Monday, February 26, 2018

किताबों की दुनिया - 166

किसी तालाब की भी हैसियत कुछ कम नहीं होती
समंदर में कमल के फूल पैदा हो नहीं सकते 

उसूलों में कभी होता है इतना वज़्न जिनको हम 
ज़ियादा देर काँधों पर मुसल्सल ढो नहीं सकते 

बड़ा होने पे ये दिक्कत हमारे सामने आयी 
किसी के सामने खुलकर कभी अब रो नहीं सकते 

हमारी गैलेक्सी में जो तारे दिखाई देते हैं हम को उन्हीं का नाम पता मालूम है लेकिन हकीकत में ऐसी न जाने कितनी गैलेक्सियां हैं और अनगिनत तारे हैं जो हमें नज़र आने वाले तारों से भी बहुत अधिक चमकदार हैं, क्यूंकि वो हमें दिखाई नहीं देते इसलिए हमें उनके बारे में पता नहीं होता। हमारे आज के शायर भी ,खास तौर पर मेरे लिए , किसी दूर दराज़ की गैलेक्सी के उस तारे के समान हैं जिनका पता और चमक मेरे लिए अनजान ही थी। उनकी किताब पढ़ कर कसम से मजा आ गया।

तेरी खुशबू मुझे घेरे हुए अब तक नहीं होती 
तो काँटों से भरा अब तक मैं जंगल हो गया होता 

नहीं होता मुहब्बत के शजर की शाख से टूटा 
तो सूखा फूल इक रस से भरा फल हो गया होता 

उलझने में बहुत मश्ग़ूल थीं सुलझी हुई चीजें 
अगर मैं भी उलझ जाता तो पागल हो गया होता 

ये शायरी की ऐसी किताब है जिसमें किसी भी पेज पर या किसी भी शेर में आये मुश्किल लफ़्ज़ों के मानी उस पेज के नीचे ,जैसा की आम तौर पर दिखाई देते हैं,नज़र नहीं आये। आप सोचेंगे कि ये तो कोई अच्छी बात नहीं है ,इसका मतलब लफ़्ज़ों के मानी खोजने के लिए तो फिर लुग़त का सहारा लेना पड़ेगा ? जी नहीं ऐसी बात नहीं है। इस किताब के किसी शेर में ऐसा कोई लफ़्ज़ है ही नहीं जिसका मतलब ढूंढने के लिए आपको परेशां होना पड़े। दरअसल ये किताब न उर्दू में है और न ही हिंदी में इस किताब की ग़ज़लों की ज़बान हिन्दुस्तानी है जो सहज ही सबकी समझ में आ जाती है।मेरी नज़र में ये इस किताब की बहुत बड़ी खूबी है।

बहुत कुछ पा लिया लेकिन अधूरापन नहीं भरता
किसी से ऊब जाते हैं, किसी से मन नहीं भरता 

परिंदों, तितलियों, फूलों सभी का है कोई मक़्सद 
ख़ुदा कुदरत में रंगो-बू यूँ ही रस्मन नहीं भरता 

कभी भी लूटने वालों के आगे गिड़गिड़ाना मत 
दया की भीख से झोली कभी रहज़न नहीं भरता 

आज हम कृष्ण सुकुमार उर्फ़ कृष्ण कुमार त्यागी जिनका जन्म 15 अक्टूबर 1954 को रुड़की में हुआ था की अयन प्रकाशन द्वारा ग़ज़लों की किताब "सराबों में सफ़र करते हुए " का जिक्र करेंगे जिसमें सुकुमार साहब की अलग अंदाज़ और तेवर वाली 102 ग़ज़लों का संकलन किया गया है। मैं खुशनसीब हूँ कि सुकुमार साहब ने मुझे अपनी किताब पढ़ने को भेजी। सुकुमार साहब के बारे में हम आगे बात करेंगे ,अभी तो आप उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें :


कभी इक ज़ख्म दे जाता है ऐसी कैफ़ियत हमको 
हमें लगता है गोया लाज़िमी हो मुस्कुराना भी 

पड़े हैं आज भी महफूज़ फुर्सत के वो सारे पल 
कभी जिनको तेरे ही साथ चाहा था बिताना भी

सुखा देता है दरिया को किसी की प्यास का सपना 
कभी इक प्यास से मुम्किन है इक दरिया बहाना भी 

सुकुमार साहब केवल ग़ज़लें ही नहीं कहते उनके उपन्यास " इतिसिद्धम" जो 1988 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था को "प्रेम चंद महेश " सम्मान मिल चुका है। इसके अलावा भी उनके दो उपन्यास "हम दोपाये हैं " और "आकाश मेरा भी " कहानी संग्रह " सूखे तालाब की मछलियां " एवं उजले रंग मैले रंग " के साथ साथ ग़ज़ल संग्रह "पानी की पगडण्डी" बहुत चर्चित हो चुके हैं। लेखन की लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले कृष्ण जी की रचनाएँ देश के विभिन्न प्रदेशों से प्रकाशित होने वाले सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं ,छपती रहती हैं।

उसे पक्का यकीं है जो कहूंगा सच कहूंगा मैं 
मुझे अपनी इसी झूठी अदा से डर भी लगता है 

तुझे आंखों में सपनों की जगह रख कर भी सोया हूँ
मगर अपना समझने की ख़ता से डर भी लगता है 

बड़ी ही मुफ़लसी जिनके बिना महसूस होती है 
मुझे उस अपनेपन, यारी, वफ़ा से डर भी लगता है 

इस किताब की भूमिका में कृष्ण जी ने लिखा है कि " ज़िन्दगी प्यास का एक सफ़र है और यह सफ़र हमेशा किसी उम्मीद पर टिका है। एक अबूझ प्यास से सराबोर इस ज़िन्दगी और इसके एक मात्र आख़िरी सच यानी मौत के बारे में ख़्याल आते रहते हैं तो उलझन में पड़ जाता हूँ. कभी कभी प्यास खुद ही दरिया बन जाती है और कभी कभी यह सब कुछ गुम हुआ सा लगने लगता है और फिर ये प्यास बारहा मन को न जाने किन किन सराबों में भटकती रहती है। प्यास का यही सफ़र सराबों से गुज़रता रहा है- यानी प्यास बरकरार है। मरुस्थली रेत के चमकते कण पानी का भ्र्म पैदा करते हुए एक प्यासे को मुसल्सल उसी तरफ बढ़ते रहने को मज़बूर करते हैं। एक अनसुलझी और अनजानी इस सफर को अभिव्यक्ति देने के लिए ग़ज़ल से बेहतर मेरे पास कुछ भी नहीं है।

कभी शिद्दत से आती है मुझे जब याद उसकी तो 
किसी बुझते दिए जैसा ज़रा सा टिमटिमाता हूँ 

ग़ज़ल कहने की कोशिश में कभी ऐसा भी होता है 
मैं खुद को तोड़ लेता हूँ मैं खुद को फिर बनाता हूँ 

मेरी मज़बूरियां मेरे उसूलों से हैं टकराती 
जहाँ ये सर उठाना था, वहां ये सर झुकाता हूँ 

खुद को ग़ज़ल का विद्यार्थी मानने वाले सुकुमार साहब ने उस वक्त से काव्य की इस अद्भुत विधा के प्रति कशिश महसूस की जिस वक्त कि उन्हें ग़ज़ल का नाम तक नहीं पता था , बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन है बिलकुल सच। ग़ज़ल के प्रति इस लगाव के चलते उन्होंने उर्दू लिखना पढ़ना सीखा और फिर अरूज़ का अध्यन किया क्यूंकि बिना छंद शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किये ग़ज़ल नहीं कही जा सकती। ग़ज़ल की कहन संवारने में उनकी जनाब तुफैल चतुर्वेदी साहब ने बहुत मदद की। इसके अलावा ग़ज़ल लेखन की जानकारी उन्हें जनाब नासिर अली 'नदीम' और दरवेश भारती साहब द्वारा प्रकाशित लघु पत्रिका "ग़ज़ल के बहाने" के प्रत्येक अंक से मिली।

नतीजा प्यास की हद से गुज़र जाने का निकला ये 
उठीं फिर जिस तरफ नज़रें उधर दरिया निकल आया 

मज़ा आया तो फिर इतना मज़ा आया मुसीबत में 
ग़मों के साथ अपनेपन का इक रिश्ता निकल आया 

हटाई आईने से धूल की परतें पुरानी जब 
गुज़श्ता वक़्त की ख़ुश्बू का इक चेहरा निकल आया 

अंतरजाल की लगभग सभी साहित्यिक साइट पर सुकुमार साहब का कलाम आप आसानी से पढ़ सकते हैं। उर्दू की सबसे बड़ी साइट "रेख़्ता " पर भी उनकी ग़ज़लें उपलब्ब्ध हैं. उन्हें ढेरो सम्मान और पुरूस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें उत्तर प्रदेश अमन कमेटी, हरिद्वार द्वारा “सृजन सम्मान” 1994,साहित्यिक संस्था ”समन्वय,“ सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान” 1994,मध्य प्रदेश पत्र लेखक मंच, “बैतूल द्वारा काव्य कर्ण सम्मान” 2000,साहित्यिक सँस्था "समन्वय," सहारनपुर द्वारा “सृजन सम्मान” 2006 उल्लेखनीय हैं। सुकुमार साहब "भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान", रुड़की में बरसों कार्य करने के पश्चात् अब सेवा निवृत हो कर अपना समय लेखन में व्यतीत कर रहे हैं। .
वो मेरे साथ था दिन-रात अपने काम की खातिर 
ग़लतफ़हमी में उससे मैं कोई रिश्ता समझ बैठा 

ज़रा सी साफगोई जान की दुश्मन बनी मेरी 
उसे नंगा कहा तो वो मुझे ख़तरा समझ बैठा 

वो पत्थर बन के मेरी सम्त इस अंदाज़ से उछला 
कि जैसे टूट जाऊंगा, मुझे शीशा समझ बैठा 

इस किताब की प्राप्ति के लिए आप अयन प्रकाशन के भूपाल सूद साहब जो खुद भी शायरी की समझ रखते हैं ,से उनके मोबाईल 9818988613 पर संपर्क करें। भूपाल साहब से बात करना भी किसी दिलचस्प अनुभव से रूबरू होने जैसा है। मेरी आप सब से गुज़ारिश है की सुकुमार साहब को भी आप उनके मोबाईल न 9897336369 पर बात कर इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए दिल से बधाई दें। आज के दौर में खरपतवार की तरह कही जा रही बेशुमार ग़ज़लों की भीड़ में सुकुमार साहब की किताब का मिलना यूँ है जैसे जैसे रेगिस्तान में नखलिस्तान का मिल जाना। कवर पेज पर बेहद खूबसूरत पेंटिंग, जिसे उनके होनहार बेटे "पराग त्यागी " ने बनाया है से सजी किताब "सराबों में सफ़र करते हुए" की सभी ग़ज़लें ऐसी हैं कि उन्हें यहाँ पढ़वाया जाय लेकिन मेरी मज़बूरी है कि मैं चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाउँगा। मैंने इस किताब के पन्ने पलटते हुए रेंडम ग़ज़लों से कुछ शेर आपके लिए पेश किये हैं। आपसे विदा लेने से पहले उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :
 पिघलता एक दरिया था मगर बहता न था सचमुच
मेरी आँखों में ठहरा था मगर ठहरा न था सचमुच

मैं आड़े वक़्त बस गाहे-ब-गाहे झाँक आता था 
ख़ुदा के घर जहाँ कोई ख़ुदा रहता न था सचमुच 

हमें जिसके न होने की ग़लतफ़हमी रही अब तक 
वो केवल इक मुखौटा था, तेरा चेहरा न था सचमुच

Monday, February 19, 2018

किताबों की दुनिया -165

भूलना मैं चाहता तो किस क़दर आसान था 
याद रखने में तुझे, ये सारी दुश्वारी हुई 

तू अगर रूठा रहा मुझसे तो हैरत क्या करूँ 
इस जहाँ में किससे तेरी नाज़ बरदारी हुई 

सोचता हूँ एक पल में हो गया कैसे तमाम 
वो सफ़र जिसके लिए इक उम्र तैय्यारी हुई

"आधुनिकता के जोश में हमारी शायरी, ख़ास तौर पर गज़ल ने समाजी सरोकारों से जो दूरी बना ली थी उसे अपनी ग़ज़लों में इस रिश्ते को दोबारा बहाल करने का सराहनीय प्रयास इन्होने किया है " हमारे आज के शायर और उनकी शायरी के बारे में उस्ताद शायर शहरयार आगे लिखते हैं कि "हकीकत चाहे जो भी हो, शाइर और अदीब आज भी इस खुशफ़हमीमें मुब्तिला हैं कि वो अपनी रचनात्मकता के द्वारा इस दुनिया को बदसूरत होने से बचा सकते हैं और समाज में पाई जाने वाली असमानताओं को दूर कर सकते हैं, इनकी भी शायरी का एक बड़ा हिस्सा इसी खुशफ़हमी का नतीजा मालूम होता है "

ये हमनशीन मेरे खुश हैं कि ग़मज़दा हैं
मातम तो कर रहे हैं बाछें खिली हुई हैं 
हमनशीन =साथी 

देखा है तुमने ऐसा मंज़र कभी कहीं पर 
वीरान घर पड़े हैं सड़कें सजी हुई हैं 

साँसों की क़ैद में हूँ, अक्सर ये सोचता हूँ 
ये ज़िन्दगी है या फिर मुश्कें कसी हुई हैं 

अब क्या है उसके दिल में अंदाज़ा कर रहा हूँ 
आँखें चमक रही हैं पलकें झुकी हुई हैं 

शहरयार साहब जिस शायर की बात कर रहे थे वो हैं 27 मई 1957 को मेरठ में जन्में जनाब "उबैद सिद्दीक़ी", साहब जिनकी डॉल्फिन बुक्स नई दिल्ली द्वारा 2011 में प्रकाशित किताब "रंग हवा में फैल रहा है" का ज़िक्र करेंगे।उबैद साहब के बारे में जो जानकारी उनकी इस किताब और उनके फेसबुक एकाउंट से प्राप्त हुई है उसी को आपके साथ साझा कर रहा हूँ। दरअसल उबैद साहब के बारे में गूगल महोदय ने भी चुप्पी अख़्तियार कर रखी है, कारण बहुत साफ़ सा है , उबैद साहब अपने में मस्त और भीड़ से अलग रहने वाले लोगों में से हैं। शायरी वो छपवाने और प्रसारित करने के लिए नहीं करते ,शायरी उनके लिए इबादत की तरह है जो उनके और उनके आराध्य के बीच घटित होती है।


मौसम के बदलने से बदल जाता है मंज़र 
दुनिया में कोई चीज़ पुरानी नहीं होती 

उसको भी हुनर आ गया आँखों से सुखन का 
हमसे भी कोई बात ज़बानी नहीं होती 

हम भी कोई शै उससे छुपा लेते हैं अक्सर 
उसको भी कोई बात बतानी नहीं होती 

मजे की बात है कि उनके निकटतम रहने वाले लोगों भी ये पता नहीं चला की वो एक बेहतरीन शायर हैं। उन्होंने शायरी कभी शायरी करनी है ये सोच कर नहीं की। उनकी पहली ग़ज़ल सन 1969 में 'बीसवीं सदी' रिसाले में प्रकाशित हुई। उसके बाद वो कभी कभार ग़ज़लें कहते रहे और ये सिलसिला 1997 तक चला। आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन ये सच है कि सन 1997 से सन 2009 याने 13 बरस तक उन्होंने एक भी ग़ज़ल नहीं कही। उन्हें लगने लगा था कि वो कभी दुबारा शेर नहीं कह पाएंगे क्यूंकि भरपूर कोशिशों के बावजूद उनकी तबियत शेर कहने की और अग्रसर नहीं होती थी। जो लोग शायरी करते हैं वो जानते हैं कि अच्छी ग़ज़ल दिमाग़ पर जोर देने से नहीं कही जा सकती। यही कारण है कि उबैद साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह ,जिसकी हम बात कर रहे हैं ,उनके लेखन के आगाज़ के 25 साल बाद मंज़र-ऐ-आम पर आया है।

आग बुझी तो लोग ख़ुशी से नाचने गाने लगे 
मैंने ठंडी राख कुरेदी और शरर देखा 

इक मैं हूँ कि जिसने देखे जीते जागते लोग 
बाकी सारे सय्याहों ने एक खंडर देखा 
सय्याहों =पर्यटक 

सारी खुशियां कैसे अचानक बेमानी सी लगीं 
दिल के साथ ग़मों को जब से शीरो-शकर देखा 
शीरो-शकर =दूध और चीनी की तरह मिला हुआ

शुरुआती दौर में उबैद साहब की शायरी को संवारने में जनाब "हफ़ीज़ मेरठी" मरहूम जो उसी फैज़े-आम इंटर कॉलेज में क्लर्क थे जहाँ से उन्होंने बारहवीं क्लास तक तालीम हासिल की थी ,बहुत मदद की। हफ़ीज़ साहब मुशायरों के मकबूल शायर होने के बावजूद अदबी क़द्रो-क़ीमत की संजीदा ग़ज़ल कहते थे और शेर कहने के शास्त्र से बखूबी परिचित थे। एक और बुजुर्ग शायर जनाब "अंजुम जमाली" जो मेरठ के वाहिद अदीब और होम्योपैथ डॉक्टर भी थे से भी उबैद साहब ने शायरी की बारीकियां सीखीं। उनके क्लिनिक पर इलाहबाद से प्रकाशित उर्दू की मशहूर साहित्यिक पत्रिका "शब ख़ून" को उबैद साहब ने संजीदगी से पढ़ना शुरू किया।

दुनिया ही नहीं दिल को भी इस शहरे-हवस में 
मनमानी किसी हाल में करने नहीं देना 

महसूस नहीं होगी मसीहा की ज़रूरत 
ये ज़ख्म ही ऐसा है कि भरने नहीं देना

मुश्किल है मगर काम ये करना ही पड़ेगा 
इन्सान को इन्सान से डरने नहीं देना 

उनकी शायरी में उल्लेखनीय मोड़ तब आया जब उन्होंने ग्रेजुएशन के लिए सन 1975 में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। वहां नौजवान शायरों और अदीबों का बहुत बड़ा हलका मौजूद था। उन नौजवानों में फ़रहत एहसास , महताब हैदर नकवी, असद बदायूँनी , जावेद हबीब ,आशुफ़्ता चंगेज़ी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। फ़रहत एहसास साहब से दोस्ती होने के बाद ही उनको शहरयार साहब तक रसाई हासिल हुई. अलीगढ से ग्रेजुएशन के बाद उबैद साहब ने पी एच डी करने के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया के उर्दू विभाग में दाख़िला लिया जिसके जनाब गोपी चंद नारंग विभागाध्यक्ष थे उन्हीं के निर्देशन में उन्हें मीराजी पर रिसर्च करनी थी लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उबैद साहब ने अध्यापन के बजाय पत्रकारिता को अपना पेशा बनाने का फैसला किया और ऑल इण्डिया रेडिओ में नौकरी कर ली।

ये तो होना ही था इक दिन और ऐसा ही हुआ
ज़ुल्म जब हद से बढ़ा तो सामना करने लगे 

नींद आएगी तो ख़्वाबों के सफ़ीने लाएगी
ख़ौफ़ के मारे हुए हम रतजगा करने लगे 
सफ़ीने=नाव

दिल के मसरफ़ और भी हैं रंज करने के सिवा 
हम उसे किस काम में ये मुब्तला करने लगे 
मसरफ़=काम, व्यस्तता

ये नौकरी उन्हें रेडिओ कश्मीर ले गयी जहाँ श्रीनगर में उन्होंने छै साल गुज़ारे। श्रीनगर प्रवास के इस दौरान उन्होंने अच्छी खासी शायरी की फिर दो साल के लिए उनका ट्रांसफर लन्दन कर दिया गया। कश्मीर से लंदन ट्रांसफर के दौरान उनकी वो डायरियां जिनमें ग़ज़लें दर्ज़ थी गुम हो गयीं। इस तरह उनका बहुत कुछ लिखा मंज़र-ऐ-आम पर आने से रह गया। ऑल रेडिओ में दो साल लन्दन में गुज़ारने के बाद बी. बी. सी. वालों ने उन्हें और दो साल के वहाँ रोक लिया। जब ऑल इण्डिया रेडिओ ने उन्हें वापस इंडिया बुलाना चाहा तो वो इस्तीफ़ा दे कर लन्दन में बी.बी. सी की उर्दू सर्विस में काम करने लगे। इस दौरान उन्हें लन्दन में अक्सर होने वाले उर्दू मुशायरों और साहित्यिक गतिविधियों में हिस्सा लेने का खूब मौका मिला।

तभी तो मुस्कुराते फिर रहे हो 
तुम्हें जीने की आदत हो गयी है 

मुझे चेहरा बदलना पड़ गया है 
यहाँ सूरत ही सीरत हो गयी है 

तेरे सब चाहने वाले ख़फ़ा हैं
तुझे खुद से मोहब्बत हो गयी है 

उबैद साहब 2004 में दिल्ली वापस लौट आये और जामिया मिलिया इस्लामिया के मॉस कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर में प्रोफ़ेसर की हैसियत से पढ़ाने लगे। उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "रंग हवा में फ़ैल रहा है " सबसे पहले सन 2010 में उर्दू लिपि में प्रकाशित हुई थी। एक साल बाद उसका हिंदी में जनाब रहमान मुसव्विर द्वारा लिप्यांतर किया संस्करण प्रकाशित हुआ। उबैद साहब मानते हैं कि उन साहित्य प्रेमियों का तबका बहुत बड़ा है जो उर्दू शायरी से मोहब्बत तो करते हैं लेकिन उर्दू लिपि पढ़ लिख नहीं सकते। ऐसे प्रेमियों के लिए ही है ये किताब जो दो हिस्सों में विभक्त है पहले हिस्से में वो ग़ज़लें हैं जो सन 2009 और 2010 याने लगभग एक साल के वक़्फ़े में कही गयीं और दूसरे भाग में सन 1975 से 1997 के बीच कही ग़ज़लें हैं।

अमीरे-शहर सुनता ही नहीं है 
उसे आँखें दिखा कर देखते हैं 

ये शाखें फिर भी क्या ऐसी लगेंगी 
परिंदों को उड़ा कर देखते हैं

बहुत मुमकिन है रोना सीख जाओ 
तुम्हें हंसना सिखा कर देखते हैं 

डॉ. महताब हैदर नक़वी साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि "अपने आप में सिमटी और सिकुड़ी हुई उर्दू की आधुनिक शायरी के विपरीत उबैद की शायरी अपने अलावा बाहर की दुनिया की तरफ़ झांकती हुई भी दिखाई देती है। ये आदमी की तन्हाई के क्षणों में गाया जाने वाला ऐसा नग़्मा है जो हर उस शख्स से बात करना चाहता है जिसके पास कुछ ख़्वाब हैं और दुनिया की मृगतृष्णा में जीवन जी रहा है। सार्थक और ज़िंदा रहने वाली वही सदाबहार शायरी होती है जो इंसानी भलाई और बड़ाई के गीत गाती है तथा इसके लिए हर स्तर पर विपरीत परिस्थितियों में भी अपना पक्ष रखती है. आने वाले समय में उबैद की शायरी उनके संस्कारों एवं परम्परा से ही पहचानी जाएगी "

ये रौशनी के लिए कब जलाए जाते हैं 
यहाँ चराग़ हवा में सजाए जाते हैं 

मैं उनको देख के रोता हूँ जो सरे-महफ़िल 
हरेक बात प' बस खिलखिलाए जाते हैं 

हमारे जैसे बहुत लोग सारी दुनिया में 
न जाने किसलिए इतना सताए जाते हैं 

इंद्रापुरम, ग़ाज़ियाबाद निवासी उबैद साहब की 131 बेजोड़ ग़ज़लों का ये संग्रह आप डॉल्फिन बुक्स ,4855-56 हरबंस स्ट्रीट अंसारी रोड दरियागंज नयी दिल्ली -110002 को पत्र लिख कर ही मंगवा सकते हैं या उबैद साहब से m_obaid_siddiqui@hotmail.com पर मेल कर के पूछ सकते हैं और सबसे बढ़िया तो ये ही रहेगा कि आप उनसे उनके मोबाईल न 9891941452 पर बात कर उन्हें बधाई दें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। जनाब ज़ुबैर रज़वी साहब के इस कथन के साथ मैं आपसे विदा लेता हूँ कि " उबैद की हर ग़ज़ल समकालीन ग़ज़ल से कई क़दम आगे का सफर लगती है। बिलकुल अलग परिवेश की ग़ज़लें वर्तमान जीवन पर ऐसी ज्वलंत टिप्पणियां हैं जिनमें शाइर का स्व गहरे निरिक्षण और अनुभव की भांति कभी तहे-आब और कभी सतही-आब पर उछाल लेता नज़र आता है। " चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल ये शेर भी पढ़वा देता हूँ :

ये नादानी मंहगी पड़ेगी तुम्हें 
घड़े फोड़ डाले घटा देख कर 

क़दम क्यों ज़मीं पर नहीं पड़ रहे 
वो आया है क्या आईना देख कर 

अजब लोग हैं इनको समझे ख़ुदा 
ख़ता कर रहे हैं सज़ा देख कर

Monday, February 12, 2018

किताबों कीदुनिया -164

छल, कपट, पाखंड का कुछ झूठे आभासों का है 
सारा जीवन चन्द चालों और कुछ पासों का है 

ये मोहब्बत के तकाज़े दोस्ती रिश्तों की डोर 
वहम है सारा फ़क़त, ये खेल विश्वासों का है 

तैरती इक लाश को देखा तो दिल ने ये कहा 
आदमी का कुछ नहीं बस बोझ तो साँसों का है 

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके बारे में कहा जाता है की फलां तो सर्व गुण संपन्न है या गुणों की खान है।ऊपर वाले का खेल भी अजीब है जिस पर मेहरबान हो जाये उसे छप्पर फाड़ कर देता है और साहब जिस पे नाराज़ हो जाए उसका रहा सहा छप्पर भी फाड़ देता है। हमारे आज के शायर पहली श्रेणी वाले हैं याने गुणों की खान हैं। जिन पर ऊपर वाले का करम रहा। मेरी ये समझ में नहीं आ रहा कि उनकी बात कहाँ से शुरू करूँ ? चलिए शुरू से उनकी बात शुरू करते हैं। 8 जुलाई 1946 को जयपुर के पास चौमूं में जन्मे हमारे शायर साहब ने अपने स्कूली जीवन का आगाज़ कालाडेरा, जो चौमूं से 10 कि.मी. की दूरी पर है, से किया। उसी स्कूल में 12 वीं पास करने के बाद अध्यापन का काम करते रहे। दस वर्ष याने सं 1964 से 1974 तक अध्यापन के साथ साथ अध्ययन भी करते रहे और एम्.ऐ., बी एड की डिग्री हासिल की।

पलकों पे आंसुओं को यूँ मेहमान मत रखो 
काग़ज़ की कश्तियों में ये सामान मत रखो 

दिल है,धड़क रहा है,कोई कम तो नहीं है 
पेशानी को हर वक़्त, परेशान मत रखो 

तुम चाहते हो घर को महकता हुआ अगर 
तो घर में फिर ये कागज़ी गुलदान मत रखो 

उसके बाद याने 1974 से आप उद्घोषक के रूप में आकाशवाणी की सेवा में प्रविष्ट हुए और निरंतर प्रगति करते हुए 2002 में आकाशवाणी के उपनिदेशक बन गए और सं 2006 में केंद्र निदेशक के पद से रिटायर हुए। बात अगर आकाशवाणी के कर्मचारी के रूप में उनकी लगातार प्रगति की होती तो मैं उसे बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करने वाला नहीं था लेकिन उन्होंने इस दौरान अपनी सृजन यात्रा को भी अनेक पड़ाव पार करते हुए शिखर तक पहुँचाया। चलिए पहले उनके लेखन की चर्चा करते हैं उन्होंने हिंदी, उर्दू और राजस्थानी भाषा में अधिकारपूर्वक लेखन किया। जिसमें गीत, नवगीत, ग़ज़ल, छंद, दोहे , रुबाइयाँ आदि पद्ध विधा के अलावा गद्य में नाटक, कहानी, व्यंग , बाल साहित्य को भी उन्होंने अपनी कलम से समृद्ध किया है।

ऐ मेरे दोस्त रोक ले अब मत बढ़ा इसे
मुझको तो तेरा हाथ भी खंज़र दिखाई दे

अब ढूंढ रहा हूँ मैं किसी ऐसे शख़्स को
काँधे पे जिसके अपना ही इक सर दिखाई दे

 लाज़िम है अपनी जान को छिप कर बचाइए 
जब भी बचाने वालों का लश्कर दिखाई दे

"अक्षरों के इर्द गिर्द" , "सुकून" , "दर्द के रंग "हमारे आज के शायर जनाब "इकराम राजस्थानी " साहब के लोकप्रिय ग़ज़ल संग्रह हैं , "इस सदी का आखरी पन्ना" , "एक रहा है एक रहेगा अपना हिंदुस्तान" , "अमर है जिनसे राजस्थान" और "खुले पंख" आदि अनेक विचारोत्तेजक काव्य संग्रह हैं। राजस्थानी भाषा में उनके काव्य संग्रह "तारां छाई रात", "पल्लो लटके", शब्दां री सीख", आदि बहुत चाव से पढ़े जाते हैं। हज़रत शेख सादी की "गुलिस्तां" , रविंद्र नाथ टैगोर की " गीतांजलि" और हरवंश राय बच्चन की "मधुशाला" का राजस्थानी में काव्यानुवाद करने वाले वो एकमात्र व्यक्ति हैं।उन्होंने श्रीमदभगवत गीता और उपनिषदों का भी राजस्थानी भाषा में काव्यानुवाद किया है। इसके अलावा वो जिस काम के लिए हमेशा याद किये जायेंगे वो है "क़ुरान शरीफ़" का हिंदी भाषा में भावानुवाद। ऐसा करने वाले वो विश्व के पहले कवि हैं।

मन काले काले उजले उजले भेष हो गए 
जो शेष भी नहीं थे वो विशेष हो गए 

मीनारें चूमती थीं जिनकी आसमान को 
वो ऊंचे ऊंचे महल भी अवशेष हो गए 

वाहन के बराबर भी नहीं जो गणेश के 
वो लोग ये समझते हैं, गणेश हो गए 

इकराम राजस्थानी साहब की चुनिंदा ग़ज़लों, गीतों रुबाइयों दोहों और फुटकर शेरों का अनूठा संग्रह "कलम ज़िंदा रहे " जिसकी आज हम चर्चा कर रहे हैं , वाणी प्रकाशन ने अपनी पेपर बैक श्रृंखला "दास्ताँ कहते कहते " के अंतर्गत प्रकाशित किया है। इकराम साहब के लेखन की चर्चा तो हमने कर दी अब उनके अगले गुण पर प्रकाश डालते हैं और वो है उनका संगीत के प्रति लगाव। संगीत के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी अप्रतिम मेधा शक्ति का परिचय दिया है। वो आकाशवाणी के उच्च श्रेणी मान्यता प्राप्त राजस्थानी लोक संगीत गायकरहे हैं।उनकी लिखी, गायी और संगीत बद्ध की गयी रचनाएँ जो 100 से अधिक सीडी में उपलब्ध हैं ,आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जितनी पहले थीं।


आप के दिन जब सुहाने आ गए 
लोग कितने दुम हिलाने आ गए 

खोजी कुत्ते चोर निकले ढूंढने 
घूम फिर कर सारे थाने आ गए 

जीत कर लीडर ने चमचों से कहा 
लूट लो अपने ज़माने आ गए 

शायद ही कोई राजस्थानी होगा जिसने उनका लिखा "अंजन की सीटी में मारो मन डोले ...चल्ला चल्ला रे डलावर गाड़ी हौले हौले " गीत नहीं सुना हो। इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगाएं कि इसके मुखड़े और धुन को मशहूर फिल्म "खूबसूरत" के एक गीत में पिरोया गया था। इस से अधिक एक और लोकप्रिय गीत जिसका उपयोग "नौकर" फिल्म में संजीव कुमार पर किशोर कुमार की आवाज में रिकार्ड किया गया था "पल्लो लटके गोरी को पल्लो लटके " भी इकराम साहब की कलम का कमाल था।

हम सब को इंसान बना दे, ऐ अल्लाह 
सबकी इक पहचान बना दे, ऐ अल्लाह 

मंदिर में क़ुरआन हो, गीता मस्जिद में 
ऐसा हिन्दुस्तान बना दे, ऐ अल्लाह 

खुशबू का तो कोई धर्म नहीं होता 
मुझको तू लोबान बना दे, ऐ अल्लाह 

इकराम साहब खुद को अमीर खुसरो,जायसी,रसखान और रहीम की परम्परा का कवि मानते हैं. अभी हाल ही में संपन्न हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उन्होंने अशोक वाजपेयी , अरुंधति सुब्रमण्यम,इरा टाक, एड्रिआना लिस्बोआ , जेलिना और मोहिनी गुप्ता के साथ मंच साझा करते हुए अपनी बातों से उपस्तिथ श्रोताओं को ताली बजाने पर मजबूर कर दिया। जिस व्यक्ति की कृतियों के प्रशंसकों की लिस्ट में डा.शंकर दयाल शर्मा , श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, प्रणव मुखर्जी,श्री श्री रवि शंकर , ममता बनर्जी जैसी विभूतियों का नाम हो उसको सुन कर भला कौन अपने आपको ताली बजाने से रोक पायेगा ?

जो शख्स मुहल्ले में पहलवान था कभी 
उसको, उठा , बिठाते हैं , दो चार पकड़ कर 

दुनिया में इबादत के लिए भेजा था तुझको 
तू आके यहाँ बैठा है, घर बार पकड़ कर 

कुछ लोग तो दरबार जा के झांकते नहीं 
कुछ काट गए ज़िन्दगी ,दरबार पकड़ कर 

इकराम साहब की ग़ज़लें सौ फीसदी खरे सोने जैसी हैं जिसमें ज़रा भी मिलावट नहीं है। वो जैसा देखते सुनते महसूस करते हैं वैसा ही अपने अशआर में पिरो देते हैं। उनकी कृतियों में लफ़्फ़ाज़ी के लिए बिलकुल जगह नहीं है। जिस इंसान को अपने नाम और किसी तरह के ईनाम की परवाह नहीं है वो क्यूँकर लेखन में समझौता करेगा ? दुनिया में अथाह पैसा और ताकत होते भी जहाँ इंसान खुश नहीं हैं वहीँ इकराम राजस्थानी जैसे अल्लाह के बन्दे खुल कर मुस्कुरा रहे हैं ख़ुशी से झूम रहे हैं क्यूंकि वो इक फ़क़ीर हैं. उनके सैंकड़ों मित्र है प्रशंसक हैं भक्त हैं परन्तु धनोपार्जन या लाभ उठाना इकराम साहब के बस की बात नहीं या यूँ समझें उनकी फितरत में ही नहीं।

 इबादत, रोज़ करता है यहाँ तू 
मगर पहुंचा नहीं अब तक वहां तू 

तेरी फ़रियाद सुन लेगा खुदा फिर 
अगर बोले परिंदों की ज़बाँ तू 

खुदा से बात कर लेते थे सीधी 
कहाँ वो लोग थे और है कहाँ तू 

अब चाहे आपको ईनाम की चाह हो न हो अपना नाम कमाने की तमन्ना हो न हो लेकिन अगर आप कुछ अच्छा कर रहे हैं तो ईनाम और नाम दोनों आपको स्वतः मिल जाते हैं। इसीलिए इकराम साहब को लोकमान्य पुरूस्कार ,राधा देवी स्मृति पुरूस्कार, राष्ट्रीय एकता पुरूस्कार ,तुलसी रत्न, रोटरी सेवा पुरूस्कार जैसे अनेक पुरुस्कारों से नवाजा जा चुका है।

बड़े दिलचस्प मंज़र हो गए हैं 
कई कतरे समंदर हो गए हैं 

इन्हें संसद का पूरा हक़ है यारों 
हज़ारों बार अंदर हो गए हैं 

गधों को कृष्ण चन्दर ने चढ़ाया 
गधे सब कृष्ण चन्दर हो गए हैं 
 (कृष्ण चन्दर उर्दू के बड़े अफसाना निगार रहे हैं उनकी "एक गधे की आत्म कथा" और "एक गधे की वापसी" बहुत मकबूल उपन्यास हुए हैं )

 इकराम साहब ने लेखन गायन और संगीत निर्देशन के अलावा नाटक लिखे और उनका मंचन भी किया है। वो कुशल अभिनेता भी हैं। लगभग 30 साल तक लगातार उन्होंने राष्ट्रीय समारोहों का आँखों देखा हाल लाल किले और राष्ट्रपति भवन से सुनाने के अलावा हल्दी घाटी जयंती और ख्वाजा साहब के 86 वे उर्स की कमेंट्री भी की है। तभी तो मैंने उन्हें "गुणों की खान" कहा है। " इकराम" साहब कहते हैं कि "मुझे ग़ज़ल से बहुत प्यार है। शायद वो बचपन से मेरे साथ चल रही है , मेरी सारी मुसीबतों को महसूस करती हुई मेरे साथ ही जवान भी हुई और अब उम्र के साथ ज़िन्दगी में घुमड़ती रहती है"।

तन तो केवल तन होता है 
जो होता है मन होता है 

बरखा की बूंदों से कह दो 
भीतर भी सावन होता है 

जिसके पास नहीं हैं सपने 
वो सबसे निर्धन होता है 

किताब की कोई ग़ज़ल रुबाई दोहा ऐसा नहीं है जिसे आप तक पहुँचाने में मुझे आनंद न आये लेकिन सारी की सारी किताब तो यहाँ नहीं प्रस्तुत की जा सकती। इसके लिए तो आपको "वाणी प्रकाशन" वालों को लिखना होगा या उन्हें 01123273167 पर फोन करना होगा , वैसे ये किताब ऑन लाइन भी उपलब्ध है। आप पढ़ना चाहें तो जरूर मंगवा ले और कुछ नहीं तो इकराम साहब को उनके मोबाईल न 09829078682 पर फोन करके उन्हें इस लाजवाब किताब के लिए बधाई दें। चलते चलते आईये आपको पढ़वाता हूँ इकराम साहब के कुछ चुनिंदा शेर :

चमन के पास से गुज़रो तो खुशबू लगने लगती है 
मैं हिंदी ऐसे लिखता हूँ कि उर्दू लगने लगती है 
*** 
विदा करते हैं जब माँ बाप घर से अपनी बेटी को
किसी कोने में छिप कर उस का बचपन बैठ जाता है 
*** 
काश फिर से वही दादी वही नानी आये 
लौट कर फिर से रजाई में कहानी आये 
*** 
चन्दन बना के खुद को ही पछता रहे हैं हम
सारे के सारे सांप हमीं से लिपट गए 
*** 
बताया नाम उसने राम अपना और यूँ बोला 
मैं घर का पेट भरने के लिए रावण बनाता हूँ 
***
तेरी सूरत अगर एक पल सोच ली 
ऐसा लगता है पूरी ग़ज़ल सोच ली

Monday, February 5, 2018

किताबों की दुनिया -163

ग़ज़ल ऐसी कि ग़ज़लें सिर धुनें बेसाख़्ता उसपे 
कि जब कहना नयी कहना हरी ताज़ी ग़ज़ल कहना 

ग़ज़ल कहनी है बस इस वास्ते कहना नहीं ग़ज़लें
कोई इक बात कहनी हो अगर साथी ग़ज़ल कहना 

जुबां ऐसी कि जैसे बोलते हैं बोलने वाले 
अदा ऐसी कि जैसे वो चले, वैसी ग़ज़ल कहना 

अगर आप ईमानदारी से देखें तो आजकल अधिकतर ग़ज़लें चाहे वो सोशल मिडिया के माध्यम से सामने आएं या प्रिंट मिडिया के, ऐसी कही जा रही हैं जो ऊपर दिए शेरों के ठीक विपरीत हैं। सीधे शब्दों में कहूं तो ग़ज़लें या तो बरसों से बयां किये जा रहे विषयों की जुगाली करती नज़र आती हैं या ग़ज़ल कहनी है ये सोच कर कही जाती हैं या फिर क्लिष्ट भाषा और उलझे विचारों से पाठक को चौंकाती नज़र आती हैं.बहुत कम ऐसी ग़ज़लें नज़र आती हैं जिन्हें सुन या पढ़ कर बेसाख्ता मुंह से वाह निकल जाय। एक बात तो स्पष्ट है कि इस से पहले इतनी तादाद में ग़ज़लें नहीं कही जा रही थीं। सोशल मिडिया था नहीं और प्रिंट मिडिया भी आसानी से सबको उपलब्ध नहीं था। अब आज का ये दौर ग़ज़ल के लिए अच्छा है या बुरा बहस का विषय हो सकता है।

मुल्क तो दिखता नहीं है मुल्क में यारों कहीं 
दिख रही लेकिन है उसकी राजधानी हर तरफ 

सोचता हूँ नस्लेनौ कल क्या पढ़ेगी ढूंढकर 
पानियों पर लिख रही दुनिया कहानी हर तरफ

उग रहे हैं सिर्फ़ कांटे, सिर्फ कांटे शाख में 
आंय ! कैसी हो रही है बागवानी हर तरफ

ग़ज़ल अब महबूब से बातें करने ,उसके रूप का वर्णन करने और उसकी बेवफाई पर आंसू बहाने जैसे विषयों को कब का पीछे छोड़ छाड़ कर इंसान के दुःख सुख और सामाजिक बुराइयों का पर्दाफाश करने की और मुड़ गयी है। ग़ज़ल की सशक्त विधा का प्रयोग अब इंसान और उसके द्वारा बनाये समाज को आइना दिखाने और कमियों पर चोट करने में किया जाने लगा है। दुष्यंत कुमार से पहले भी ग़ज़ल चोट तो करती थी पर शायद इतने धारदार तरीके से नहीं। दुष्यंत के बाद बहुत से शायरों ने इस विधा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया ,अदम गौंडवी साहब का नाम इस फेहरिश्त में काफी ऊपर आता है। हमारे आज के शायर भी अदम साहब की परम्परा के ही हैं।

भूख जब वे गाँव की पूरे वतन तक ले गए 
मामला हम भी ये फिर शेरो-सुख़न तक ले गए 

आग भी हैरान थी शायद ये तेवर देख कर 
जब उसे तहज़ीबदां घर की दुल्हन तक ले गए 

हम पिलाते रह गए अपना लहू हर लफ्ज़ को 
और वे बेअदबियां सत्तासदन तक ले गए 

दर असल हमारे आज के शायर जनाब नूर मुहम्मद 'नूर' जिनकी किताब "सफर कठिन है "का जिक्र हम करने जा रहे हैं ,की ग़ज़लों को पढ़ना हिंदुस्तान के समकालीन सफर को पढ़ना है। हिंदुस्तान का समकालीन सफर बहुत कठिन रहा है और इस किताब में संकलित ग़ज़लों का सफर भी। "सफर कठिन है" की ग़ज़लों को पढ़ते हुए हम कई बार सफर में पेश आयी अपनी कठिनाइयों को भी पहचानने का हौसला हासिल करते हैं। इस किताब की ग़ज़लें आम इंसान के दुःख दर्द ,राजनीती और हमारे समाज में घर कर गयी बुराइयों की और इंगित करती हैं और साथ ही हमें इनसे निपटने का हौसला भी देती हैं : 


उधर इस्लाम ख़तरे में, इधर है राम ख़तरे में 
मगर मैं क्या करूँ है मेरी सुबहो-शाम खतरे में 

ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने 
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में 

न बोलो सच जियादा 'नूर' वर्ना लोग देखेंगे 
तुम्हारी जान-जोखिम में तुम्हारा नाम खतरे में 

नूर साहब का जन्म 17 अगस्त 1954 में गाँव महासन, जिला –देवरिया (आजकल कुशीनगर) उत्तर प्रदेश में हुआ था.प्रारंभिक शिक्षा कुशीनगर में पूरी करने के बाद वो कलकत्ता आ गए जहाँ उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री हासिल की। इसके बाद दक्षिण-पूर्व रेलवे मुख्यालय के दावा विधि विभाग में नौकरी की और 2014 में सेवा मुक्त हो कर कलकत्ता में रहने के बजाये अपने गाँव वापस लौट गए और अब वहीँ इन दिनों स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं।

हरा भरा है अजब हौसला मगर उनका 
गो अब भी धूप के साये में है सफर उनका 

अभी न दर है न दीवार है न घर है अभी 
अभी ख़्याल है ,पौधा है ,घर का घर उनका 

है लब पे गाँव किसी गीत की तरह अब भी 
तो मौसिक़ी की तरह पाँव में शहर उनका 

नूर मुहम्मद नूर हिंदी, उर्दू , अरबी, बांग्ला के साथ –साथ अंग्रेजी में भी समान अधिकार रखते हैं और लिखते हैं |कविता, ग़ज़ल और कहानी-तीनों विधाओं पर उनकी बराबर की पकड़ है । अपनी मातृ भाषा भोजपुरी में भी वो खूब लिखते हैं। हंस, कथादेश, वर्तमान साहित्य, अक्षर पर्व समेत देश की तमाम पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं लगातार प्रकाशित होती रही हैं, होती रहती हैं। नूर मुहम्मद 'नूर' का एक कविता संग्रह 'ताकि खिलखिलाती रहे पृथ्वी', दो ग़ज़ल संग्रह-'दूर तक सहराओं में' और 'सफ़र कठिन है' प्रकाशित हो चुकी है। एक कहानी संग्रह 'आवाज़ का चेहरा' भी छप चुका है।

जिस तरह सहरा में पानी ढूंढते हैं तिश्नालब 
दोस्तों के बीच रह कर दोस्ताना ढूंढना 

आदमी में आदमियत और खुशबू फूल में
हो सके तो शहर में अब ये खज़ाना ढूंढना 

शेर कहना अब अदब के वास्ते ऐसा लगे
जैसे गूंगों के लिए कोई तराना ढूंढना 

नूर साहब की शख्सियत किसी भी गाँव के आम सीधे सादे इंसान की सी है। लम्बे बाल ,गहरी काली आँखों पर लगा मोटे फ्रेम का चश्मा और होंठों पर मुस्कराहट उनके फक्कड़ अंदाज़ से बहुत मेल खाती है। कुछ कुछ वामपंथी विचारधारा से प्रभावित उनकी शायरी में सामाजिक सरोकार उभर कर सामने आते हैं। वो पिछले चार दशकों से ग़ज़ल कह रहे हैं। "सफर कठिन है " को उनकी ग़ज़लों का प्रतिनिधि संग्रह कहा जा सकता है। प्रतिनिधि इस अर्थ में कि इस संग्रह से नूर की ग़ज़लों का मिज़ाज़ पाठकों के सामने खुलता है।

सुब्ह का चावल नहीं है रात का आटा नहीं
किसने ऐसा वक़्त मेरे गाँव में काटा नहीं 

शोर है कमियों ही कमियों का हरइक लम्हा यहाँ 
मेरे घर में आजकल कोई भी सन्नाटा नहीं 

वक़्तेबद, यारे अदब, हुस्ने ग़ज़ब, ऐ मेरे रब 
किसने मेरे मुंह पे मारा खींच कर चांटा नहीं 

दर्दोग़म है भूख है पीड़ा है चोटें और दुक्ख 
इस नदी में ज्वार तो आया मगर भाटा नहीं 

नूर साहब खूब लिखते हैं ग़ज़ल के अलावा उनकी नज़्मों का रेंज भी बहुत विशाल है। उनकी नज़्में उनके फेसबुक की वाल पर पढ़ी जा सकती हैं। छोटी छोटी नज़्मों की मारक क्षमता बेमिसाल है। किताब के अंतिम पृष्ठ पर उनकी ग़ज़लों के बारे में लिखा है कि " बारिश में जले मकान की जलन नूर की ग़ज़ल में है तो गंभीर पीड़ाओं के साथ साथ जंगल-बस्ती में घूमने का एहसास भी एक और जो संभाल कर रखा था गाँठ में उसे भी रहनुमाई और बन्दानवाज़ी के जरिये लुट जाने की हाय हाय इन ग़ज़लों में है तो शब्द से सुन्दर पहचान नहीं सुन्दर हिंदुस्तान की तमन्ना भी है। "

आपको तो आयतें या सिर्फ मंतर चाहिए 
यानी कि मशहूरियत ज्यादा भयंकर चाहिए 

रोटियां तालीम बच्चों को मिले या मत मिले 
उनका कहना है कि मस्जिद और मंदिर चाहिए 

रूप से व्यवहार से चाहे असुंदर लोग हों 
ज़ोर है इस बात पे कि शहर सुन्दर चाहिए 

ग़ज़ल को हिंदी और उर्दू के खेमों में बांटे वालों को नूर साहब की ग़ज़लें पढ़ कर सीखना चाहिए कि कैसे इन दोनों भाषाओँ के समन्वय से कहन में ख़ूबसूरती पैदा की जा सकती है। इन ग़ज़लों की भाषा अलंकृत भले न हो लेकिन खालिस हिंदुस्तानी है जो सीधे दिल पे दस्तक देती है। इस संग्रह की लगभग सभी सभी ग़ज़लें बेहद सीधी सादी बोलचाल की भाषा में कही गयी हैं। किसी किसी ग़ज़ल के रदीफ़ तो चौंकाने वाले हैं जिनमें ताज़गी है। ऐसे अलग से रदीफ़ वाले कुछ शेर मैं आपको आखिर में पढ़वाऊंगा, अभी तो उनकी एक ग़ज़ल में हिंदी-उर्दू भाषा का समन्वय देखिये :

क्या पूछो तुम हाल हमारा, घट घट के बंजारे हम 
घूम रहे हैं जंगल-बस्ती पीड़ाएँ गंभीर लिए 

ख़ाली-ख़ाली बर्तन लेकर पनघट-पनघट, लोग फिरें 
मन में विपदाओं की हलचल नयन कटोरे नीर लिए 

मरने वाले क़दम-क़दम पर रोज़ रोज़ ही मरते हैं 
जीने वाले जी जाते हैं आहों में तासीर लिए

 "सफर कठिन है "किताब जिसमें नूर साहब की लगभग 156 ग़ज़लें संग्रहित हैं को प्रतिश्रुति प्रकाशन 7 ऐ ,बेंटिक स्ट्रीट कोलकाता ने सं 2014 में प्रकाशित किया है। आप इस पेपर बैक किताब की प्राप्ति के लिए या तो प्रकाशक से 03322622499 पर फोन करें या mail.prkashan@gmail.com पर मेल करें साथ ही साथ नूर साहब को इस लाजवाब ग़ज़ल संग्रह के लिए 09433203786 अथवा 08334888146 पर फोन करें या उन्हें noorluckynoor@gmail.com पर मेल कर बधाई दें। यकीन माने इस संग्रह की ग़ज़लें आपके दिलो-दिमाग पर छा जाएँगी।
आखिर में आपको पढ़वाता हूँ नूर साहब के कुछ फुटकर शेर जो अपनी कहन और रदीफ़ के कारण देर तक याद रहेंगे :

वो रह रहा है बड़े ठाठ से जो बेघर था 
उसे ईनाम मिला बस्तियां जलाने का 
*** 
अब कोई क़ातिल कोई मुजरिम न बख़्शा जाएगा 
आपने क्या खूब फ़रमाया, बधाई ! हाय-हाय 
*** 
तोड़ देती है जो तटबंधों को बांधों को हमेश 
सच अगर पूछो तो मुझको वो नदी अच्छी लगी
 ***
फ़िक्र बिल्ली की तरह 'नूर' झपट्टा मारे 
चैन चिड़िया की तरह फुर्र से उड़ जाता है 
*** 
कभी डरता था घर की चिठ्ठियों से 
कि अब अख़बार से डर लग रहा है 
*** 
अब यही इस दौर के इंसान की पहचान है 
धड़ ही धड़ होते हैं खाली ,सर नहीं होते मियां 
*** 
फूल-पत्ते, चाँद, मौसम, शब, सुराही, औरतें 
अब कहीं अलफ़ाज़ में पत्थर नहीं होते मियां 
***
खूब हँसता हूँ देर तक उस पर 
वो समझता है आदमी मुझको 
*** 
मैं बड़ी देर तक रहा मसरूफ़ 
वो बड़ी देर तक दिखी मुझको 
*** 
औंधा पड़ा हुआ है हरइक मोर्चे पे मुल्क 
पर झंडे उड़ रहे हैं ग़ज़ब आसमान में 
*** 
घुटन कैसी गिला कैसा हुए जो बंद दरवाज़े 
मेरे ख़्वाबों में खुलती है अभी भी खिड़कियां सौ-सौ 
*** 
न्याय सामाजिक, दलित उत्थान, धरम निरपेक्षता 
पक चुके हैं कान सुन-सुनकर मियाँ ,रस्ता पकड़