दुखों से दाँत -काटी दोस्ती जब से हुई मेरी
ख़ुशी आए न आए जिंदगी खुशियां मनाती है
*
किसी की ऊंचे उठने में कई पाबंदियां हैं
किसी के नीचे गिरने की कोई भी हद नहीं है
युगों से जिसकी गाथाएं सुनी जाती रही हैं
न जाने क्यों मुझे लगता वही शायद नहीं है
*
रुदन कर नैन पथराए कभी के
भले ही आज टूटी चूड़ियां हैं
*
हाथ गर आईना नहीं होता
हाथ मेरे भी क्या नहीं होता
आपका अपना इक नज़रिया है
कोई अच्छा बुरा नहीं होता
*
जब से रहबर के हाथ में आई
सारे घर को डरा रही माचिस
जल्द-ही वोट पड़ने वाले हैं
देखिए कुलबुला रही माचिस
*
गायकी हमने भी सीखी लेकिन
राग दरबारी सुनाते न बने
गैर तो छूट गए पहले ही
अब तो अपनों से निभाते न बने
*
आज भी मिलते तपस्वी ऐसे
जो अहिल्या को शिला करते हैं
आपने ऊपर जो शेर पढ़े ये हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार श्री 'राजेंद्र वर्मा' जी की क़लम का चमत्कार हैं। वर्मा जी स्वयं को हिंदी ग़ज़लकार कहते हैं क्यूंकि उनकी ग़ज़लों में आप तत्सम (संस्कृत से बिना किसी बदलाव के आये ) और तद्भव (संस्कृत के कुछ बदलाव के साथ आये ) शब्दों के समावेश के साथ साथ हिंदी के मुहावरों में ढली भाषा, भारतीय पौराणिक मिथ, ऐतिहासिक सन्दर्भ और देशज बिम्ब-प्रतीक भी पाते हैं। वैसे हिंदी ग़ज़ल की शुरुआत तो अमीर खुसरो से मानी जाती है बाद में निराला, त्रिलोचन, शमशेर, नीरज आदि की ग़ज़लों से इसकी पहचान बनी जो दुष्यंत की ग़ज़लों से पुख्ता हुई।
हमारे सामने श्री 'राजेंद्र वर्मा' जी की ग़ज़लों की किताब ' प्रतिनिधि ग़ज़लें' खुली हुई है जिसमें उनकी 95 ग़ज़लें संग्रहित हैं. इस किताब को 'प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़ल संग्रह' योजना के अंतर्गत डॉ. 'गिरिराजशरण अग्रवाल' जी के प्रयास से 'हिंदी साहित्य निकेतन' बिजनौर द्वारा प्रकाशित किया गया है। आप इस किताब को प्रकाशक से 07838090732 पर संपर्क कर अथवा अमेज़ॉन से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं।
8 नवम्बर 1957 को ग्राम-सधई पुरवा ( धमसड़), जनपद बाराबंकी (उत्तर प्रदेश ) में जन्में 'राजेंद्र' जी विलक्षण प्रतिभा के धनि हैं। माँ सरस्वती की इनपर विशेष कृपा रही है। आपने हिंदी ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र के अलावा साहित्य की अन्य विधाओं जैसे कवितायेँ ,हाइकु और तांका कवितायेँ ( ये दोनों जापान से आयी कविता की विधियां हैं ), दोहे , मुक्तक, नवगीत, उपन्यास, मुक्त छंद कवितायेँ, व्यंग, निबंध, आलोचना तथा कहानी आदि में भी सफलता पूर्वक लेखन किया है। इन सभी विधाओं पर उनकी किताबें प्रकशित हो कर प्रसिद्ध हो चुकी हैं।
ये तो कहिए की कमर सीधी है
वरना अपने भी पराए लगते
*
हमीं उम्मीद रखें आंधियों से
कि वे बरतेंगी दूरी बस्तियों से
मुई ये भूख बढ़ती जा रही है
हया ने बैर ठाना पुतलियां से
*
जब से जाना कि मैं स्वयं क्या हूं
मुझको दुनिया ही लग रही अपनी
*
यूं तो हवन अनेक हुए जोर-शोर से
अवगुण मगर मैं एक भी स्वाहा न कर सका
*
देखा जो नयन मूंद के दुनिया का नज़ारा
कोई न शहंशा यहां कोई रियाया
*
रोटी की बात करना लेकिन अभी ठहर जा
इतिहास से अभी वे गांधी मिटा रहे हैं
*
शिशु है मां की गोद में
दोनों में उल्हास है
आकर्षण ही मिट गया
आत्मन इतना पास है
कविता से उनका लगाव विद्यार्थी जीवन से रहा लेकिन सृजन का संयोग देर से हुआ। उन्होंने 1977 में एक गद्य कविता लिखी और उसे अमृतलाल नगर जी को दिखाया तो उन्होंने कहा ' तेवर तो तुम्हारे निराला वाले हैं लेकिन अभी पढ़ो और हाँ ,कम से कम पाँच सालों तक कुछ मत लिखो'। ' नागर जी' का ये सूत्र उन सभी लेखकों के लिए है जो लिख कर रातों रात प्रसिद्द होना चाहते हैं। हर लेखक को, वो चाहे किसी भी विधा में लिखे, सबसे पहले खूब पढ़ने की आदत डालनी चाहिए। 'राजेंद्र' जी ने 'नागर' जी की बात को गंभीरता से लिया और अगले पांच साल सिर्फ और सिर्फ पढाई की।
उसके बाद पहली कहानी सं 1982 में लिख कर जब उसे 'नागर' जी को दिखाया तो बड़े खुश हुए और कुछ सुझाव भी दिए।
विधि स्नातक 'राजेंद्र' जी ने 'स्टेट बैंक आफ इंडिया' में नौकरी की और फिर वहीं से मुख्य प्रबंधक के पद से सेवा निवृत हुए। सेवा निवृति के बाद अब वो स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। भीमसेन जोशी जी के गाये ध्रुपद, हरी प्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी और सेमी क्लासिकल फ़िल्मी गीतों के प्रेमी 'राजेंद्र जी की साहित्य साधना पर लखनऊ विश्व विद्यालय द्वारा एम् फिल भी दी गयी है। अनेक विश्वविद्यालयों के शोध ग्रंथों में उनका सन्दर्भ आया है। उनकी ग़ज़लों तथा लघु कथाओं का पंजाबी भाषा में अनुवाद भी हुआ है। राजेंद्र जी की रूचि सार्थक एवं मनोरंजक फ़िल्में देखने तथा समय मिलने पर पर्यटन में भी है।
राजेंद्र जी को उनकी बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के लिए 'उत्तर प्रदेश के हिंदी संस्थान का श्री नारायण चतुर्वेदी तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, अखिल भारतीय लघु कथा सम्मान, पटना, तथा 'कथा बिम्ब (मुंबई) पत्रिका द्वारा कमलेश्वर कहानी सम्मान के अलावा वो देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं।
आप राजेंद्र जी को उनके इस ग़ज़ल संग्रह तथा अन्य साहित्यिक उपलब्धियों के लिए 8009660096 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं।
धारा में बहते रहते हो
तुम इसको जीवन कहते हो
ये दुनिया तो फ़ानी ठहरी
जिसमें तुम डूबे रहते हो
*
सोच रहा है गुमसुम बैठा राम भरोसे
कब तक आख़िर देश चलेगा राम भरोसे
गांधी के तीनों बंदर, बंदर ही निकले
बांच रहा बस उनका लेखा राम भरोसे
*
यश की भी अभिलाषा का अंत हुआ
अब जीवन को जीना परिहास नहीं
*
मैंने भी पत्नी की जांच रिपोर्टे देखी हैं
अपनों से भी दिल का हाल छुपाना पड़ता है
*
चूरन, चुस्की, चाट-समोसा फिर बुढ़िया के बाल
हामिद तो चिमटा ले आया, लाया कौन त्रिशूल
*
सात दशकों की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है
पिस रहे गेहूं बराबर, पिस न पाया एक घुन
*
आप 'कालिदास' से भी दो कदम आगे बढ़े
वृक्ष ही को काट देंगे, ये कभी सोचा न था
*
अब तो कौरव और पांडव एक हैं
द्रोपदी का चीर हरने के लिए
जाप मृत्युंजय का करता है वही
जो है जीवित मात्र मरने के लिए