Monday, March 29, 2010

लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है



खौफ का जो कर रहा व्यापार है
आदमी वो मानिये बीमार है

चार दिन की ज़िन्दगी में क्यूँ बता
तल्खियाँ हैं, दुश्मनी, तकरार है

जिस्म से चल कर रुके, जो जिस्म पर
उस सफ़र का नाम ही, अब प्यार है

दुश्मनों से बच गए, तो क्या हुआ
दोस्तों के हाथ में तलवार है

लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग
लीक पर चलना, कहाँ दुश्वार है

ज़िन्दगी भरपूर जीने के लिए
ग़म, खुशी में फ़र्क ही बेकार है

बोल कर सच फि़र बना 'नीरज' बुरा
क्या करे आदत से वो लाचार है।


{भाई तिलक राज जी के सहयोग का तहे दिल से शुक्रिया जिनकी मदद से मैं ये ग़ज़ल कह पाया}

Monday, March 22, 2010

किताबों की दुनिया -26

मैं कुमार विनोद जी को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता,लेकिन मेरा सौभाग्य देखिये नौ फरवरी को कुरुक्षेत्र से उनका अचानक मेल आया, जिसमें लिखा था कि उन्होंने मेरा ब्लॉग देखा है और उन्हें उस पर पोस्ट की गयी ग़ज़लें और पुस्तक समीक्षाएं बहुत पसंद आयीं हैं .साथ ही उन्होंने ये भी बताया की वो भी ग़ज़लें लिखते हैं और उनका एक ग़ज़ल संग्रह भी प्रकशित हो चुका है. मेल के साथ उन्होंने अपनी कुछ ग़ज़लें भी भेजीं...ग़ज़लें पढ़ कर ही मुझे आभास हो गया की चाहे मैं उन्हें व्यक्तिगत तौर पर ना जानूं लेकिन सोच के स्तर पर उन्हें पहचान गया हूँ. ये भी जान गया की वो बिलकुल अलग बेबाक अंदाज़ में अपनी बात कहने वाले निराले युवा शायर हैं .दिल ने कहा अब उनकी इस किताब को पढने के लिए उसे हासिल करना ही पड़ेगा,क्यूंकि रात के सन्नाटे में किताब हाथ में लेकर अधलेटे ग़ज़लें पढने का जो आनंद है, वो आनंद लैप टाप खोल कर पढने में नहीं आता. कुमार जी को किताब भेजने का आग्रह किया गया जो उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी पूरा किया और अब उसी किताब "बेरंग हैं सब तितलियाँ" के चंद पन्नो में बिखरे उनके कुछ अशआर आप सब तक पहुंचा रहा हूँ.

एक बार सुधि पाठकों को फिर बता दूं की जनाब "कुमार विनोद" के ग़ज़ल संग्रह " बेरंग हैं सब तितलियाँ" की आज हम चर्चा कर रहे हैं. किताब के पहले पन्ने के पहले शेर से ही वो अपने पाठक को अपने साथ ज़ज्बात की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों पर हाथ पकड़ कर एक अनजानी मंजिल की और ले चलते हैं.



आस्था का जिस्म घायल रूह तक बेज़ार है
क्या करे कोई दुआ जब देवता बीमार है

भूख से बेहाल बच्चों को सुना कर चुटकुले
जो हंसा दे, आज का सबसे बड़ा फनकार है

खूबसूरत जिस्म हो या सौ टका ईमान हो
बेचने की ठान लो तो हर तरफ बाज़ार है

विनोद जी की शायरी की सबसे बड़ी खूबी है उसकी भाषा. वो अपने पाठक को कभी भी भारी भरकम लफ़्ज़ों के बोझ तले नहीं दबाते बल्कि उनकी पंखुरियों से हलके हलके सहलाते हैं. ये कारण है की उनके शेर पढ़ते पढ़ते ही ज़बान पर चढ़ जाते हैं और बाद में पाठक उन्हें अपने आप गुनगुनाने लगता है.

तल्खियाँ सारी फ़ज़ा में घोल कर
क्या मिलेगा बात सच्ची बोल कर

गुम हुए खुशियों के मौसम इन दिनों
इसलिए जब भी हंसो, दिल खोलकर

बात करते हो उसूलों की मियां
भाव रद्धी के बिकें सब तोलकर

इस किताब को आधार प्रकाशन , पंचकुला ,हरियाणा ने प्रकाशित किया है. कुमार विनोद जी का ये पहला ग़ज़ल संग्रह है. उनकी ग़ज़लें हिंदी की प्रसिद्द पत्रिकाओं जैसे 'हंस', 'नया ज्ञानोदय', 'वागर्थ', 'कथादेश', 'कादम्बिनी', 'आजकल', 'अक्षर पर्व', आदि में समय समय पर छप कर अपनी पहचान पहले ही बना चुकी हैं. युवा ग़ज़लकार की इन ग़ज़लों ने मुझे अन्दर से छुआ है और अपना प्रशंशक बना लिया है.

लाख चलिए सर बचा कर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं

काम पर जाते हुए मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या, कुछ भी नहीं

एक अन्जाना सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिला कर ज़िन्दगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं

इस किताब में एक खूबी और है जो बहुत कम किताबों में नज़र आती है वो ये के किताब की ग़ज़लें किताब खोलते ही पाठकों के रूबरू हो जातीं हैं.इस किताब में किसी भी तरह की कोई भूमिका ना तो किसी नामचीन शायर ने लिखी है और ना ही शायर ने खुद. बस "तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मोरा " वाले भाव से ये पुस्तक ज्यूँ की त्यूँ पाठकों को सौंप दी गयी है. पाठकों और ग़ज़लों के बीच कोई नहीं है. इसका एक बहुत बड़ा लाभ भी है और वो ये की पाठक बिना इस पुस्तक को पूरा पढ़े इस के बारे में कोई राय नहीं बना सकता और पढ़ कर वो जो भी राय बनाएगा अच्छी या बुरी वो किसी और की विचार धारा से प्रभावित नहीं होगी बल्कि सिर्फ उस पाठक की ही होगी. आज के दौर में ऐसा जोखिम उठाने वाले बिरले ही मिलेंगे.

गाँव से आकर शहर में यूँ लगा
सच हुई दुश्मन की जैसे बद्दुआ

जबसे चिड़िया ने बनाया घोंसला
पेड़ देखो फूल कर कुप्पा हुआ

डाक्टर ने हाले दिल उसका सुना
बस यही थी बूढ़े रोगी की दवा

विनोद जी ने रोजमर्रा के प्रतीकों से अपने अशआरों को नयी ऊँचाई दी है. उनके नए नए शब्द प्रयोग उन्हें अपने समकालीनो से अलग करते हैं. आप भी देखिये किस तरह:

बड़ी हैरत में डूबी आजकल बच्चों की नानी है
कहानी की किताबों में न राजा है, न रानी है

बहुत सुन्दर से इस एक्वेरियम को गौर से देखो
जो इसमें कैद है मछली, क्या वो भी जल की रानी है

घनेरे बाल, मूंछें और चेहरे पे चमक थोड़ी
यकीं कीजे, ये मैं ही हूँ, ज़रा फोटो पुरानी है

एम्.एस.सी., एम्.फिल, पी.एच डी. शिक्षा प्राप्त विनोद जी कुरुक्षेत्र विश्व विद्ध्यालय के गणित विभाग में एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं, तभी उनके कहने का सलीका और मिजाज़ बहुत नपा तुला है. उनकी ग़ज़लों में जहाँ आज की त्रासद विसंगतियों का जिक्र है वहीँ अपने आप पर भरोसा बनाये रखने पर जोर भी है. इस किताब की ग़ज़लें विनोद जी द्वारा की गयी एक ईमानदार कोशिश है और हमें ऐसी कोशिशों की हौसला अफजाही करनी ही चाहिए. आप मात्र सौ रुपये मूल्य की ये पुस्तक आधार प्रकाशन से मेल द्वारा aadhar_prakashan@yahoo.com पर लिख कर या फिर प्रकाशक से 09417267004 नंबर पर संपर्क करके मंगवा सकते हैं,पुस्तक प्राप्ति की राह में आने वाली किसी भी असुविधा के निदान के लिए आप सीधे विनोद जी से उनके मोबाईल न. 09416137196 या इ-मेल vinod_bhj@rediffmail.com पर संपर्क कर सकते हैं. कुछ भी करें अगर आप ग़ज़लें बल्कि यूँ कहीं की अच्छी ग़ज़लें पढने के शौकीन हैं तो ये किताब हर हाल में आपके पास होनी चाहिए.

राजधानी को तुम्हारी फ़िक्र है, ये मान लो
राहतें तुम तक अगर पहुंची नहीं, तो क्या हुआ

देखिये उस पेड़ को, तनकर खड़ा है आज भी
आँधियों का काम चलना है, चलीं, तो क्या हुआ

कम से कम तुम तो करो खुद पर यकीं, ऐ दोस्तों
गर ज़माने को नहीं तुम पर यकीं, तो क्या हुआ.

आप इस किताब को मंगवाने की जुगत में लगिये तब तक हम तलाशते हैं आपके लिए ऐसी ही कोई और नायाब किताब.



कुमार विनोद

Monday, March 15, 2010

लगा के ठुमके तेरी गली में



"फागुन" याने हंसी ख़ुशी और उल्ल्हास का महीना...फाग धमाल का महीना...आज फागुन एक बरस के लिए हमसे विदा ले रहा है और ऐसे महीने की विदाई हमें हँसते हुए करनी चाहिए . ये ही सोच कर मैंने अपनी हज़ल, जो गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर हुए तरही मुशायरे में शिरकत कर चुकी है, को आज अपनी ब्लॉग पोस्ट के लिए चुना है. उम्मीद है सुधि पाठक जो उसे वहां नहीं पढ़ पाए इसका आनंद यहाँ उठाएंगे और जिन्होंने वहां पढ़ा है वो इसे यहाँ दुबारा पढ़ कर मुस्कुराएंगे.


कमीने, पाजी, हरामी, अहमक, टपोरी सारे, तेरी गली में
रकीब* बन कर मुझे डराते मैं आऊँ कैसे, तेरी गली में
रकीब* = प्रतिद्वंदी

खडूस बापू, मुटल्ली अम्मा, निकम्मे भाई, छिछोरी बहनें
बजाएं मुझको समझ नगाड़ा ये सारे मिल के, तेरी गली में

हमारी मूंछो, को काट देना, जो हमने होली, के दिन ही आके
न भांग छानी, न गटकी दारू, न खाये गुझिये,तेरी गली में

अकड़ रहे थे ये सोच कर हम,जरा भी मजनू से कम नहीं हैं
उतर गया है, बुखार सारा, पड़े वो जूते, तेरी गली में

तमाम रस्‍ता कि जैसे कीचड़, कहीं पे गढ्ढा कहीं पे गोबर
तेरी मुहब्‍बत में डूबकर हम मगर हैं आये तेरी गली में

किसी को मामा किसी को नाना किसी को चाचा किसी को ताऊ
बनाये हमने तुम्हारी खातिर ये फ़र्ज़ी रिश्ते तेरी गली में

भुला दी अपनी उमर तो देखो ये हाल इसका हुआ है लोगों
पड़ा हुआ है जमीं पे 'नीरज' लगा के ठुमके तेरी गली में

Monday, March 8, 2010

किताबों की दुनिया - 25

मित्रो आज जिस किताब का जिक्र करने का मन है उसे चुनने के पीछे दो कारण हैं. पहला तो ये के अब तक की पुस्तक चर्चा में हमने सिर्फ और सिर्फ शायरों की किताबों की ही बात की है किसी शायरा की किताब की चर्चा नहीं की और आज महिला दिवस के शुभ अवसर पर किसी शायरा की किताब की बात करने का हमें इस से बेहतर मौका और कब मिलता दूसरा इस से भी बड़ा कारण है इस किताब के मुख्य और अंतिम पृष्ठ पर लिखे ये लाजवाब शेर जिन्होंने मुझे इस पुस्तक को पढने के लिए उकसाया :

हमसे कायम ये भरम है वरना
चाँद धरती पे उतरता कब है
***
नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं

होठों पर तो कर पाए साकार नहीं
चित्रों पर मुस्काने धरने निकले हैं

ये ही नहीं,ऐसे ही खूबसूरत अशआरों से भरी इस किताब का शीर्षक है "तुम्ही कुछ कहो ना" और इसे लिखा है डा.कविता किरण जी ने जो अपना एक ब्लॉग डा. कविता 'किरण' (कवयित्री) के नाम से चलातीं हैं. इस ब्लॉग में आप उनकी ग़ज़लों और एवं अन्य काव्य रचनाओं को समय समय पर पढ़ सकते हैं. मैं कविता जी का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे ये किताब पढने और आप सब के सम्मुख प्रस्तुत करने का मौका दिया.


किरण जी कहती हैं "ग़ज़ल एक किरदार नहीं, कायनात है, जिसमें एक शायर अपनी साँसों को शेरों की तरह बुनता है. कभी महबूब के ख्वाबों से सजाता है तो कभी हकीक़त से रु-ब-रु होने की कोशिश करता है." हकीकत से रु-ब-रु होने की कोशिश उनके इन शेरों में साफ़ झलकती है:

एक ही छत के नीचे थीं दोनों की दुनिया अलग अलग
अपने ही घर में बरसों तक बन कर के मेहमान रहे

नहीं पता था उन्हें हमारा हमको उनकी खबर न थी
इक दूजे की खातिर केवल जीने का सामान रहे

मन पर लादा मौन साध इक अनचाहे रिश्ते का बोध
ना निगला ना उगला उसको बस करते विषपान रहे

प्रसिद्द गीतकार 'मानिक वर्मा' जी ने इस पुस्तक में कहा है "कविता किरण जी ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है. ग़ज़लों में हर शेर अपनी शेरियत के साथ उपस्थित है. हमारे आस पास के जीवन मूल्यों को बड़े सहज और सरल शब्दों में रखने का उनका भागीरथी प्रयास अत्यंत मूल्यवान है. बस आप सुधि पाठकों से निवेदन है आप हर शेर को जरा ठहर ठहर कर पढ़ें निश्चित ही आपका पूरा दिन गीत- गीत हो जायेगा ."

दोस्त ! तू जो बेवफा हो जायेगा
ज़िन्दगी में क्या नया हो जायेगा

क्या तेरे तानों से इक बेरोज़गार
अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा

आंसुओं की शाम मत तोहफे में दो
आज फिर इक रतजगा हो जायेगा


कविता जी ने अपनी कुछ ऐसी ग़ज़लें कहीं हैं जो सिर्फ और सिर्फ एक स्त्री ही कह सकती है. स्त्री जो माँ है. ऐसे अशआर और कहीं शायद ही पढने को मिलें, आप भी मुलायजा कीजिये:

मुझको अक्सर मेरे अन्दर से बुलाती है जो
नन्हें मुन्ने किसी बच्चे की सदा लगती है

याद आते हैं क्यूँ बचपन के खिलौने फिर से
मैं बताऊँ तो, मगर मुझको हया लगती है

है अचानक मेरे आँगन में जो बिखरी खुशबू
ये यकीनन मेरे अपने की दुआ लगती है

पूर्व सांसद और प्रसिद्द कवि बाल कवि बैरागी जी कहते हैं "किरण की ग़ज़लों का लक्ष्य आपका मनोरंजन करना नहीं है.आपको समझ के साथ विचार सागर की लहरों पर बिठा कर ये सोचने पर विवश कर देना कई कि "हाँ ये बात बिलकुल ठीक है". ये एक साहित्यिक, सारस्वत, शालीन, मनोलोक का भ्रमण है.

ज़िन्दगी में तनाव मत रखिये
इतना मरने का चाव मत रखिये

दुश्मनी कौन फिर निभाएगा
दोस्तों से दुराव मत रखिये

बेवज़ह बहस से जो बचना हो
अपना कोई बचाव मत रखिये

रूह जिंदा रहे ज़रूरी है
जिस्म का रख रखाव मत रखिये

विलक्षण प्रतिभा की स्वामी फालना, राजस्थान निवासी किरण जी की आठ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और पांच पुस्तकें प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं. आपने ग़ज़ल के अलावा कवितायेँ लघु कवितायेँ और बाल गीत भी लिखे हैं . आप का लिखा राजस्थानी ग़ज़ल संग्रह पुरस्कृत भी हुआ है. किरण जी ने ढेरों सम्मान भी अर्जित किये हैं जिनमें उज्जैन का टेपा सम्मान, रोटरी क्लब गैगटोक द्वारा दिया गया सम्मान, राजस्थानी सेवा सम्मान और हिंदी साहित्य संगम पुरस्कार बोकारो स्टील , प्रमुख हैं. आपने दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले से भी काव्य पाठ किया है.

देखेंगे जिस और कुआँ मुड जायेंगे
कोई धर्म नहीं होता है प्यासों का

ना होते हैं ख़त्म न ही कम होते हैं
जीवन कितना लम्बा है संत्रासों का

इश्वर - अल्लाह हैं तो आ जाएँ वरना
क़त्ल नहीं हो जाये पांच पचासों का

आकांशा प्रकाशन फालना द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक को प्राप्त करने के लिए सबसे श्रेष्ठ तरीका तो ये रहेगा की आप स्वयं किरण जी से उनके मोबाईल 09414523730 पर संपर्क करें या उन्हें सीधे kavitakiran2008@gmail.com पर लिखें. वो आपको इस पुस्तक की प्राप्ति का सबसे आसान रास्ता बतायेंगी.

उम्मीद है आपको इस श्रृंखला में प्रस्तुत पहली शायरा के अशआर पसंद आये होंगे...अपनी प्रति क्रियाएं अगर यहाँ देने में आपको कोई संकोच हो तो आप अपने उदगार किरण जी तक जरूर पहुंचाएं.

अभी इतना ही...जल्द ही मिलते हैं एक नयी पुस्तक के साथ.

Monday, March 1, 2010

खुशियों की हों पिचकारियॉं

सभी पाठकों को होली की ढेरों शुभ कामनाएं

आपको शायद याद हो सन 1973 में अमिताभ, राजेश खन्ना और रेखा की एक मशहूर फिल्म आई थी "नमक हराम". फिल्म तो इतनी नहीं चली जितना उसका ये गीत "दिए जलते हैं फूल खिलते हैं बड़ी मुश्किल से मगर दुनिया में दोस्त मिलते हैं..." तब ये मेरे लिए सिर्फ एक गीत था, एक मधुर गीत...आज मुझे इस गीत के मायने समझ आये हैं. दोस्त बहुत मुश्किल से मिलते हैं. बहुत समय के बाद मुझे ब्लॉग जगत में कुछ ऐसे शख्स मिले हैं जिन्हें दोस्त कहने में फक्र महसूस होता है. उन में से एक हैं जनाब तिलक राज कपूर साहब. आप भोपाल में रहते हैं और बहुत बड़े सरकारी अफसर होते हुए भी जमीन से जुड़े हुए हैं. बेहतर इंसान हैं इसलिए बेहतरीन शायरी भी करते हैं. आपने उन्हें उनके अपने या पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर जरूर पढ़ा होगा.

हँसते हुए नूरानी चेहरे वाले तिलक राज कपूर

उनसे मेरा मेल शेल का राबता है एक आध बार फोन शोन पे बात चीत भी हुई है बस, लेकिन मुझे वो बेहद अपने लगते हैं. उनका ज़िन्दगी के प्रति रवैय्या बहुत सकारात्मक है और वो हर बात में हास्य ढूंढ लेते हैं. एक बार खतो-किताबत के दौरान मैंने उन्हें कहा क्यूँ न हम मिल कर एक ग़ज़ल लिखें. उनको मेरा ये विचार ज्यादा पसंद नहीं आया लेकिन मैंने भी उनका पीछा नहीं छोड़ा और एक दिन ग़ज़ल लिखने के संयुक्त प्रयास का आगाज़ हुआ. ये सिलसिला पूरे एक महीने तक चला.कुछ वो लिखते कुछ मैं और हम एक दूसरे के लिखे में दोष ढूढ़ते हुए उन्हें दुरुस्त करते. ज्यादा मेहनत उन्होंने ने ही की. जो समझदार होगा मेहनत भी उसी को करनी पड़ती हैं ना. खैर एक महीने की जद्दो जहद के बाद जिस ग़ज़ल ने अंततोगत्वा जन्म लिया वो सुधि पाठकों के सामने प्रस्तुत है. इस ग़ज़ल में हम दोनों के ( तिलक जी के अधिक) विचार इतने अधिक गडमड हैं की ये बताना अब मुश्किल है की इसमें कहाँ से उन्होंने कहना शुरू किया है और कहाँ मैंने ख़तम किया है.

ये संयुक्त प्रयास कैसा रहा आप नहीं बताएँगे तो कौन बताएगा?

खुशियों की हों पिचकारियॉं




रंजिशों को अलविदा की, यूँ करें तैयारियां
दिल के गुलशन में उगायें प्यार की फुलवारियां

ज़ख्‍म जो देती हैं ये, ताउम्र वो भरते नहीं
खंज़रों से तेज़ होती हैं, ज़बां की आरियाँ

छत, दरो-दीवार, खिड़की, या झरोखे से नहीं
घर बुलाता है अगर, गूँजें वहॉं किलकारियॉं

चंद लम्हों बाद थक कर सुख तो पीछे रह गया
पर चलीं बरसों हमारे साथ में दुश्वारियां

जि़न्‍दगी, आनन्‍द से जीना है तो फिर छोड़ दें
झूठ, गुस्‍सा, डाह, लालच, वासना, मक्कारियां

आप तो सो जायेंगे, महफूज़ बंगलों में कहीं
खाक कर देंगी शहर, अल्‍फ़ाज़ की चिंगारियॉं।

काश इस होली में मज़हब का ना कोई फर्क हो
रंग हों बस प्‍यार के, खुशियों की हों पिचकारियॉं



हम को तो पहचानते हैं ना आप