Monday, May 25, 2009

किताबों की दुनिया -11

इंतज़ार में कम्पित हो कर थकी आँख के खुले कपाट 
पलकें झुकी नज़र शरमाई बड़े दिनों के बाद यहाँ 

कैसी पूनो ये आई है महारास के रचने को 
फिर चरणों ने ली अंगडाई बड़े दिनों के बाद यहाँ 

मन के सूनेपन में कूकी आज कहीं से कोयलिया 
मोरों से महकी अमराई बड़े दिनों के बाद यहाँ 

है वैसी की वैसी इसमें परिवर्तन तो नहीं हुआ
आज ये दुनिया क्यूँ मन भाई बड़े दिनों के बाद यहाँ

दुःख में तो रोतीं थी अक्सर रह रह कर आतुर आँखें 
सुख में भी कैसे भर आयीं बड़े दिनों के बाद यहाँ 




दोस्तों मैंने शायद पहले भी कभी कहा था की कोई किताब खरीदने से पहले आप उसके चंद पन्ने पलटिये और एक शेर भी अगर कहीं पसंद आ जाये तो खरीदने में देर मत कीजिये. ये "खुशबू उधर ले आये" किताब इस मायने में मेरे कथन से एक कदम आगे रही क्यूँ की किताब के पन्ने पलटते ही जहाँ निगाह ठहरी वहां एक शेर नहीं बल्कि ऊपर दी हुई पूरी ग़ज़ल मिली, जिसका हर शेर लाजवाब लगा. शायर का नाम "उपेन्द्र कुमार" है, जिसे मैंने किताब खरीदने का मानस बनाने के बाद में पढ़ा. मेरी ये आदत है की मैं किताब पहले हाथ में लेता हूँ और पन्ने पलटता हूँ और लेखक का नाम बाद में पढता हूँ, इसका लाभ ये रहता होता है कई बार अनजान लेखकों का लिखा खजाना हाथ लग जाता है.

अब कुछ नहीं तो वार निहत्थों पे कीजिये
ये हक़ तो वर्दियों को मिला है विधान से 

सब भागने लगे थे फिर अपने घरों की और
कितने बिदक गए थे वो जलते मकान से 

"उपेन्द्र कुमार" साहेब की शायरी पर प्रसिद्द लेखक "कमलेश्वर" इस किताब की भूमिका में लिखते हैं की "मैं प्रगतिवादी हूँ-गलत हूँ या सही हूँ-यह तो वक्त ही बताएगा, पर समय की शिला पर जब लेखन और संवेदना का इतिहास परखा जायेगा, तो हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़ल अपनी पहचान और उपस्तिथि दर्ज करेगी और इस उपस्तिथि में उपेन्द्र कुमार की गज़लें भी शामिल रहेंगी.....उपेन्द्र कुमार की ग़ज़लों में वह सब मौजूद है जो हमारे दिलो-दिमाग को कचोटता है और वे सारे सवाल मौजूद हैं जो संवेदी दिल से अपने उत्तर मांगते हैं "

भटकन त्याग, छुई है देहरी किस जोगी के पांवों ने 
फिर से चाँद उतर आया है घर के रौशनदानों में 

तुमसे बिछुडे तो सच मानो गुमसुम मन का फूल रहा 
और निरंतर रहे भटकते हरे भरे बागानों में 

गैरों की राहों से चुनना शूल समर्पित हाथों से 
फूल खिला जाता है अक्सर जीवन के सुनसानों में 

छोटी बहर में शेर कहने और पढ़ने का अपना मज़ा है, देखिये एक ग़ज़ल के चंद शेर जिन्हें पढ़ कर ग़ालिब साहेब की मशहूर ग़ज़ल याद आ जाती है क्यूँ की इसका रदीफ़ काफिया वही है जो उस ग़ज़ल का था...

बेअसर हो तो फिर दुआ क्या है
चल के रुक जाये तो हवा क्या है 

लोग हंसते हुए झिझकते हैं 
ये इन्हें रोग सा लगा क्या है 

ग़म हैं, मजबूरियां हैं, किस्मत में
फिर ये कोशिश, ये हौसला क्या है 

"किताब घर प्रकाशन, 24 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -110032" से प्रकाशित मात्र पचास रुपये कीमत की ये किताब अपने शुरू के तीन चार पन्नो में ही अपनी कीमत वसूल करवा देती है बाकि के सत्तर पन्ने तो बोनस के समझिये. सीधे सादे शब्दों में कमाल के शेर भरे पड़े हैं इस किताब में और हिंदी ग़ज़ल के प्रेमियों के लिए तो ये किसी वरदान से कम नहीं.

मन मंदिर में एक ही बुत की भिन्न भिन्न तस्वीरें हैं 
यादों की भरमार ने उफ़ ये क्या कुहराम मचाया है 

जो पाया था वैसा ही बस इस दुनिया में छोड़ चले 
अपनी तरफ से हमने कुछ कब जोड़ा और घटाया है 

सितम्बर 1947 को बिहार के बक्सर में जन्में उपेन्द्र ने इंजिनीयरिंग की डिग्री के अलावा विधि में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है जो अपने आप में विशेष बात है,189-दीनदयाल मार्ग दिल्ली- 110002 में रहने वाले उपेन्द्र जी ने हिंदी शब्दों का अद्भुत प्रयोग अपनी शायरी में किया है जो विस्मित कर देने वाला है. आखरी में चलते चलते उनके हुनर का ये करिश्मा भी आप देख लीजिये....

कहें वे कुछ, मगर मतलब कुछ उनका और होता है 
नए अक्षर, नयी भाषा, नया ही व्याकरण देखा 

मशीनी ज़िन्दगी इस शहर की इक कारखाना है 
जहाँ हमने स्वयं इंसान ही को उपकरण देखा 

इस किताब के बारे में अभी इतना ही...इस से आगे की जानकारी के लिए आप किताब खरीदें और पता करें...सभी कुछ यहाँ बता देंगे तो क्या फिर भी आप इस किताब को खरीदेगें? दिल पर हाथ रख कर जवाब दीजियेगा.... चलिए छोडिये परेशां न हों, हम है ना आपके लिए एक और किताब ढूँढने को.

Monday, May 18, 2009

तुम भूखे को रोटी दो




गर हिम्मत हो तो बदलो
मत कोसो यूं किस्‍मत को

प्यार वफ़ा इन्साफ दया
किस दुनिया में रहते हो

छोडो मज़हब की बातें
तुम भूखे को रोटी दो

देश जले नेता खेलें
अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो

देखो हाल सियासत का
लगती है सर्कस का शो

उसको बरकत मिलती है
बिन मांगे ही देता जो

''नीरज' नश्वर जीवन में
क्या तेरा 'ये' मेरा 'वो'

(गुरु पंकज सुबीर जी का आर्शीवाद प्राप्त किये बिना, इस ग़ज़ल का रूप निखारना संभव नहीं था)

Wednesday, May 13, 2009

गुजारिश...प्रार्थना...रिक्वेस्ट


(नहीं नहीं आप आईना नहीं देख रहे....ये मेरी ओरिजनल तस्वीर है )


सुनो जी सुनो....हमारी भी सुनो....अजी मेहरबां हमारी भी सुनो.



देवियों और सज्जनों...दोस्तों और दुश्मनों...आप सब के लिए एक सूचना है...सूचना क्या...गुजारिश...प्रार्थना...रिक्वेस्ट...है...की यदि आप एक साधारण मानव ( याने मैं ) की अति साधारण बातें जानना चाहते हैं तो  कल याने 14 मई को  परम आदरणीय प्रातः स्मरणीय ताऊ जी के ब्लॉग पर क्लिक करें और उनके द्वारा लिया एक असाधारण साक्षात्कार पढें...पसंद आये तो वहां टिपियाये न आये तो यहाँ टिपियायें...न भी टिपियायें तो भी चलेगा क्यूंकि पाठक तो मन का स्वामी होता है उस पर जोर ज़बरदस्ती तो की नहीं जा सकती ....टिपण्णी दे दे ना दे ना दे .

Monday, May 11, 2009

किताबों की दुनिया - 10

दोस्तों देश में न जाने कितने शायर हैं और न जाने शायरी की कितनी किताबें छपती हैं...हमें सिर्फ उन्हीं किताबों का पता चल पाता है जिसे नाम चीन प्रकाशक छापते हैं या फिर जिनकी चर्चा किसी अखबार या मैगजीन में होती है. बहुत कम ऐसा होता है की आपको कभी एक अपरिचित प्रकाशक की कोई ऐसी किताब मिले जिसमें चौंका देने वाले शेरों की भरमार हो और जिसे लिखा भी किसी बहुत नामवर शायर ने न हो.



मेरा नाम उन खुशकिस्मत पाठकों में आप दर्ज़ कर सकते हैं जिसके पास ऐसी ही शायरी की एक अनूठी किताब है. आप नहीं पहचान पाएंगे मुझे ही बताना पड़ेगा की ये किताब है "आज़मी पब्लिकेशन, कुर्ला, मुंबई से प्रकाशित "पूछना है तुमसे इतना....." जिसे लिखा है जनाब "सैयद रियाज़ रहीम" साहेब ने.

मैं इतना टूट कर उससे मिला हूँ 
मेरा दुश्मन भी मेरा हो गया है 

लिखने वाले रियाज़ साहेब धारवाड़ (कर्णाटक) में जन्में और तालीम मुम्बई में पायी, जहाँ अब वो अपने भरे पूरे परिवार के साथ रहते हैं. एम. ऐ (उर्दू , अंग्रेजी) करने के बाद अध्यापन के पेशे में हैं और सन १९८० से शेर कह रहे हैं और खूब कह रहे हैं:

ये कैसा शोर है दुनिया में आखिर
के सच्चा चुप है झूठा बोलता है 

नहीं रोका हमारी ही खता है
वो जालिम अब दोबारा बोलता है

कभी तो चीखना बेकार सबका
कभी तो इक इशारा बोलता है 

मुहब्बत उठ गयी हिंदुस्ता से
के अब तिरशूल भाला बोलता है 

रियाज़ साहेब का कहना है की वो ऐसी शायरी पसंद करते हैं जिस शायरी में सादगी, मासूमियत हो और जो शायरी आदमी को आदमी बनाने की कोशिश करती हो. उन्हें कबीर, वली दकनी, मीर और नजीर की शायरी बहुत पसंद है.

गोली चली जब सीनों पर
पीछे वाले बैठ गये

खुशियाँ आयीं लौट गयीं
ग़म अपने थे बैठ गये

सच सुनना आसान न था
सबके चेहरे बैठ गये 

सुनने गीत मोहब्बत का 
गूंगे बहरे बैठ गये 

कहते थे जो डटे रहो 
वो सब साले बैठ गये 

"रियाज़" साहेब से मुलाकात भी इक हसीं इतेफाक थी. "हस्ती मल हस्ती" साहेब के घर पर नशिस्त थी जहाँ पहली बार उनसे मुलाकात हुई. बातों बातों में कब उन्होंने दिल जीत लिया पता भी न चला. उनकी इस किताब का विमोचन कुछ दिनों बाद होने वाला था जिसमें मैं जयपुर जाने की वजह से जा न सका. लौटने पर देखा उनकी किताब डाक से घर आयी हुई है. मैं उनकी मोहब्बत का कायल हो गया. वो अपना कलाम भी बहुत खूबसूरत अंदाज़ में पढ़ते हैं और छोटी बहर में कमाल करते हैं, प्यार से भरा इंसान ही ऐसी शायरी कर सकता है :

चेहरा चेहरा अपना पन
सारी दुनिया घर आँगन

तुम तो मेरे सामने हो
ढूंढ रहा है किसको मन 

कैसे उसको समझाऊँ 
अपना मन ही अपना धन 

झूट नहीं कहता हूँ मैं
देखो जाकर तुम दरपन

मात्र सौ रुपये की किताब ऐसी अनमोल ग़ज़लों को अपने में समोए है की लगता है मोतिओं का खजाना सस्ते में हाथ लग गया है. यूँ तो ये किताब आप आज़मी पब्लिकेशन को लिख कर खरीद सकते हैं लेकिन आसान तरीका तो ये होगा की आप रियाज़ साहेब से सीधे उनके मोबाईल 09930632838 पर फोन करें,मुबारक बाद दें और किताब मांग लें, मुझे उम्मीद है की वो अपने चाहने वालों को ना - उम्मीद नहीं करेंगे.

अंधेरों की साजिश पे ग़मगीन हो
दिये से दिये क्यूँ जलाते नहीं

शहीदों में लिखवा रहे हैं वो नाम 
जो ऊँगली तक अपनी कटाते नहीं

हम दुआ करते हैं की वो इसीतरह लिखते रहें और उनकी किताब दर किताब हम पढ़ते रहें, उनके खूबसूरत शेरों पर यूँ ही तालियाँ पीटते रहें....

धीरज रख्खो आज नहीं तो कल अच्छा हो जायेगा 
पगडण्डी पर चलते रहना ही रस्ता हो जायेगा 

किताब के आखिर में उर्दू हिंदी के बड़े शायरों और कवियों ने उनकी शायरी के बारे में जो कहा है उसका संकलन है जिसे पढ़ कर हमें उनकी कई दूसरी विशेषताओं का पता चलता है. कुछ भी कहें साहेब ये किताब शायरी के दीवानों की अलमारी में होनी चाहिए. चलते चलते एक आध शेर और....

आज है शातिर बूढों जैसी
कल थी बच्चों जैसी दुनिया 

राज सिंहासन छूट गया जब
कासा लेकर भटकी दुनिया 

जितने खुदा हैं सब ने मिल कर
बाँट ली अपनी-अपनी दुनिया 

शुक्रिया दोस्तों रियाज़ साहेब की शायरी का लुत्फ़ उठाने के लिए, आप का खुलूस ही हमें आपके लिए और अच्छी किताबें ढूँढने में मदद करता है.....इसे बनाये रखें.

Monday, May 4, 2009

गीत लता के गाने का


"पांडू" मेरे साथ पिछले पांच साल से काम कर रहा है...मुंबई का है,पचास के लगभग उम्र होगी, ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं है ,शायद आठवीं पास हो, लेकिन अपने काम में बहुत होशियार है, जिस मशीन पर लगा दो मस्त उत्पादन देता है. मुझे उसके पास जा कर बात करने में बहुत आनंद आता है क्यूँ की उसकी भाषा और अनुभव दोनों अनूठे हैं. अपने अनुभव से हमें जीवन के वो सब रंग दिखाता है जो हम इतना पढ़ लिख कर भी नहीं देख पाते. आज की ये ग़ज़ल उसी की भाषा और अनुभव के आधार पर लिखी गयी है. उम्मीद है आपको ये खांटी प्रयास पसंद आएगा.

बेजा क्यूँ शर्माने का
अपना हक़ जतलाने का

जीना मुश्किल है तो क्या
इस डर से मर जाने का ?

जब भी जी घबराए तो
गीत लता के गाने का

सबके पास नमक है रे
अपने जख्म छुपाने का

पल दो पल के जीवन में
खिट खिट कर क्या पाने का

देश नहीं जिसको प्यारा
उसका गेम बजाने का

रब को गर पाना है तो
खुद को यार मिटाने का

"नीरज" (पांडू) जी खुश रहने को
कड़वी बात भुलाने का

(गुरुदेव पंकज सुबीर जी के प्रोत्साहन से लिखी ग़ज़ल )