Monday, November 4, 2024

किताब मिली -शुक्रिया - 19


ऐ हमसफ़र ये याद रख, तेरे बिना यह ज़िंदगी 
कि सिर्फ़ धड़कनों की खींच-तान है, थकान है 

रहे जब उसके दिल में हम, तो हम को ये पता चला 
वो बंद खिड़कियों का इक मकान है, थकान है
*
अगर जो देना ही चाहते हो तो साथ देना 
वग़रना दुनिया में मशवरों की कमी नहीं है 
*
जितना मैं बात करती हूं बढ़ती है ख़ामुशी 
इस ख़ामुशी को और बढ़ा मुझसे बात कर 

शब भर में देखती रही तारों की सम्त और 
शब भर चराग़ कहता रहा, मुझसे बात कर
*
सफ़र में नींद के मुमकिन न था ठहरना कहीं 
तो हमने ख़्वाब तेरे रक्खे साथ, चलने लगे
*
अजब है मौत का यह ख़ौफ़ उम्र भर जिसने 
का ज़िंदगी से मेरा राब्ता न होने दिया 

बना के अपना, मिटाया मेरे वजूद को यूं 
कि उसने ख़ुद से मेरा सामना न होने दिया

बात काफी पुरानी है। शायद 2014 की , मैं प्रगति मैदान के राष्ट्रीय पुस्तक मेले के हॉल नंबर 2 में शिवना प्रकाशन जहाँ मेरा ठिकाना था दोपहर को उठ कर बाहर आया। हल्की हल्की भूख लगी थी सोचा कुछ खाते हैं तभी पीछे से आवाज़ आयी ' नीरज जी नमस्ते' मैंने पीछे मुड़ के देखा तो बेहद सलीके से सजी एक लड़की मुस्कुराती नज़र आयी , नज़र मिलते ही बोली 'पहचाना ?  मैं मीनाक्षी'. मुझे हतप्रभ देख हंसी और सहजता से बोली 'अरे मैं आपसे कभी मिली नहीं तो पहचानेगें कैसे ?'  मैं आपके ब्लॉग की नियमित पाठक हूँ जिसमें आप ग़ज़ल की किताबों पर लिखते हैं, मैंने एक लिस्ट बना रखी है, वो किताबें मुझे इस पुस्तक मेले से खरीदनी हैं,आप मेरी मदद करेंगे ?' उसने वो लिस्ट मुझे पकड़ाई जिसमें वो सब किताबें थीं जो एक अच्छे शायर को पढ़नी चाहियें। लिस्ट से एक बात साफ़ हो गयी की 'मीनाक्षी' एक संजीदा पाठक है। लेखक के लिए संजीदा पाठक मिलना किसी भी पुरूस्कार से कम नहीं। 'चलिए ढूंढते हैं इन किताबों को, आपकी मदद कर मुझे बहुत ख़ुशी होगी' मैंने कहा, तो वो हँसते हुए बोली पहले 'थोड़ी पेट पूजा हो जाये सुबह से घूम रही हूँ थक भी गयी हूँ और भूखी भी हूँ' . मैंने कहा ,शौक से खाइये मैं आपका  शिवना प्रकाशन के स्टॉल पर इंतज़ार करता हूँ, तो वो तपाक से बोली ' ऐसे कैसे सर आप भी आईये वैसे आप पता नहीं कैसा खाना खाते हैं मैं तो जो घर से बना कर लायी हूँ वही खिला सकती हूँ शायद आपको पसंद आ जाये आईये न'। जिस अपने पन से मीनाक्षी ने आग्रह किया उस से या फिर पेट में उछलकूद मचा रहे चूहों के आतंक से, कारण कुछ भी रहा हो, मैं इस निमंत्रण को ठुकरा नहीं सका। यकीन मानिये, उस दिन मीनाक्षी के हाथ की बनी आलू गोभी की सब्ज़ी का स्वाद आज भी ज़बान पर है। 

मीनाक्षी से उसके बाद कभी कबार फोन पे बात होती रही। उसे मलाल रहता कि उसे लिखने का वक़्त बहुत कम मिलता है। बात सही भी थी उसके दो स्कूल जाने वाले बच्चे थे, खुद भारतीय जीवन बीमा निगम में अधिकारी थी और  फरीदाबाद के घर से उसके दिल्ली के दफ्तर की दूरी भी बहुत थी। घर गृहस्ती सँभालते हुए भी उसने लिखना पढ़ना नहीं छोड़ा। शायरी के प्रति ये जूनून बहुत कम देखने को मिलता है। 

अभी खुशी से ही दूर हुए हैं मगर किसी दिन 
हमें उदासी की भी ज़रूरत नहीं हुई तो?
*
लम्स तेरी उंगलियों का चाहते हैं हर घड़ी 
तू मेरे इन उलझे उलझे गेसुओं की ज़िद समझ
*
हमने हर उड़ते परिंदे को दुआएं दी हैं 
जब भी सूखे हुए तालाब की जानिब देखा 
*
इक रोज़ हम आएंगे तेरे ख़्वाब से बाहर 
इक रोज़ तो हम खुद पे ये एहसान करेंगे
*
बिछड़ के सामने आई है दोनों की फ़ितरत 
वो क़िस्सा गो है उधर और हम इधर चुप हैं 

सवाल इश्क़ पर हम उसे कर तो लें लेकिन 
हम इस सवाल से आगे का सोच कर चुप हैं

सन 2018 के पुस्तक मेले में उस से फिर एक संक्षिप्त सी मुलाकात हुई बोली 'मैं भी चाहती हूँ कि मुशायरे पढूं लेकिन आयोजक बुलाते ही नहीं।  जो थोड़े बहुत बुलाते भी हैं वो समय नहीं देते।' उसका ये दुःख अकेले उसका नहीं है बल्कि हर उस शायर का है जो संजीदगी से लिखता है और सीधे सीधे अपनी बात कहता है। मैंने उसे कहा की आजकल ज़माना दिखावे का है , नौटंकी का है। आप क्या सुना रहे हो ये महत्वपूर्ण नहीं है, कैसे सुना रहे हो ये महत्वपूर्ण है.आप किसी भी मुशायरे में चले जाएँ आपको वहां दाद के लिए भीख मांगते , हाथ पाँव पटकते, उछलते, गाते और अपनी बरसों पुरानी शायरी सुनाते हुए शायर दिखाई देंगे। उनका, किसी भी कीमत पर दर्शकों से बैठे बैठे या खड़े हो कर हाथ उठा कर वाह वाह बुलवाना या तालियां बजवाना ही अंतिम उद्देश्य है। आयोजक पैसे भी उन्हें ही देता है। इसमें गलत कुछ नहीं क्यों की अब मुशायरे साहित्य की सेवा नहीं है, बाजार है और बाजार में जो चीज़ लोग पसंद करते हैं वो ही बिकती है। हर क्षेत्र में गलाकाट प्रतियोगिता है कोई किसी को आगे नहीं आने देता। अच्छे पढ़ने वालों को पीछे बैठे वरिष्ठ शायर ही घटिया जुमलों या फिर हिक़ारत भरी नज़र से देख ,मानसिक रूप से प्रताड़ित करते देखे गए हैं। कुछ मठाधीश अपने मठ के सदस्यों के साथ ही मंच आते हैं अगर आप उनके मठ के सदस्य नहीं हैं तो फिर आपके लिए अपनी जगह बनाना ही मुश्किल है।     

ऐसा आजकल ही नहीं हो रहा है ये चलन तो न जाने कब से है।  मुझे याद आती है 1965 में बानी एक मज़ेदार फिल्म ' भूत बंगला '। उस फिल्म में एक सीन है जिसमें किसी क्लब में संगीत प्रतियोगिता होती है और हीरोइन 'तनूजा',  हीरो 'मेहमूद' साहब फ़ाइनल में हैं। फैसला एक ताली मीटर से होना है।  याने एक यंत्र जिसकी सुई, तालियों की गड़गड़ाहट से चल कर अंक देती है। पहले 'तनूजा' जी 'लता' जी की आवाज़ में एक बेहद सुरीला गीत गाती हैं 'ओ मेरे प्यार आजा बनके बहार आजा' , इस पर तालियां बजती हैं और ताली मीटर की सुई 95 तक चली जाती है।  उसके बाद 'मेहमूद' साहब बहुत से लटके झटकों के साथ ' आओ ट्विस्ट करें गा उठा है मौसम' मन्नाडे की आवाज़ में गाते हैं , नतीजा ताली मीटर की सुई 100 तो पार करती ही है साथ में टूट के गिर भी जाती है। आज भी सलीके पर फूहड़ता हावी है। आप चाहें तो ये सीन यूट्यूब पर देख सकते हैं। 

खैर !! ये सब तो चलता रहेगा हम इस बात को यहीं छौड़ कर मीनाक्षी जिजीविषा साहिबा की ग़ज़लों की पहली किताब ' 'दरमियान' पर लौटते हैं जिसे श्वेतवर्णा प्रकाशन नयी दिल्ली ने 2022 में प्रकाशित किया था। आप इस किताब को प्रकाशक से 8447540078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।      'मीनाक्षी जी' की ग़ज़लों की ये भले ही पहली किताब हो लेकिन इस से पहले उनकी आठ जी हाँ आठ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वो हिंदी साहित्य का एक रौशन नाम हैं। उन्होंने उर्दू,, पंजाबी और अंग्रेजी ज़बानों में भी अपनी कलम चलाई है।    

चलो इश्क़ से आगे निकल के सोचें हम 
दिए बना लिए अब रौशनी बनाते हैं 

ग़ुलामी जहन से उनके नहीं गई अब तक 
जो लोग आज भी कठपुतलियां बनाते हैं
*
ये चांद करता है आराम जब अमावस में 
सियाह रात में तारों पे बोझ पड़ता है 

तुम्हारी याद की उजड़ी हुई हवेली में 
है इतनी धूल के सांसों पे बोझ पड़ता है
*
चलूं नक्श़-ए- क़दम पे मैं तो सब कुछ ठीक है लेकिन 
अलग रस्ते बनाती हूं तो रहबर रूठ जाता है
*
जलना नसीब में है मिट्टी के गर हमारी 
तो फिर चराग़ बनकर जलने में हर्ज क्या है
*
तुमको मालूम नहीं उसकी तड़प का आलम 
वो परिंदा की जो होता है रिहा आख़िर में

हरियाणा के हिसार में 19 मई को जन्मी 'मीनाक्षी' जी ने विज्ञान विषय में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की और अब फरीदाबाद में स्थाई रूप से रहती हैं। 'मीनाक्षी' जी की लेखन यात्रा के बारे में आईये उन्हीं के शब्दों में पढ़ते हैं। वो लिखती हैं कि 'अपने शेरी सफ़र के बारे में अपनी सुख़न-शनासी के बारे में अगर कुछ कहना है तो इसके लिए मुझे गुज़रे वक़्त का सिरा पकड़ कर बचपन की उन गलियों में जाना पड़ेगा जहाँ मैं बंद गली के आख़री मकान के सहन में एक चटख़ रंग की फ्राक पहने एक बेहद मासूम और चुपचाप सी लड़की को देखती हूँ जो दुनिया को बड़ी हैरत भरी नज़र से तकती है। उसके मन में हज़ारों सवाल हैं पर जवाब नदारद। जब मन की गहराइयों में से ये सवाल बादलों की तरह शोर करते तो वो कॉपी के आख़री पेज पर उन्हें दर्ज़ करती।  उसे पता नहीं था वो क्या है नज़्म, नस्र या ग़ज़ल। हाँ. लिखने के बाद एक सुकून सा जरूर मिलता था। मेरे पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था वो क़ायदे से रोज़ाना लुग़त के दस पेज पढ़ते उसके बाद हिंदी अंग्रेजी उर्दू में छपे अख़बार, रिसाले और किताबें। उन्हें मुशायरे सुनने का शौक था और वो सुनते ही नहीं थे बल्कि अपने पसंददीदा अशआर डायरी में नोट भी करते थे। आप यूँ कह सकते हैं कि उर्दू ज़बान और शायरी मुझे विरासत में मिली। बाहरी दुनिया के आडम्बरों, खोखलेपन,रिश्तों में पोशीदा खुदगर्ज़ी और ज़िन्दगी की जद्दोजहद से उपजे ख़ालीपन और उकताहट ने मुझे लफ़्ज़ों के और करीब ला दिया।ज़िन्दगी क्या है एक सफ़र ही तो है एक तलाश खुद को खोजने और पा लेने की।  इस सफ़र की मंज़िल तक पहुँचने के सबके अलग-अलग रास्ते हैं। कोई इबादत करता है तो कोई प्रेम कोई अक़ीदत से तो कोई इल्म के रास्ते पहुंचे तो कोई फ़न के रास्ते से इस मंज़िल को पाता है। ईश्वर ने मुझे ये हुनर दिया है कि मैं क़लम के रास्ते इस सफ़र को पूरा करूँ। मैं खुद को लफ़्ज़ों में ही पाती हूँ और लफ़्ज़ों में ही खुद को खो देना चाहती हूँ। अदब ही मेरी रूह की तस्कीन है। लफ्ज़ ही मेरी जिजीविषा (ज़िंदा रहने की चाह) को बनाये रखते हैं व् मुझे ज़िन्दगी और नजात की ख़ुशी देते हैं।'

मशहूर शायर 'फरहत एहसास' साहब इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि ' ग़ज़ल की शायरी कम से कम लफ़्ज़ों में ज़ियादा से ज़ियादा मानी अदा करने की कला है, लेकिन कुछ इस तरह, कि कला और भाव पक्ष एक दूसरे में पूरी तरह पैवस्त रहें अलग-अलग न रहें।  ये सूरत इस किताब के बहुत से श्रोण में नज़र आती है। 'मीनाक्षी' जी की ग़ज़लों का मिज़ाज क्लासिकी है।    
जनाब 'सैय्यद हुसैन ताज 'रिज़वी ' साहब लिखते हैं कि ' मीनाक्षी की शायरी में जहाँ आम इंसान हैं वहीँ ख़ास बन्दे भी हैं।  इनकी शायरी को किसी ख़ास फ़िक्री तबके में क़ैद नहीं किया जा सकता। 
जनाब 'इरशाद अज़ीज़' साहब इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि 'एक हस्सास तबियत की शायरा ज़माने के ग़म अपना बनाकर जब इतनी शिद्दत से बयां करती है तो ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि दर्द ज़माने का है या शायरा का अपना जाती दर्द है।  सुनने वाला अपने दर्द को महसूस करता है तो आह वाह की सूरत इख़्तियार करती है ये किसी शायरा के लिए अहम् बात होती है। 
मीनाक्षी जी को अदब की ख़िदमत के लिए मुख़्तलिफ़ तंज़ीमों ने कई सारे अवार्ड से नवाज़ा जिनमें सन 2006 में 'अमृता प्रीतम' अवार्ड,   2014 में 'सुभद्रा कुमारी चौहान' अवार्ड , 2007 में हरियाणा के मुख्यमंत्री द्वारा, 2011 में यूनिवर्स संस्था दिल्ली द्वारा और 2017 में अदिति गोवित्रिकर के हाथों ' 'वूमन अचीवर अवार्ड' से सम्मानित किया गया है। 
मस'अले उठते अगर हम बात का देते जवाब 
हमने चुप रह कर ही उसकी होशियारी काट दी 

जख़्म खाये, दर्द झेले, शायरी की और बस 
पूछिए मत आपके बिन कैसे काटी, काट दी
*
जिंदगी है रदीफ़ मुश्किल सी 
इसका आसान क़ाफ़िया ढूंढो 
*
बड़े ही सब्र से दिल तक पहुंचना था तुम्हारे 
नहीं खुलते ये दरवाज़े अगर मैं बोल देती 
*
अब के हवा के एक इशारे में बुझ गए 
तूफ़ान तो वही है चराग़ों में फ़र्क है
*
हम पर लाज़िम है करें हम खुद को साबित इस तरह 
रोशनी में जैसे खुद को इक दिया साबित करे
*
ठहरने का कोई मक़ाम नहीं 
सख़्त मुश्किल है आसमान का सफ़र 
*
तर्क-ए-त'अल्लुक़ात नहीं वक़्फ़ा है फ़क़त 
तू इस क़दर न डर हमें तन्हाई चाहिए
*
सुख़न पे अपने हमें यूं तो है यक़ीन बहुत 
पर अब की बार कोई ख़ुश-कलाम सामने है