पिछले दिनों मुंबई के अपने मित्र सतीश शुक्ल "रकीब " द्वारा अजीम शायर तर्ज़ लखनवी साहब की याद में आयोजित कार्यक्रम में जाने का मौका मिला. सोचा था इतने बड़े शायर की याद में रखे कार्यक्रम में बहुत से नए पुराने शायरों को सुनने का मौका मिलेगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. जिस शहर में छुट भैय्ये अभिनेता और नेताओं को देखने के भीड़ जुट जाती है उसी शहर में एक अदीब को याद करने वाले सिर्फ मुठ्ठी भर लोग ही नज़र आये. अपने देश में अदीबों के साथ ऐसा व्यवहार कोई नयी बात नहीं है. हमारे देश में जहाँ "अदम गौंडवी" जैसे कद्दावर शायर उपयुक्त चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ देते हों वहां किसी अदीब की याद में आयोजित कार्यक्रम में लोगों के न आने की घटना असाधारण नहीं है. बस, एक अदीब की याद में रखे कार्यक्रम में शिरकत करने अदीब ही न आयें ये बात दुःख पहुंचाती है. कहते हैं की औरत ही औरत की दुश्मन होती है वैसे ही मुझे लगता है अदीब ही अदीब का दुश्मन बना हुआ है. लेकिन शुक्र है अभी भी एक आध ही सही, अदीब हैं जो दूसरे अदीब की तहे दिल से प्रशंशा करते हैं.
इस कार्यक्रम में अपनी बढती उम्र और ख़राब स्वाथ्य के बावजूद उर्दू के मशहूर शायर जनाब "नक्श लायलपुरी" आये और उन्होंने न केवल अपने अज़ीज़ दोस्त को श्रधांजलि दी बल्कि कार्यक्रम की अध्यक्षता भी पूरी तन्मयता से की. आज हम उन्हीं की लिखी किताब " तेरी गली की तरफ" जिसका एक पृष्ठ देव नागरी में और दूसरा उर्दू लिपि में छपा है का जिक्र अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में करेंगे.
इस कार्यक्रम में अपनी बढती उम्र और ख़राब स्वाथ्य के बावजूद उर्दू के मशहूर शायर जनाब "नक्श लायलपुरी" आये और उन्होंने न केवल अपने अज़ीज़ दोस्त को श्रधांजलि दी बल्कि कार्यक्रम की अध्यक्षता भी पूरी तन्मयता से की. आज हम उन्हीं की लिखी किताब " तेरी गली की तरफ" जिसका एक पृष्ठ देव नागरी में और दूसरा उर्दू लिपि में छपा है का जिक्र अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में करेंगे.
लोग फूलों की तरह आयें के पत्थर की तरह
दर खुला है मेरा आगोशे-पयम्बर की तरह
रात के वक्त कोई इसका तमाशा देखे
दिल के बिफर हुआ रहता है समंदर की तरह.
ये भी ग़म दे के गुज़र जाते तो क्या रोना था
हादिसे ठहरे हुए हैं किसी मंज़र की तरह
तेरी आँखों में कई रंग झलकते देखे
सादगी है के झिझक है के हया है क्या है ?
रूह की प्यास बुझा दी है तेरी कुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है क्या है?
नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है क्या है ?
24 फरवरी 1928 को बंटवारे से पहले पंजाब के लायलपुर जिसका नाम अब पकिस्तान सरकार ने फैसलाबाद कर दिया गया है, के एक गाँव गोगेरा में नक्श साहब का जन्म हुआ. इनका बचपन का नाम जसवंत राय था लेकिन शायर बनने के बाद नक्श हुआ और फिर नक्श ही रह गया. बंटवारे के समय बिगड़ते हालात देखते हुए इनका परिवार लखनऊ चला आया.नक्श साहब का मन जब लखनऊ में रमा नहीं तो वो मुंबई के लिए रवाना हो गए. अनजान शहर में एक भले इंसान को जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है वो इन्हें भी करना पड़ा जैसे भूखे पेट खुले में सोना , काम की तलाश में दर दर भटकना वगैरह वगैरह. घुन के पक्के नक्श साहब ने हिम्मत नहीं हारी . भारी संघर्ष के बाद उन्हें सरकारी नौकरी मिली जिसे करते हुए वो अपना पहला प्यार शायरी भी करते रहे फिर एक दिन नौकरी छोड़ दी और फिल्मों की और रुख किया, धीरे धीरे उनकी गिनती फिल्मों के चर्चित गीतकारों में होने लगी.
ज़हर देता है कोई, कोई दवा देता है
जो भी मिलता है मेरा दर्द बढ़ा देता है
वक्त ही दर्द के काँटों पे सुलाए दिल को
वक्त ही दर्द का एहसास मिटा देता है
नक्श रोने से तसल्ली कभी हो जाती थी
अब तबस्सुम मेरे होटों को जला देता है
अब तबस्सुम मेरे होटों को जला देता है
नक्श साहब ने साफ़ सुथरी समझ में आने वाली ज़बान, दिलकश अंदाज़ और खूबसूरत लहजे में फ़िल्मी नगमें और गीत लिखे और इसी खासियत को अपनी शायरी में भी दोहराया. मुंबई के मशहूर शायर जनाब "ज़मीर काज़मी" साहब ने इस किताब में लिखा है की "कामयाब शायरी वही है जो दिल से निकले और दिलों में समा जाय". नक्श साहब की शायरी उनकी इस बात की पैरवी करती दिखाई देती है. वो बहुत आसानी से अपने अशआर लोगों के दिलों में उतार देते हैं:
अपनी शायरी सुनाते हुए नक्श साहब
अपनी शायरी सुनाते हुए नक्श साहब
शाखों को तुम क्या छू आए
काँटों से भी खुशबू आए
कोई तो हमदर्द है मेरा
आप न आए आंसू आए
'नक्श' घने जंगल में दिल के
फिर यादों के जुगनू आए
काँटों से भी खुशबू की बात करने वाले ऐसे नायाब शायर को वो बुलंदी नसीब नहीं हुई जो उनके समकालीन शायरों को हुई. कारण आपको नक्श साहब से मिल कर साफ़ हो जायेगा या फिर अज़ीज़ कैसी साहब ने जो इस किताब में लिखा है उसे पढ़ कर " नक्श साहब के चाहने वाले बहुत हैं, उनके गीत मशहूर हैं उनकी ग़ज़लें महफ़िलों सभाओं में गई जाती हैं लेकिन उनको अपने चाहने वालों और दोस्तों का इस्तेमाल करके अपने आपको प्रोजेक्ट करने का हुनर नहीं आता."
ग़म तो है हासिले ज़िन्दगी दोस्तों
बांटना है तो बांटो ख़ुशी दोस्तों
यह गनीमत है कुछ तो अँधेरा छटा
घर जले रौशनी तो हुई दोस्तों
'नक्श' से मिल के तुमको चलेगा पता
जुर्म है किस कदर सादगी दोस्तों
बच्चों सी निश्चल मुस्कराहट उनके चेहरे पर खिल उठी.
उनके मुस्कुराते हुए चेहरे पर आप उन ग़मों को नहीं पढ़ सकते जो इनकी शायरी में झलकते हैं
प्यार को दो ही पल नसीब हुए
इक मुलाकात, इक जुदाई है
आइना पत्थरों से टकराया
ये सजा सादगी की पाई है
मेरी इक सांस भी नहीं मेरी
ज़िन्दगी किस कदर पराई है
शायरी की इस लाजवाब किताब खरीदने के लिए आप को इन में से किसी पते पर संपर्क करना होगा :-
१. किताबदार 5/A ,18/110 जलाल मंजिल, टेमकर स्ट्रीट, जे.जे. हस्पताल के पास मुंबई- 400008
२. गौरव अपार्टमेन्टस C/A/5 होली क्रास रोड, आई. सी.कोलोनी, बोरीवली (वेस्ट) मुंबई 400103
३. अदब नामा , 303 क्लासिक प्लाज़ा तीन बत्ती, भिवंडी, थाणे .
मुझे अफ़सोस है के मेरे पास नक्श साहब का फोन या मोबाइल नंबर नहीं है लेकिन आप उन्हें इस खूबसूरत शायरी के लिए बधाई यहाँ कमेन्ट द्वारा दे सकते हैं. इस पोस्ट की एक प्रिंटेड प्रति मैं कुछ दिनों बाद उन्हें पहुंचाने वाला हूँ. चलते चलते नक्श साहब के ये तीन शेर और पढ़ते चलिए और मानिए कि एक अच्छा इंसान ही अच्छे शेर कह सकता है:
कोई परदेस अगर जाय तो क्या ले जाये
भीगी भीगी हुई आँखों की दुआ ले जाये
याद रखता है उसे अहले ज़माना बरसों
ज़ख्म औरों के जो सीने में सजा ले जाये
मुझसे कलियों का तड़पना नहीं देखा जाता
काश गुलशन से कहीं दूर हवा ले जाये
तो चलते हैं दोस्तों शायरी की एक और किताब की तलाश में तब तक आप नक्श साहब की जादुई शायरी का मज़ा इस गीत को सुन कर लें...हो सकता है आज के नौजवानों ने रुना लैला के गाये फिल्म "घरोंदा" के इस गाने को न सुना हो लेकिन जिन्होंने सुना है वो दुबारा सुन कर इसका मज़ा लें:-
26 comments:
मुझसे कलियों का तड़पना नहीं देखा जाता
काश गुलशन से कहीं दूर हवा ले जाये
वाह ...बहुत खूब ... इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपका आभार ।
ज़हर देता है कोई, कोई दवा देता है
जो भी मिलता है मेरा दर्द बढ़ा देता है... waah
वाह....बेहतरीन शेरों का खजाना है यहाँ तो....
नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है क्या है ?
बहुत खूब .......
आपका बहुत शुक्रिया नीरज सर....
इस पुस्तक से हमारा परिचय करवाने के लिए.
सादर.
NAQSH LAAYALPURI KEE SHAAYREE KAA
KOEE JWAAB NAHIN . YUN TO UNHONNE
SAPAN - JAGMOHAN KEE JODEE KE SAATH
ANEK HINDI,URDU AUR PANJABI KE SAFAL
FILMI GEET DIYE HAIN LEKIN UNKAA YE
KISHOR KUMAR KAA GAAYAA GEET AB TAK
DIL - O - DIMAAG MEIN TAAZAA HAI -
ULFAT MEIN ZAMAANE KEE
HAR RASM KO THUKRAAO
itne khoobsoorat sher ki gungunane ko jee chahe ...shukriya parichy karvane ka...
याद रखता है उसे अहले ज़माना बरसों
ज़ख्म औरों के जो सीने में सजा ले जाये
वाह!
इस नायाब प्रस्तुति के लिए आपका आभार!
नीरज जी ! आज यही तो विडम्बना है कि रचनाकार भी रचनाकार को कोई सम्मान नहीं देता। मैनें कई कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों में देखा कि रचनाकार केवल अपनी रचनापाठ के लिये आते हैं, उनको दूसरे किसी शायर या कवि की रचना से कोई सरोकार नहीं होता। फिर भी आप जैसे भी चन्द लोग हैं जो इस अँधेरे में दिया जलाए बैठे हुए हैं। इसके लिये आपको बहुत बहुत धन्यवाद। एक मशहूर शायर की पुस्तक से आप ने पुनः हमें रूबरू कराया... बहुत बहुत बधाई...
लोग फूलों की तरह आयें के पत्थर की तरह
दर खुला है मेरा आगोशे-पयम्बर की तरह।
ये बात तो कोई फ़क़ीर ही कह सकता है। क्या रह जाता है इस के बाद।
आप भाग्यशाली हैं, ऐसे उर्जा-स्त्रोतों से आपका मिलन होता रहता है।
नक़्श साहब ने जो मुकम्मल शायरी दी है उससे कई फि़ल्मी हस्तियॉं आज भी लोगों के दिलो दिमाग़ पर छाई हुई हैं। एक गीत या ग़ज़ल सुनते ही कितने चेहरे ऑंखों के सामने आ जाते हैं।
नक़्श साहब के लिये मैं तो बस यही कहूँगा कि:
मेरा तो सर भी वहॉं तक नहीं पहुँच पाता
जहॉं कदम के निशां आप छोड़ आये हैं।
रूह की प्यास बुझा दी है तेरी कुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है क्या है? ..
वाह .. बहुत ही पुआरी गज़लों के रचियता से परिचय करवाया है नीरज जी ... हर शेर अपनी कहानी बयान कर रहा है ... बहुत ही उम्दा ...
एक अच्छे शायर से रूबरू कराने के इस सुंदर प्रयास को बधाई! नक़्श लायलपुरी 1947 में जब बेवतन हुए तो लायलपुर से पैदल चलकर हिंदुस्तान आए और लखनऊ को अपना आशियाना बनाया।पान खाने और मुस्कराने की आदत उनको यहीं से मिली।उनकी शख़्सियत में वही नफ़ासत और तहज़ीब है जो लखनऊ वालों में होती है।लखनऊ की अदा और तबस्सुम उनकी इल्मी और फ़िल्मी शायरी में मौजूद है। नक़्श लायलपुरी 1951 में रोज़गार की तलाश में मुम्बई आए और यहीं के होकर रह गए।लाहौर में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का जो जज़्बा पैदा हुआ था उसे मुम्बई में एक माहौल मिला। सिने जगत ने उन्हें दौलत,शोहरत और इज़्ज़त दी । यहाँ की चमक-दमक और रंगीनियां के बाबज़ूद उन्होंने हमेशा अपनी सादगी और सरलता को महफूज़ रखा।
बेजोड़! सच..यहाँ कौन है तेरा....
कोई तो हमदर्द है मेरा
आप न आए आंसू आए......
शुक्रिया!
तेरी आँखों में कई रंग झलकते देखे
सादगी है के झिझक है के हया है क्या है ?
वाह...बहुत सुंदर...पुस्तक परिचय के लिए आभार!!
bahut khub......
नक्श रोने से तसल्ली कभी हो जाती थी
अब तबस्सुम मेरे होटों को जला देता है
....नक्श साहब के अभी तक बेहतरीन फ़िल्मी गाने ही सुने थे, लेकिन आज आपने उनकी बेहतरीन शायरी से भी परिचय कराया...आभार
बेहतरीन पोस्ट नीरज जी,
बहुत बहुत आभार !
प्यार को दो ही पल नसीब हुए
इक मुलाकात, इक जुदाई है
आइना पत्थरों से टकराया
ये सजा सादगी की पाई है
मेरी इक सांस भी नहीं मेरी
ज़िन्दगी किस कदर पराई है
bahut shandar...
बढ़िया उम्दा शायरी पढ़वाने के लिए शुक्रिया
उर्दू शायरी के क्या कहने. नक्श लायलपुरी को बचपन से फिल्मी गीतों में सुनते आए हैं. आज उनकी पर्दे के आगे की शायरी पढ़ने को मिली. आपका शुक्रिया.
अदीब आजकल तो रकीब हो गये हैं ।
नक्श लायल पुरी जी की शायरी पढ कर बहुत आनंद आया । पता नोट कर लिया है वापिस जाते ही किताब खरीदूंगी ।
यह गाना मुझे भी बहुत पसंद है ।
बहुत खूब नीरज जी...
khubsurat post ke liye dil se shukriya..
ये लीजिये इस कार्यक्रम के होने के बारे में ज़रा भी भनक भी नहीं लगी. एक अज़ीम शख्सियत से मिलना नसीब न हो पाया, चलिए अगली दफा, कहीं से खबर मिल जायेगी इसी उम्मीद में उम्मीद बाँध लेते हैं.
नक्श रोने से तसल्ली कभी हो जाती थी
अब तबस्सुम मेरे होटों को जला देता है
वाह वा
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Neeraj Uncle
सादर नमस्ते।
आपके ब्लॉग का एक-एक शब्द हम आँखों से नहीं दिल से पढ़ते हैं। नक्श जी की शायरी से रूबरू करवाने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। ब्लॉग जगत की अनमोल कृति है ngoswami.blogspot.com
Rgds
आदरणीय नीरज जी,
उर्दू के मशहूर शायर जनाब नक्श लायलपुरी साहब का शे'री मजमुआ तेरी गली की तरफ पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि नक्श साहब कितने अमीर हैं.
लफ़्ज़ तो मानो मुंह बाए खड़े रहते हैं कि कब उन्हें इस्तेमाल किया जाए......मेरी खुशनसीबी है कि खुद उन्होंने अपने आशीर्वाद स्वरुप यह मजमुआ मुझे भेंट किया...
तकरीबन पांच साल पहले नक्श साहब ने एक मुशायरे में जिसमें मैंने भी शिरकत की थी, एक शे'र पढ़ा था..यक़ीन मानिए..ज़हन में उतर गया.
"छाँव भी दूंगा दवाओं के भी काम आऊँगा
नीम का पौदा हूँ आँगन में लगा लो मुझको"
---- नक्श लायलपुरी
खूबसूरत अशआर पढ़वाने के लिए आपका सादर आभार साथ ही दिली मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं.
सादर,
सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
जुहू, मुंबई-49.
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