ज़िन्दगी का रास्ता क्या पूछते हैं आप भी
बस उधर मत जाईये भागे जिधर जाते हैं लोग
बस उधर मत जाईये भागे जिधर जाते हैं लोग
ये बात कोई चालीस साल पुरानी है जब एक पतले दुबले साँवले से उन्नीस बीस साल के लड़के ने मुझे ये शेर सुनाया था. तब शायरी की कोई खास समझ नहीं थी, लेकिन इतनी समझ जरूर थी की जो शख्श इस उम्र में ऐसे शेर कह सकता है वो बड़ा हो कर जरूर गुल खिलाने वाला है. हम दोनों उन दिनों जयपुर के रविन्द्र मंच पर नाटक खेलने के शौकीन हुआ करते थे. जयपुर में वो नाटकों के स्वर्णिम युग की शुरुआत थी. उस लड़के ने भी एक नाटक लिखा "भूमिका" और जिसे निर्देशित भी किया. मैंने और मेरे एक अभिन्न मित्र ने उस नाटक की प्रकाश व्यवस्था संभाली. उस दौरान हम अच्छे मित्र बन गए. जी हाँ मैं आज हिन्दुस्तान के उस अजीम शायर की बात कर रहा हूँ जिसे लोग "राजेश रेड्डी" के नाम से जानते और पसंद करते हैं. उनकी बहुत सी ग़ज़लों को जगजीत सिंह जी ने अपनी रेशमी आवाज़ से नवाजा है.
ज़िन्दगी, जो आप करना चाहते वो करने नहीं देती. आपको अपने हिसाब से हांकती है. "राजेश" रेडियो से जुड़ गया और मैं स्टील कम्पनियों से. रोज़ी रोटी ने शहर भी छुड़वाया और नाटकों का शौक भी. राजेश ने अपनी आग को जिंदा रख्खा और लगातार लिखता रहा. एक दिन अचानक मुंबई आने पर जब मैंने उसे फोन किया तो वो मुझे पहचान तो गया लेकिन चालीस सालों के अन्तराल ने रिश्तों की गर्मी को ठंडा जरूर कर दिया था .ऐसा ही होता है इसमें कुछ भी हैरान करने वाली बात नहीं है. प्रगाड़ रिश्ते भी सम्वाद हीनता की स्तिथि में दम तोड़ देते हैं. उसने मुझे पहचाना ये ही बहुत था मेरे लिए.
जयपुर में आयोजित पुस्तक मेले में मुझे उसकी किताब "उडान" दिखाई दी. खरीदने के बारे में सोचना ही नहीं पड़ा. पुराने संबंधों की भीनी याद ही उसे खरीदने के लिए काफी थी.
"राजेश रेड्डी" के बारे में अधिक कुछ न कह कर आयीये उसकी इस पुस्तक की चर्चा की जाये. "उडान" उसके प्रशंककों को निराश नहीं करती वरन उनकी कसौटी पर सौ फी सदी खरी उतरती है. वो जिस पाये के शायर हैं उनसे बेहतर शायरी की उम्मीद रखना गलत नहीं है और उन्होंने कहीं भी ना उम्मीद नहीं किया है.
कहा जाता है की छोटी बहर में शेर कहना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन "उड़ान" को पढ़ते वक्त ऐसा लगता ही नहीं. राजेश इस सहजता से छोटी बहर में शेर कहते हैं की बेसाख्ता मुंह से वाह वा निकल जाता है:
गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं
जिंदा हूँ सच बोलके भी
देख के खुद हैरान हूँ मैं
इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं
मैं क्या और क्या मेरा वजूद
मुफलिस का अरमान हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं
जिंदा हूँ सच बोलके भी
देख के खुद हैरान हूँ मैं
इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं
मैं क्या और क्या मेरा वजूद
मुफलिस का अरमान हूँ मैं
"उड़ान" में राजेश की लगभग वो सभी ग़ज़लें हैं जो जगजीत सिंह साहेब,पंकज उधास,राज कुमार रिज़वी जैसे नामवर ग़ज़ल गायकों ने गायीं हैं और जो खूब मकबूल हुई हैं, लेकिन हम उन ग़ज़लों की चर्चा यहाँ नहीं करेंगे...बल्कि उन ग़ज़लों के शेर पढ़वायेंगे जो शायद अभी तक गायी नहीं गयीं...हो सकता है की इस चयन में मुझसे गलती हो जाए क्यूँ की उनकी उन ग़ज़लों की फेहरिस्त मेरे पास नहीं है जो गायी गयीं हैं:
जुबां खामोश है डर बोलते हैं
अब इस बस्ती में खंज़र बोलते हैं
सराये है जिसे नादां मुसाफिर
कभी दुनिया कभी घर बोलते हैं
मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब
मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं
अब इस बस्ती में खंज़र बोलते हैं
सराये है जिसे नादां मुसाफिर
कभी दुनिया कभी घर बोलते हैं
मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब
मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं
राजेश एक संजीदा इंसान हैं और उनकी संजीदगी उनकी ग़ज़लों में साफ़ दिखाई देती है.लफ्फाजी उनकी फितरत में नहीं इसीलिए आप उनके शेर में ना एक लफ्ज़ जोड़ सकते हैं या घटा सकते हैं.ये हुनर बहुत कोशिशों से आता है.एक ग़ज़ल के चंद शेर देखें.
ये सारे शहर में दहशत सी क्यूँ है
यकीनन कल कोई त्योंहार होगा
बदल जायेगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अखबार होगा
यकीनन कल कोई त्योंहार होगा
बदल जायेगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अखबार होगा
एक ग़ज़ल के चंद शेर और देखें जिसमें "राजेश" आसान जबान में सब कुछ कितनी सहजता से कह जाते हैं. ये सादगी ही उनकी ग़ज़लों का सबसे अहम् पहलू है.
अपनी आखों से ज़िन्दगी को पढ़
अपने अनुभव से ज्ञान पैदा कर
सब्र के पेड़ पर लगेंगे फल
सोच में इतमिनान पैदा कर
छोड़ दुनिया से छाँव की उम्मीद
खुद में इक सायबान पैदा कर
दिल से निकले दिलों में बस जाए
ऐसी आसाँ जुबान पैदा कर
अपने अनुभव से ज्ञान पैदा कर
सब्र के पेड़ पर लगेंगे फल
सोच में इतमिनान पैदा कर
छोड़ दुनिया से छाँव की उम्मीद
खुद में इक सायबान पैदा कर
दिल से निकले दिलों में बस जाए
ऐसी आसाँ जुबान पैदा कर
वाणी प्रकाशन, 21-ऐ ,दरियागंज, नई दिल्ली से अब तक इस किताब के दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो इसकी लोकप्रियता को दर्शाते हैं. इस किताब में राजेश की 74 ग़ज़लें दर्ज हैं जो पढने वालों को एक नए एहसास से रूबरू करवाती हैं.
मेरे खुदा मैं अपने ख्यालों को क्या करूँ
अंधों के इस नगर में उजालों को क्या करूँ
दिल ही बहुत है मेरा इबादत के वास्ते
मस्जिद को क्या करूँ मैं शिवालों को क्या करूँ
मैं जानता हूँ सोचना अब एक जुर्म है
लेकिन मैं दिल में उठते सवालों को क्या करूँ
अंधों के इस नगर में उजालों को क्या करूँ
दिल ही बहुत है मेरा इबादत के वास्ते
मस्जिद को क्या करूँ मैं शिवालों को क्या करूँ
मैं जानता हूँ सोचना अब एक जुर्म है
लेकिन मैं दिल में उठते सवालों को क्या करूँ
"राजेश" खुद बहुत अच्छा गाते हैं . संगीत का उन्हें ज्ञान है. उन्ही की जबानी उनकी ग़ज़लों को सुनना एक ऐसा अनुभव है जिसे आप कभी भूल नहीं सकते. उन्होंने एक केसेट "ग़ालिब" में संगीत दिया है जिसे वीनस कंपनी वालों ने निकला था. जो उन्हें सुनना चाहते हैं उनसे गुजारिश है की वो http://www.radiosabrang.com/ पर उन्हें सुनें.
आखिर में पेश है उनका एक शेर जो मुझे बहुत ही अधिक पसंद है....शायद आपको भी पसंद आये, पसंद आये तो उनकी तारीफ में ताली जरूर बजईयेगा चाहे आसपास कोई सुनने वाला हो ना हो.:
अजब कमाल है अक्सर सही ठहरते हैं
वो फैसले जो कभी सोच कर नहीं करते.
वो फैसले जो कभी सोच कर नहीं करते.
आप इस किताब को तलाशिये तब तक हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब तलाशने. इसमें हमारा भी तो भला हो जाता है...आप की बदौलत हम भी अच्छी शायरी पढ़ लेते हैं. शुक्रिया.