कुछ लोग बहुत विलक्षण होते हैं. चुपचाप ऐसे काम कर जाते हैं जिसकी कल्पना आम इंसान कभी कर ही नहीं पाता, ऐसे ही एक विशेष दंपत्ति हैं संजय और सुधा भारद्वाज. लम्बी चौडी भूमिका के बिना आप को बता हूँ की एक दिन श्री विजय जी का एक मेल आया जिसमें उन्होंने लिखा की उनकी कविता और उस पर बने चित्र को एक पोस्टर प्रदर्शनी में चुन लिया गया है इसलिए मैं उसे देखने पूना आऊं. विजय जी से एक आध बार उनकी पोस्ट को लेकर मेल का आदान प्रदान हुआ था बस इतनी ही पहचान थी उनसे. प्रदर्शनी २३,२४ व् २५ जनवरी को पूना में थी इसलिए जाने की कोई विशेष समस्या नहीं थी. विजय जी ने २३ को पूना पहुँच कर फोन किया और आने का आग्रह किया. पता नहीं उनके बुलाने में ऐसी क्या बात थी की मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और बेहत व्यस्त कार्यक्रम को बीच में छोड़ शाम पूना के लिए निकल गया.
रास्ता पूछते पूछते आख़िर मंजिल तक पहुँच ही गया और जैसे ही प्रदर्शनी हाल में घुसा,अवाक रह गया. बेहद मार्मिक रचनाओं और चित्रों का आतंकवाद के विरुद्ध ऐसा प्रदर्शन ना कभी देखा और सुना था . बिना भारी भरकम नारों के, शोर शराबे के एक एक चित्र अपनी कहानी स्वयं कह रहा था.
विजय जी को उनके ब्लॉग (http://poemsofvijay.blogspot.com)पर छपी तस्वीर से पहचान लिया, वे मुझसे मिल जितने प्रसन्न हुए उससे कई गुना मैं उनसे मिल कर हुआ क्यूँ की उन्ही की बदौलत मुझे इस प्रदर्शनी को देखने का सुअवसर मिला था. विजय जी निहायत ही संवेदनशील कवि हैं उनकी बातों और हाव भाव में एक छोटा बच्चा छिपा मिलता है जो अपने आसपास के माहौल से दुखी भी है और किसी अच्छी चीज को देख तालियाँ भी बजाता है. उनकी बड़ी बड़ी आंखों में बहुत से अधूरे हसीन ख्वाब हैं जिन्हें पूरा करने में वे अपनी पूरी ऊर्जा लगाते नहीं थकते. आज के युग में इतने विनम्र व्यक्ति का मिलना किसी अजूबे से कम नहीं.
विजय जी ने ही भारद्वाज दंपत्ति से मेरा परिचय करवाया जिनसे मिलना उस शाम की एक न भुलाये जा सकने वाली घटना थी. पहली ही मुलाकात में इतनी आत्मीयता इस दंपत्ति ने दिखाई की मैं भाव विभोर हो गया. मैंने इस अद्भुत आयोजन के लिए उन्हें दिल से बधाई दी. प्रदर्शनी श्री संजय और उनकी पत्नी सुधा भरद्वाज जी के अथक मेहनत का परिणाम थी. पोस्टर प्रदर्शनी का शीर्षक था "शब्द युद्ध- आतंक के विरुद्ध" .
हालाँकि विजय जी ने इस पोस्टर प्रदर्शनी के बारे में अपने ब्लॉग( http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/01/blog_26.html) पर बहुत खूबसूरती से लिखा है और मेरे लायक कुछ अधिक नहीं छोड़ा है फ़िर भी कोशिश करता हूँ की जो उनसे छूट गया है उसे पेश करूँ.
सबसे अधिक प्रभावित करने वाली जो बात थी वो ये की पोस्टर प्रदर्शनी को देखने आए युवाओं में जबरदस्त उत्साह था.वो प्रत्येक रचना और चित्र को ध्यान से देखते और प्रतिक्रिया करते.(युवाओं का ऐसे संवेदन शील विषय के प्रति रुझान देख कर बहुत अच्छा लगा.
प्रदर्शित रचनाओं में कुछ स्थानीय कवि शायर थे और कुछ ख्याति प्राप्त नाम भी. मेरे लिए सम्भव नहीं है की मैं आपको प्रर्दशित हर रचना को पढ़वा पाऊं लेकिन कोशिश करूँगा की आप को प्रदर्शित रचनाओं की एक छोटी लेकिन ईमानदार झलक दिखा सकूँ.
प्रदर्शनी में गुलज़ार साहेब की एक नज़्म है जो सबकी आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थी...कितने कम शब्दों में गुलज़ार साहेब क्या कुछ नहीं कह जाते ये देखिये इस नज़्म में :
कुछ बेवा आवाजें अक्सर
मस्जिद के पिछवाडे आकर
ईंटों की दीवारों से लगकर
पथराये कानो पे
अपने होंठ लगा कर
एक बूढे अल्लाह का मातम करती हैं
जो अपने आदम की सारी नस्लें
उनकी कोख में रख कर
खामोशी की कब्र में जाकर लेट गया है
मशहूर शायर निदा फाजली साहेब की एक ग़ज़ल भी यहाँ प्रदर्शित जिस के ऊपर के एक चित्र में ताज होटल की गुम्बद से निकलता धुआं दिखाई दे रहा है. निदा साहेब फरमाते हैं:
इंसान में हैवान यहाँ भी है वहां भी
अल्लाह निगेहबान यहाँ भी है वहां भी
खूंखार दरिंदों के फकत नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहां भी
हिंदू भी मजे में है मुसलमाँ भी मजे में
इन्सान परेशान यहाँ यहाँ भी है वहां भी
उठता है दिलो जां से धुआं दोनों तरफ़
ये मीरका दीवान यहाँ भी है वहां भी
श्री बाल स्वरुप राही और गोपाल दास नीरज जी की ग़ज़लों को एक साथ प्रदर्शित किया गया था जिसमें नीरज जी के ये दो शेर पढने वाला हमेशा के लिए अपने साथ ले जाता है:
प्यार की धरती अगर बन्दूक से बांटी गयी
एक मुर्दा शहर अपने दरमियाँ रह जायेगा
आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे
जब न ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह जाएगा
श्री उदय प्रकाश, अरुण कमल, तेजेंद्र शर्मा, दिव्या माथुर, संजय भारद्वाज, सुधा भारद्वाज जैसे अनेक ख्याति प्राप्त रचनाकारों के बीच स्थानीय युवा रचनाकार श्री राजेंद्र श्रीवास्तव ( 09371456630 ) जो पूना में बैंक आफ महाराष्ट में उच्च अधिकारी हैं की रचना "हत्यारों के प्रति" बहुत प्रभावित कर गयी:
आयीए
हम मुश्किल चीजों पर कुछ बात करें
बड़ा मुश्किल है
किसी निर्दोष व्यक्ति को मार देना
उस व्यक्ति को मारना तो और कठिन है
जो अपनी बूढी माँ
या फ़िर अपने बच्चों के लिए
रिजक(धन) कमा कर ले जा रहा हो
थोड़ा और मुश्किल है
उस दुल्हिन की हत्या करना
जिसके अधरों पर लाली, हाथों पर मेहँदी
देह में ऋतुओं की गंध
और आंखों में रतजगे का खुमार अभी बाकी हो !
सोच से भी परे तकलीफदेह काम है
मार देना उस बच्ची को
जिसके चेहरे पर बचपन की मासूमियत
और चमकीली हँसी
अभी पूरी तरह आकार भी न ले सकी हो
ऐसे बड़े सारे मुश्किल काम हैं
पर इन तमाम चीजों से भी
कठिन बर्बर और जघन्य कार्य है
किसी व्यक्ति को संवेदना शून्य कर देना
प्रेम, कोमलता, भय, करुणा जैसी
समस्त भावनाओं को सोख कर
उसके मन को उजाड़ रेगिस्तान बना देना
उसकी धमनियों में बहते सभी रसों को
निचोड़कर उनमें ज़हर भर देना
घिन नहीं आती तरस आता है तुम्हारे हाल पर
तुम्हारी ऐसी दुर्गति किसने की दयनीय हत्यारों
रोंगटे खड़े कर देने वाली इस रचना को जिसने पढ़ा वाह वा कर उठा और इसी वाह वा में शब्द-युद्ध का ये आयोजन अपने मकसद में कामयाब भी हुआ. आतंकवाद को एक दिन विदा होना ही होगा ये निश्चित है लेकिन इस की विदाई से पूर्व कितनो का खून बहेगा कह पाना मुश्किल है. संजय भारद्वाज जी
की इस विलक्षण रचना "ये आदमी मरता क्यूँ नहीं है"
से मैं अपनी इस पोस्ट का समापन करता हूँ.
हार कबूल करता क्यूँ नहीं है
ये आदमी मरता क्यूँ नहीं है
कई बार धमाकों से उड़ाया जाता है
गोलियों से परखच्चों में बदल दिया जाता है
ट्रेनों की छतों से खींच कर
नीचे पटक दिया जाता है
अमीर जादों की "डरंकन ड्राइविंग"
के जश्न में कुचल दिया जाता है.......
कभी दंगों की आग में
जला कर ख़ाक कर दिया जाता है
कहीं बाढ़ रहत के नाम पर
ठोकर दर ठोकर कत्ल कर दिया जाता है
कभी थाने में उल्टा लटकाकर
दम निकलने तक बेदम पीटा जाता है
कभी बराबरी जुर्रत में
घोडे के पीछे बाँध कर खींचा जाता है
सारी ताकतें चुक गयीं
मारते मारते ख़ुद थक गयीं
न अमरता ढोता कोई आत्मा है
न अश्वथामा न परमात्मा है
फ़िर भी जाने इसमें क्या भरा है
हजारों साल से सामने खड़ा है
मर मर के जी जाता है
सूखी जमीन से अंकुर सा फूट आता है
ख़त्म हो जाने से डरता क्यूँ नहीं है
ये आदमी मरता क्यूँ नहीं है
ये प्रदर्शनी मेरे ख्याल से हर भारतवासी को एक बार जरूर देखनी चाहिए, इसलिए इसे हर गावं शहर के स्कूलों कालेजों या सार्वजनिक स्थलों पर लगाना चाहिए. आप अपने शहर गावं स्कूल या कालेज में जहाँ चाहे इसके प्रदर्शन की व्यवस्था श्री संजय भारद्वाज जी से सीधे उनके मोबाईल 09890122603 पर बात कर के कर सकते हैं या उनके ई मेल sanjaybhardwaj@hotmail.com पर संपर्क कर सकते हैं लेकिन दोनों ही हालात में आप उनके इस अभूतपूर्व काम की मुक्त कंठ से प्रशंशा जरूर करें.
37 comments:
यही तो आश्चर्य है कि यह आदमी मरता क्यूँ नहीं , यह डरता क्यूँ नहीं .
नए लोगों के बारे में जानकर अच्छा लगा !
आज ही विजय जी के ब्लॉग से लौटा हूँ प्रदर्शनी देख कर ,मगर आपकी सजावट और भाव ने भाव बिभोर कर दिया ढेरो बधाई आपको नीरज जी के आप उसमे शामिल हुए ब्यास्ताता के वावजूद भी ढेरो बधाई आपको...
अर्श
वाह वाह नीरज जी, आप हमारे शहर भी हो आए और हम जबलपुर ब्लागर मीट के और अन्य कई कामों के चक्कर में उस दौरान जबलपुर में पाए गये। अगले माह फिर वापस। खैर कोई बात नहीं। आपने तो उस संजीदा प्रदर्शनी का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर ही दिया। उसमें सम्मिलित सभी व्यक्तियों की हम मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हैं। मालिक करे अगली मर्तबा जब आप पूना आवें तो हम वहाँ आपसे मिल सकें।
काफी मेहनत से आपने इस प्रदर्शनी का ब्योरा हम सभी तक पहुँचाया। आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
मैं नत-मस्त्क हूँ नीरज जी
pradarshni ke baare mein achcha vivran diya hai-gulzaar sahab ki nazm bahut nayaab lagi--
-naye rachnakaron se parichay hua.vijay ji ko un ki kavita ke pradarshani mein samillit hone par badhaayee.
प्रदर्शनी के बारे में इतना सुंदर विवरण देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
अजी आप ने तो हमे घर बेठे ही पुरी की पुरी प्रदर्शनी दिखा दी, आप का बहुत बहुत धन्यवाद
शब्दोँ से ही आखिर
सद्` बुध्धि लौट आए
तो कितना अच्छा हो !
ये दुनिया अगर भाईचारे और मैत्री से भर जाये,
तो कितना अच्छा हो !
काश , ऐसी प्रदर्शनियाँ,
पाकिस्तान के हर शहर मेँ भी
लग जाये
तो कितना अच्छा हो !
आप का आभार
इतनी सच्ची बात को
सरलता से हम तक पहुँचा दिया -
- लावण्या
पूरी मेहनत से प्रदर्शनी का माहौल तराशा है आपने, शब्द के जादूगर हैं आप!
बहुत गजब का विवरण दिया है. विजय जी के ब्लॉग पर पहले ही जान चुके थे आपके वहाँ पहुँचने के बारे में और आपकी तस्वीर भी देख चुके थे.
किन्तु यहाँ इतना विस्तृत समाचार एवं वर्णन..लगा कि खुद पहुँचे हुए हैं हम.
बहुत आभार/
वाकई सराहनीय कार्य............ आपको इस प्रस्तुति के लिये विशेष धन्यवाद..
"शब्द युद्ध- आतंक के विरुद्ध" पढ़ा. बहुत अच्छा लगा.
पर अच्छा क्या लगा, "शब्द युद्ध" या "आतंक".
आदमी हैवान भी है, शैतान भी है.
मरने वाला भी आदमी है और मरने वाला भी आदमी ही है.
मरने के लिए पाए जाने वाले, सामान्य जन पर है बहुसंख्यक.
मारने वाले कुटिल, स्वार्थी, धन लोलुप, शैतान और न जाने क्या- क्या कहे जाने लायक पर अल्पसंख्यक.
सरकारें , जो आती- जाती रहती हैं मतभेद पर, पर एक मत सदा रही अल्पसंख्यक आरक्षण पर और शायद इसी का नतीजा है कि "मारनेवाला" अल्पसंख्यक सरकार से प्रत्यक्ष न सही पर परोक्ष रूप से संरक्षण पा रहा है इसमें तनिक भी संदेह नही.
ह्यूमन राइट कमीशन भी आम आदमी के मरने पर कभी उतना सक्रिय नही पाया जाता, जितना मारने वालों के लिए.
मारने वाले आम आदमी के केश कौन लड़ना चाहेगा , क्योंकि उनसे मोटी रकम की अपेक्षा नही, पर आतंकी से मोटी रकम मिलने की उम्मीद और साथ ही साथ न देने पर मौत का भय भी.
सरकार सदा कहती रही "आतंकवाद अब और बर्दाश्त नही" पर आज तक वह सिर्फ़ और सिर्फ़ बर्दाश्त ही तो कर रही है.
आम आदमी एक असलहे का लाइसेंस प्राप्त करना चाहे तो एडियाँ घिस जायगी, तब भी शायद उसे असलहे रखने का लाइसेंस न मिले, पर आतंकी इतने गैर लाइसेंसी असलहे कैसे और किस प्रकार रख पते हैं, इस पर शायद कुछ कहने की जरूरत नही क्योंकि ये भी एक "तस्वीर" है, जो कहती कुछ नही पर समझा सब कुछ देती है.
समर्थ सरकार आतंक, भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती, भय, डर का मुकाबला करने में असमर्थ क्यों????????????????
हर समस्याओं का हल है, हर समस्याओं का "रूट काज" है, फिर भी समस्याएं हल होने के बजाय बढ़ती ही क्यों जा रही हैं???????????????????????
मनुष्य ,जिसके पास बुद्धि है, समस्याओं का निदान करने की, पर क्यों स्वयं को असमर्थ पा रहा है????????????
आमजन का बहुमत क्यों अल्पसंख्यक शैतानजन से हर बार हार स्वीकार कर लेता है????????????????
शायद ये भी है एक "प्रश्नयुद्ध" - "आतंक के विरुद्ध"
चन्द्र मोहन गुप्त
मैं इस post के लिए नीरज जी का आभारी हूँ. जिन्होंने अपनी इस पोस्ट के माध्यम से पूरे ब्लॉग जगत को उस exhibition की सैर करवा दी.
ये exhibition , क्षितिज के द्वारा पुणे में आयोजित की गई थी . श्री संजय भारद्वाज और श्रीमती सुधा भारद्वाजn ने अपने अथक प्रयासों द्वारा इस प्रयोजन को सार्थक किया ..इसकी पृष्ठभूमि २६/११ के आतंकी हमले पर है ... हमारे देश में आतंकी हमलो के द्वारा करीब १८००० नागरिक मारे जा चुके है जो की हमारे युद्धों में मारे जाने वाले सैनिको से कहीं ज्यादा है .. आख़िर बेक़सूर नागरिको का दोष क्या है , सिर्फ़ इतना की वो एक ऐसे देश के नागरिक है , जहाँ राजनैतिक स्वार्थ अपनी परमसीमा पर है ... जहाँ हमें आज़ादी की असली कीमत नही मालूम ... जहाँ ,हमारी संवेदानाएं मर चुकी है ...जहाँ ये देश पूरी तरह से banana country बन चुका है ..
मुझे एक कथा याद आती है .. जब प्रथ्विराज चौहान को उनके कवि ने जोश दिलाया था , एक और कथा है , जहाँ कृष्ण , अर्जुन को अपने शब्दों के द्बारा युद्ध के लिए प्रेरित करते है .. “शब्द और युद्ध permanent है लेकिन आतंक temporary है !” This makes us to wake up to the call of the nation .
नीरज जी ने कितना सार्थक लिखा है ...
"ये प्रदर्शनी मेरे ख्याल से हर भारतवासी को एक बार जरूर देखनी चाहिए, इसलिए इसे हर गावं शहर के स्कूलों कालेजों या सार्वजनिक स्थलों पर लगाना चाहिए" ..
ये सारे शब्द हमें कुछ कह रहे हैं....कह रहें है की जागो ,उठो ,इस देश के बारें में भी सोचो ..
मैं ये समझता हूँ की शब्दों के द्वारा ही हम इस सोये हुए और करीब करीब मरे हुए समाज में एक दुसरे युद्ध की भावना ला सकते है , ये युद्ध निश्चित तौर पर एक अच्छे देश के निर्माण के लिए होंगा..
आपका
विजय
नीरज जी इतना विस्तार से बताने के लिए धन्यवाद विजय जी अच्छा लिखते हैं
पूरी रचना अपने आप में विलक्षण है,विजय जी,और
भारद्वाज दम्पति को मेरा अभिवादन और गुलज़ार जी के
लिए क्या कहना..........हर चित्र कुछ कहते हैं ....
निदा फाजली,बालस्वरूप राही, सब बहुत अच्छा लगा .
युवा रचनाकार श्री राजेंद्र श्रीवास्तव को शुभकामनायें.........
दिलचस्प ओर खूबसूरती से आपने एक साथ इतने विलक्षण व्यक्तित्व को सहेजे शब्दों में समेट कर यहाँ प्रस्तुत किया .आपका आभार ......बाकि नज्म तो पढ़ी हुई थी पर आखिरी कविता अच्छी लगी. शुक्रिया .
नीरज जी
आपकी कलम पढ़ कर लगा हम भी इस प्रदर्शनी को साक्षात देख रहे हैं. विजय जी का लेख तो पहले पढ़ ही चुके थे, आपने उसको मुकम्मल कर दिया. संजय जी के अथक प्रयास बारे में भी जानकारी मिली..........नमन है मूक सिपाही को
बसंत पंचमी की बहुत बहुत बधाई
ye jang ka unmaad aur aatank bhagwan kare hamesha ke liye khatm ho jaye aur har su amam kayam ho.
ब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म का सर्वथा उचित प्रयोग कर रहे है आप नीरज जी,
बधाई और धन्यवाद आपका संदेश बहुत दूर-दूर तक जाए...
शुभ कामनाओ सहित,
-मंसूर अली हाशमी
नीरज जी सच कुछ लोग अलग तरह से अपनी कह रहे और अपना काम कर रहे है। इस प्रदर्शनी के बारें में विजय जी से पता चला था और फिर उनकी भी आई थी इस पर और आज आपकी पोस्ट। इस पोस्ट में दी हुई सभी रचनाएं बहुत सुन्दर है और बहुत गहरे तक छू रही है और आखिर वाली "ये आदमी मरता क्यूँ नहीं" ये जज्बा सच दिल में उतर गया। और आपकी प्रस्तुति भी अच्छी लगी।
Vijay ji ke blog par padha tha ur sahitya shilpi par bhi iski jaankari uplabdh hui
aapke blog par isko vistaar main padh kar aur achha laga
ab aatank khatam hona chhaiye
ऩीरज जी आपको किन शब्दों में धन्.वाद दूँ इतनी अच्छी प्रदर्शनी का सुंदर विवरण प्रस्तुत करने का । बहुत कमाल की कविताएँ हैं । अब विजय जी के ब्लॉग पर भी जाना होगा ।
"शब्द युद्ध- आतंक के विरुद्ध" का हमने भी रसास्वादन कर लिया आपकी बदौलत. आपका प्रस्तुतीकरण काफी विस्तृत और प्रभावशाली रहा. आभार.
hatyaron ke prati aur ye aadmi marta kyun nhi hain...........sach bahut hi samvedansheel vyatha hai ye . aaj insaan ka zameer itna mar gaya hai ki use kisi ki bhavnaon se ,uske jazbaat se koi fark nhi padta.har manushya itna samvedna shunya hota ja raha hai ......kyun ? isi ka jawab dhoondhna hoga
har shabd cheekh cheekh kar dard bayan kar raha hai magar wo nhi samajhte jinke hraday patthar se bhi kathor ho chuke hain.
aatank aatank aur aatank
jinka dharm ban chuka hai
wo kya samjhenge
ek ma ki mamta ko
ek beti ki vyatha ko
ek patni ke dard ko
ek baap ke farz ko
ek bete ke kartavya ko
ab inse na darna hoga
moonhtod jawab dena hoga
jab unke ghar jalenge
kya tab wo samjhenge
is aag ke dariya ko
jab wo bhi paar karenge
shayad tab janege wo
ek maa ki mamta ko
ek beti ki vyatha ko
ek patni ke dard ko
ek baap ke farz ko
ek bete ke kartva ko
itni achchi aur bhavpurna rachnayein padhwane ke liye shukriya
जानकर अच्छा लगा
कभी इस निरतरता से जुड़े.
महेन्द्र मिश्र "निरंतर"
जबलपुर
बाकी बातें बाद में पहले ये की भविष्य में कभी भी पुणे आना हो तो इस नाचीज को एक कॉल कर दिया जाय बाकी और कोई अनुरोध नहीं होगा इसका वादा. बस एक कॉल. (९०११०९०५३५).
हमें भी इस विलक्षण प्रदर्शनी तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद! यह जानकर अच्छा लगा की आतंक के ख़िलाफ़ जिससे जितना बन सकता है कर रहे हैं. संजय भारद्वाज की रचना दिल को छो गयी.
सूखी ज़मीन पर फूटते हुए
अंकुर के सामान सुंदर...आशा भरी पोस्ट.
================================
आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
कमाल की यात्रा थी यह. बस इसे पर्दर्शनी नही कह सकते. एक हकीकत है जो ज़िन्दगी जीने की कला सिखलाती है. आपने बड़ा काम किया जो हम जैसे दूर बैठे इंसानों को इंतना खूबसूरत सैर करवाया. शुक्रिया आपका.
bhoot achha post kiya apne bhardwaz ji ne to bahooot badhiya tarike se apne bat kahi h bahooot badhiya .......kuch sabdo n to jhakjor diya h , kash k vo log ese mahsoos kare jo eska karan h ....
बहुत ही अच्छा प्रयास है, आपने इसे हम से ईमानदारी के साथ बांटा, यह देख कर प्रसन्नता हुई।
Neeraj ji aapke marmik chitran ne sabdheen kr diya....!kai swal hain jinke jwab kisi k paas nahi ...naman hai un tmam rachnakaron ko jinhone apne sabdon k dwara logon k munon me kuch swal uthaye hain.....Guljar ji ki ye nazam behad pasand aayi....
कुछ बेवा आवाजें अक्सर
मस्जिद के पिछवाडे आकर
ईंटों की दीवारों से लगकर
पथराये कानो पे
अपने होंठ लगा कर
एक बूढे अल्लाह का मातम करती हैं
जो अपने आदम की सारी नस्लें
उनकी कोख में रख कर
खामोशी की कब्र में जाकर लेट गया है
वाह साहब! थोडा लम्बा ज़रूर लिखा आपने, पर पढ कर मज़ा आया.
ख़ास तौर से इस शेर के लिए:
हिंदू भी मजे में है मुसलमाँ भी मजे में
इन्सान परेशान यहाँ यहाँ भी है वहां भी.
शुक्रिया.
ज़रूर पढ़ें: हिन्द-युग्म: आनन्द बक्षी पर विशेष लेख
िस्स प्रदर्शनी को आप के शब्दों ने और रोचक बना दिया ह घर् बैठे 2 प्रदर्शनी दिखाने के लिय धन्यवाद विजयजी को बधाई
विजय जी के ब्लॉग पर इसकी जानकारी मिलगई थी जहां तस्वीरों में आपको भी पहचान लिया था। आपका यह विस्तार से लिखा हुआ वर्णन सहेजने के काबिल है।
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