हज़ारों मुश्किलें हैं दोस्तों से दूर रहने में
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर खंज़र नहीं लगता
कहीं कच्चे फलों को संगबारी तोड़ लेती है
कहीं फल सूख जाते हैं कोई पत्थर नहीं लगता
हर इक बस्ती में उसके साथ अपनापन सा लगता है
नहीं है वो तो अपना घर भी अपना घर नहीं लगता
कागज़ी फूल हैं उसकी तकदीर में
जिसको फूलों में काँटा नहीं चाहिए
ग़म बंटाने को इक आम सा आदमी
दोस्ती को फ़रिश्ता नहीं चाहिए
ज़ख़्म छिल जायेंगे ग़म बिफर जायेगा
बेसबब मुस्कुराना नहीं चाहिए
दो बूंदों की हसरत ले कर चुप टीले पर रेत खड़ी है
चारों जानिब घुँघरू बांधे रिमझिम रिमझिम बरसा पानी
सूखी डालें सोच रहीं हैं अब आने से क्या होता है
पत्ते ताली पीट रहे हैं आया पानी आया पानी
अक्सर उसकी याद आती है रौ में तेज़ी आ जाती है
वो परबत की ऊंची चोटी , मैं झरने का बहता पानी
अगर सोचो तो वजनी हो गयी है
हमारी बात ना मंज़ूर हो कर
किसी का पास आकर दूर होना
कहीं अन्दर महकना दूर हो कर
मुहब्बत की इज़ाज़त भी नहीं है
बड़े घाटे में हूँ मशहूर हो कर
हनफ़ी साहब की ग़ज़लें देवनागरी में यूँ तो इंटरनेट की बहुत सी लोकप्रिय साइट्स मसलन 'लफ्ज़ ', कविताकोश, रेख्ता के अलावा कुछ छुटपुट ब्लॉग पर भी पढ़ीं जा सकती हैं लेकिन एक मुश्त पढ़ने के लिए सिवा ''मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें" की किताब के दूसरा कोई रास्ता नहीं है। इस किताब में मुज़फ़्फ़र साहब की चुनिंदा 127 ग़ज़लें शामिल की गयी हैं।
पूछता हूँ कि क्या कह रही थी हवा
चांदनी रात बातें बनाने लगी
इस तरह याद आने से क्या फायदा
जैसे नागिन कहीं सरसराने लगी
आओ लंगर उठायें मुज़फ़्फ़र मियाँ
बादबाँ को हवा गुदगुदाने लगी
ग़ज़ल के दो रंग जनाबे-मीर और जनाबे-सौदा से चले हैं. तीसरे रंग यानी व्यंग्यात्मकता का इज़ाफ़ा जनाबे-यास यगाना चंगेज़ी और शाद आरिफी साहब ने किया. मुज़फ्फर साहब उन शाद आरिफी साहब के शागिर्द हैं.
मेरे हाथों के छाले फूल बन जाते हैं कागज़ पर
मेरी आँखों से पूछो रात भर तारे बनाता हूँ
जिधर मिट्टी उड़ा दूँ आफताब-ऐ-ताज़ा पैदा हो
अभी बच्चों में हूँ साबुन के गुब्बारे बनाता हूँ
ज़माना मुझसे बरहम है मेरा सर इसलिए खम है
कि मंदिर के कलश, मस्जिद के मीनारे बनाता हूँ
बरहम = नाराज , खम =झुका हुआ
मेरे बच्चे खड़े हैं बाल्टी ले कर कतारों में
कुएँ ,तालाब, नहरें और फ़व्वारे बनाता हूँ
जनाब 'गोपी चंद नारंग 'साहब दूसरे फ्लैप पर लिखते हैं कि 'मुज़फ्फर हनफ़ी उन शायरों में हैं जो अपने लहजे और आवाज से पहचाने जाते हैं। तबियत की रवानी की वजह से उन के यहाँ ठहराव की नहीं बहाव की कैफियत है। किसी शायर का अपने लहजे और अपने तेवर से पहचाना जाना ऐसा सौभाग्य है जिस को कला की सब से बड़ी देन समझना चाहिए।
कुछ ऐसे अंदाज़ से झटका उस ने बालों को
मेरी आँखों में दर आया पूरा कजरी बन
उल्फ़त के इज़हार पे उस के होंटो पर मुस्कान
पेशानी पर बेचैनी सी, आँखों में उलझन
कैसे तेरे शेरों में हो जाते हैं आमेज़
पत्थर का ये दौर मुज़फ़्फ़र और ग़ज़ल का फ़न
कुछ लोग होते हैं जो अवार्ड्स लेने की फ़िराक में दिन रात एक करते हैं लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जिनकी तलाश में अवार्ड्स रहते हैं। मुज़फ़्फ़र साहब दूसरे तबके के लोगों में शुमार हैं जिनकी गिनती उँगलियों पर की जा सकती है। ज़िन्दगी में उन्होंने अवार्ड्स को कभी कोई अहमियत नहीं दी। पचास से ऊपर अवार्ड प्राप्त हनफ़ी साहब को हाल ही में सन2013 -14 के लिए उर्दू अकादमी की और से पुरुस्कृत किया गया।
अवार्ड लेने में उनकी बेरुखी उनके सुनाये इस सच्चे किस्से से बयाँ होती है " 1995 की बात है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा उस दिन मुझे उर्दू के सर्वोच्च मिर्जा गालिब अवार्ड से सम्मानित करने वाले थे। उसी दिन खंडवा में आयोजित मुशायरे के लिए दोस्तों ने निमंत्रण भेजा था। जन्म स्थली और दोस्तों के बीच जो खुशी मिलती वह राष्ट्रपति के हाथों अवार्ड लेने से नहीं। मिर्जा गालिब अवार्ड लेने के लिए मैंने अपने बेटे फिरोज हनफी को दिल्ली भेजा और मैं खंडवा चला आया। (जैसा उन्होंने चर्चा में बताया)"
जब खाली बिस्तर लगता है काँटों का इक ढेर
किरनों सा परदे से छन कर आ जाता है कौन
फूलों की पंखुड़ियों से जब मन करता है बात
कोमल कोमल टहनी में ये बल खाता है कौन
चिड़ियों की चहकार से इतने भोलेपन के साथ
हंस हंस कर कानों में अमृत छलकाता है कौन
वो कहती है और किसी को अपने शेर सुना
तेरी चिकनी चुपड़ी बातों में आता है कौन
मुज़फ़्फ़र साहब की बुलंद शक्शियत और बेजोड़ शायरी पर ऐसी कई पोस्ट्स भी अगर लिखें तो भी कामयाबी हासिल नहीं होगी। मैंने तो सिर्फ 'टिप ऑफ द आइस बर्ग ' ही दिखाने कोशिश की है। इस किताब को हिंदी अकादमी (दिल्ली ) के सौजन्य से फ़रवरी 2003 में प्रकाशित किया गया था। इस संकलन के लिए मुज़फ़्फ़र साहब की ग़ज़लों का चयन उन के बेटे फ़ीरोज़ और जनाब फ़ुज़ैल ने किया है। किताब प्राप्ति के लिए आप अल किताब इंटरनेशनल ,मुरादी रोड, बटाला हाउस नई दिल्ली ,विजय पब्लिशर्स 9 मार्किट दरिया गंज और मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस वगोला मार्किट नयी दिल्ली से सम्पर्क कर सकते हैं।
ये सब कुछ नहीं करना तो यूँ करें कि आप मुज़फ़्फ़र साहब के साहिब जादे जनाब फ़िरोज़ भाई को उनके मोबाईल न.09717788387 पर संपर्क कर किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। कुछ भी करें एक बात पक्की है कि इस किताब के पन्नों को पलटते हुए आप जिस अनुभव से गुज़रेंगे उसे लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता। ,
इस पोस्ट के अंत तक आने के बाद मुझे महसूस हो रहा है कि अभी बहुत कुछ छूट गया है जिसका जिक्र होना चाहिए था सागर की एक बूँद से चाहे आप सागर में मौजूद अथाह पानी का स्वाद या उसमें मिले नमक और दूसरे मिनरल्स की मात्रा का भले पता लगा लें, लेकिन सागर की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगा सकते उसके लिए तो आपको उसमें डुबकी ही लगानी पड़ेगी।
आखिर में उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाते हैं और अगली किताब की खोज में निकलते हैं :
फन को महकाये रखते हैं ज़ख़्मी दिल के ताज़ा फूल
टूटी तख्ती काम आती है नय्या पार लगाने में
तितली जैसे रंग बिखेरो घायल हो कर काँटों से
मकड़ी जैसे क्या उलझे हो ग़म के ताने बाने में
बुझते बुझते भी ज़ालिम ने अपना सर झुकने न दिया
फूल गयी है सांस हवा की एक चिराग़ बुझाने में
इस पोस्ट को अगर मुज़फ़्फ़र साहब के एक शेर से की नज़र से देखा जाय तो वो शेर होगा :
अंदर से अच्छे होते हैं अक्सर आड़े तिरछे लोग
जैसे अफ़साना मंटो मन्टो का,जैसे शेर मुज़फ़्फ़र का
17 comments:
"भाषा की ऐसी मिठास ऐसी रवानी ओर कहीं मिलना दुर्लभ है।"
So true...
Thanks for showing us the tip of the iceberg...!!
Regards,
Thank you Neeraj ji. Walid mahutram ki kitab per do qistoon mein aap ney Bahoot achi charcha ki hey. Mera koshish rhey gi ki unka hindi mein ek do majmua aur aa jayee.
हज़ारों मुश्किलें हैं दोस्तों से दूर रहने में
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर खंज़र नहीं लगता
बहुत लाजवाब शे'र , बेहतरीन।
बहुत बहुत उम्दा शायरी ..........बेमिसाल
इसमें कोई संदेह नहीं की हनफ़ी साहब ने शायरी को न केवल ऊँचे मेयार दिए हैं वरन् पढ़ने सुनने वालों को इस क़दर बेहतरीन क़लाम दिए हैं की उन्हें पढ़ना सुनना एक अभूतपूर्व अनुभव बन जाता है।
आपका शुक्रिया
सादर
पूजा
मुज़फ्फ़र हनफी साहब की शायरी बेमिसाल है।सादा ज़बान और आसान लहजे में इतनी उम्दा शायरी…. बाकमाल हुनर है। उनके फ़न को मेरा सलाम।
देवमणि पांडेय (मुम्बई)
हनफ़ी साहब की शायरी तो शानदार है ही तिस पर आप की समीक्षा भी सोने पर सुहागे वाला काम कर रही है। साझा करने के लिये आभार।
हनफ़ी साहब की शाइरी और आपका सुनाना.. देर तक डूबे रहे कि मोबाइल घनघना उठा. तमक आये क्रोध से उबर जाऊँ नीरज भाई, तो आपसे कुछ बातें करूँगा. ऐसे ऊँचे शख्स की ग़ज़लों और पोस्ट पर टिप्पणियाँ नहीं की जातीं.
शुभ-शुभ
अद्भुत भाव, अद्भुत अभिव्यक्ति.
आभार नीरज जी.
एक अच्छे शायर को पढ़ना/ सुनना तो एक सुखद् अनुभूति होती ही है लेकिन इस खूबसूरती से प्रस्तुत करना एक विशिष्ट कला है जो आपसे सीखनी है।
आप तो यह बतायें कि आपने अब तक जितनी किताबों को प्रस्तुत किया है वो एकजाई कैसे मिल सकती हैं और भविष्य में मिलती रहें यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है।
HAI MUZAFFAR HANFI DUNIYA E ADAB MEIN AISA NAAM
JIS KI URDU SHAIRI HAI BADA E ISHRAT KA JAAM
JIS KA HAI USLOOB US KI NUDRAT E FUN SHENAKHAT
kARTE HAI AHLE BASEERT JIS KA BARQI EHTERAM
AHMAD ALI BARQI AZMI
Received on fb :-
मुज़फ्फर की शायरी यक़ीनी तौर पर एक मुकम्मल ज़माने की तहरीर है। खास बात यह कि आपने जिन खूबसूरत लफ़्ज़ों में इस नायाब रंग को नुमाया किया है उसने हनफ़ी को कदरन और दिलचस्प बना दिया है। मुझे हनफ़ी साहब की एक ग़ज़ल के मिसरे की एक लाईन बराबर याद आ जाती है कि -
हमें मालूम है कब लौ भड़कती है चरागों की
हमें मालूम है कब चींटियों के पर निकलते हैं।
Sooraj Agrawal
सुन्दर व सार्थक रचना ..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
Aadarneey Neeraj Ji,
Muzaffar Hanfi Sahab ko bahut padha hai pahle bhi aur aapki posts dwara bhi jawan naheen betaj baadshaah hain shyari ki duniya ke... guzista 7-8 baras pahle unka ek maqta padha tha bahut logon ko sunaya bhi ...tab se gahe bagahe phone par baat bhi ho jaya karti hai...maqta dekhen.......
"Sadiyon karenge raaj Muzaffar dolon pe ham /
haasil hai saltanat ki jagah shayari hamen"
aur isee maqte ne mujhe unka mureed bana diya ek aur baat yahaan sajha karna chahunga ki 23 June 2013 ke Mumbai se prakashit "The Urdu Times" page no 11 men mujhe Dr Hanfi Sahib ke saath chhapne ka sarf bhi haasil hua hai.
Aapka bahut aabhar padhwane ke liye.
Satish Shukla 'Raqeeb'
Juhu, MumbaiAadarneey Neeraj Ji,
बहुत सुंदर प्रस्तुति
हज़ारों मुश्किलें हैं दोस्तों से दूर रहने में
मगर इक फ़ायदा है पीठ पर खंज़र नहीं लगता
बहुत सुन्दर। लाजवाब ग़ज़लें।
Shaandaar rachna, jaandaar pprastuti
Post a Comment