मैं
कुमार विनोद जी को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता,लेकिन मेरा सौभाग्य देखिये नौ फरवरी को कुरुक्षेत्र से उनका अचानक मेल आया, जिसमें लिखा था कि उन्होंने मेरा ब्लॉग देखा है और उन्हें उस पर पोस्ट की गयी ग़ज़लें और पुस्तक समीक्षाएं बहुत पसंद आयीं हैं .साथ ही उन्होंने ये भी बताया की वो भी ग़ज़लें लिखते हैं और उनका एक ग़ज़ल संग्रह भी प्रकशित हो चुका है. मेल के साथ उन्होंने अपनी कुछ ग़ज़लें भी भेजीं...ग़ज़लें पढ़ कर ही मुझे आभास हो गया की चाहे मैं उन्हें व्यक्तिगत तौर पर ना जानूं लेकिन सोच के स्तर पर उन्हें पहचान गया हूँ. ये भी जान गया की वो बिलकुल अलग बेबाक अंदाज़ में अपनी बात कहने वाले निराले युवा शायर हैं .दिल ने कहा अब उनकी इस किताब को पढने के लिए उसे हासिल करना ही पड़ेगा,क्यूंकि रात के सन्नाटे में किताब हाथ में लेकर अधलेटे ग़ज़लें पढने का जो आनंद है, वो आनंद लैप टाप खोल कर पढने में नहीं आता. कुमार जी को किताब भेजने का आग्रह किया गया जो उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी पूरा किया और अब उसी किताब
"बेरंग हैं सब तितलियाँ" के चंद पन्नो में बिखरे उनके कुछ अशआर आप सब तक पहुंचा रहा हूँ.
एक बार सुधि पाठकों को फिर बता दूं की जनाब
"कुमार विनोद" के ग़ज़ल संग्रह
" बेरंग हैं सब तितलियाँ" की आज हम चर्चा कर रहे हैं. किताब के पहले पन्ने के पहले शेर से ही वो अपने पाठक को अपने साथ ज़ज्बात की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों पर हाथ पकड़ कर एक अनजानी मंजिल की और ले चलते हैं.
आस्था का जिस्म घायल रूह तक बेज़ार है
क्या करे कोई दुआ जब देवता बीमार है
भूख से बेहाल बच्चों को सुना कर चुटकुले
जो हंसा दे, आज का सबसे बड़ा फनकार है
खूबसूरत जिस्म हो या सौ टका ईमान हो
बेचने की ठान लो तो हर तरफ बाज़ार है
विनोद जी की शायरी की सबसे बड़ी खूबी है उसकी भाषा. वो अपने पाठक को कभी भी भारी भरकम लफ़्ज़ों के बोझ तले नहीं दबाते बल्कि उनकी पंखुरियों से हलके हलके सहलाते हैं. ये कारण है की उनके शेर पढ़ते पढ़ते ही ज़बान पर चढ़ जाते हैं और बाद में पाठक उन्हें अपने आप गुनगुनाने लगता है.
तल्खियाँ सारी फ़ज़ा में घोल कर
क्या मिलेगा बात सच्ची बोल कर
गुम हुए खुशियों के मौसम इन दिनों
इसलिए जब भी हंसो, दिल खोलकर
बात करते हो उसूलों की मियां
भाव रद्धी के बिकें सब तोलकर
इस किताब को आधार प्रकाशन , पंचकुला ,हरियाणा ने प्रकाशित किया है. कुमार विनोद जी का ये पहला ग़ज़ल संग्रह है. उनकी ग़ज़लें हिंदी की प्रसिद्द पत्रिकाओं जैसे
'हंस',
'नया ज्ञानोदय',
'वागर्थ',
'कथादेश',
'कादम्बिनी',
'आजकल',
'अक्षर पर्व', आदि में समय समय पर छप कर अपनी पहचान पहले ही बना चुकी हैं. युवा ग़ज़लकार की इन ग़ज़लों ने मुझे अन्दर से छुआ है और अपना प्रशंशक बना लिया है.
लाख चलिए सर बचा कर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं
काम पर जाते हुए मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या, कुछ भी नहीं
एक अन्जाना सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिला कर ज़िन्दगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
इस किताब में एक खूबी और है जो बहुत कम किताबों में नज़र आती है वो ये के किताब की ग़ज़लें किताब खोलते ही पाठकों के रूबरू हो जातीं हैं.इस किताब में किसी भी तरह की कोई भूमिका ना तो किसी नामचीन शायर ने लिखी है और ना ही शायर ने खुद. बस
"तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मोरा " वाले भाव से ये पुस्तक ज्यूँ की त्यूँ पाठकों को सौंप दी गयी है. पाठकों और ग़ज़लों के बीच कोई नहीं है. इसका एक बहुत बड़ा लाभ भी है और वो ये की पाठक बिना इस पुस्तक को पूरा पढ़े इस के बारे में कोई राय नहीं बना सकता और पढ़ कर वो जो भी राय बनाएगा अच्छी या बुरी वो किसी और की विचार धारा से प्रभावित नहीं होगी बल्कि सिर्फ उस पाठक की ही होगी. आज के दौर में ऐसा जोखिम उठाने वाले बिरले ही मिलेंगे.
गाँव से आकर शहर में यूँ लगा
सच हुई दुश्मन की जैसे बद्दुआ
जबसे चिड़िया ने बनाया घोंसला
पेड़ देखो फूल कर कुप्पा हुआ
डाक्टर ने हाले दिल उसका सुना
बस यही थी बूढ़े रोगी की दवा
विनोद जी ने रोजमर्रा के प्रतीकों से अपने अशआरों को नयी ऊँचाई दी है. उनके नए नए शब्द प्रयोग उन्हें अपने समकालीनो से अलग करते हैं. आप भी देखिये किस तरह:
बड़ी हैरत में डूबी आजकल बच्चों की नानी है
कहानी की किताबों में न राजा है, न रानी है
बहुत सुन्दर से इस एक्वेरियम को गौर से देखो
जो इसमें कैद है मछली, क्या वो भी जल की रानी है
घनेरे बाल, मूंछें और चेहरे पे चमक थोड़ी
यकीं कीजे, ये मैं ही हूँ, ज़रा फोटो पुरानी है
एम्.एस.सी., एम्.फिल, पी.एच डी. शिक्षा प्राप्त विनोद जी कुरुक्षेत्र विश्व विद्ध्यालय के गणित विभाग में एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं, तभी उनके कहने का सलीका और मिजाज़ बहुत नपा तुला है. उनकी ग़ज़लों में जहाँ आज की त्रासद विसंगतियों का जिक्र है वहीँ अपने आप पर भरोसा बनाये रखने पर जोर भी है. इस किताब की ग़ज़लें विनोद जी द्वारा की गयी एक ईमानदार कोशिश है और हमें ऐसी कोशिशों की हौसला अफजाही करनी ही चाहिए. आप मात्र सौ रुपये मूल्य की ये पुस्तक आधार प्रकाशन से मेल द्वारा aadhar_prakashan@yahoo.com पर लिख कर या फिर प्रकाशक से 09417267004 नंबर पर संपर्क करके मंगवा सकते हैं,पुस्तक प्राप्ति की राह में आने वाली किसी भी असुविधा के निदान के लिए आप सीधे विनोद जी से उनके मोबाईल न. 09416137196 या इ-मेल vinod_bhj@rediffmail.com पर संपर्क कर सकते हैं. कुछ भी करें अगर आप ग़ज़लें बल्कि यूँ कहीं की अच्छी ग़ज़लें पढने के शौकीन हैं तो ये किताब हर हाल में आपके पास होनी चाहिए.
राजधानी को तुम्हारी फ़िक्र है, ये मान लो
राहतें तुम तक अगर पहुंची नहीं, तो क्या हुआ
देखिये उस पेड़ को, तनकर खड़ा है आज भी
आँधियों का काम चलना है, चलीं, तो क्या हुआ
कम से कम तुम तो करो खुद पर यकीं, ऐ दोस्तों
गर ज़माने को नहीं तुम पर यकीं, तो क्या हुआ.
आप इस किताब को मंगवाने की जुगत में लगिये तब तक हम तलाशते हैं आपके लिए ऐसी ही कोई और नायाब किताब.
कुमार विनोद