Monday, April 27, 2009

किताबों की दुनिया - 9

ज़िन्दगी का रास्ता क्या पूछते हैं आप भी
बस उधर मत जाईये भागे जिधर जाते हैं लोग

ये बात कोई चालीस साल पुरानी है जब एक पतले दुबले साँवले से उन्नीस बीस साल के लड़के ने मुझे ये शेर सुनाया था. तब शायरी की कोई खास समझ नहीं थी, लेकिन इतनी समझ जरूर थी की जो शख्श इस उम्र में ऐसे शेर कह सकता है वो बड़ा हो कर जरूर गुल खिलाने वाला है. हम दोनों उन दिनों जयपुर के रविन्द्र मंच पर नाटक खेलने के शौकीन हुआ करते थे. जयपुर में वो नाटकों के स्वर्णिम युग की शुरुआत थी. उस लड़के ने भी एक नाटक लिखा "भूमिका" और जिसे निर्देशित भी किया. मैंने और मेरे एक अभिन्न मित्र ने उस नाटक की प्रकाश व्यवस्था संभाली. उस दौरान हम अच्छे मित्र बन गए. जी हाँ मैं आज हिन्दुस्तान के उस अजीम शायर की बात कर रहा हूँ जिसे लोग "राजेश रेड्डी" के नाम से जानते और पसंद करते हैं. उनकी बहुत सी ग़ज़लों को जगजीत सिंह जी ने अपनी रेशमी आवाज़ से नवाजा है.

ज़िन्दगी, जो आप करना चाहते वो करने नहीं देती. आपको अपने हिसाब से हांकती है. "राजेश" रेडियो से जुड़ गया और मैं स्टील कम्पनियों से. रोज़ी रोटी ने शहर भी छुड़वाया और नाटकों का शौक भी. राजेश ने अपनी आग को जिंदा रख्खा और लगातार लिखता रहा. एक दिन अचानक मुंबई आने पर जब मैंने उसे फोन किया तो वो मुझे पहचान तो गया लेकिन चालीस सालों के अन्तराल ने रिश्तों की गर्मी को ठंडा जरूर कर दिया था .ऐसा ही होता है इसमें कुछ भी हैरान करने वाली बात नहीं है. प्रगाड़ रिश्ते भी सम्वाद हीनता की स्तिथि में दम तोड़ देते हैं. उसने मुझे पहचाना ये ही बहुत था मेरे लिए.

जयपुर में आयोजित पुस्तक मेले में मुझे उसकी किताब "उडान" दिखाई दी. खरीदने के बारे में सोचना ही नहीं पड़ा. पुराने संबंधों की भीनी याद ही उसे खरीदने के लिए काफी थी.


"राजेश रेड्डी" के बारे में अधिक कुछ न कह कर आयीये उसकी इस पुस्तक की चर्चा की जाये. "उडान" उसके प्रशंककों को निराश नहीं करती वरन उनकी कसौटी पर सौ फी सदी खरी उतरती है. वो जिस पाये के शायर हैं उनसे बेहतर शायरी की उम्मीद रखना गलत नहीं है और उन्होंने कहीं भी ना उम्मीद नहीं किया है.

कहा जाता है की छोटी बहर में शेर कहना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन "उड़ान" को पढ़ते वक्त ऐसा लगता ही नहीं. राजेश इस सहजता से छोटी बहर में शेर कहते हैं की बेसाख्ता मुंह से वाह वा निकल जाता है:

गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं

जिंदा हूँ सच बोलके भी
देख के खुद हैरान हूँ मैं

इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं

मैं क्या और क्या मेरा वजूद
मुफलिस का अरमान हूँ मैं

"उड़ान" में राजेश की लगभग वो सभी ग़ज़लें हैं जो जगजीत सिंह साहेब,पंकज उधास,राज कुमार रिज़वी जैसे नामवर ग़ज़ल गायकों ने गायीं हैं और जो खूब मकबूल हुई हैं, लेकिन हम उन ग़ज़लों की चर्चा यहाँ नहीं करेंगे...बल्कि उन ग़ज़लों के शेर पढ़वायेंगे जो शायद अभी तक गायी नहीं गयीं...हो सकता है की इस चयन में मुझसे गलती हो जाए क्यूँ की उनकी उन ग़ज़लों की फेहरिस्त मेरे पास नहीं है जो गायी गयीं हैं:

जुबां खामोश है डर बोलते हैं
अब इस बस्ती में खंज़र बोलते हैं

सराये है जिसे नादां मुसाफिर
कभी दुनिया कभी घर बोलते हैं

मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब
मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं

राजेश एक संजीदा इंसान हैं और उनकी संजीदगी उनकी ग़ज़लों में साफ़ दिखाई देती है.लफ्फाजी उनकी फितरत में नहीं इसीलिए आप उनके शेर में ना एक लफ्ज़ जोड़ सकते हैं या घटा सकते हैं.ये हुनर बहुत कोशिशों से आता है.एक ग़ज़ल के चंद शेर देखें.

ये सारे शहर में दहशत सी क्यूँ है
यकीनन कल कोई त्योंहार होगा

बदल जायेगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अखबार होगा

एक ग़ज़ल के चंद शेर और देखें जिसमें "राजेश" आसान जबान में सब कुछ कितनी सहजता से कह जाते हैं. ये सादगी ही उनकी ग़ज़लों का सबसे अहम् पहलू है.

अपनी आखों से ज़िन्दगी को पढ़
अपने अनुभव से ज्ञान पैदा कर

सब्र के पेड़ पर लगेंगे फल
सोच में इतमिनान पैदा कर

छोड़ दुनिया से छाँव की उम्मीद
खुद में इक सायबान पैदा कर

दिल से निकले दिलों में बस जाए
ऐसी आसाँ जुबान पैदा कर

वाणी प्रकाशन, 21-ऐ ,दरियागंज, नई दिल्ली से अब तक इस किताब के दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो इसकी लोकप्रियता को दर्शाते हैं. इस किताब में राजेश की 74 ग़ज़लें दर्ज हैं जो पढने वालों को एक नए एहसास से रूबरू करवाती हैं.

मेरे खुदा मैं अपने ख्यालों को क्या करूँ
अंधों के इस नगर में उजालों को क्या करूँ

दिल ही बहुत है मेरा इबादत के वास्ते
मस्जिद को क्या करूँ मैं शिवालों को क्या करूँ

मैं जानता हूँ सोचना अब एक जुर्म है
लेकिन मैं दिल में उठते सवालों को क्या करूँ

"राजेश" खुद बहुत अच्छा गाते हैं . संगीत का उन्हें ज्ञान है. उन्ही की जबानी उनकी ग़ज़लों को सुनना एक ऐसा अनुभव है जिसे आप कभी भूल नहीं सकते. उन्होंने एक केसेट "ग़ालिब" में संगीत दिया है जिसे वीनस कंपनी वालों ने निकला था. जो उन्हें सुनना चाहते हैं उनसे गुजारिश है की वो http://www.radiosabrang.com/ पर उन्हें सुनें.

आखिर में पेश है उनका एक शेर जो मुझे बहुत ही अधिक पसंद है....शायद आपको भी पसंद आये, पसंद आये तो उनकी तारीफ में ताली जरूर बजईयेगा चाहे आसपास कोई सुनने वाला हो ना हो.:

अजब कमाल है अक्सर सही ठहरते हैं
वो फैसले जो कभी सोच कर नहीं करते.

आप इस किताब को तलाशिये तब तक हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब तलाशने. इसमें हमारा भी तो भला हो जाता है...आप की बदौलत हम भी अच्छी शायरी पढ़ लेते हैं. शुक्रिया.

Monday, April 20, 2009

बिजलियां टूटी कहां हैं आपके घर पर अभी


दोस्तों एक मुद्दत के बाद दिल की ये हसरत की अपने ब्लॉग पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी की ग़ज़ल लगाऊँ, अब जा कर पूरी हुई है. उनसे ग़ज़ल निकलवाने में जो पापड़ बेलने पड़े उसकी दास्तां फिर कभी...पर ये जरूर है की अगर फरहाद को शीरीं के लिए पहाड़ खोद कर नदी लाने की जगह पंकज जी की ग़ज़ल लाने के लिए कह दिया जाता तो उनके प्रेम की कहानी कुछ और ही होती , फरहाद महाशय शीरीं का ख्याल भूल कहीं चल दिए होते....

आज के माहोल पर एक दम माकूल इस ग़ज़ल का आप सभी गुणी जन आनंद लें...साथ ही पंकज जी को लिखने और मुझे पेश करने पर धन्यवाद दें...

कह रहा हूं फैंकिये मत हाथ का पत्थर अभी
इस बग़ावत ने कहां बदला हर इक मंज़र अभी

जो तुम्हारा हक़ है उसकी मांगते हो भीख़ क्यों
गिड़गिड़ाओ मत, उसे तुम छीन लो उठकर अभी

सह रहें हैं हर सितम बस आसमां को देखकर
जाने किसने कह दिया था आएगा ईश्वर अभी

ग़ैर के जलते मकां का आप जानें दर्द क्या
बिजलियां टूटी कहां हैं आपके घर पर अभी

मुट्ठियां तनती हों गर जो आपकी तो जान लो
रीढ़ की हड्डी बची है आपके अंदर अभी

ख़ून कितना बह चुका है आज तक इन्सान का
और उनके हाथ का प्यासा ही है ख़ंजर अभी

एक ही नारा लगा और कुर्सियां थर्रा गईं
फैलने तो दो ज़रा विद्रोह को घर घर अभी

बज गया फिर से चुनावों का बिगुल अब देखना
सांप सारे बांबियों से आयेंगें बाहर अभी

Monday, April 13, 2009

अश्क का कतरा,वही गंगा हुआ



आज जो ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ उसकी काफिया बंदी उर्दू ग़ज़ल के रिवायतों से मेल नहीं खाती...लेकिन मुझे लगता है की हिंदी ग़ज़ल लिखने वालों को शायद ये सुविधा है...यूँ तो ग़ज़ल ग़ज़ल होती है और उसके नियमों में सबका बंधना जरूरी है, इसलिए ग़ज़ल के उस्तादों से मेरी इस गुस्ताखी के लिए मैं पहले ही माफ़ी मांग लेता हूँ.

तोड़ना इस देश को, धंधा हुआ
ये सियासी खेल अब गंदा हुआ

सर झुका कर रब वहां से चल दिया
नाम पर उसके जहां दंगा हुआ

तोल कर रिश्ते नफा नुक्सान में
आज तन्हा किस कदर बंदा हुआ

क्या छुपाने को बचा है पास फिर
आदमी जब सोच में नंगा हुआ

मौत से बदतर समझिये जिंदगी
जोश लड़ने का अगर ठंडा हुआ

आँख जब से लड़ गयी है आपसे
नींद से हर शब मिरा पंगा हुआ

दूर सारी मुश्किलें उस की हुईं
पास जिसके आपका कंधा हुआ

जो पराई पीर में "नीरज" बहा
अश्क का कतरा,वही गंगा हुआ


( गुरुदेव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद प्राप्त ग़ज़ल )

Monday, April 6, 2009

किताबों की दुनिया - 8


(पोस्ट थोडी लम्बी हो गयी है...इसे सरसरी तौर पर नहीं, जब फुर्सत हो तभी पढें)

जितनी जितनी ख्वाहिशें ऊंचाईयां छूने लगीं
उतना उतना आदमी छोटा नज़र आने लगा

दोस्तों कई बार अचानक ऐसे शख्श से आपकी मुलाकात हो जाती है जिससे मिल कर आपको अपनी ही किस्मत पे रश्क होने लगता है. जनाब "जाफ़र रज़ा" साहेब को मैंने सबसे पहले कवि कुलवंत जी द्वारा समीर लाल और देवी नागरानी जी की शान में रखी गोष्ठी में देखा और सुना. उसके बाद ये मौका दुबारा अनीता जी के घर पर हुई गोष्ठी में मिला. हर बार उनसे मिल कर जो जेहनी सुकून मिलता है वो लफ्जों में बयां नहीं किया जा सकता.

सीधे सादी ज़बान में जाफ़र साहेब जब शेर पढ़ते हैं तो लगता है जैसे आप हार सिंगार तले बैठे हैं और फूल झड़ रहे हैं. सादगी उनके लिबास में ही नहीं उनकी पूरी शायरी में नज़र आती है. ऐसे ही किसी गोष्ठी में वो अपनी किताब से शेर सुना रहे थे और लोग वाह वा कर कर रहे थे. जब वो शेर सुना कर वापस अपनी जगह लौटने लगे तो रास्ते में ही मैंने उन्हें पकड़ लिया और कहा रज़ा साहेब आपसे एक गुजारिश है, मुस्कुराते हुए बोले कहिये..मैंने कहा मुझे आप अपनी ये किताब अपने दस्तखत कर के दे दीजिये...और उन्होंने बिना एक पल जाया किये मेरी बात मान ली. आज मैं आप को उनकी उसी किताब "दूसरा मैं" से रूबरू करवाता हूँ.

कोशिश कर लो लाख "रज़ा" आसान नहीं
शेरों में ज़ज्बात पिरोना समझेना

रज़ा साहेब अपने ही इस लाजवाब शेर को बड़ी खूबसूरती से पूरी किताब में नकारते नज़र आते हैं. ज़ज्बात को जिस तरह से उन्होंने अपने कलाम में पिरोया है वो बेमिसाल है, उनका ये शेर शायद औरों पर सटीक बैठता हो लेकिन खुद उनपर लागू नहीं होता.

छोटी बहर की इस ग़ज़ल में देखिये किस अंदाज़ से वो अपनी बात कहते हैं:

हसरतें, आरजू, लगन, चाहत
ग़म का सामान मुझमें रहता है

ढूंढता है खुलूस लोगों में
ये जो नादान मुझमें रहता है


ग़म किसी का हो ग़म समझता हूँ
अब भी इंसान मुझमें रहता है

उनकी शायरी आम इंसान की शायरी है जो उसे हर हाल में जीने का संदेशा देती है, उसे जीने के आसान गुर सिखाती है:

बढ़ानी थी अगर अश्कों की कीमत
तबस्सुम में समोना चाहिए था

सलीका सीख लेते खेलने का
अगर दिल का खिलौना चाहिए था

हकीक़त में जो थी फूलों से उल्फत
तो फिर काँटों पे सोना चाहिए था

छोटी बहर में ग़ज़ल कहना मुश्किल होता है क्यूँ की आप को कम लफ्जों में सारी बात करनी होती है...ये फ़न बहुत कोशिशों से हासिल होता है , लीजिये पढिये रज़ा साहेब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद शेर :

दर दर ठोकर खाना क्या
समझेगा दीवाना क्या

वो जो आँखें कहती हैं
लफ्जों में समझाना क्या

ज़ख्म खिले तो बात बने
फूलों का खिल जाना क्या


तुम हमको पहचानोगे
अपने को पहचाना क्या

दिल भर जाये तो जाने
दामन का भर जाना क्या

खोटे सिक्के का यारों
खोना क्या और पाना क्या

ग़म की दौलत है तो है
दुनिया को दिखलाना क्या

फारान बुक डिपू, कुर्ला, मुंबई ( 09223903515) से प्रकाशित एक सौ पचास रुपये मूल्य की ये किताब हिंदी और उर्दू लिपि में छपी हुई है. किताब के बाएँ पृष्ट पर हिंदी में और उसी ग़ज़ल को दायें पृष्ठ पर उर्दू लिपि में पढ़ सकते हैं. उर्दू सीखने में दिलचस्पी रखने वालों के लिए तो ये एक वरदान ही समझिये. जो लोग किताब खरीद में परेशानी महसूस करते हैं उनसे इल्तेज़ा है की इन बेहतरीन शेरों के लिए कम से कम रज़ा साहेब का शुक्रिया उनके मोबाईल( 09821146565) पर ही कर दें.

आयीये चलते चलते एक ग़ज़ल के चंद शेर और पढ़ते चलें:

लगेगी एक दिन उनके गुरूर को ठोकर
ज़मीन पर जो क़दम देखकर नहीं रखते

हिरास-ओ-यास* के बिस्तर पे नींद क्या आती
सुहाने ख्वाबों का तकिया अगर नहीं रखते
*हिरास-ओ-यास* = परेशानी और ना उम्मीदी

वो लुत्फे-गर्मिये- रुख्सारे-जीस्त* क्या जाने
जो उँगलियों को कभी आग पर नहीं रखते

*वो लुत्फे-गर्मिये- रुख्सारे-जीस्त*= जिंदगी के गालों की गर्मी का मज़ा

न जाने कब कोई झोंका फ़साद ले आये
इसी से लोग हवादार घर नहीं रखते

"रज़ा" वो सर किसी काँधे पे कैसे रखेंगे
जो अपना हाथ किसी हाथ पर नहीं रखते

उम्मीद है रज़ा साहेब और उनकी किताब से मुलाकात आपको पसंद आयी होगी...अगर आयी है तो इसे अपने ईष्ट मित्रों को भी पढ़वाएं, किसी शायर की शायरी जितने लोग पढेंगे उतनी ही ख़ुशी शायर को मिलेगी. आप जाफ़र साहेब को खुश रखने के अभियान में लगिए और तब तक हम अगली किताब की खोज में निकलते हैं.

किसकी तरफ ये दस्ते-मोहब्बत* बढाईये
हाथों से अपने ज़ख्म दबाये हुए हैं लोग

दस्ते-मोहब्बत*= मोहब्बत का हाथ

बाँहों में बाहें डाले हुए हैं मगर "रज़ा"
एक दूसरे से खुद को छुपाये हुए हैं लोग

Wednesday, April 1, 2009

चाँद आशा का गर उगेला है

उम्मीद थी की गुरुदेव अपनी नयी तरह की ग़ज़ल, जैसा की उन्हों आश्वाशन दिया था, मुझे भेजेंगे .लेकिन ऐसा हुआ नहीं...आश्वाशन आश्वाशन ही रहे...चुनाव कवर करने के दौरान नेताओं के साथ साथ रहते हुए शायद उनमें भी नेताओं वाले गुण आ गए हैं...
(ये तो मजाक की बात है, गुरुदेव जरूर व्यस्त होंगे, उनमें नेताओं वाले गुण आ ही नहीं सकते...किसी भले इंसान में आपने नेताओं वाले गुण देखें हैं क्या???? ...खास कर आज के दौर में)

जिस मुम्बईया ग़ज़ल का जिक्र गुरुदेव ने मेरी पिछली पोस्ट में किया था वो करीब साल भर पहले लिखी थी और उस पर मिश्रित प्रतिक्रिया भी हुई थी. आज अपनी उसी ग़ज़ल को फिर प्रस्तुत कर रहा हूँ. आप देखें की सिर्फ काफिये ही मुम्बईया भाषा के हैं लेकिन भाव और नियम असल ग़ज़ल के. जिन्होंने पहले नहीं पढ़ी वे इसका आनंद लें और जिन्होंने पहले पढ़ी थी वो दुबारा इसका आनंद लें ,क्यूंकि आनंद ही जीवन है.



गर जवानी में तू थकेला है
सांस लेकर भी फिर मरेला है

सच बयानी की ठान ली जब से
हाल तब से ही ये फटेला है

ताजगी मन में पायेगी
गर विचारों से तू सड़ेला है

हो जरुरत तो ठीक है प्यारे
बे-जरुरत ही क्यूँ खटेला है

रात काली हो बे-असर गम की
चाँद आशा का गर उगेला है

लोग सीढ़ी है काम में लेलो
पाठ बचपन से ये रटेला है

रोक पाओगे तुम नहीं 'नीरज'
वो गिरेगा जो फल पकेला है