माथे वाला
ये वो शायर था जिसने अपनी शायरी ही नहीं, अपनी ज़िन्दगी भी अवाम के लिए वक़्फ़ कर दी थी और जो मरते मरते मर गया लेकिन न तो कैदो-बंद से उसके इरादे डाँवाडोल हुए और न ही तानाशाही के अत्याचार उसे अपनी राह से हटा सके। इस शायर ने बेख़ौफ़ हो कर अय्यूब खान,याह्या खान,ज़िआउल-हक़ और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकारों के खिलाफ लिखा। पाकिस्तान के 70 सालों के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा ऐसा शायर होगा जिसने इतने बरस जेल की सलाखों के पीछे काटे,जितने कि इस शायर ने।
हर रोज़ क़यामत ढाते हैं तेरे बेबस इंसानों पर
ऐ ख़ालिक़े-इन्सां, तू समझा अपने खूनी इंसानों को
ख़ालिक़े-इन्सां=इंसान के सृष्टा (खुदा )
दीवारों से सहमे बैठे हैं, क्या खूब मिली है आज़ादी
अपनों ने बहाया खूं इतना, हम भूल गए बेगानों को
इक-इक पल हम पर भारी है ,दहशत तकदीर हमारी है
घर में भी नहीं महफूज़ कोई , बाहर भी है खतरा जानों को
इस हर-दिल-अज़ीज़ और अवाम के मशहूर शायर का नाम था 'हबीब जालिब" जिनकी ग़ज़लों नज़्मों और गीतों के संकलन "प्रतिनिधि शायरी" श्रृंखला के अंतर्गत "राधा कृष्ण प्रकाशन " ने पेपर बैक में सन 2010 में प्रकाशित किया था। आज हम इसी किताब और इसके शायर की बात करेंगे जिसकी शायरी में ले-देकर कुल एक पात्र नज़र आता है और उस पात्र का नाम जनता है -सिर्फ पाकिस्तान की जनता नहीं, पूरे संसार की जनता। और ठीक यही वो जनता है जिसके हक़ में वे बार बार अपनी किताबें ज़ब्त कराते हैं और बार बार जेल जाते हैं।
और सब भूल गए हर्फ़े-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना
हर्फ़े-सदाक़त=सच्चाई का अक्षर
लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना
हमने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना
ब-इजाज़त=किसी के आदेश पर
न सिले की न सताइश की तमन्ना मुझको
हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना
सताइश=पुरस्कार
हमने जो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना
शह =बादशाह
कुछ भी कहते हैं, कहें शह के मुसाहिब 'जालिब'
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना
हबीब अहमद के नाम से 24 मार्च 1928 को होशियार पुर पंजाब में जन्में जालिब साहब अपनी किशोरावस्था और चढ़ती जवानी के दिनों में, मुस्लिम लीग के एक सरगर्म कार्यकर्ता रह चुके थे और उन्हें आशा थी कि पाकिस्तान के बनते ही मुस्लिम जनता के सारे दुःख-दर्द दूर हो जायेंगे और यही कारण था कि वो पाकिस्तान बनने के साथ ही याने 14 अगस्त 1947 को अपनी पैतृक धरती छोड़ कर इस नए देश में पहुँच गए। लेकिन फिर वहां जो कुछ उन्होंने देखा उससे उनका मोहभंग होते देर नहीं लगी- ठीक उसी तरह जैसे भारत में भी आज़ादी के बाद जल्द ही बहुत से वतनपरस्तों के सपने चूर-चूर होकर बिखर गए।
वतनपरस्तों को कह रहे हो वतन के दुश्मन,डरो ख़ुदा से
जो आज हमसे ख़ता हुई है ,यही ख़ता कल सभी करेंगे
वज़ीफ़ाख़्वारों से क्या शिकायत हज़ार दें शाह को दुआएं
मदार जिनका है नौकरी पर, वो लोग तो नौकरी करेंगे
वज़ीफ़ाख़्वारों=वज़ीफ़ा पाने वाले , मदार=निर्भरता
लिए, जो फिरते हैं तमग़-ए-फ़न, रहे हैं जो हमख़याले-रहज़न
हमारी आज़ादियों के दुश्मन हमारी क्या रहबरी करेंगे
तमग़-ए-फ़न=कला का तमगा ,हमख़याले-रहज़न=लुटेरों की सोच वाले
जालिब की शायरी सीधी दिल से निकली हुई शायरी है वो अपनी रचनाओं में बेहद आसान लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते थे उन्होंने इस बात का इज़हार अपने एक शेर में यूँ किया है :
जालिब मेरे शेर समझ में आ जाते हैं
इसलिए कम-रुतबा शायर कहलाता हूँ
दरअसल सच्चाई ये है कि सीधी-सादी भाषा को लोग घटियापन की अलामत मानते हैं। सदियों पहले दार्शनिक कुमारिल भट ने कहा था कि कुछ लोग मूढ़ता को छिपाने के लिए जान-बूझकर जटिल और दुरूह भाषा का प्रयोग करते हैं। लेकिन बात यहीं तक नहीं रहती , जो लोग 'मीर' की सीधी-सादी और दिल को छू लेनेवाली शायरी की दाद देते हैं और आहें भरते हैं वे भी अपने समकालीनों पर वैसे ही मानदंड लागू करने से इंकार करते हैं।
जिसकी आँखें ग़ज़ल, हर अदा शेर है
वो मिरि शायरी है ,मिरा शे'र है
अपने अंदाज़ में बात अपनी कहो
'मीर' का शे'र तो मीर का शे'र है
मैं जहाने-अदब में अकेला नहीं
हर क़दम पर मिरा हमनवा शे'र है
जहाने-अदब=साहित्य का संसार, हमनवा=साथी
इक क़यामत है 'जालिब' ये तनक़ीदे नौ
जो समझ में न आये बड़ा शे'र है
तनक़ीदे नौ=नयी आलोचना
1959 की बात है अय्यूब खान को सत्ता हथियाये एक साल बीत चुका था इस एक साल के डिक्टेटरशिप वाले मिलेट्री शासन में हर सच बोलने वाले और शासक से अलग सोच वाले को जेल की दीवारों के पीछे बंद कर दिया गया था. सेंसरशिप लागू हो गयी थी। शायर, अय्यूब खान और मिलेट्री शासन के गीत गा रहे थे और तमाम अखबारें , रिसाले उसकी प्रशंशा में रँगे जा रहे थे। एक साल बीत जाने की ख़ुशी में पाकिस्तान रेडिओ से लाइव मुशायरा ब्रॉडकास्ट किया जा रहा था जिसमें सभी शायरों को महबूबा या देश की ख़ूबसूरती पर पढ़ने का फरमान जारी किया गया था। तभी एक दुबले पतले शायर ने सरकारी फरमान की धज्जियाँ उड़ाते हुए ये नज़्म पढ़ी जिसका एक बंद कुछ यूँ था :
बीस रूपय्या मन आटा
इस पर भी है सन्नाटा
गौहर, सहगल, आदमजी
बने हैं बिरला और टाटा
मुल्क के दुश्मन कहलाते हैं
जब हम करते हैं फ़रियाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
फिर क्या था सन्नाटा छा गया ,वर्दीधारी सैनिकों के मुंह सफेद हो गए मुशायरा बीच में ही बंद कर दिया गया , रेडिओ स्टेशन के उच्च अधिकारी को फ़ौरन सस्पेंड कर दिया गया और शायर को जेल में बंद कर दिया , लेकिन जो होना था हो गया , लोगों की जबान पर "20 रुपैय्या मन आटा ,इस पर भी है सन्नाटा " चढ़ गया। ये शायर था "हबीब जालिब" जो सबक हुक्मरां उसे जेल भेज कर देना चाहते थे जालिब साहब ने उसका उल्टा ही समझा। जब जब वो जेल जाते बाहर आ कर दुगने जोश से सत्ता के ख़िलाफ़ लिखने लगते।
जीने की दुआ देने वाले ये राज़ तुझे मालूम नहीं
तख़लीक़ का इक लम्हा है बहुत, बेकार जिए सौ साल तो क्या
तख़लीक़ -रचना
हर फूल के लब पर नाम मिरा, चर्चा है चमन में आम मिरा
शोहरत की ये दौलत क्या कम है गर पास नहीं है माल तो क्या
हमने जो किया महसूस , कहा ,जो दर्द मिला हंस हंस के सहा
भूलेगा न मुस्तक़बिल हमको, नालां है, जो हमसे हाल तो क्या
मुस्तकबिल=भविष्य , नालां =नाराज़ ,हाल =वर्तमान
1964 में अचानक मोहतरमा फ़तिमाः जिन्ना ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति के चुनाव में लड़ने का फैसला किया। अपने भाषणों में उन्होंने हबीब साहब की नज़्म "सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद "को शुमार कर लिया। वो जीत भी जातीं लेकिन उनके खिलाफ सत्ता धारियों द्वारा रचे षड्यंत्र के चलते उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उनके चुनाव हारते ही हबीब साहब पर सत्ता धारी गिद्ध की मानिंद टूट पड़े ,आये दिन उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। उनका पासपोर्ट भी जब्त कर लिया गया लेकिन हबीब जालिब , हबीब जालिब ही रहे जरा सा भी नहीं बदले।
दुश्मनों ने जो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है
अपनी तो दास्ताँ है बस इतनी
ग़म उठाये हैं, शायरी की है
अब नज़र में नहीं है एक ही फूल
फ़िक्र हमको कली कली की है
पा सकेंगे न उम्र भर जिसको
जुस्तजू आज भी उसी की है
हबीब साहब ने उस दौर में सत्ता धारियों से लोहा लिया जिस दौर में नासिर काज़मी और हफ़ीज़ जालंधरी जैसे शायर हुक्मरानो के कसीदे पढ़ रहे थे। सुना है कि एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रकवि हफ़ीज़ साहब जब अपनी चमचमाती सरकारी कार से कहीं जा रहे थे तो उनको जालिब साहब फ़टे पुराने कपड़ों में राह पर चलते मिले उन्होंने कार रुकवाई और कहा की उन्होंने हुक्मरानों से बात कर ली है अगर वो अपना सुर बदल दें तो उनके भी वारे न्यारे हो सकते हैं ,हबीब साहब मुस्कुराये और आगे बढ़ गए। उन्होंने इस वाकये पर बिना हफ़ीज़ साहब का नाम लिए एक तन्ज़िया नज़्म "मुशीर " लिखी जिसका अर्थ होता है 'सलाहकार' जो आगे चल कर बहुत प्रसिद्ध हुई। ये नज़्म आपको इस संकलन में पढ़ने को मिलेगी , यहाँ नहीं।
लाख कहते रहें वो चाक गिरेबां न करूँ
कभी दीवाना भी पाबंद हुआ करता है
इज़्न से लिखने का फ़न हमको न अब तक आया
वही लिखते हैं जो दिल हमसे कहा करता है
इज़्न =आदेश
उसके ममनून ही हो जाते हैं दरपै उसके
क्या बुरा करता है जो शख़्स भला करता है
उसके ममनून ही हो जाते हैं दरपै उसके=उसके कृतज्ञ ही उसे कष्ट देने पर आमादा हो जाते हैं
हबीब साहब जैसा खुद्दार शायर शायद ही कोई दूसरा हुआ हो। उनकी बीमारी में एक बार बेनज़ीर भुट्टो उनकी मिजाज़पुर्सी को हॉस्पिटल तशरीफ़ लाईं तो उन्होंने किसी भी तरह की सरकारी मदद के लिए साफ़ मना कर दिया और कहा कि अगर आप को मदद ही करनी है मेरे इस वार्ड के और ऐसे ही दूसरे वार्डों के मरीज़ों की मदद करें जिनकी मदद को कोई नहीं है। मुल्क में हो रहे हर अन्याय के खिलाफ उन्होंने कलम उठाई। ये हरदिल अज़ीज़ शायर जब 12 मार्च 1993 को दुनिया से रुख़्सत हुआ तो पूरे शहर में इनकी मैय्यत को कांधा देने वालों में होड़ मच गयी और "शायरे अवाम हबीब जालिब ज़िंदाबाद " के नारों से फ़ज़ायें गूँज उठी।
बीत गया सावन का महीना ,मौसम ने नज़रें बदली
लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आंसू बहते हैं
एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इलज़ाम नहीं
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं
वो जो अभी इस राहगुज़र से चाक-गरेबाँ गुज़रा था
उस आवारा दीवाने को जालिब-जालिब कहते हैं
आखिर इस बेमिसाल शायर को पाकिस्तान की सरकार ने पहचाना और उन्हें 23 मार्च 2009 को पाकिस्तान का सर्वश्रेष्ठ सिविलियन अवार्ड दिया गया.हबीब साहब की शायरी का ये अनूठा संकलन हर इन्साफ पसंद इंसान के पास होना चाहिए। इस संकलन में जालिब साहब की 80 ग़ज़लें 65 नज़्में और 12 गीत हैं। ये सभी रचनाएँ बार बार पढ़ी जाने लायक हैं। उनकी बेजोड़ नज़्मों को पढ़े बिना हबीब साहब की शायरी को नहीं समझा जा सकता। राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित ये किताब अमेजन पर भी उपलब्ध है और इसके 209 पेज वाले पेपरबैक संस्करण की कीमत इतनी कम है कि आप विशवास नहीं करेंगे।
चलते चलते हबीब साहब की एक छोटी सी नज़्म आपको पढ़वाता हूँ जो उन्होंने लता मंगेशकर पर ,हैदराबाद ,सिंध की दमघोटूं जेल में लिखी - कौन कहेगा ये एक पाकिस्तानी शायर की रचना है ?
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रैन हमारे
तेरी अगर आवाज़ न होती
बुझ जाती जीवन की ज्योति
तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे
जैसे सूरज-चाँद-सितारे
क्या क्या तूने गीत हैं गाये
सुर जब लागे मन झुक जाए
तुमको सुनकर जी उठते हैं
हम जैसे दुःख-दर्द के मारे
मीरा तुझमें आन बसी है
अंग वही है रंग वही है
जग में तेरे दास हैं इतने
जितने हैं आकाश में तारे
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन रैन हमारे
8 comments:
बहुत बढ़िया शेर
*सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं*,
*सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए*।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
*हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए*।
बहुत सही चित्रण किया है आप ने
पूरी शख्सियत का खाका खींच दिया आप ने
मुबारक हो
आनन्द पाठक
habib jalib sahb ki shayari ko unki khuddari ko salaam
उम्दा क्रान्तिकारी शेरों के मालिक से परिचय कराया, आभारी हूँ।
आपकी यह ख़ूबसूरत पोस्ट आज ही पढ़ पाया हूँ। पढ़ने लगा तो आद्यन्त पढ़ गया हूँ। पाठक से अपनी पोस्ट को तन्मयता से पढ़वाने का यह हुनर आपके पास अनूठा है। अशआर को सलीके से परोसने का आपका यह कमाल अप्रतिम है।
‘जालिब’ साहिब के नाम से अपने लड़कपन के दिनों से आशना हूँ, ठीक सुब्ह ७.३० बजे, पिता जी रेडियो लाहौर सुनना पसन्द करते थे। मेहदी हसन, गुलाम अली सलामत अली, अमानत अली ख़ान साहिबान की गज़लें आती थीं। घर में टेप रिकार्डर नहीं होता था। पिता जी को मेहदी हसन साहिब की गाई हुई हबीब जालिब साहिब की यह गज़ल कुछ ज़ियादा ही पसन्द थी,
’दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुख सहते हैं
हमने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं।
धीरे-धीरे मुझे इसके शे’र याद भी हो गए और फिर बहुत धीरे -धीरे उनके अर्थ भी कुछ-कुछ समझ आने लगे। और आज जब पिता जी नहीं हैं तो यह समझ सकता हूँ कि उन्हें यह गज़ल इतनी ज़ियादा भी पसन्द आख़िर क्यों थी!
इतने ख़ूबसूरत अन्दाज़ में उस हर दिल अज़ीज़ शायर को याद करने और करवाने के लिए तहे-दिल से शुक्रिया !
ये पुस्तक मिल नहीं रही है। कृपया उपलब्ध कराएं
बहुत बढ़िया चित्रण हैं,
लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना
हमने सीखा नहीं प्यार ब-इजाज़त लिखना
ब-इजाज़त=किसी के आदेश पर
न सिले की न सताइश की तमन्ना मुझको
हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना
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