Monday, September 28, 2015

किताबों की दुनिया -110

आज हम अपनी बात मशहूर शायर "शकील ग्वालियरी " द्वारा लिखे लेख की इन पंक्तियों से करते हैं कि " उर्दू शायरी में ग़ज़ल ऐसी विधा है जिसे सैंकड़ों सालों से समझा जा रहा है। जिनका दावा है कि उन्होंने ग़ज़ल को उसके हक़ के मुताबिक समझ लिया है वो एक मुकाम पर ठहर गए हैं। और कुछ वो हैं जो ग़ज़ल को बकवास समझ कर ख़ारिज किये हैं , वो सब किनारे पर खड़े तमाशाई हैं। उन्हें ग़ज़ल की तूफानी ताकत का अंदाज़ा नहीं है। "

निकले हैं दीवार से चेहरे 
बुझे बुझे बीमार से चेहरे 

मेरे घर के हर कोने में 
आ बैठे बाजार से चेहरे 

दादी के संदूक से निकले 
चमकीले दीनार से चेहरे 

मज़हब की दस्तार पहन कर 
चमक रहे तलवार से चेहरे 
दस्तार : पगड़ी 

हमारे आज के शायर डा. ओम प्रभाकर उनमें से हैं जिन्हें ग़ज़ल की ताकत का बखूबी अंदाज़ा है तभी तो उन्होंने हिंदी भाषा में डाक्टरेट करने के बावजूद उर्दू सीखी और शेर कहने में महारत हासिल की उसी का नतीजा है उनका पहला ग़ज़ल संग्रह " ये जगह धड़कती है " जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं।


पुराने चोट खाए पत्थरों के चाक सीनो में 
लिए छैनी हथोडी हाथ में मैमार ज़िंदा हैं 
मैमार : भवन निर्माता ,मिस्त्री 

हैं टीले दीमकों के, था जहाँ पहले कुतुबखाना 
वहाँ कीड़े-मकौड़े-घास-पत्थर-खार ज़िंदा हैं 
कुतुबखाना :पुस्तकालय 

हैं इन गड्डों में शायद तख्ते-साही मसनदें-क़ाज़ी 
उधर वो ठोकरें खाती हुई दस्तार ज़िंदा हैं 
मसनदे-क़ाज़ी : न्यायाधीश का आसन , दस्तार : पगड़ी 

5 अगस्त 1941 को जन्मे श्री ओम प्रभाकर पी एच डी तक शिक्षा प्राप्त हैं। आप शासकीय स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट ) महाविद्यालय एवम शोध केंद्र ,भिंड (म. प्र) में हिंदी के प्रोफ़ेसर एवम विभागाध्यक्ष रहे। बाद में जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के डीन ऑफ फैकल्टी ऑफ आर्ट्स नियुक्त हुए। आजकल उनका स्थाई निवास स्थान 'देवास' म.प्र. है डा. प्रभाकर का रचना संसार बहुत विविधता पूर्ण है। उन्होंने अलग अलग विषयों पर लेख, कवितायेँ, शोध समीक्षाएं, कहानियां, नज़्में और ग़ज़लें कहीं हैं. देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं.
कुछ रचनाएँ उर्दू, बांग्ला,गुजराती,अंग्रेजी, पंजाबी, अरबी और ब्रेल लिपि में अनूदित हुई हैं .

कभी तेरे कभी मेरे सहारे 
मज़े से इश्क ने कुछ दिन गुज़ारे 

जहाँ दरया था अपना रेत है अब 
मगर फिर भी अलहदा हैं किनारे 

दुखी मत हो कि सूरज,चाँद तारे 
चलो आधे मेरे, आधे तुम्हारे 

शकील साहब किताब की भूमिका में आगे लिखते हैं कि " ओम प्रभाकर की ग़ज़ल के अलफ़ाज़ और बंदिशों पर भाषागत बुद्धिजीविता की छाप नहीं है। वो शब्दों की ऐसी संगती पेश करते हैं जो उनके सहज उपचेतन की सतह पर खुद-ब-खुद उभरती है। वो ज़िन्दगी की सच्चाइयों को कला के सत्य के साथ कबूल करते हैं। इसी वजह से उनकी ग़ज़ल हकीकत और ख्वाब के दरम्यान अपना रास्ता बनाती है। "

मोजिज़ा किस्मत का है या है ये हाथों का हुनर 
आ गिरा मेरा जिगर ही आज नश्तर पर मेरे 
मोजिज़ा : चमत्कार 

गो कि रखता हूँ मैं दुश्मन से हिफाज़त के लिए 
नाम तो मेरा मगर लिख्खा है खंज़र पर मेरे 

ढूंढता रहता हूँ अपना घर मैं शहरे-ख्वाब में 
रात भर सोता है कोई और बिस्तर पर मेरे 

उनकी लिखी 'पुष्परचित', 'कंकाल राग' ,'काले अक्षर भारतीय कवितायेँ ' (कविता संग्रह), एक परत उखड़ी माटी (कहानी संग्रह), ' तिनके में आशियाना' (उर्दू ग़ज़लों मज़्मुआ ), 'अज्ञेय का कथा साहित्य ', 'कथाकृति मोहन राकेश ' (शोध समीक्षा), 'कविता -64' और 'शब्द' (सम्पादन) पुस्तकें प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुकी हैं।उन्हें 'पुष्परचित'और बयान पाण्डुलिपि पर म. प्र. साहित्य परिषद और उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृृत किया चुका है. वर्ष 2010 -2011 के लिए म. प्र. उर्दू अकेडमी द्वारा गैर उर्दू शायर को दिया जाने वाला ' शम्भूदयाल सुखन अवार्ड' भी मिल चुका है।

याद रखने से भूल जाने से 
कट गए दिन किसी बहाने से 

घर में भूचाल आ गया गोया 
सिर्फ दरवाज़ा खटखटाने से 

कुल बगीचा ही बन गया नगमा 
एक पंछी के चहचहाने से 

ओम प्रभाकर साहब की ग़ज़लों में हमें अक्सर कुछ ऐसे चौकाने वाले शेर मिलते हैं जिससे उनका अपने वजूद में ग़ुम और उससे लबरेज़ होने के बजाय उस पर आलोचनात्मक निगाह डालने का हौसला भी दिखाई देता है और ये हौसला उन्हें अपने समकालीन शायरों से अलग करता है। हमारी सभ्यता के ह्रास और संस्कृति के पतन की पीड़ा भी उनकी शायरी में झलकती है।

मैं वो हूँ या तुम्हारा दौरे-हाज़िर 
सड़क पर कौन वो औंधा पड़ा है 

मवेशी हैं, न दाना है, न पानी 
कभी थे ,इसलिए खूंटा गडा है 

कुल आलम अक्स है मेरी जुबाँ का 
मेरे लफ़्ज़ों में आईना जड़ा है 

मशहूर शायर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने इसी किताब की दूसरी भूमिका में लिखा है कि " ओम जी की ग़ज़लों में बेतकल्लुफी का लहज़ा और एक तरह की साफगोई का अंदाज़ है। हालाँकि वो हिंदी से आये हैं लेकिन वो ग़ज़ल के लहज़े में शेर कहते हैं और ऐसे मज़्मून लाते हैं जिन्हें आमतौर पर ग़ज़ल में नहीं बरता जाता। ये बहुत बड़ी बात है और ये ऐसा इम्तिहान है जिसमें ग़ज़लगो शायर नाकाम रहते हैं।"

हमारी खिल्वतों की धुन दरो-दीवार सुनते हैं 
चमन में रंगो-बू की बंदिशों को खार सुनते हैं 
खिल्वतों :एकांत 

हवा सरगोशियाँ करती है जो चीड़ों के कानों में 
उसे उड़ते हुए रंगीन गुल परदार सुनते हैं 
रंगीन गुल परदार : पंख वाले रंगीन फूल 

सभी सुनते हैं घर में सिर्फ अपनी अपनी दिलचस्पी 
धसकते बामो-दर की सिसकियाँ बीमार सुनते हैं 

भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित "ये जगह धड़कती है " किताब में ओम जी की लगभग 99 ग़ज़लें संगृहीत हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप 'भारतीय ज्ञानपीठ' , 18 , इंस्टीटूशनल एरिया ,लोदी रोड ,नयी दिल्ली -110003 को लिख सकते हैं , उन्हें sales@jnanpith.net पर मेल भेज सकते हैं या फिर सीधे ओम जी से उनके मोबाइल न 09977116433 पर संपर्क कर सकते हैं।

ओम जी की एक ग़ज़ल के इन शेरों को आपकी खिदमत में प्रस्तुत करते हुए अब मैं निकलता हूँ एक किताब की तलाश में।

जो अक्सर बात करता था वतन पर जान देने की 
उसे देखा तो पूरा पेट ही था सर नदारद था 

कहीं सर था, कहीं धड़ था, कहीं बाजू कहीं पा थे 
मगर कातिल न दीखता था कहीं, खंज़र नदारद था 

वहां पर एक आलिशान बंगला मुस्कुराता था 
मगर मेरे पिता की कब्र का पत्थर नदारद था

13 comments:

Anonymous said...

आभार - सादर

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र said...

आभार

कविता रावत said...

शायर डा. ओम प्रभाकर जी की "ये जगह धड़कती है " गजल संग्रह के बारे में विस्तृत परिचय प्रस्तुति हेतु आभार!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-09-2015) को "डिजिटल इंडिया की दीवानगी मुबारक" (चर्चा अंक-2113) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Asha Joglekar said...

Behatareen sameeksha chuninda sheron se saji.

अनुपमा पाठक said...

वाह! हमेशा की तरह शानदार पुस्तक परिचय!!!

सादर!

शारदा अरोरा said...

behad sundar sher aur aapka likha hua description bhi..

नीरज गोस्वामी said...

Received on FB:-

पुराने चोट खाए पत्थरों के चाक सीनो में
लिए छैनी हथोडी हाथ में मैमार ज़िंदा हैं

हैं टीले दीमकों के, था जहाँ पहले कुतुबखाना
वहाँ कीड़े-मकौड़े-घास-पत्थर-खार ज़िंदा हैं

हैं इन गड्डों में शायद तख्ते-साही मसनदें-क़ाज़ी
उधर वो ठोकरें खाती हुई दस्तार ज़िंदा हैं "

वाह!
क़िताबों की दुनिया श्रृंखला हमेशा ही शानदार है...
यह क्रम अहर्निश चलता ही रहे...

पुस्तकों तक पहुँच का रास्ता दिखाती इस श्रृंखला और इस श्रृंखला के पीछे के श्रम को प्रणाम


Anupama Pathak "

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:-

गजब के शेर ....बेमिसाल शेर ..........ओम प्रभाकर जी को दिली मुबारकबाद ........और आपका तहे दिल से शुक्रिया ........इस कोहिनूर से परिचित कराने के लिए ...........


Pramod Kumar
Delhi

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:-

बड़ेभाई सफ़र ज़ारी रहे।
शेयर करने के लिये आभार।

Navin C. Chaturvedi

Mumbai

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:-


शेयर करने के लिये आभार

Satish Tewari

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:-

वाह, आनन्द भये

Alok Chaturvedi

Jaipur

नीरज गोस्वामी said...

Received on mail:-



अच्छा शायर,दिलकश अशआर,नायब अंदाज़ , और इन्तखाब जनाबे-आली का
बहुत खूब


Ramesh Kanwal