Saturday, May 3, 2008

नरक यात्रा


पिछले दिनों मुम्बई में अपने मित्र सूरज प्रकाश जी के घर जाना हुआ. उनका घर घर नहीं पुस्तकालय है. साहित्य से संबंधित इतनी किताबें हैं उनके यहाँ की आँखें फटी की फटी रह जाती हैं.वहीं से अपने प्रिये लेखक श्री ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास "नरक यात्रा" उठा लाया. सरकारी हस्पताल में घटने वाली सिर्फ़ एक दिन की घटनाओं का ऐसा वर्णन है उसमें की जिसे हर डाक्टर, मरीज़ और भविष्य में होने वाले मरीजों को ज़रूर पढ़ना चाहिए. याने हम सब को पढ़ना चाहिए.हास्य और व्यंग का संगम कहीं आप को ठहाके लगाने को मजबूर करता है तो कहीं आंखों में पानी ले आता है.
मैंने पढ़ते हुए सोचा की अपने पाठकों को जो मेरी ग़ज़लों के ओवर डोज से खट्टी डकारें ले रहें हैं इसे चूरन की भांति परोस दूँ. तो पढ़ें इस उपन्यास में आए एक प्रसंग की छोटी सी झलक:
प्रसंग है एक वरिष्ट डॉक्टर का जनरल वार्ड में दौरे का :-
" ऐसे डा. चौबे राउंड पर निकले थे जैसे कोई शहंशाह रियासत में तफरीह को निकले या हमारा प्रधानमंत्री लक्षद्वीप की तरफ़ चले. जैसे कोई सुबह की सैर को निकले या अफीम खाने वाला अफीम की दूकान की तरफ़ चले. जैसे कोई मोर जंगल में नाचने को निकले या भैंस मड़ियाने चले या मंत्री सचिवालय की तरफ़ या थानेदार अलमारी की तरफ़ दारू की बाटली निकालने.
वैसे ही निरर्थक, अर्थहीन,उदेश्यहीन तथा फल विहीन कार्य की तरफ़ था उनका राउंड. एक तफरीह सी कार्यवाही . एक हरम खोरी सी कुछ बात. समय काटने के लिए जैसे आदमी मूंगफली खाता है, वैसी टाइम पास कार्यवाही. मुंह दिखाई की रस्म. रस्म अदायगी की मजबूरी में राउंड लेना पढता है, सो वे जा रहे थे, वरना सारा काम जूनियर डाक्टर चला ही रहे थे. सभी मरीजों को मलेरिया ही निकलता था तथा राउंड में ख़राब होने वाले समय में वे प्रईवेट मरीजों को देख सकते थे जो फीस देने के लिए रिरियाते घूम रहे थे. बिना पैसे लिए मुफ्त में राउंड लेने में वैसे भी उनकी जान पर बनती थी......
डा.चौबे राउंड पर थे.
बड़े हस्पतालों के विषय में जो लोग थोड़ा बहुत भी जानते हैं, वे राउंड नाम की चीज़ से परिचित होंगे. इसके बिना चारा भी नहीं. राउंड एक समारोह है, जिसके अंतर्गत एक बड़े डाक्टर के साथ पाँच दस जूनियर डाक्टर हर मरीज़ की जांच करके, उसकी मृत्यु क्यों नहीं हो रही, या यह ठीक कैसे हो गया इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं.
राउंड वास्तव में एक परिक्रमा है दो सो गज की बाधा दौड़ है, बड़े साहेब की झांकी है, जिसे मरीजों के बीच घुमा कर चाय की प्यालियों में विसर्जित कर दिया जाता है. राउंड का मतलब है गोल, चक्राकार.कुछ गोल है, गोलमाल है. राउंड एक चक्र है, चक्कर है, घनचक्कर है. राउंड वास्तव में आध्यात्म की चीज़ है, जितना इसकी तह में जाओगे, वैराग्य की तरफ़ झुकते जाओगे. राउंड का अर्थ है गोल, शून्य, ना कुछ. शून्य है सब.कोई कीमत नहीं, पर फ़िर भी हस्पताल के गणित की एक आवश्यक संख्या.
चौबे जी का राउंड लेने का अपना तरीका था, जिसे भारत सरकार ने मौलिक आविष्कार होने के बावजूद अभी तक कोई पुरस्कार नहीं दिया था. वे मरीज़ से लगभग तीन फिट की दूरी कायम रखकर उसकी जांच किया करते थे. वे दूर से ही पहले नंबर के बेड वाले मरीज़ से पूछते की कहो भाई, क्या तकलीफ है, और जब तक वो बतलाता की पेट में दर्द है, तब तक चौबे जी पाँचवें मरीज़ को तीन फिट की दूरी कायम रखते हुए बतला रहे होते की उसकी पेचिश का राज मलेरिया है.
डा. चौबे भागते हुए राउंड लेते. मरीज़ की बात सुनने का समय उनके पास नहीं था. वे मरीज़ को देखने में इतने व्यस्त थे की मरीज़ देखने का समय उनके पास नहीं था. वे एक पलंग से दूसरे पलंग तक तेज़ दौड़ते, फ़िर बिस्तर पर छलांग मारकर बाधा क्रास करते और फ़िर दौड़ते. वे चिकित्सा विज्ञान की पी.टी. उषा थे.वे मरीजों के समुन्द्र के ऊपर उड़ने वाले पवन पुत्र की तरह आते. वे सट से आते और फट से वार्ड से निकल जाते.
बागला देश के तूफ़ान की तरह आते. पहले मरीज़ के पास ही मानो रेस की सिटी सी बजती और डाक्टरों का पूरा काफिला दौड़ता हुआ मरीजों के पास से, सामने से, पलंग के नीचे से, खटिया के ऊपर से निकल जाता. एक दम भगदड़ सी मच जाती. सभी डा.चौबे के पीछे भागते, दौड़ते, उड़ते तथा घिसटते थे.
डा.चौबे के राउंड का काफिला आज भी हांफता हुआ उसी कमर दर्द के मरीज़ के पास रुक गया था. डा. चौबे ने गांधीजी जैसी निश्छल मुस्कराहट अपने चेहरे पर बिछा कर मरीज़ से लगभग लिपट जाने वाली आत्मीयता के भाव से विभोर होकर पूछा, "कैसा है?"ठीक नहीं है" मरीज़ ने जवाब दिया.
"कमर का दर्द कैसा है?"
"ठीक नहीं है."
"जो ठीक नहीं है, वो कमर का दर्द कैसा है?"
"ठीक नहीं है."
"जो कभी ठीक नहीं होने वाला, वो दर्द कैसा है?"
"ठीक नहीं है"...........
चौबे जी हंसने लगे. ऐसे स्पष्ट वादी मरीज़ उन्हें भाते थे. उन्होंने प्यार से उसकी कमर में एक धौल जमाई तथा लात मारी. उसके बाद मरीज़ का दर्द ठीक हो गया. इलाज करने का चौबे जी का ये अपना मौलिक तरीका था. इसके लिए भी सरकार ने उनको कोई पुरस्कार नहीं दिया था. परन्तु डा.चौबे सरकार के प्रोत्साहन की परवाह ना करते हुए लातें मार मार कर गरीबों का इलाज करते जा रहे थे.वर्षों से, वे गरीब मरीजों को लात मार कर वार्ड से बाहर करते रहे थे. वे अगर डाक्टर ना होते तो जनता के बीच "लात मारूआ बाबा" के रूप में मशहूर होते और शायद जयादा पैसे कमाते.
इसी बीच एक भृत्य ने धीरे से आकर डा.चौबे को कुछ कहा और खड़ा हो गया.डा.चौबे ने कहा "राजाराम तुम साहेब को कमरे में बिठा दो और ठंडा पिलाओ"
राजाराम ने बताया की उसने उन्हे कमरे में बिठा दिया है और ठंडा देकर ही यहाँ आया है.
चौबे जी ने उसे प्यार से देखकर सबको कहा "स्मार्टनेस कोई राजाराम से सीखे, गुड." इसके बाद उन्होंने डाक्टरों को बताया की मिनिस्टर साहेब के छोटे भाई कमरे में बैठे हैं और मैं उनसे निपटकर आता हूँ.
राउंड को इसतरह बीच में ही मरीज़ की तरह बेमौत खत्म करके डा.चौबे और भी तेज़ क़दमों से वार्ड के बाहर निकल गए. जूनियर डाक्टरों ने चैन की साँस ली और सिगरेट निकलकर एक दूसरे को गालियाँ देते, फोश मजाक करते, ढोल धप्पा करते चाय की दूकान की तरफ निकल गए.
वार्ड अब युद्ध के बाद पानीपत के मैदान की भांति अफरा तफरी भरा था.
( नरक यात्रा ,राजकमल प्रकाशन से १९९४ में प्रकाशित हुई थी, इसका दूसरा संस्करण १९९८ में छापा था, मूल्य १५० रुपये)

11 comments:

Arun Arora said...

बधाइ हो जी , वैसे नरक हर कही मिल जाते है
लेकिन आप अकेले अकेले घूम कर आये अच्छी बात नही है. किसी वी आई पी को ले जाना था :)

Sanjeet Tripathi said...

धांसू है न केवल नरक यात्रा बल्कि बारामासी और मरीचिका भी!!

Shiv said...

शानदार!

भइया, ज्ञान चतुर्वेदी जी आपके प्रिय व्यंग लेखक रहे हैं. पढ़कर पता चलता है वे इतने प्रिय क्यों हैं....बहुत खूब.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

नीरज जी,
ज्ञान चतुर्वेदी जी मेरे
पसंदीदा व्यंग्य-लेखक हैं.
लिहाज़ा ये पोस्ट भी मन को छू गई.
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कभी ठीक न होने वाले दर्द का
ऐसा ठीक-सटीक बयान
डाक्टर साहब ही कर सकते हैं.
मुझे उनसे यही कहना है .....
मरीज़ जानकर हमको न तुम भुला देना !
तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना !!
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शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन

Anonymous said...

भाई !
हाल ही में सफ़र वाले अजित जी ने
अपने लिए नरक के बंदोबस्त के बारे में बताया
और आज आपने नरक यात्रा ही करा दी !
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अद्भुत संयोग!
.......लेकिन दोनों अपनी अपनी जगह बेमिसाल !
नरकनामा भी लिखा जाए....डाक्टर साहब !!
आपकी क़लम ये बखूबी कर सकती है .
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सादर
डा.चंद्रकुमार जैन

Udan Tashtari said...

ज्ञान जी की लेखनी की तो बात ही निराली है. अभी कुछ रोज पहले ही बारामासी पढ़ी. अद्भुत शैली है. अब यह पुस्तक भी जुगाड़ना पड़ेगी. यहाँ तो मिल नहीं पाती. :(

Gyan Dutt Pandey said...

वाह! सभी फील्ड में लातमारुआ बाबा हैं। हम तो सोचते थे कि नेताई और धर्म में ही दखल है इनकी। मेनेजमेण्ट और इन्जीनियरिंग में भी खोजना चाहिये बाबा लातमारूदेव को! :)

rakhshanda said...

दिल को छू गई आपकी नरक यात्रा...

समय चक्र said...

यहाँ नरक है ऐसे लोग यमराज होते है मानवीयता संवेदनाएं रह कहाँ गई है

समय चक्र said...

यहाँ नरक है ऐसे लोग यमराज होते है मानवीयता संवेदनाएं रह कहाँ गई है

सागर said...

अहो अहो ! जय हो ! घन घोर जय हो ! आज आपने दिन बना दिया. बहुत शुक्रिया :)