जिस को भी अपने जिस्म में रहने को घर दिया
उन्हीं के हाथ से मिरी मुठ्ठी में जान बंद
जिन की ज़बान मेरी खमोशी ने खोल दी
उन को गिला कि क्यों रही मेरी ज़बान बंद
बाज़ार असलेहे का रहे रात भर खुला
राशन की दिन ढले ही मगर हर दुकान बंद
असलेहे = शस्त्र
'अशरफ' ग़ज़ल को अपनी कभी तेग़ भी बना
कर सर क़लम सितम का दुखों की दुकान बंद
कल तलक जिस में रह न पाएंगे
उसको अपना मकान कहते हैं
अपने बस में न अपने काबू में
जिसको अपनी ज़बान कहते हैं
हो ख़िज़ाँ और बहार का हमदम
तब उसे गुलसितान कहते हैं
उसके ज़ोर-ओ-सितम से हूँ वाक़िफ़
सब जिसे मेहरबान कहते हैं
रहा जोश हमको कमाल का न रहा ध्यान कोई ज़वाल का
यही भूल की न समझ सके क्या हलाल है क्या हराम है
मेरे पास आएं जो एक क़दम, बढूँ उनकी सिम्त मैं दो क़दम
जो मिलाएं मुझसे नहीं क़दम , उन्हें दूर ही से सलाम है
वही ज़िंदगानी मिरी हुई, मेरे हुक्म पर जो चली रुकी
जो बिखर गयी न सिमट सकी, वही आप लोगों के नाम है
मैं वोट मर्ज़ी के इक रहनुमा को दे बैठा
तभी हुकूमती दरबारियों की ज़द में हूँ
किताबें भेजूं जिन्हें वो जवाब देते नहीं
मैं उन की रद्दी की अलमारियों की ज़द में हूँ
मसीहा भेज दो घर मेरे तुम न आओ
भले
तुम्हारी याद की बीमारियों की ज़द में हूँ
जो देखा लिख दिया शेरोँ में हू ब हू शायद
किया है जुर्म जो अखबारियों की ज़द में हूँ
मिरी ग़ज़ल के हज़ार मानी , मिरी ग़ज़ल के हज़ार पैकर
मिरे ज़माने के सानी भी , रंग मेरी ग़ज़ल के देखेँ
सदा सहारों के आसरे पर हुए हैं बे आसरा जहां में
बहुत चले राह पर किसी की अब अपनी मर्ज़ी से चल के देखें
जिन्होंने बख्शी हैं सर्द आहें , भरी हैं अश्कों से ये निगाहें
हम उनकी खातिर, ना फिर भी चाहें, पटक के सर हाथ मल के देखें
जो मुल्क एटम बना रहे हैं , वो मुफलिसी को बढ़ा रहे हैं
दिलों की धरती हसीं तर है , दिलों का नक्शा बदल के देखें
वो हम को भूल जाने से पेश्तर बताएं
हम अपनी चाहत में कैसे कमी करेंगे
इस दिल पे ज़ख्म मैंने यूँ ही नहीं सजाये
दिल में कभी तो मेरे ये रौशनी करेंगे
कुछ देर अक्ल को भी देते रहे हैं छुट्टी
कुछ काम हमने सोचा बेकार भी करेंगे
गिल साहब की लाजवाब 105 ग़ज़लों, जिनकी तरतीब और तर्जुमा जनाब एफ एम सलीम ( 9848996343 ) ने किया है, से सजी, एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस , दिल्ली -6 द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति टेडी खीर है। भला हो मेरे मुंबई निवासी प्रिय मित्र और बेहतरीन शायर जनाब 'सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब का जिन्होंने बिन मांगे ही ये कीमती तोहफा डाक से मुझे भेज दिया। किताब के चाहने वाले अलबत्ता जनाब गिल साहब को ,जो फिलहाल अमेरिका रहते हैं, उनके ई-मेल ashgill88@aol.com पर संपर्क कर इस किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं। आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों का लुत्फ़ उनकी साइट www.asssshrafgill.com पर पढ़ और youtube:ashrafgill1 पर क्लिक करके देख सुन सकते हैं. जो लोग अमेरिका में उनसे संपर्क के इच्छुक हैं वो उन्हें उनके इस पते पर लिखे ASHRAF GILL , 2348, W.CARMEN AVE, FRESNO, CA, 93728,USA या 5593896750 / 559233126 पर फोन करें।
आखिर में , अगली किताब की खोज पर चलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ .
दिल में जिस वक्त ग़म पिघलते हैं
अश्क आँखों से तब ही ढलते हैं
जब मुहब्बत की बात चलती है
गुफ्तगू का वो रुख बदलते हैं
चन्द लम्हें कि उम्र भर के लिए
दर्द बन कर बदन में पलते हैं
जैसे तैसे गुज़ार ले 'अशरफ'
तेरी खुशियों से लोग जलते हैं
7 comments:
इस दिल पे ज़ख्म मैंने यूँ ही नहीं सजाये
दिल में कभी तो मेरे ये रौशनी करेंगे
bahut khoob ...padh kar aanad aaya ..
वाह साहब वाह। बहुत जल्दी शतक लगने वाला है।
behtareen shayar se rubaru karaane ka bahut bahut shukriya....
Received on mail :-
एक अच्छे ग़ज़लगो शायर से रूबरू करने के लिए शुक्रिया :-
किताबें भेजूं जिन्हें वो जवाब देते नहीं
मैं उन की रद्दी की अलमारियों की ज़द में हूँ
वा ह वाह
रमेश कँवल
एक और नायब नगीना शायरी का। आपका बहुत शुक्रिया इनसे मिलवाने का।
सुंदर गज़लें
धन्यवाद अशरफ साहब की रचनाओं से परिचय कराने के लिए ।
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