Monday, December 27, 2010
पहुँच गए चीन...समझ गए ना - 3
गुप्ता जी आज सुबह से ही बहुत खुश थे. इसका कारण जानने के लिए ज्ञान के सागर में डुबकी लगाने की जरूरत नहीं है. जब कारण सतह पर ही तैर रहा हो तो उसके लिए डुबकी लगाना अकलमंदी नहीं होगी. गुप्ता जी दो कारणों से खुश थे पहला और अहम कारण था चार दिनों के इन्तेज़ार के बाद इसबगोल की भूसी, जो वो विशेष तौर पर भारत से ले कर आये थे और जिसका सेवन वो रोज नित्यकर्म से पूर्व किया करते थे, का अब जाकर असर होना और दूसरा चीन से घर जाने के समय का पास आना.
हर चीज़ जो शुरू होती है वो खतम भी होती है फिर चाहे वो चीन यात्रा ही क्यूँ न हो. विदेश में चार पांच दिनों के बाद देश की याद बहुत जोर से आने लगती है. अपना देश अपना देश ही होता है. न अपने जैसा खाना न अपनी भाषा और न अपने दोस्त नाते रिश्तेदार. विदेश में हमें लाख सुविधाएँ मिलें लेकिन दिल घर वापसी के लिए धड़कता ही है. देश के बाहर रहने वाले लोग बाहर से भले ही बहुत खुश और संपन्न लगें लेकिन अंदर से वो अपने को बहुत अकेला और खोखला महसूस करते हैं. ये बात मैं अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मिले अनेक भारतियों से की गयी बातचीत के आधार पर कह रहा हूँ लेकिन मेरी ये बात सबके लिए सच हो ये दावा नहीं करता.
शंघाई से हम लोग चेंदू शहर गए जो लकड़ी के फर्नीचर के लिए सारे चीन में मशहूर है. दो दिन वहाँ रुकने के बाद चीन में हमारे अंतिम पड़ाव नानजिंग शहर पहुंचे . हमारे एक चीनी मित्र ची तुंग हमारी प्रतीक्षा में खड़े मिले. नानजिंग चीन के मुख्य शहरों में से एक है और बहुत ख़ूबसूरती से बसाया गया है. नानजिंग पहुँच कर सबसे पहले हमने अपनी ग्रुप फोटो खिंचवाई
होटल जाने के रास्ते भर हम नानजिंग शहर की ख़ूबसूरती निहारते रहे. गुप्ता जी अपना “ओ शिट” भूल चुके थे और चहक रहे थे.
“देखो सर जी ये शहर तो वाकई में बहुत खूबसूरत हैगा, सड़कें कितनी चौड़ी हैंगी, लोग कितने कम हैंगे. चीन की जनसख्या अपने से ज्यादा हैगी जे मानने को दिल नहीं करता हैगा” सिंह साहब को गुप्ताजी की बातें पसंद नहीं आतीं लेकिन गुप्ता जी की इस बार बात सच्ची थी इसलिए अपना “छड्डो जी” वाला अमोघ अस्त्र छह कर भी नहीं चला पाए.
होटल पहुंचे जिसके बाहर एक विशाल काय शेर नुमा पत्थर की प्रतिमा राखी हुई थी. गुप्ता जी सब कुछ भूल कर उसे गौर से निहारने लगे और फिर ची की और मुखातिब हुए:
“ये क्या हैगा?”
“ये ड्रैगन है”
“ड्रैगन ? माने क्या हैगा?”
“ड्रैगन एक पवित्र जीव है जिसकी प्रतिमा बना कर उसे हर आफिस होटल घर आदि के बाहर रखा जाता है”
“किसलिए रखते हैंगे ?”
“वो इसलिए ताकि बुरी आत्माएं अंदर प्रवेश न कर पायें”
“याने अब सिंह साहब होटल में प्रवेश नहीं कर पायेंगे”
“ओ छड्डो जी”
जरूरी नहीं के ड्रेगन की प्रतिमाएं एक जैसी हों बल्कि ड्रेगन दूसरी मुद्रा में भी बैठे दिखाए दे जाते हैं. लेकिन ये पाषाण प्रतिमाएं मूर्ती कला का शानदार नमूना होती हैं. ड्रेगन की अदा और उस पर की गयी चित्रकारी हतप्रभ कर देती है.ये ड्रेगन डरावने जरूर हैं लेकिन अगर प्यार से काम लें तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते ये ही बात गुप्ता जी को बताने के लिए हमें एक ऐसे ही एक ड्रेगन के मुंह में अपना हाथ डाल कर दिखाना पड़ा.
नानजिंग के जिस होटल में हम ठहरे वो था तो बहुत शानदार लेकिन वहाँ एक ही दिक्कत थी वो ये के कोई भी अंग्रेजी नहीं समझता था सिवा रिशेप्शन पर बैठे एक आध लड़के लड़कियों के.ये समस्या हमें पूरी यात्रा के दौरान परेशान करती रही. मेरी तो आपको ये सलाह रहेगी कि अगर आपके साथ कोई स्थानीय भाषा बोलने वाला नहीं है तो बेहतर है आप चीन न जाएँ वर्ना आप दुखी हो जायेंगे . मुझे ये बात समझ नहीं आई के इतनी तरक्की करने के बावजूद भी वहाँ के लोगों में दूसरी दुनिया के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आवश्यक अंग्रेजी भाषा के प्रति इतनी बेरुखी क्यूँ है. वैसे चीनी और भारतीय लोगों में मुझे बहुत समानता दिखाई दी जैसे लोगों का आपसी प्रेम, बुजुर्गों के प्रति श्रधा. युवाओं का बड़ों के प्रति आदर भाव आदि जबकि ये बात मुझे अमेरिका और यूरोप में नहीं दिखाई दी.चीनी लोग बहुत सहज हैं और जल्दी ही आपके दोस्त बन जाते हैं जबकि यूरोप के लोग घमंडी होते हैं और भारतियों के प्रति उनका रवैय्या भी रुखा होता है.
नानजिंग के जिस होटल में हम ठहरे वो बाहर से ऐसा दिखाई देता था:
अंदर से भी होटल की छवि देखें, खास तौर पर कोने में ऊपर जाती सीडियां देखें वहाँ ऊपर एक रेस्टोरेंट था.दूसरे दिन शाम होटल के उसी रेस्टोरेंट में कोई शादी की पार्टी थी. नव-दंपत्ति सारा समय आगुन्तकों के स्वागत के लिए सीडियों पर खड़े रहे और जैसे ही कोई बुजुर्ग महिला या पुरुष आता वो फ़ौरन सीढियां उतर कर उसका स्वागत करते और उनके हाथ पकड़ कर ऊपर छोड़ कर आते. बुजुर्ग स्नेह वश उनके सर पर हाथ फेरते, ठीक भारतीय परम्परा की तरह. मुझे ये देख बहुत अच्छा लगा.
होटल से चंद क़दमों की दूरी पर एक बाजार था जिसमें किसी भी प्रकार के वाहनों का आवागमन बंद था. लोग पैदल ही शाम और रात वहाँ घुमते नज़र आते थे. वहाँ भी कुछ होटल, दुकाने और रेस्टोरेंट थे जिनमें एक भारतीय रेस्टोरेंट भी था जिसकी वजह से हम रोज रात दो दिन तक भारतीय भोजन का आनंद उठाते रहे. सबसे पहले देखिये उस पैदल बाज़ार के आरम्भ में बनाये गए होटल का चित्र:
उसके बाद इस बाजार को प्रदर्शित करता हुआ एक चित्र:
और अंत में भारतीय रेस्टोरेंट का बोर्ड जिसने हर शाम सारे दिन थक हार कर वापस लौटने पर हमारे पेट भरने में पूरी सहायता की. इस रेस्तरां के मालिक दिल्ली के साहनी साहब हैं. बड़े प्यार से वो हमें अपने
रेस्तरां की डिशेज तारीफ़ कर कर के खिलाते. गुप्ता जी और सिंह साहब की वहाँ जाते ही बांछे खिल जातीं दोनों भाव विभोर हो जाते. मन की खुशी बातों में झलकती
गुप्ता: सर चीनी चाहे हम से आगे चले गए हैंगे लेकिन मेरे हिसाब से वो अभी भी बहुत पीछे हैंगे.
मैं: कैसे गुप्ता जी ?
गुप्ता : सर चौड़ी चौड़ी सड़कें बना लेना तेज गति की ट्रेन चला लेना बड़ी बात हैगी लेकिन उस से बड़ी बात हैगी खड्डे वाली सड़कों या मुंबई की धक्कम धक्के वाली ट्रेन में यात्रा करते वक्त भी मुस्कुराते रहना और गीत गाते रहना.
ये बहुत जंगली लोग हैंगे इसलिए जिंदा बन्दर की खोपड़ी खोल कर उसका भेजा नमक डाल कर खाते हैंगे हमारी तरह मक्की की रोटी ढेर सा मक्खन डले हुए सरसों के साग के संग नहीं खाते हैंगे. इनको टिड्डों के सूप के स्वाद का ही पता हैगा गाज़र के हलवे के स्वाद के बारे ये नहीं जानते हैगे.
सिंह: सही कहा तूने गुप्ते “ जो खाते हैं डडडू ( मेंडक) क्या जाने वो लड्डू?”
गुप्ता जी ने अचानक हमसे इक बात पूछी बोले “ सर जिस तरह हम लोग चायनीज खाने के शौकीन हैंगे वैसे ये चीनी भारतीय खाने के शौकीन क्यूँ नहीं हैंगे? आपने देखा होगा अपने देश के हर नुक्कड़ पर आपको चायनीज फ़ूड के रेस्टोरेंट मिल जायेंगे और तो और अब तो आम भारतियों के घरों में भी चायनीज खाना बनता हैगा लेकिन आप किसी चीनी से पूछो के भाई तेरे घर क्या माँ दी दाल बनती है ? या तूने कभी कढ़ी खाई है ?भरवां भिन्डी या करेले की सब्जी के चटखारे लिए हैं ? और तो और आलू के परोंढे दही के संग खाए हैंगे तो वो मुंडी हिला के ना में जवाब देगा, शर्त लगा लो.”
गुप्ता जी की बात में दम है. हम उनकी इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाए,आपके पास अगर जवाब है तो टिपण्णी में जरूर बताएं ताकि गुप्ता जी को संतुष्ट किया जा सके.
आखिर वो दिन आ ही गया जब हम नानजिंग से हांगकांग के लिए उड़ गए. हांगकांग से दो घंटे बाद हम लोगों की फ्लाईट बैंकोक होते हुए मुंबई के लिए थी. हांगकांग एयरपोर्ट पर घर लौटने की खुशी मानो छुप ही नहीं रही है:
विमान में जितने चीनी या विदेशी हांगकांग से हमारे साथ बैठे थे वो सब बैंकोक में उतर गए और वहाँ से बहुत से भारतीय दल बल सहित चढ़ गए. अधिकांश लोग किसी ट्रेवल एजेंसी द्वारा आयोजित टूर के सदस्य थे इसलिए वो बिना सीट नंबर देखे अपने अपने इष्ट मित्रों या परिवार जन के पास जा कर बैठ गए. एयर होस्टेस पहले तो सबको अपनी अपनी सीट पर बैठने का आग्रह करती रही लेकिन जब किसी पर कोई असर होता दिखाई नहीं दिया तो खुद एक कोने में जा कर चुप चाप बैठ गयी.
रात का एक बजा तो विमान बैंकोक से उड़ा और उसके आधे घंटे बाद खाने पीने का अखिल भारतीय आयोजन शुरू हो गया जो तीन बजे सुबह तक निर्बाध गति से चलता रहा.
कन्वेयर पर हमारे और दूसरे लोगों के सामान के साथ साथ लगभग तीस चालीस फ़्लैट टी.वी भी थे जो बैंकोक के मुसाफिर अपने साथ लाये थे.तभी कस्टम के दो अधिकारी वहाँ आये और बोले के जिनके साथ टी.वी है वो लोग अलग से खड़े हो जाएँ उनकी जांच होगी.हर टीवी पर कस्टम ड्यूटी लगेगी जो छै से दस बारह हज़ार के बीच टी.वी.के साइज़ के हिसाब से होगी. लोगों में घबराहट फ़ैल गयी तभी टूर आपरेटर का एक बन्दा आया और उसने सबको कहा " टेंशन लेने का नहीं, ये तो रोज का नाटक है रे बाप..., डरने का नहीं, अपुन है ना रे...अपुन सब सेट कर दिया ऐ, क्या? बत्तीस इंच टी.वी.का दो हज़ार और चालीस इंची का पांच हज़ार कस्टम वाले कू देने का और ग्रीन चेनल से मस्त निकलने का, समझे क्या? अभी टाइम खोटी मत करो खीसे में हाथ डालो और पैसा निकालो जल्दी चलो " वहीं उसने सबसे पैसे लिए एक पोटली बनाई और गायब हो गया. बाद में मैंने देखा सब लोग हँसते हुए कस्टम वालों से बतियाते हुए अपने अपने टी.वी ट्राली पर रख कर ग्रीन चेनल से बाहर निकलने लगे.
हम लोग जब बाहर आये तो सुबह के सात बज रहे थे, याने प्लेन आने के तीन घंटे बाद हम लोग बाहर आये. फर्श पर हर जगह बिकती सब्जियों के ढेर, भिनभिनाती मख्खियों, पेड़ों पर फडफडाते पक्षियों, बेवजह इधर उधर मुंह मारते कुत्तों और एक दूसरे को धक्के देते इंसानों के शोर के बावजूद हमें अपने वतन आ कर बहुत अच्छा लगा.
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51 comments:
आ हा हा।
आखिरी चित्र देखकर मन खुश हो गया।
इतने दिनों से चीन में घूम रहे हैं, कोई ढंग का फोटू नहीं दिखा था।
अंत भला तो सब भला।
चीनी भारतीय खाना क्यों नहीं खा पाते
चीनी भारतीय खाना क्या वो भारत में बना चाइनीज खाना भी नहीं खा सकते है खास कर जो नुक्कड़ वाली दुकान का | हमने चाईनीज खाने का ऐसा मसालेदार भारतीयकरण किया है की वो खा कर कभी मानेगे ही नहीं की ये चाइनीज खाना है | क्या वो यहाँ का मसाला और मिर्ची पचा पाएंगे अगर पचा भी लिया तो सुबह रोना आयेगा | :))))
नीरज जी बहुत ही अच्छा यात्रा वृतांत लिखा हेगा । पढ़ कर बहुत ही मजा आ गया हेगा । और फोटो तो बहुत ही अच्छा निकाली हेंगीं । मगर सबसे अच्छी बात ये हेगी कि आपको भारत आकर सुखद लग रिया हेगा । व्यवस्थित काम करने वाले विदेशी क्या जानें कि अव्यवस्थित काम करने में क्या मजा आता हेगा। हम तो इसी अव्यवस्था को पसंद करते हेंगें ।
अले वाह, आप तो चीन भी घूम आए..कित्ती स्मार्ट-स्मार्ट फोटो...प्यारी लगीं.
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'पाखी की दुनिया' में "तन्वी आज दो माह की.."
lakh lubhaye mahal paraye apna ghar phir apna ghar hai....
बहुत मस्त पोस्ट हैगी. अद्भुत यात्रा और अद्भुत सब फोटो.
"ओह शिट" से पीछा छुडाने के लिए गुप्ता जी को हमारी तरफ से बधाई हैगी:-)
सच है, मन में घर से दूर रहने की उलझन अत्यल्प रूप में दिख ही जाती है।
अरे गजब! हम सोचते थे आप जेपर या खपोली में हैंगे। आप किसी चाऊ माऊ जगह पर हैं!
और क्या जबरदस्त ट्रेवलॉग है। बहुत बढ़िया!
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“वो इसलिए ताकि बुरी आत्माएं अंदर प्रवेश न कर पायें”
“याने अब सिंह साहब होटल में प्रवेश नहीं कर पायेंगे”
-- यह मजेदार लगा!
और उस प्रवास में चीनी व्यक्तियों से इण्टरेक्शन कैसा रहा? जरा विस्तार दें न।
बहुत मनोरंजक और रोचक यात्रा विवरण..आभार
नीरज जी , मज़ा आ गया हैगा जी ।
लेकिन ये लड्डू भी कहीं चायनीज तो नहीं ।
हा हा हा ! मजेदार संस्मरण ।
विदेश में चार पांच दिनों के बाद देश की याद बहुत जोर से आने लगती है. अपना देश अपना देश ही होता है. न अपने जैसा खाना न अपनी भाषा और न अपने दोस्त नाते रिश्तेदार. विदेश में हमें लाख सुविधाएँ मिलें लेकिन दिल घर वापसी के लिए धड़कता ही है. देश के बाहर रहने वाले लोग बाहर से भले ही बहुत खुश और संपन्न लगें लेकिन अंदर से वो अपने को बहुत अकेला और खोखला महसूस करते हैं. ये बात मैं अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मिले अनेक भारतियों से की गयी बातचीत के आधार पर कह रहा हूँ लेकिन मेरी ये बात सबके लिए सच हो ये दावा नहीं करता.
...बहुत सच कहा आपने .. अपना घर, देश अपना ही होता है... 'जो सुख छुजू के चौबारे, वो बलख न बहारे'
बहुत ही सुन्दर चित्रों के माध्यम से आपने बड़ी सहजता से संस्मरण में बहुत ही अच्छी अच्छी बातें शेयर की, आपका यह अंदाज मुझे बहुत पसंद आया ...ख़ुशी हुयी ही इसी बहाने हम भी परदेश के आवो हवा से मुखातिब हो चले ....
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार .
KHOOB ! BAHUT KHOOB !!
स्वागत आपका ड्रेगन के देश से वापसी पर।
मनोरंजक यात्रा वृतांत!! बधाई
bahoot hi sunder yatra sansmaran...........
वाह! आपकी दया से हम भी चीन घूम लिए .
बहुत सहज और अच्छा यात्रा विवरण है .चित्र भी अच्छे हैं और पोस्ट को सम्पूरण और रोचक बना रहे हैं .
हमेशा की तरह ही मनोरंजक पोस्ट है .धन्यवाद
बहुत सुन्दर यात्रा के संस्मरण लगे ... परन्तु आखिरी फोटो भारतीय सब्जी मंडी जोरदार लगा.... सही भारतीयता का एहसास करा गया ... आभार नीरज जी...
सकुशल चीन यात्रा की बधाई स्वीकारें।
ब्लॉगिंग का फायदा इसी को कहते हैं। पूरी दुनियाँ की जानकारी बड़ी सरलता से हो जा रही है। वैसे तो जानकारी के कई स्तोत्र हैं पर इसे पढ़कर ऐसा लगा है जैसे अपने ही घर का कोई सदस्य चीन गया हो और वहाँ के बारे में बता हो रहा हो।
भारतीय दूसरे देश के खाने को ही नहीं दूसरे देश के लोगों को भी बड़ी सहजता से अपना लेते हैं। यही सहिष्णुता तो हमें औरों से अलग करती है।
आपका ये संस्मरण हमे सुखद अनुभूति दे रहा है. जैसा कि देवेन्द्र पाण्डेय जी ने कहा कोई अपना हाल सुना रहा है. बीते दो साल की ब्लोगरी में हमारे लिए ये उपलब्धियों में गिनी जाएगी कि नीरज सर का स्नेह व्यक्तिगत इमेल से लगातार मिल रहा है.
गुप्ता जी और सिंह जी ने महत्पूर्ण बातों की तरफ इशारा किया है, इसे हलके में नहीं लेना है. इस रोचक यात्रा की हमारी बधाई सिंह साहब और गुप्ता जी तक पहुंचाए.
ड्रेगन की बात पर मुझे याद आया जब आप दार्जिलिंग, सिक्किम जायेंगे तो हर गली में आपको ड्रेगन देवता नज़र आयेंगे.
मैं एक बार गंगटोक की यात्रा पर था वहां से हिमशिखरो को देखने की लालसा में हम छंगु होते हुए, नाथुला (चीन बोर्डर) तक पहुँच गए थे. उन दिनों सीमा विवाद के चलते ये दर्रा बंद था. हाल में शुरू हुआ है भारत-चीन व्यपारियों के लिए.
ये चीन तो ठीक है लेकिन वो जो अपना चीन है न उसकी बात और ही कुछ है, अभी अभी उसने पता नहीं क्या उत्पात मचा दिया कि लोग उसे भगवान कहने लगे हैं, उसके लिये भारत रत्न की उपाधि की मॉंग करने लगे हैं और कहते हैं कि सारे नियम तोड़ दो इसके लिये।
बड़े भाई अपुन ठहरे देहाती..इसलिये हमें दो बातों ने इम्प्रेस किया (आपकी लेखन शैली और इस शृन्खला की तीनों कडियों के बाद):
1. सब चीनी बोलते हैं, यहाँ इण्डिया में तो हिंदुस्तानी भी अंग्रेज़ी बोलते हैं.
2. बुज़ुर्गों की इज़्ज़त और उंका सम्मान.. कौन कहता है कि यह सिर्फ भारत की धरोहर है..यहाँ भी लुप्तप्राय होती जा रही है.
गुप्ता जी और सिंह साहब को हमारी राम राम!!
बड़े मजेदार लोग थे आपके साथ. एकदम रापचिक.
सच में बहुत ही आनन्द आया चीन यात्रा में आपके साथ .
ओहोहो ...क्या बात है सर एकदम कमाल और अदभुत ..सिर्फ़ ये कहा जाए कि एक बुकमार्क करने वाला हसीन अंतर्जालीय पन्ना है आपकी ये पोस्ट तो कुछ ज्यादा न होगा ..शुक्रिया एक नायाब यात्रा संस्मरण से हमारी मुलाकात करवाने का
मेरा नया ठिकाना
काफी सरस और रोचक लगा यात्रा संस्मरण, धन्यवाद.
नीरज जी बहुत सुंदर विवरण दिया आप ने चीन का, बाकी गुप्ता जी सही कह रहे हे, यह बिमारी हम भारतियो मे ही हे, दुसरो की नकल करनी, वो चाहे पहरावा हो, भाषा हो, खाना हो लेकिन हम नकल जरुर करेगे,गुप्ता जी जिंदा वाद जी हेणा. ओये छडो जी, सभी फ़ोटॊ बहुत सुंदर, अंत वाला फ़ोटो भी अच्छा लगा, जेसा भी हो हे तो अपने घर का ही,
चीन घुमाने फिराने के लिए धन्यवाद. पर ठीक कहा कि घर आकर अच्छा लगा. इससे बढ़िया और कहां.
नीरज जी प्रणाम !
बहुत ही अच्छा यात्रा वृतांत लिखा हे । पढ़ कर बहुत ही मजा आ गया । और फोटो तो बहुत ही अच्छे लगे ,मगर सबसे अच्छी बात ये हेकि आपको भारत आकर सुखद लग हे । व्यवस्थित काम करने वाले विदेशी क्या जानें कि अव्यवस्थित काम करने में क्या मजा आता हे, हम तो इसी अव्यवस्था को पसंद करते हें।
एक बेहतरीन प्रस्तुति, चित्रों के लिए तहे दिल से शुक्रिया
बहुत ही खूबसूरती के साथ पेश किया गया यात्रा वृतांत...प्रस्तुति से लेकर चित्रों तक सब शानदार.
आनन्द आ गया नीरज जी.
गुप्ता जी ते सिंह साहब नू साडी वी राम राम!
शानदार-जानदार वृत्तान्त.
नीरज जी,
आपकी चीन यात्रा का वृत्तांत बहुत रोचक रहा .. तीनो कड़ियाँ पढ़ी..बस इसी इंतज़ार में टिप्पणी नहीं करी कि .."पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त " :) :) ..गुप्ता जी और सिंह साहब का वार्तालाप बहुत रोचक था.. और आपका डिस्क्रिप्शन सुभानल्लाह ... चीन कि घर बैठे यात्रा हो गयी.... बहुत आनंद आया ...
बहुत बढ़िया चीन यात्रा कराइ आपने .चीनियों के बारे में मेरे ख्यालात ज्यादा अच्छे नहीं परन्तु आपकी लेखनी नी बांधे रखा.
चाइना जाना शायद नसीब में नहीं होगा सो आज आपकी निगाह से चीन यात्रा भी होली ! अगली बार पिछली पोस्ट भी पढता हूँ आकर ...
बहुत रुचिकर और छत्रों से आनंद आ गया , नीरज जी !
शुभकामनायें आपको !
लुभावना यात्रा संस्मरण. तस्वीरें भी लाजवाब.
आद. नीरज जी,
यात्रा संस्मरण बहुत ही रोचक रहा ! तस्वीरों ने इसे और भी जीवंत बना दिया !
स्वदेश आगमन पर आपका स्वागत !
नव वर्ष की अनंत शुभकामनाएँ !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
मज़ेदार! सहज हास्यबोध और बांधे रखने वाली शैली। मुझे तो पता ही नहीं था इतना दिलचस्प वृत्तांत चालू है यहां।
मज़ेदार! सहज हास्यबोध और बांधे रखने वाली शैली। मुझे तो पता ही नहीं था इतना दिलचस्प वृत्तांत चालू है यहां।
बल्ले-बल्ले ...!
बड़े हीरो सीरो लगदे हैगे जी .....
सुदूर खूबसूरत लालिमा ने आकाशगंगा को ढक लिया है,
यह हमारी आकाशगंगा है,
सारे सितारे हैरत से पूछ रहे हैं,
कहां से आ रही है आखिर यह खूबसूरत रोशनी,
आकाशगंगा में हर कोई पूछ रहा है,
किसने बिखरी ये रोशनी, कौन है वह,
मेरे मित्रो, मैं जानता हूं उसे,
आकाशगंगा के मेरे मित्रो, मैं सूर्य हूं,
मेरी परिधि में आठ ग्रह लगा रहे हैं चक्कर,
उनमें से एक है पृथ्वी,
जिसमें रहते हैं छह अरब मनुष्य सैकड़ों देशों में,
इन्हीं में एक है महान सभ्यता,
भारत 2020 की ओर बढ़ते हुए,
मना रहा है एक महान राष्ट्र के उदय का उत्सव,
भारत से आकाशगंगा तक पहुंच रहा है रोशनी का उत्सव,
एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें नहीं होगा प्रदूषण,
नहीं होगी गरीबी, होगा समृद्धि का विस्तार,
शांति होगी, नहीं होगा युद्ध का कोई भय,
यही वह जगह है, जहां बरसेंगी खुशियां...
-डॉ एपीजे अब्दुल कलाम
नववर्ष आपको बहुत बहुत शुभ हो...
जय हिंद...
बेहतरीन जानकारी दी आपनें ! आपका यात्रा विवरण पढ़ने में बहुत मज़ा आता है ...
मंगलमय नववर्ष और सुख-समृद्धिमय जीवन के लिए आपको और आपके परिवार को अनेक शुभकामनायें !
नीरज जी...आपकी ये बेहद दिलचस्प पोस्ट बहुत पसंद आई.
साथ में आपको नववर्ष के अवसर पर ढेरों शुभकामनाएँ और बधाई.
बाऊ जी,
नमस्ते!
चीन तो आप गएँ हैं लेकिन फिर भी गुप्ताजी के सवाल का जवाब देने की कोशिश कर रहा हूँ मैं:
बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद!!!
हा हा हा!
आशीष
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हमहूँ छोड़के सारी दुनिया पागल!!!
इसीलिए कहते हैं न अपना घर अपना ही होता है ।
नीरज जी
बहुत अच्छा यात्रा वृतांत है...
नीरज साहब!
आपके ब्लाग पर आ कर चीन यात्रा का अविस्मरणीय सुख मिला।
आपको बहुत-बहुत धन्यवाद!
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
नीरज जी,
आपकी चीन यात्रा का वृत्तांत पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. मैं चीन नहीं गया हूँ लेकिन लग रहा है कि काफी कुछ जान गया हूँ. बहुत अच्छी तरह से आपने छोटी छोटी घटनाओं को भी अच्छे से capture किया है.
गुप्ता जी कौन हैं हर बात पर ओह शिट कहते हैं?
विदेश में रह रहे भारतीयों के बारे में आपने जो लिखे है उस सन्दर्भ में मैं अपने बारे में कहूँगा कि:
"वतन गाँव घर याद आते बहुत हैं,
मगर फिर भी हम मुस्कुराते बहुत हैं."
आदरणीय नीरज जी
नमस्कार !
पहुँच गए चीन...समझ गए ना की तीनों कड़ियां बहुत मनोयोग से पढ़ीं ।
बहुत सजीव यात्रा संस्मरण है । हर विधा में आप सिद्धहस्त हैं …बहुत ख़ूब !
पूरी यात्रा में गुप्ताजी और सिंह साहब के साथ साथ हमें भी बराबर साथ रखने के लिए जितना आभार व्यक्त करूं , कम है ।
आभार इसलिए कि बिना वीजा पासपोर्ट के भी हम आपके साथ हो आए चीन ।
कुछ विलंब से पहुंच पाया हूं , सफ़र की थकान जो रही :)
अब हर कोई तो आप जैसा चुस्त-दुरुस्त नौजवान नहीं होता न ! :)
आपका चिर यौवन सदैव यूं ही बना रहे … आमीन !
संपूर्ण नव वर्ष 2011 सहित मकर संक्रांति , गणतंत्र दिवस और आने वाले पर्व - त्यौंहारों की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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