हमारी आंख में खद्दर के ख़्वाब बिकते थे
तुम आए और यहां बोस्की के थान खुले
ये कौन भूल गया उन लबों का ख़ाका
यहां
ये कौन छोड़ गया गुड़ के मर्दबान खुले
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बिछड़ गए तो ये दिल उम्र भर लगेगा नहीं
लगेगा लगने लगा है मगर लगेगा नहीं
बहुत तवज्जो तअल्लुक़ बिगाड़ देती है
ज़ियादा डरने लगेंगे तो डर लगेगा नहीं
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अगले वक़्तों में भी मिलती थी जहालत को सनद
लेकिन इस दर्जा पज़ीराई नहीं मिलती थी
सनद: मान्यता, पज़ीराई: प्रशंसा
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ये तलबगार निगाहों के तक़ाजे हर सू
कोई तो ऐसी जगह हो जो मुझे घर न लगे
बांझ फ़नकार जिस पर कोई तनक़ीद न हो
बे-समर होता है जिस पेड़ को पत्थर न लगे
ये जो शेर अभी आपने पढ़े हैं ,ये जनाब "उमैर नजमी" साहब के हैं। अगर आप ने उन्हें कहीं नहीं पढ़ा तो लाज़मी है कि आप पूछें 'उमैर नजमी' कौन ? जैसे मैंने जब उनका नाम पहली बार फेसबुक पर पंजाब होशियारपुर जिले के गाँव क़ुराला में रहने वाले शायर जनाब ' विकास दीप मुसाफिर' की पोस्ट पर कुछ दिनों पहले ही पढ़ा तो खुद से यही सवाल किया था 'उमैर नजमी' कौन?'
विकास दीप' जी शायरी के घनघोर प्रेमी हैं और ग़ज़ब के पढ़ाकू भी। वो रात दो बजे उठा कर पढ़ना शुरू करते हैं और सुबह तक पढ़ते ही रहते हैं। उस पोस्ट में 'विकास दीप' जी ने उमैर साहब की शायरी की तारीफ़ तो की ही लेकिन साथ ही बाकि के तमाम शायरों को उन जैसी शायरी करने की सलाह भी दे डाली। उनकी इस सलाह को पढ़ कर बहुत से शायर उनसे ख़फ़ा हो गए। वैसे ख़फ़ा होने वाली कोई बात थी नहीं क्यूंकि 'विकास दीप' की सलाह उनकी अपनी सोच से दी गयी थी उस पर ऐतराज़ करने जैसी कोई बात होनी नहीं चाहिए थी लेकिन हुई। मेरे देखे तनकीद करने का अधिकार सब को है उसे मानने न मानने का अधिकार भी सब को है। 'उमैर नजमी' पर छिड़ी बहस से मुझे उन्हें पढ़ने की उत्सुकता हुई लिहाज़ा वो किताब मंगवाई गयी जिस किताब को पढ़ कर 'विकास दीप ' जी ने पोस्ट लिखी थी।
वो किताब थी ' आखिरी तस्वीर' जिसे 'रेख़्ता पब्लिकेशन' ने प्रकाशित किया है।103 पेज की इस किताब में उनकी 85 ग़ज़लें संकलित हैं। 'विकास दीप' जी ने अपनी पोस्ट में सिर्फ 'उमैर नजमी' की इस किताब का ही जिक्र किया था उस के शेर साझा नहीं किये थे। मैं आपसे उस किताब से कुछ शेर साझा कर कर रहा हूँ।आप इन्हें पढ़ें और खुद फैसला करें कि वो कैसे शायर हैं।
मैं हूं, तुम हो, बेलें, पेड़, परिंदे हैं
कितने अरसे बाद मुकम्मल जंगल है
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ये इन्तिज़ार हमें देखकर बनाया गया
जुहूर-ए-हिज्र से पहले की बात हैं हम लोग
जुहूर-ए-हिज्र:विरह के जन्म
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मैं जुज़्वी अंधा था दो चार रंग दिखते थे
मगर जब उसने कहा 'देख' सब दिखाई दिए
जुज़्वी : थोड़ा सा
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अहल-ए-खाना मुझे अब वक्त नहीं दे पाते
वैसे हर साल जनमदिन पे घड़ी मिलती है
अहल-ए-खाना : घर के लोग
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दूसरी बार भी इश्क़ उसी से हुआ
इक ज़मीं में ग़ज़ल हो गई दूसरी
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परिंदे क़ैद है तुम चहचहाहट चाहते हो
तुम्हें तो अच्छा ख़ासा नफ़्सियाती मसअला है
नफ़्सियाती : मनोवैज्ञानिक
पाकिस्तान के पंजाब के शहर 'रहीम यार खान' में 2 सितम्बर 1986 को पैदा हुए मोहम्मद उमैर उर्फ़ 'उमैर नजमी' के घर का माहौल शायराना था। उनकी अम्मी और अब्बा को शायरी पढ़ने का शौक था जो धीरे धीरे उमैर में भी आ गया। बैतबाजी का प्रोग्राम वो बड़ी दिलचस्पी से देखते। जहाँ उनके साथियों को उर्दू लिखने पढ़ने में दिक्कत होती थी वहीँ उनको इस ज़बान से मोहब्बत हो गयी। एक बार स्कूल में उन्हें कहानी लिखने का काम दिया और उन्होंने पूरी कहानी पद्य में लिख डाली। उस्ताद देख कर हैरान हुए कि इस छोटे से बच्चे ने एक जगह भी 'बहर', 'काफिये' या 'रदीफ़' की गड़बड़ नहीं की। इससे पता चलता है कि शायरी उनके भीतर थी। वैसे भी जिसके भीतर शायरी नहीं होती वो इंसान शायरी नहीं कर सकता। कोई भी, कितना भी बड़ा उस्ताद हो वो अपने शागिर्द को शायरी के व्याकरण में माहिर कर सकता है लेकिन उससे अच्छा शेर नहीं कहलवा सकता।
स्कूल से कॉलेज तक आते आते उनका शायरी का ये शौक जूनून में बदल गया। लोग उन्हें उनकी शायरी से पहचानने लगे। पाकिस्तान से उनकी मक़बूलियत हिंदुस्तान में महाराष्ट्र के शायर और राजनीतिज्ञ 'इमरान प्रतापगढ़ी' के माध्यम से तेजी से फैली। ये सन 2015 की बात है जब 'इमरान' साहब ने फेसबुक पर उनकी ग़ज़ल 'जंगल है' को पढ़ा और वो विडिओ वायरल हो गया।
निकाल लाया हूं एक पिंजरे से इक परिंदा
अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है
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कितना आसान है तन्हाई को दोहरा करना
सिर्फ़ कमरे में लगे आईने तक जाता हूं
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उसको पर्दे का तरद्दुद नहीं करना पड़ता
ऐसा चेहरा है कि देखें तो हया आती है
तरद्दुद : औपचारिकता
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वो, जिनको मांगना भी पड़े, और लोग हैं
हम लोग आसमाॅं की तरफ देखते हैं बस
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मैं ला-इलाज हो गया हूं, यूं पता चला
इक दिन बिना बताए दवा रोक दी गई
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किसी गली में किराए पे घर लिया उसने
फिर उसे गली में घरों के किराए बढ़ने लगे
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मैं चाहता था मुझसे बिछड़ कर वो खुश रहे
लेकिन वो खुश हुआ तो बड़ा दुख हुआ मुझे
अपने बारे में बात करते हुए 'उमैर' कहते हैं कि " मेरा कोई एक उस्ताद नहीं बल्कि हर अच्छा शायर मेरा उस्ताद है, किताबें मेरी उस्ताद हैं । मैं किसी एक से इस्लाह नहीं लेता, हम कुछ दोस्त आपस में मिलते हैं एक दूसरे को अपना कलाम सुनाते हैं और मश्वरा लेते देते हैं। मैं कोशिश करता हूँ कि बात चाहे पुरानी हो लेकिन कही नयी तरीके से जाय। मैं कोई नयी खोज कर रहा हूँ ऐसा नहीं है। शेर कहते हुए ख़्याल रखता हूँ कि क्या नहीं कहना है।"
उनकी बीवी, जो उनकी पहली मोहब्बत हैं, उनकी पहली श्रोता होती हैं। ये किताब उन्हें समर्पित करते हुए वो लिखते हैं 'शुक्रिया उस हमसफ़र का जिसने मुझे ज़िन्दगी की सड़क पर कहीं देख कर चुना और फिर मैंने जो कहा सब सुना। "
इस किताब में छपी संक्षिप्त भूमिका में वो लिखते हैं " मेरा मानना है कि कोई आदमी शायरी को नहीं चुनता बल्कि शायरी आदमी को चुनती है। शायरी मुझ पर एहसान है, मुझ जैसे अंतर्मुखी और एकांत प्रिय व्यक्ति को हज़ारों की भीड़ में अपने दिल की बात कहना इसी ने सिखाया है।"
'उमैर' हर वक्त शायरी के मूड में होते हैं। चलते -फिरते अगर कोई मिसरा या ख्याल दिल में आता है तो उसे वो अपने मोबाईल पर लिख या बोल कर सेव कर लेते हैं और फिर फुर्सत मिलने पर उस पर काम करते हैं। सोशल मिडिया पर भी वो जयादा एक्टिव नहीं होते। अपनी निजी ज़िन्दगी की बातें वो वहां शेयर नहीं करते वहां सिर्फ अपनी शायरी पोस्ट करते हैं। उनकी सोशल मिडिया पोस्ट्स को उनकी बीवी ही संभालती हैं।
ढेरो अवार्ड्स से नवाज़े गए 'उमैर' ने आर्किटेचर इंजीनियरिंग की पढाई की है और वो अपने शहर 'रहीम यार खान' में भवन निर्माण के काम में व्यस्त रहते हैं। आईये आखिर में पढ़ते हैं इस किताब से लिए उनके कुछ और शेर:-
मुझ में छुपे हुनर को किया ग़म ने यूं अयां
मिट्टी पे गिर के जैसे उड़ा दे महक, नमी
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कभी-कभी किसी ठंडी सड़क पर रात गए
किसी की दी हुई जर्सी से ऊन खींचता हूं
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छतें टपकना भी एक नेमत है, मुद्दतों बाद
हमारे घर के तमाम बर्तन भरे हुए हैं
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किसी के आने से ऐसी हलचल हुई है मुझ में
ख़मोश जंगल में जैसे बंदूक चल गई हो
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तंग बाजार में फ़ेहरिस्त लिए सोचते हैं
और क्या लेंगे अगर सांस नहीं ले सकते
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जो लोग रोते नहीं हैं बिखरने लगते हैं
बहुत जरूरी है नम, ख़ाक की जड़त के लिए
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ये और बात की फिर खुल गए सभी के लिए
तू दिल के बंद किवाड़ों पर पहली दस्तक था