कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया
बेख़ौफ़ हो के बोलना जब से शुरू किया
सच सुन के मारता था जो संगजन कहाँ गया
फल फूल क्यूँ रहें हैं चमन में बबूल अब
चंपा गुलाब मोगरा चन्दन कहाँ गया
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
( ये ग़ज़ल विद्वान अनुज तिलक राज कपूर साहब के साथ हुई जुगलबंदी का नतीजा है )
71 comments:
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
वाह सर ।
बहुत सुन्दर ||
बधाई ||
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया
क्या बात है।
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
बहुत खूबसूरत गज़ल ...
bahi ji, bahut badiya sher nikale hain....badhai..
यथार्थ का काव्यमय सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...
वेद पुराणो का भला मंथन कहाँ गया
आकाँक्षाओं व सोच का मंर्दन कहाँ गया
बहुत सुन्दर गज़
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
वाह । हर शेर बदले हुये समय की गाथा गा रहा है। बधाई इस गज़ल के लिये।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है. जुगलबंदी अद्भुत है.
@होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया
वाह..
बहुत ही उम्दा गजल
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
-----------
वाह! वाह! अब यह पता नहीं कि यह आपकी है या कपूर जी की।
बहुत सुन्दर!
वाह वाह - लाजवाब
"रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया"
कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया
@ कूकने वाला कोयल और नाचने वाला मोर दोनों ही 'नर' हैं... जिनको रिझाने के लिये गाते नाचते थे वे ही मोर्डन बनकर घूम रहे हैं... जिन बातों पर रीझते थे वे आकर्षण ही लुप्त हो चुके हैं.
मादा कोयल की बेहद बेसुरी आवाज होती है.. 'किक-किक' ध्वनि वाली और वो भी तब निकालती है जब वह एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उड़कर जाती है.
मादा मोर (मोरनी) नृत्य नहीं करती उसके पास न कोई सुन्दरता है न ही कोई कला.... फिर भी मोर और कोयल की दृष्टि की सुन्दरता ने उनमें भी सुन्दरता खोज ही ली. उनके लिये गाते हैं, उनके लिये ही नाचते हैं.
दड़बों में कैद हो गये,शहरों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
@ आप जिसे दडबा कह रहे हैं.... उसे आज़ के समय में 'अपार्टमेंट्स' कहते हैं... आपके खिलाफ मुकद्दमा ठोंकना पड़ेगा... आपने सुन्दर अपार्टमेंट्स को एक प्रकार से 'चमार' कहा है. आपने ये नहीं सोचा कि जब सारी दहलीजें मिल जाती हैं... तभी पार्किंग के लिये जगह निकलती है... और जब सारे आँगन मिल जाते हैं... तभी एक सुन्दर-सा लॉन या इन्टरनल पार्क पैदा होता है.
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
@ आश्चर्य है ! .... आज के समय में आप बंधन की बात कर रहे हैं... आपने आज तक कोई जानवर ऐसा देखा है जो अपने गले में खुद रस्सी बाँधकर उसके छोर को खूँटे से बाँधने की मशक्कत करता हो.
होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया
@ 'दामन' दफ़न हो गया देह की नुमाइश में
फिक्र आपको है क्यों? दृग लक्ष्मण कहाँ गया
बेख़ौफ़ हो के बोलना जब से शुरू किया
सच सुन के मारता था जो संगजन कहाँ गया
@ आपका ये शेर पूरी जमात से कुछ अलग खड़ा लग रहा है...... शायद आप जानते ही होंगे.
फल फूल क्यूँ रहें हैं चमन में बबूल अब
चंपा गुलाब मोगरा चन्दन कहाँ गया.
@ माली ही जब करने लगे बगिया में छल-कपट
चन्दन गुलाब मोगरा .. तस्कर यहाँ गया.
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
@ गोआ समुद्री बीच पर लेटे थे कुछ युगल
अहसास तक न हो सका सुनामी ले कहाँ गया.
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
वाह क्या अल्फ़ाज़ हैं और कितने सुन्दर भाव पिरो्ये हैं…………शानदार गज़ल्।
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
इन पंक्तियों के अहसास बहुत ही खूबसूरत बन पड़े है....बेहतरीन प्रस्तुति ।
'दहलीज खो गयी कहां, आंगन कहां गया।' बहुत बढि़या रचना। इस पर अपनी कविता 'गौरैया' की पंक्तियां दोहराना चाहूँगा, 'ऊँचे ऊँचे भवन बने हैं, आंगन नहीं, मगर सपने हैं। सब अपने सपनों को पालें। क्यों कर तुझको दाने डालें?''।
bahut badhiyaa
यह जुगलबंदी तो खूब रही ??
TILAK RAJ JI SE AAPKEE JUGALBANDHEE
KHOOB RAHEE HAI . GAZAL NE KHUSH
KAR DIYA HAI .DONO KO BADHAAEE .
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
bahut sunder .Sahi dhoondhana vahi hai .......
अच्छी जुगलबंदी है। अशआर में ताज़गी है और मौसम का असर भी। कुछ तो खुला-खुला है, कुछ तो है निहां भी। मेरा एक शेर है-
कहाँ गए वो जिनके दम से खेतों में हरियाली थी
क्यूँ सूना है गाँव का पनघट, क्यूँ आँगन वीरान हुए
waha bahut khub.....shabd shabd bolta huya sa..............aabhar
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया
बेख़ौफ़ हो के बोलना जब से शुरू किया
सच सुन के मारता था जो संगजन कहाँ गया
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
एक से बढ़कर एक शेर... किसकी तारीफ करें... और किसकों छोड़ें... बहुत बढ़िया....
आकर्षण
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।..khoobsurat gazal...
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के ख़ूबसूरत शे’र के लिए शुक्रिया …
भाईजी नीरज जी
सादर वंदन !
हमेशा की तरह प्यारी ग़ज़ल है ,
तिलकजी भाईसाहब के साथ हुई जुगलबंदी का नतीजा शानदार रहा … आप दोनों को मुबारकबाद !
फल फूल क्यूँ रहें हैं चमन में बबूल अब
चंपा गुलाब मोगरा चन्दन कहाँ गया
क्या बात है !
मुझे मेरी एक राजस्थानी ग़ज़ल याद आ रही है …
इजाज़त हो तो मत्ला और एक शे’र ख़िदमत में पेश करूं …
आकां माथै हरयाळ्यां
सूखै तुलछी री डाळ्यां
गंगाजी नै गाळ अबै
पूजीजै गंदी नाळ्यां
राजस्थानी में मेरी ताज़ा ग़ज़ल अब तक न पढ़ी हो तो मेरे राजस्थानी ब्लॉग पर अवश्य पधारें …
हुयो म्हैं बावळो था’रै ई जादू रौ असर लागै …
पुनः पूरी ग़ज़ल के लिए बधाई !
हार्दिक शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया
Bahut khoobsoorat ghazal hai!! waah!!
उस खलूस को तो बरसो हुए लापता के रजिस्टर में दर्ज करा रखा है ....
आपकी कलम को चूमने और उसकी इबादत करने का मन होता है.. जो समझते हैं कि गज़लें भारी भरकम लफ़्ज़ों से लबरेज होती हैं उन्हें आपकी गज़ल मुंह चिढाती है और बताती है कि सदा लफ़्ज़ों से गहरे मानी पैदा करना किसे कहते हैं..
जिन गुमशुदा सही का आपने ज़िक्र किया है वो जल्द ही तारीखी सही हो जाने वाली हैं.. खोजे न पाई जायेंगी!! बड़े भाई मज़ा आ गया!
बहुत शानदार रही यह जुगलबंदी .
सच्चाई को बयाँ करती .
व्याख्या करने की तो ज़रुरत ही नहीं .
परम् आदरणीय,
अब क्या कहूँ आपके लिये; पहला शायर देखा है जो ग़ज़ल कहने में भी प्रोजेक्ट मैनेजमेंट का ध्यान रखता है। व्यवस्थित रूप से एक ग़ज़ल को आरंभ कर एक निश्चित योजनानुसार उसे अंजाम तक पहुँचाना भी एक कला है, जो आपसे सीखनी है।
ग़ज़ल जब कही जा रही हो तब अपने विचार रखने मात्र से तो मुझे इसमें हिस्सेदारी का हक़ नहीं मिलता और इसे मैं आपकी दरियादिली भी नहीं कहूँगा क्यूँकि ये आपकी समंदरदिली है।
ग़ज़ल पढ़कर आनंद आ गया।
बहुत बहुत बधाई।
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
बहुत सुन्दर,
बधाई.
यह गज़लबंदी भी खूब रही।
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
बेहतरीन ....
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
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फल फूल क्यूँ रहें हैं चमन में बबूल अब
चंपा गुलाब मोगरा चन्दन कहाँ गया
आज के हालात को बयां करती इस ग़ज़ल के कई शे’र दिल में घर कर गए। चारों तरफ़ एक आपाधापी और कोलाहल है और हम अपने-अपने दड़्बों में क़ैद हो गए हैं।
बेहतरीन।
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
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रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
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एक से बढ़कर एक शेर हैं !वाह!
तिलक जी से क्या खूब जुगलबंदी हुई है..ऐसे शानदार नतीजे आते हैं तो आगे भी जुगलबंदी करते रहें.
जगत जीत जब मुड़ कर देखा,
जीवन जाने कहाँ गया?
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया...
बहुत ख़ूबसूरत शेर! लाजवाब ग़ज़ल!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
http://seawave-babli.blogspot.com
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
jabab nahin.....itni jandar pangtiyan....wah.
Respected Neeraj Sahab
Bahut khoob....kya ghazal
kahee hai maza aa gaya dili
daad aur dheron badhaiyaan..
Satish Sahukla 'Raqeeb'
ग़ज़ब की जुगल बंदी.
आप और तिलक जी दोनों बधाई के पात्र हैं.
aadarniy sir
bahut dino baad aap tak pahunci hun aswasthata ke karan.
par aaj aapki itani behatreen rachna padhi to raha nahi gaya.
har panktiyan har shabd rachna ke bhav itne achhe lage ki kin panktiyo ki tarrif karun.
badhai sahit
sadar naman
anupma ji ke karan aapki itni sundar kavita padhne ko mili
unko bhi bahut bahut badhai
dhanyvaad
poonam
होती थी फ़िक्र दाग न जिस पर कहीं लगे
ढकता था जो हया,वही दामन कहाँ गया
बेख़ौफ़ हो के बोलना जब से शुरू किया
सच सुन के मारता था जो संगजन कहाँ गया
बहुत खूब नीरज जी,
सीधी साधी भाषा में सार्थक बातें करती है ये ग़ज़ल!
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
बहुत ही लाजवाब, शुभकामनाएं.
रामराम.
हालाँकि कारण आप जानते हैं, फिर भी देरी से आने के लिए क्षमा|
तिलक भाई साब और नीरज जी जहाँ मिल जाएँ, वहाँ ऐसी नायाब ग़ज़ल ही सृजित हो जाती है| तिलक भाई साब की टिप्पणी पढ़ी और मैं उन की बात से इत्तेफाक़ रखता हूँ|
किसी एक शेर को उम्दा कहना अन्य शेरों के साथ नाइंसाफ़ी होगी ठाकुर, इसलिए पूरी की पूरी ग़ज़ल के लिए दिल से होलसेल में मुबारकबाद|
देवमणि भाई कह रहे थे कि बारिश शुरू हो चुकी है तो नीरज जी से लोनावाला वाली गोष्ठी के लिए बात कर लो| आज या कल में हाजिर होता हूँ आप के दरबार में|
आप दोनों ही अग्रज हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं| आप दोनों को फिर से बधाई, इस अद्भुत ग़ज़ल को हमारे साथ शेयर करने के लिए|
घनाक्षरी समापन पोस्ट - १० कवि, २३ भाषा-बोली, २५ छन्द
खुबसूरत शेरों से सजी ग़ज़ल और कहीं अन्दर की तरफ चोट कर जाती है...आखिरी शेर सबसे बढ़िया|
वाह!! उतर गई सीधे दिल में...बधाई प्रभु!!!
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया। ..
नीचे पढ़ा जुगलबंदी ... ये तो नीरज जी दो दिग्गजों का कमाल ही हो सकता है ... दोनों लाइनों के भाव ऐसे जैसे गुत्थम गुत्था हैं ... पता नहीं चल रहा .. जीवन का गहरा अनुभव सिमित आया है पूरी गज़ल में ... बहुत लाजवाब ... बहुत खूब ... कमाल ही कर दिया ...
दड़बों में कैद हो गये,शह्रों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं,ऑंगन कहॉं गया।
बिलकुल हकीकत काही है,वैसे तो पूरी की पूरी कविता ही उत्तम अभिव्यक्ति है ।
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
जय हो महा प्रभु जय हो ..
आपका चेला
विजय
सर जी , अच्छी बुरी कुछ भी एक दो lines मेरी कविता पर भी कह दो .. आप तो गुरुवर है .. सब स्वीकार होंगा .
your blog listed here ; http://blogrecording.blogspot.com/
कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया
वाह ,,,
ग़ज़ल के मतले से ही ग़ज़ल कहने का मंतव्य
प्रकट हो रहा है ... वाह
पार्क और बागीचों में पत्थरों से की गयी सजावट ही
नुमायाँ रहती है आजकल,,, वो प्रकृति के अनुपम नज़ारे
न जाने कहाँ लोप होते जा रहे हैं
वाक़ई ,,,
जनाब तिलक राज जी से की गयी जुगलबंदी
रंग ले आए है जनाब
शेर में,,,शहरों के आदमी का दडबों में क़ैद होना
बहुत स्वाभाविक लग रहा है...
एक नीरज गोस्वामी और दुसरे तिलक कपूर
एक और एक मिल कर दो नहीं ग्यारह का प्रभाव दे गए हैं
दोनों विद्वान् साहित्यकारों को नमस्कार और बधाई .
बहुत ही सुन्दर बोल और आपकी ग़ज़ल
इस जुगलबंदी ने तो दीवाना कर दिया..
अक्षय-मन "!!कुछ मुक्तक कुछ क्षणिकाएं!!" से
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
सच है कभी कभी उस ख़ुलूस की कमी खटकती है
ख़ुलूस और प्यार की वो डोर जगह जगह से कमज़ोर हो कर टूटती नज़र आ रही है
पूरी ग़ज़ल ही उम्दा है मतला ता मक़ता
भावों की अभिव्यक्ति कविता कहलाती हैं
अभिव्यक्ति मे भावं हो कविता खुद बा खुद बन जाती हैं
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना नीरज जी...आभार
नीरज जी,
नमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगपोस्ट डाट काम"के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
डूबे किसी के प्यार में इतना कि डूबकर ,
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया |
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वाह क्या शेर कहा है !
उम्दा ग़ज़ल , हर शेर अर्थपूर्ण
बहुत सुन्दर गज़ल और हर शे’र बड़ा प्यारा ! आखिरी शे’र का तो कहना ही क्या ! वाह!
आज फ़िर खेली है हमने लिंक्स के साथ छुपमछुपाई चर्चा में आज नई पुरानी हलचल
डूबो किसी के प्यार में इतना कि डूब कर
अहसास तक न हो कभी तन मन कहाँ गया.
इस जुगलबंदी का नतीजा तो अद्भुत है.
behtareen sir!
adbhut!
ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण - अवलोकन २०११ के अंतर्गत आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है ब्लॉग बुलेटिन पर - पधारें - और डालें एक नज़र - प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (18) - ब्लॉग बुलेटिन
रखता था बाँध कर हमें जो एक डोर से
आपस का अब खुलूस वो बंधन कहाँ गया
बहुत खुबसूरत ग़ज़ल आदरणीय नीरज भईया... आनंद आ गया...
सादर बधाई...
shaandar jugalbandi.
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