Monday, December 28, 2009

जिसकी शाखें परिंदों के गाने सुनें

सुधि पाठको प्रस्तुत है इस वर्ष की अंतिम ग़ज़ल "नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाओं सहित"



उलझनें उलझनें उलझनें उलझनें
कुछ वो चुनती हमें,कुछ को हम खुद चुनें

जो नचाती हमें थीं भुला सारे ग़म
याद करते ही तुझको बजी वो धुनें

पूछिये मत ख़ुशी आप उस पेड़ की
जिसकी शाखें परिंदों के गाने सुनें

वक्त ने जो उधेड़े हसीं ख्वाब वो
आओ मिल कर दुबारा से फिर हम बुनें

सिर्फ पढने से होगा क्या हासिल भला
ज़िन्दगी में न जब तक पढ़े को गुनें

जो भी सच है कहो वो बिना खौफ के
तन रहीं है निगाहें तो बेशक तनें

अब रिआया समझदार 'नीरज' हुई
हुक्मरां बंद वादों के कर झुनझुनें

(गुरुदेव पंकज सुबीर जी द्वारा दुलारी गयी ग़ज़ल)

Monday, December 21, 2009

किताबों की दुनिया - 20

शायरी करना तो अभी का शौक है लेकिन शायरी पढना बहुत पुराना.बरसों से अच्छे शायरों को पढता रहा हूँ और ये काम अभी भी बदस्तूर जारी है. इसी शौक की वजह से मैं आपका तारुफ्फ़ नयी नयी किताबों से करवाने का प्रयास करता हूँ. किताबों के आलावा नेट पर भी जहाँ कहीं सम्भावना नज़र आये नज़रें दौड़ाता रहता हूँ. 'अनुभूति' मेरी प्रिय साईट है जिसे 'पूर्णिमा वर्मन' जी चलाती हैं.इस साईट पर हर हफ्ते अंजुमन के तहत नए अशार पढने को मिलते हैं. अपनी इसी खोज के दौरान मैं चंद ऐसी ग़ज़लों से रूबरू हुआ जिन्होंने मुझ पर गहरा असर डाला.

शायर का नाम देखा तो मुझे अनजाना लगा. मुझे अनजान शायरों को पढने में बहुत मजा आता है क्यूंकि आप नहीं जानते की वो कैसे हैं, कैसा लिखते हैं, क्या सोचते हैं याने आपके मन में उनकी कोई पूर्व छवि बनी हुई नहीं होती. आप उन्हें निष्पक्ष हो कर पढ़ते हैं. इसी में मजा आता है. वहीँ अनुभूति की साईट पर उनका परिचय भी दिया हुआ था जिसमें उनकी ग़ज़ल की किताब का जिक्र भी था. अनुभूति से ही उनकी मेल का पता मिला और तुरंत उन्हें पुस्तक भेजने का अनुरोध कर डाला.

आज किताबों की दुनिया में उसी शायर "संजय ग्रोवर" जी की किताब " खुदाओं के शहर में आदमी" का जिक्र करूँगा जिसे उन्होंने मुझे कोरियर से भेज अनुग्रहित किया.

संजय जी का 'संवाद घर' के नाम से ब्लॉग भी है.



सबसे पहले तो इस किताब के शीर्षक ने ही मुझे आकर्षित किया. इसी से मुझे शायर की नयी सोच का भान हो गया था, फिर जैसे जैसे मैं इसके वर्क पलटता गया, मेरी सोच पुख्ता होती चली गयी.

मौत की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा

ज़िन्दगी से दोस्ती का ये सिला उसको मिला
ज़िन्दगी भर दोस्तों में अजनबी बन कर रहा

उसकी दुनिया का अँधेरा सोच कर तो देखिये
वो जो अंधों की गली में रौशनी बन कर रहा

एक अंधी दौड़ की अगुआई को बैचैन सब
जब तलक बीनाई थी मैं आखरी बन कर रहा
बीनाई: रौशनी

अपेक्षा कृत युवा (जन्म १९६३) संजय साहब के बागी तेवरों का अंदाज़ा इस बात से हो जाता है की ये किताब उन्होंने तसलीमा नसरीन साहिबा को समर्पित की है. ज्ञान प्रकाश विवेक जी ने इस पुस्तक की भूमिका में सही लिखा है की: अनुभवों की गहराई बेशक संजय की शायरी में न हो, अपने समय की मुश्किलों से मुठभेड़ की जुर्रत मौजूद है.

वक्त का यह कौनसा संवाद है
आदमी अब हर जगह उत्पाद है

भीड़ है भेड़ों की, तोतों की तुकें
जो नया है वो महज़ अपवाद है

क्यूँ अमन के तुम उड़ाते हो कपोत
धर्म का मतलब तो अब उन्माद है

ये छोटी सी किताब है जिसमें कुल जमा चौरासी पन्ने हैं लेकिन हर पन्ना बार बार पढने लायक है. संजय जी ने अपनी ग़ज़लों में बहुत से प्रयोग लिए हैं. उनकी एक ग़ज़ल में पत्थर शब्द का प्रयोग हर शेर में किया गया है लेकिन अलग अलग सन्दर्भों में, उसी ग़ज़ल के चंद शेर देखें:

पत्थरों को भी जो आईनों के माफिक तोड़ दे
इतनी कुव्वत रख सके इक ऐसा पत्थर लाईये

हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये
(इस शेर को पढ़ कर मुझे पुरानी फिल्म 'अंकुर' का अंतिम दृश्य याद आ गया जिसमें एक बच्चा ज़मींदार के घर पर पत्थर उठा कर मारता है)

पत्थरों की मार से महफूज़ रहने के लिए
मंदिरों में पत्थर अपने नाम के लगवाईए

ज्ञान प्रकाश जी भूमिका में आगे लिखते हैं "संजय ग्रोवर की शायरी उम्मीदों और संभावनाओं की शायरी है. शायरी में आकाश को छूने की काल्पनिकता नहीं है. हवा को मुठ्ठियों में कैद करने की जिदें भी नहीं हैं. ज़मीन पर चलने और अपनी जड़ें तलाश करने की बेकरारी जरूर है."

ताज़ा कौन किताबें निकलीं
उतरी हुई जुराबें निकलीं

शोहरत के संदूक में अक्सर
चोरी की पोशाकें निकलीं

मैले जिस्म घरों के अन्दर
बाहर धुली कमीज़ें निकलीं

पानी का भी जी भर आया
यूँ बेजान शराबें निकलीं

संजय जी ने अपने आस पास पनपते विरोधाभास को बखूबी अपनी शायरी में ढाला है. इनकी ग़ज़लें मंचीय नहीं हैं और व्यवस्था विरोध के सरल फार्मूले को अपनाती हैं .उनका प्रयास अच्छे शेर कहने का रहा है और उन्होंने अच्छे शेर कहें भी हैं:

जीती-जगती कलियों को लें तोड़, बनाते हार
पत्थर की दुर्गाओं की फिर पूजा करते लोग

कमज़ोरों के आगे दीखते पत्थर जैसे सख्त
ताक़तवर कोई आये तो फूल से झरते लोग

अपने काम की खातिर देते रिश्वत में परसाद
कहने को सब कहते हैं भगवान् से डरते लोग

संजय जी की ग़ज़लें भारत की प्रत्येक अखबार पत्रिका में छप चुकीं हैं, इसके आलावा दो व्यंग संकलन और दो ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित हो चुके हैं. इस किताब के प्रकाशक स्वयं संजय जी ही हैं इसलिए ग़ज़ल प्रेमियों को उनसे उनके घर 147- ऐ . पाकेट ऐ, दिलशाद गार्डन,दिल्ली - 95 संपर्क करना पड़ेगा अथवा आप उनसे फोन 011-43029750 ,एवं मोबाईल 09910344787 द्वारा भी संपर्क कर सकते हैं.अस्सी रु. मूल्य की ये किताब हर ग़ज़ल प्रेमी को पढनी चाहिए.

आखिर में इस देश के लाखों करोड़ों हिंदी प्रेमियों के लिए उनका ये शेर पेश कर रहा हूँ, जो हमें सोचने को बाध्य करता है.

खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ
अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना

इसी ग़ज़ल के दो शेर और पढ़ते चलिए और संजय जी से संपर्क कर उन्हें इस लाजवाब किताब के लिए बधाई दीजिये. कम से कम इतना तो आप कर ही सकते हैं

दुश्मनों के खौफ से पीछा छुड़ाना हो अगर
दोस्तों में कुलबुलाती दुश्मनी को सोचना

जिस घडी मन कृष्ण जैसी रास लीलाएं रचे
उस घडी इक पल ठहर कर द्रौपदी को सोचना




Monday, December 14, 2009

नाचिये, थाप जब उठे दिल से




चाह कुछ भी नहीं है पाने की
खासियत बस यही दिवाने की

गैर का साथ गैर के किस्से
ये तो हद हो गई सताने की

साथ फूलों के वो रहा जिसने
ठान ली खार से निभाने की

टूट बिखरेगा दिल का हर रिश्‍ता
छोडि़ये जिद ये आजमाने की

सारी खुशियों को लील जाती है
होड़ सबसे अधिक कमाने की

नाचिये, थाप जब उठे दिल से
फ़िक्र मत कीजिये ज़माने की

साफ़ कह दीजिये नहीं आना
आड़ मत लीजिये बहाने की

फैंक दरवाज़े तोड़ कर 'नीरज'
देख फिर शान आशियाने की


(नमन गुरुदेव पंकज सुबीर जी को जिनका स्नेह ग़ज़लें लिखने की हिम्मत देता है )

Monday, December 7, 2009

मैं तस्वीर उतारता हूँ...


फोटोग्राफी मेरा शौक है लेकिन इस विधा में मैं पारंगत नहीं हूँ. मेरे ख्याल से फोटोग्राफी में जो सबसे अहम् बात है वो है आपकी आँख. आप किस वक्त क्या, कैसे देखते हैं, ये बहुत महत्वपूर्ण है . उसके बाद कैमरे की गुणवत्ता और आपके हुनर का नंबर आता है. दरअसल ये सब कुछ होने के बावजूद एक चीज और जरूरी है वो है किस्मत...आप किस समय कहाँ हैं और कैमरे की आँख से क्या पकड़ पाते हैं ये सब आपके हाथ में नहीं होता. बहुत बार बहुत अच्छा दृश्य होने के बावजूद रौशनी या कैमरा आपका साथ नहीं देता या फिर रौशनी और कैमरे का साथ सही होने पर जैसे दृश्य चाहें वैसे नहीं मिलते. अगर इन का सही संगम हो तो फोटोग्राफ यादगार बन जाता है.

भूमिका में ही आपका सारा समय नष्ट किये बैगैर मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ.

अभी कुछ दिनों पहले पूना में फोटोग्राफी प्रदर्शनी लगी हुई थी.एक शाम फैक्ट्री से सीधे प्रदर्शनी देखने जा पहुंचा. अपना सस्ता मोबाईल साथ था ही, उसी से खींची प्रदर्शनी में प्रदर्शित कुछ फोटो दिखाता हूँ जिनको देख मेरे मुंह से वाह निकल गयी थी..

प्रदर्शनी का नाम था "दृष्टिकोण" स्थल के मुख्य द्वार के बाहर लगे बैनर को देख कर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था की अन्दर इतनी खूबसूरत फोटो प्रदर्शित की गयी होंगीं.


प्रदर्शन हाल में कुछ फोटोग्राफी के घनघोर प्रेमियों को देखा जा सकता था .ये लोग आधे आधे घंटे तक एक ही फोटो के सामने खड़े उसकी कम्पोजीशन कैमरे के एंगल, रौशनी आदि तकनिकी बातों पर चर्चा कर रहे थे.


सबसे पहले मुझे शाम के आखरी पहर में झील के किनारे एक ठूंठ से दिखने वाले चित्र ने आगे बढ़ने से रोक दिया. आपजो देख रहे हैं वो असली चित्र का प्रतिबिम्ब मात्र है इसलिए हो सकता है की इसकी असली खूबसूरती पकड़ में ना सके, फिर भी काले, हलके नीले, बैगनी और नारंगी रंगों की छटा तो आप देख ही सकते हैं...


तार पर बैठे दो प्रतीक्षा रत छोटे पक्षी और दूर से उनकी और आती उनकी माँ का ये फोटो, फोटोग्राफर की अच्छी किस्मत का ही परिणाम है, क्यूँ की ये दृश्य क्षणिक है और उसे सही समय में पकड़ना इतना आसान नहीं है.


इसी तरह एक पक्षी द्वारा अपने शिकार को खाते हुए का ये फोटो दांतों तले ऊँगली दबाने को बाध्य करता है क्यूँ की इस फोटो में पक्षी ने अपने भोजन के लिए पकडे पतंगे को चौंच द्वारा काट कर दो टुकड़े कर डाले हैं और एक टुकड़ा टूट कर गिरता हुआ नज़र आ रहा है. ये भी किस्मत से सही समय पर लिया गया फोटो है.


पक्षी का ही एक और फोटो, फोटो ग्राफी कला का अनूठा नमूना है. इस फोटो में पक्षी के पंखों से झरती रौशनी को क्या खूब कैद किया है. मेरी नज़र में ये एक दुर्लभ फोटो है. विशेषग्य शायद इस बारे में कुछ और राय रखें लेकिन मुझे ये चित्र ग़ज़ब का लगा.


ब्लैक एंड वहाईट याने श्वेत श्याम फोटो अब गुज़रे कल की बात हो गयी है. कुछ फोटो ग्राफर अब भी ये मानते हैं की जो तिलिस्म श्वेत श्याम फोटो से पैदा होता है, रंगीन फोटो उस तक नहीं पहुँच सकती. इस प्रदर्शनी में प्रदर्शित दो चार श्वेत श्याम चित्र इस बात की पुष्टि भी करते नज़र आये. आप बताएं क्या ये भावी सचिन तो नहीं?


इसी कड़ी में एक लद्दाखी वृद्ध महिला का अपने चश्मे को पोंछते हुए का फोटो भी उलेखनीय है. फोटो ग्राफर इसके लिए प्रशंशा का पात्र है.


पोर्ट्रेट फोटोग्राफी में खासी अहमियत रखता है. स्टूडियो की चार दिवारी में पोर्ट्रेट खींचना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है लेकिन उस चार दिवारी के बाहर कोई पोर्ट्रेट खींचना बहुत मुश्किल काम है. आप इस फोटो को देख कर शायद मेरी बात पर यकीन करें.


एक और चित्र जिसने मुझे ठिठकने पर मजबूर किया वो था एक प्रतीक्षा रत युवती का. इस चित्र का गहरा प्रभाव देखने वाले के साथ दूर तक चलता है.


आयीये अब जरा रंगों का खेल देखा जाए. सबसे पहले देखते हैं एक नदी में सूर्यास्त के समय एकाकी नौका का ये फोटो जो हतप्रभ कर देता है. ढलता सूर्य कहीं नहीं है लेकिन उसकी लालिमा से सारा माहौल लाल हो गया है .


इसी लालिमा को अब देखते है आकाश पर. इन चित्रों को देख कर भरत व्यास जी का गीत " ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार ..." याद आ जाता है.


अब देखिये अजीब विरोधाभास इस फोटो में. होली के रंगों के बीच एक सफ़ेद कपडे पहना व्यक्ति अपने आपको लगता है बहुत असहज महसूस कर रहा है.


नृत्य और रंगों का एक गहरा सम्बन्ध है. नृत्य उल्हास का प्रतीक हैं और रंग भी तभी अधिकाँश नृत्यों में रंग बिरंगे वस्त्रों का उपयोग किया जाता है.शायद ही कोई नृत्य बिना श्रृंगार और तड़क भड़क वाले रंगीन कपड़ो के संपन्न किया जाता हो. इसी बात को फोटो ग्राफर ने अपनी इस फोटो में प्रदर्शित किया है.


इस प्रदर्शनी में सौ से ऊपर फोटो प्रदर्शित किये गए थे जिनमें से कुछ को ही मैं आप तक पहुंचा पाया हूँ. उम्मीद करता हूँ की मेरी ये पोस्ट भी पिछली बार की 'रंगोली' की तरह ही पसंद की जाएगी. आप अपने उदगार व्यक्त करें ताकि भविष्य में इस तरह के काम और भी किये जाएँ.