Monday, August 26, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 15

लगभग तीन-चार साल पुरानी बात होगी, शाम का समय था जब अमेरिका से श्री अनूप भार्गव जी का फोन आया। अनूप जी बिट्स पिलानी से केमिकल इंजीनियरिंग और आईआईटी दिल्ली से सिस्टम एवं मैनेजमेंट का कोर्स किए हुए हैं और वर्षों से अमेरिका में रह रहे हैं। प्रतिभाशाली अनूप जी का साहित्य प्रेम विशेष रूप से हिंदी के प्रति अनुकरणीय है। विदेश में रह कर जिस तरह उन्होंने हिंदी की सेवा की है उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। हम दोनों एक दूसरे को उस समय से जानते हैं जब इंटरनेट पर ब्लॉग लेखन बहुत लोकप्रिय हुआ करता था।

अनूप जी की इच्छा थी कि एक ऑनलाइन ग़ज़ल की पाठशाला आरंभ की जाए जिससे देश विदेश के ग़ज़ल सीखने वाले जुड़कर ग़ज़ल कहना सीख सकें। उन्होंने मुझसे इस काम को अंजाम देने में मदद करने को कहा। विचार उत्तम था लेकिन ग़ज़ल कहने और सिखाने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। ग़ज़ल का व्याकरण अपने आप में एक वृहद विषय है।मुझे अपनी सीमाएं पता थीं इसलिए अपने बचाव में मैंने कुछ उस्तादों के नाम उनको सुझाए जो इस काम को बहुत अच्छे से अंजाम दे सकते थे। उस्तादों से उन्होंने संपर्क किया तो कुछ ने साफ ही ना किया कुछ ने नुकुर, किसी ने कहा देखते हैं तो किसी ने कहा सोचते हैं। यानी एक-एक करके सब के सब उस्ताद पतली गली से निकल लिए।

अनूप जी ने कहा कि आप शुरुआत तो करो मैं और लोगों को भी आपके साथ जोड़ने का प्रयास करता हूं भला हो अनूप जी का जिन्होंने इस कार्य में मेरे साथ एक ऐसे शख़्स को जोड़ा जिनका ग़ज़ल व्याकरण का ज्ञान मुझसे कई गुना बढ़कर था। वो शख़्स थे हमारे आज के शायर, एक बेहतरीन इंसान, जनाब "अनिल कुलश्रेष्ठ" साहब।
अनिल जी ने ग़ज़ल के व्याकरण को जिस धैर्य,सरलता और अंदाज से ग्रुप में सीखने वालों को सिखाया और आज भी सिखा रहे हैं, उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं है।

उनकी ग़ज़लों की दूसरी किताब "नक्श-ए- पा रह जाएगा" मेरे सामने है।

हासिले जम्हूरियत तो ये भी है अपने यहां
खूब तलवारे खिचेंगी मुद्दआ रह जाएगा

रोज ताला बंद करके जाने वाले जान ले
घर तो क्या ये हाथ आंखें, सब खुला रह जाएगा
*
पिछली जो कमाई थी अब तक वो गंवा बैठे 
आगे के सफ़र को भी कुछ दाम कमाने हैं
*
हर सुबह की दोपहर फिर शाम होगी 
मत कहो इसको कि सूरज ढल रहा है
*
वक्त की मरहम का बेशक काम उम्दा है मगर 
घाव भरना था भरा लेकिन निशान बनता गया

गजल की सैकड़ो बेहतरीन किताबें बाजार में उपलब्ध हैं तो फिर अनिल जी किस किताब में ऐसा क्या अलग है जो और किताबों में नहीं है? चलिए इस विषय में अनिल जी के ही शब्दों से आपको बताते हैं, वो लिखते हैं कि:
"मेरी यह किताब एक मायने में लीक से बिल्कुल अलग है। कोशिश है कि इसके केंद्र में सामान्य पाठकगण हों इसलिए प्रस्तुत किताब में मैंने हर ग़ज़ल के साथ ही मिसरे का वज़्न भी लिखा है। इसका मक़सद ही ये है कि जो पाठक ग़ज़ल की बहर को न पकड़ पा रहे हो उन्हें आसानी हो। मैंने बहर के साथ साथ ग़ज़ल के अरकान भी लिख दिए हैं"

इसके चलते ग़ज़ल सीखने वालों के लिए ये किताब बहुत उपयोगी है। इसे पढ़कर उन्हें बहरों का ज्ञान तो हो ही जाएगा साथ में ये भी समझना आसान हो जाएगा कि वज़्न कहां कैसे गिराया जा सकता है। जिन्हें व्याकरण का ज्ञान है वो इस किताब की ग़ज़लों में पिरोए भाव से आनंदित होंगे। कहने का मतलब ये है कि इस किताब को ग़ज़ल सिखाने वाले और ग़ज़ल सीख चुके दोनों ही पाठक पसंद करेंगे।

15 नवंबर 1953 को जन्मे अनिल जी पेशे से बैंकर रहे हैं और भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य प्रबंधक के पद से रिटायर होकर आजकल ग़ज़ल लेखन और ग़ज़ल प्रशिक्षण में व्यस्त रहते हैं। जिस लगन और मेहनत से वो ग़ज़ल सीखने वालों को ग़ज़ल की बारीकियां और सुझाव देते हैं उसकी तारीफ़ शब्दों में संभव नहीं।
जिस ग्रुप को अनूप जी ने आरंभ किया था उसके सदस्य अनिल जी के मार्गदर्शन में बेहतरीन ग़ज़लें कह रहे हैं ।एक साल के अंतराल में ही उन सदस्यों की ग़ज़लों का एक साझा संकलन "आग़ाज़" मंज़र ऐ आम पर आना किसी उपलब्धि से कम नहीं।

रोशनी जिसने अता की है शमा को इतनी 
वोही भरता है जुनूं इश्क़ का परवाने में
*
तीरगी चांद पर पड़े भारी 
उस पहले ही तू सहर कर दे
*
जां बचाकर भागता जो चाक के चक्कर से वो
ढेर मिट्टी का कभी बढ़कर घड़ा होता नहीं
*
न कोई इब्तदा मेरी न कोई इंतिहा मेरी 
मुसलसल जो चलेगा उस सफ़र का सिलसिला हूं मैं
*
कुछ तो उसमें कमी यक़ीनन है 
जो बुरे को बुरा नहीं कहता

कभी नोएडा तो कभी सिंगापुर में निवास करने वाली अनिल जी को छात्र जीवन से ही कविताएं लिखने का शौक रहा जो धीरे-धीरे ग़ज़लों तक आ पहुंचा। इस विधा में पारंगत होने के बावजूद भी वो अपने आप को अभी भी ग़ज़ल का एक विद्यार्थी ही मानते हैं। जहां आजकल एक मिसरा लिखकर लोग खुद को उस्ताद समझने लगते हैं वहीं अनिल जी जैसे अपवाद भी हैं जो स्वयं को हमेशा ग़ज़ल का विद्यार्थी ही समझते हैं। हम ये भूल जाते हैं कि सीखना एक सतत क्रिया है जो जीवन भर पूरी नहीं होती।

कभी पत्नी "अनुपम" ही उनकी रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद 'अनिल जी' ने अपना ये ग़ज़ल संग्रह उन्हीं को इस शेर के साथ समर्पित किया है :

मिसरे मेरे, ग़ज़लें मेरी, पर पूरा दीवान तेरा 
पन्ना पन्ना चेहरा तेरा, अक्षर अक्षर आंख तेरी

पर्यटन के शौकीन रहे अनिल जी ने देश-विदेश के अनेक दौरे किए हैं अब उन्होंने अपनी अधिकतर यात्राएं नोएडा और सिंगापुर तक ही सीमित कर ली हैं।

आप उन्हें इस संग्रह के लिए 9999781298 पर बात कर बधाई दे सकते हैं अथवा 9897066711 पर वाट्सएप पर जुड़ सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आपको जिज्ञासा प्रकाशन गाज़ियाबाद से 9958426855 पर संपर्क करना होगा।

पुरानी एक चिट्ठी है कभी भेजी थी बेटे ने 
मैं जितनी बार पढ़ता हूं अधूरी छूट जाती है
*
हर्फ़ ढाई हैं इश्क़ में लेकिन 
इससे गहरी कोई किताब नहीं
*
सारी बातें न मानिए सबकी
कुछ तो बाकी अगर मगर रखिए

ज़िन्दगी भी ग़ज़ल के जैसी है
सारे मिसरों को बा-बहर रखिए
*
खुद को बदल सके ना जमाने के साथ जो
वालिद वो कह रहे हैं कि बच्चे बदल गए
*
सांस, आंखें और जुबां भी बंद हो जाएंगे जब
अपनी ग़ज़लों से ही शायर बोलता रह जाएगा






Monday, August 19, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -14


सच में,बहुत दुविधा पूर्ण स्थिति है साहब!!! दुविधा ये है कि क्या लिखूं ?जी हां मैं उस किताब पर क्या लिखूं जिस पर मुझसे अधिक समझदार लोग मुझसे पहले बहुत बेहतरीन लिख चुके हैं। मेरा मानना है कि जो कुछ लिखा जा चुका है जब आप उसे बेहतर या इतर नहीं लिख सकते तो आपको नहीं लिखना चाहिए।

फिर भी मैं क्यों लिख रहा हूं ? वो इसलिए कि ये जो दिल है न, ये कमबख़्त नहीं मान रहा। कह रहा है कि तू लिख और हम तो मुकेश जी के इस गाने के शुरू से मुरीद रहे हैं कि "दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है" इसलिए दिल की मान कर लिख रहे हैं। अब आप अपने दिल से पूछ लें कि आपको आगे पढ़ना है या नहीं। वैसे मुझे यक़ीन है कि आपका दिल मना नहीं करेगा यदि करना होता तो अब तक कर चुका होता और आप ये सब नहीं पढ़ रहे होते। है न ?

यह तो हुआ अनर्गल प्रलाप, अब मुद्दे पर आते हैं। मुद्दा है, हमसे ठीक एक साल एक महीने पहले याने, 14 सितंबर 1951 को मथुरा में पैदा हुए जनाब रवि खंडेलवाल साहब की पहली ग़ज़लों की किताब "तज कर चुप्पी हल्ला बोल" का। आप कहेंगे इसमें मुद्दा क्या है? मुद्दा वो है जो मैं ऊपर बयान कर चुका हूं यही कि इस किताब पर क्या लिखूं? पर लिखना है तो सोचा कि इस किताब में छपी शायरी पर तो आप इंटरनेट से बहुत आला विद्वानों द्वारा की गई समीक्षा में सब कुछ पढ़ ही लेंगे इसलिए  क्यों न मैं उस पर लिखूं जिसने इस अनूठी शायरी को इस किताब में पेश किया है याने इस किताब के शायर जनाब "रवि खंडेलवाल" साहब पर।
शायर और उसके संघर्ष को यदि आपने जान लिया तो समझिए कि आपने उसकी शायरी को भी जान लिया हालांकि इसमें अपवाद हो सकते हैं। कई बार शायर का चरित्र अपनी शायरी के विपरीत भी मिलता है लेकिन सौभाग्य से 'रवि खंडेलवाल' भाई अपवाद नहीं है क्योंकि वो खरे हैं और तप कर कुंदन बने हैं।

वो खा रहे हैं एकता की क़समें बारहा 
हाथों में जिनके अपने-अपने इश्तिहार हैं
*
कांच का मंदिर बना है 
और पत्थर पूजना है

आइज खुशियां मनाएं https 
आंख ने आंसू जना है
*
सर झुका कर ज़ुल्म सहना नहीं है ज़िंदगी
ज़िंदगी के तौर बदलो और हल्ला बोल दो
*
ये मध्यम वर्ग का जो आदमी दिखता है चमकीला 
मुझे मालूम है है कोट के पीछे नहीं अस्तर
*
ज़िंदगी एक ऐसी ग़ज़ल दोस्तो 
जिसमें सब कुछ मगर क़ाफ़िया ही नहीं

बात शुरू से शुरू करते हैं, याने मथुरा से। मथुरा में रवि खंडेलवाल जी के पिताजी का कारोबार था जो किन्हीं कारणों से कानपुर ले जाना पड़ा। उनके पिता स्वांत:सुखाय के लिए कविताएं लिखा करते थे। पिता को देख कर बालक रवि ने भी तुक बंदी शुरू कर दी। कानपुर के एक कवि सम्मेलन में रवि जी को उनके भाई साथ ले गए जहां उन्होंने पहली बार श्री गोपाल दास 'नीरज' जी को सुना। उस छोटी सी उम्र में वो 'नीरज' के दीवाने हो गए।

पिता के आकस्मिक देहावसान के बाद पूरा परिवार फिर से वापस मथुरा आ गया। आर्थिक स्थिति बिगड़ गई, संघर्ष का कठिन दौर शुरू हो गया, लेकिन इस सब के बावजूद रवि जी का कविता प्रेम कम होने की बजाय बढ़ता गया।

रवि जी ने ढूंढ ढूंढ कर नीरज जी की किताबें पड़ी और उन्हीं की तरह लिखने की कोशिश जारी रखी सौभाग्य से ग्रेजुएशन के दौरान उन्हें डॉक्टर वेद प्रकाश शर्मा 'अमिताभ' जैसे शिक्षक मिले जिनका पढ़ने का अंदाज निराला था। वेद जी बात-बात पर क्लास में किसी कवि की कविता या किसी शायर का शेर सुनाया करते थे। एक दिन एक शेर वेद प्रकाश जी ने क्लास में सुनाया जो रवि जी के दिल ओ दिमाग पर हमेशा के लिए चस्पां हो गया और वो उसकी गिरफ्तार से आज भी नहीं निकल पा रहे।शेर था:-

समझो न दागे चेचक इस नाज़नी के मुख पर 
देखा है आशिकों ने नज़रें गड़ा गड़ा कर

मुझे यक़ीन है कि आप में से शायद ही किसी ने ये शेर सुना होगा, यदि सुना है तो कमेंट बॉक्स में शायर का नाम बता दें बड़ी मेहरबानी होगी। इस एक शेर से रवि भाई शायरी की ओर बढ़ गए। ट्रांजिस्टर पर ग़ज़लें सुनने लगे और 

आपको देख के बेगौर भी अच्छा लगा 
गौर से देखा तो फिर और भी अच्छा लगा 

या फिर 

जब ख़्याल आया कि मैंने रात छत पर क्या किया 
सोच कर देखा तो पाया चांद को देखा किया 

जैसे शेर कहने लगे और उन्हें सुना सुना कर गोष्ठियों में दाद पाने लगे ।

जब सह सका ना ज़ुल्म तो आख़िर यही हुआ 
ज़ालिम के ज़ोर-ज़ुल्म से टकरा गया हूं मैं
*
बुराई अगर आप देखेंगे मुझ में 
दिखेगी सदा ही बुराई-बुराई
*
ग़लती तो आखिर ग़लती है चाहे जिसकी हो 
फ़र्क नहीं पड़ता किसने कम-ज्यादा ग़लत कहा
*
बुत बनके रह गया क़सम से आम आदमी 
देखा है दोनों हाथ से मैंने झिंझोड़ कर 

सुखी तलाश में 'रवि' निकला था घर से मैं 
दुनिया खंगाल डाली मैंने, ख़ुद को छोड़कर

साहित्यिक के अलावा मथुरा में वो रंगमंच से भी जुड़ गये। उन दिनों स्वर्गीय श्री अमृतलाल नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर 'स्वास्तिक' नाट्यसंस्था के अंतर्गत नाटकों का मंचन किया करती थीं। रवि खंडेलवाल जी उनके साथ जुड़ कर नाटकों में अभिनय करने लगे और अपनी अभिनय क्षमता का लोहा उन्होंने 'खामोश अदालत जारी है', 'सिंहासन खाली है' तथा 'गांधी जी की बकरी' जैसे नाटकों में अभिनय कर मनवाया। उनके साथ के अभिनेता बृजेंद्र काला आज नाट्य और सिने जगत के प्रसिद्ध कलाकारों में से एक हैं।

किसी का जीवन एक गति से नहीं चलता, रवि जी भी अपवाद नहीं थे। मथुरा में जो कारोबार ठीक ठाक चल रहा था वो अपरिहार्य कारणों से डांवाडोल हो गया। आय के विकल्प जब मथुरा में नहीं दिखे तो उन्होंने इंदौर जाना तय किया वहां उनकी ससुराल भी है। इंदौर में व्यापार ज़माने में वक्त लगता इसलिए नौकरी का विकल्प सूझा और वो इंदौर की 'फैरों कंक्रीट कंस्ट्रक्शन कम्पनी' में काम करने लगे। ये सन 1993 की बात है। अपनी लगन और मेहनत के चलते अब वो इस कंपनी में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं और आज भी उसी ऊर्जा से काम कर रहे जिस ऊर्जा से वो सन् 1993 में किया करते थे। 

1993 से 2013 यानी 20 साल वो नौकरी में इस कदर व्यस्त रहे कि साहित्य एक कोने में धरा रह गया। उन्हें लगने लगा कि उनके अंदर की साहित्यिक प्रतिभा धीरे-धीरे मर रही है। लेकिन ऐसी बात नहीं थी। वो प्रतिभा अंदर ही अंदर प्रगाढ़ हो रही थी ।

सन 2013 में रवि खंडेलवाल फेसबुक से जुड़े और फिर एक विस्फोट हुआ। फेसबुक के माध्यम से वो अपने उन साहित्यिक मित्रों से जुड़े जो कहीं पीछे छूट गए थे। मित्रों ने उन्हें फिर से साहित्य की धारा में बहने को प्रेरित किया।

2013 से अब तक उनका लेखन अबाध गति से चल रहा है। फेसबुक और स्थानीय गोष्ठियों में उनकी रचनाएं चर्चित होने लगीं। उनकी कलम साहित्य की सभी प्रचलित विधाओं में जैसे गीत, नवगीत, दोहे, समकालीन कविताएं और ग़ज़ल आदि पर सफलतापूर्वक चलने लगी। सन 2022- 23 में उनकी तीन पुस्तकें 'उजास की एक किरण' जिसमें समकालीन कविताएं हैं, 'मौत का उत्सव' जिसमें कोरोना कल की त्रासदी पर लिखी कविताएं हैं और 'तज कर चुप्पी हल्ला बोल' ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुईं।

रवि जी के आकाशवाणी से कई एकल काव्य पाठ हो चुके हैं। इनके बहुत से काव्यात्मक संगीत रूपकों एवं लगभग 100 गीतों का विभिन्न गायको द्वारा समय-समय पर संगीत बद्ध प्रसारण हुआ है।

युवाओं को मात देने वाली ऊर्जा वाले रवि जी की 9 पुस्तकें, जिनमें तीन ग़ज़ल संग्रह, तीन कविता संग्रह दो नवगीत संग्रह और एक दोहा संग्रह है, प्रकाशनाधीन है। अंतर्जाल और पत्र पत्रिकाओं में छपी उनकी विभिन्न रचनाओं का ज़िक्र किसी एक पोस्ट में करना असंभव है।

यहां इस बात का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि रवि जी ने ब्रजभाषा में भी ग़ज़ले कही हैं। बृज ग़ज़लो को लोकप्रिय बनाने में 'नवीन चतुर्वेदी' भाई के योगदान की जितनी प्रशंसा की जाए कम है।ब्रज ग़ज़लों की भाषा में वो मिठास है जो मधुमक्खी के छत्ते से टपकते शहद में होती है।

निर्वसन लगने लगी है आत्मा जब से 
संस्कारों ने हैं पहने वस्त्र झीने से
*
मौन धारण कर नहीं कुछ भी तुझे मिल पाएगा 
है अगरचे चाहिए हक़ रार कर, तकरार कर
*
आदमी को और ना, बदनाम कर ऐ आदमी 
आदमी बनकर ही रहना, आदमी के वेश में
*
फूल ऐसा भी 'रवि' किस काम का 
आप फ़ेंके और पत्थर सा लगे
*
क्या आम आदमी इसी को बोलते हैं हम
आंखें खुशी में और जिसकी ग़म में भी है नम

रवि जी के इस पहले संग्रह की ग़ज़लें दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परम्परा की तो हैं ही साथ ही इनमें गिरते मानवीय मूल्यों के प्रति आक्रोश के अलावा सामाजिक सरोकार की बातें भी हैं। अलग से तेवर वाली ये ग़ज़लें पाठक को सोचने पर मजबूर करती हैं।
'तज कर चुप्पी हल्ला बोल' की ग़ज़लों के लिए आप विलक्षण प्रतिभा के धनी रवि खंडेलवाल जी को उनके मोबाइल नंबर 7697900225 पर बधाई दे सकते हैं और श्वेत वर्णा प्रकाशन से प्रकाशित इस अद्भुत किताब को 84475 40078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।







Monday, August 12, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 13


लखनऊ' में देश के कद्दावर उर्दू शायर के घर की बैठक है, जिसमें आए दिन देश-विदेश के नामवर शोअरा आते रहते हैं, गुफ़्तगू करते हैं, अपनी शायरी सुनाते हैं। इन शोअरा से मिलने और उन्हें सुनने वालों का हर वक्त मंजूर साहब के घर तांता लगा रहता है। इन सब मेहमानों की ख़िदमत में इस घर का जो बच्चा लगा हुआ है वो बड़ी हैरत से उर्दू शाइरी के इन बड़े सितारों को देखता है, सुनता है और सोचता है और कि वो भी बड़ा होकर इनके जैसा बनेगा। 

बात उर्दू के उस्ताद शायर जनाब 'मलिकजादा मंजूर अहमद' साहब के उस घर की हो रही है जहां उनके बेटे, हमारे आज के शाइर जनाब "मलिक जादा जावेद" साहब की परवरिश हुई। 'मंजूर' साहब ने 'जावेद' साहब को शायरी करने के लिए कभी नहीं उकसाया बल्कि ये कहा कि, बरखुरदार पहले पढ़ाई लिखाई करो, अपने पांव पर खड़े हो जाओ फिर कर लेना शायरी- वायरी। 'जावेद' साहब पढ़ते भी रहे और अपने अब्बा से छुप-छुप कर शायरी भी करने लगे जो। छुपछुपा कर मुशायरे भी पढ़ने लगे। ऐसे ही किसी मुशाइरे में लखनऊ के आला अफसर 'अनीस अंसारी' साहब ने भी उन्हें सुना और उनके बगावती तेवरों से बड़े मुत्तासिर हुए। उन्होंने ने 'जावेद' को बुलाया और पूछा कि बरखुरदार आप करते क्या हो, तो 'जावेद' साहब ने कहा कि उर्दू में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद पीएचडी कर रहा हूं जिसमें तीन साल तो लग ही जाएंगे उसके बाद अल्लाह मालिक है। बात आई गई हो गई। 

एक दिन 'जावेद' साहब की पहचान के जनाब 'बशीर फ़ारुक़ी' साहब जो सचिवालय में काम करते थे, उन्हें ढूंढते हुए आए और कहा कि जावेद भाई आपको 'अंसारी साहब' ने याद किया है। 'अंसारी' साहब तब 'उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक वित्तीय विभाग' जो कि नया ही बनाया गया था के, एम.डी. बनाए गये थे। 'जावेद' साहब उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा, बरखुरदार सरकारी नौकरी करोगे? और उनका ज़वाब सुनने से पहले ही विभाग के जनरल मैनेजर 'शर्मा जी' को बुला कर कहा कि ये नौजवान 'मलिकजादा जावेद' बहुत होशियार है और इससे पहले कि ये फ्रस्ट्रेशन का शिकार हो जाए इसे अपने विभाग में नौकरी दे दो। आनन-फानन में उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। इस तरह 'जावेद' साहब को अपनी शायरी की बदौलत सरकारी नौकरी मिल गई।

बेतरतीबी ठीक नहीं
कमरे में अलमारी रख

सबको बांट के खे़मों में 
अपने घर सरदारी रख
*
सुखन में दस्तकारी बढ़ रही है
ग़ज़ल के कारखाने लग रहे हैं

ये दुनिया एक पल में ख़त्म होगी 
मगर इसमें ज़माने लग रहे हैं
*
ज़ुबां एजाज़ देकर काट लेगा
ये हाकिम कुछ अजब किरदार का है एजाज़: इनाम
*
बारिश का मौसम तो बीत गया लेकिन 
उजली दीवारों पर धब्बे उग आए 
*
ख़त लिखने को जी चाहे अल्फ़ाज़ बगैर
इतनी भी शिद्दत से तुम याद आना मत

देश के नामवर शायर जनाब 'बशीर बद्र' साहब 'मलिकजादा जावेद' साहब की शायरी के काइल थे।लखनऊ में नौकरी के साथ-साथ जावेद साहब मुशायरे तो पढ़ते थे लेकिन उन्हें उतनी शोहरत नहीं मिलती जिसके वो हकदार थे। सब जानते हैं कि एक बड़े दरख़्त के नीचे छोटे पौधों का पनपना मुश्किल होता है वही हाल 'जावेद' साहब का था। लखनऊ में लोग उनकी शायरी पे दाद तो देते लेकिन साथ ये भी कहते कि ये एक बहुत बड़े शायर का बेटा है अपने अब्बा जैसा तो कभी कह नहीं पाएगा। कभी किसी अच्छी शेर पर लोग ये भी कमेंट करते कि ये शेर इसने अपने अब्बा से लिखवा लिया होगा। 

ये सब देखकर एक बार 'जावेद' साहब ने 'बशीर बद्र' साहब से कहा कि वो उन्हें दिल्ली के डी.सी.एम. के मुशायरे में पढ़ने का मौका दिलवाएं। उस वक्त डी.सी.एम. का मुशायरा पढ़ने वाला शायर ही असली शायर समझा जाता था। 'बशीर बद्र' साहब की सिफ़ारिश पर 'जावेद' साहब को मुशायरे में बुलाया गया जिसकी निजामत 'मलिकजादा मंजूर' करने वाले थे। 'जावेद' साहब चाहते थे कि उनके उस मुशायरे में शिरकत की बात उनके अब्बा तक मुशायरा से पहले ना पहुंच पाए। ऐसा हुआ भी, 'मंजूर' साहब जिस ट्रेन से दिल्ली गए 'जावेद' साहब उस ट्रेन की बजाए दूसरी ट्रेन से दिल्ली पहुंचे और उनसे अलग होटल में रुके। मुशायरे की स्टेज पर सबसे छुपते-छुपाते आख़िरी सफ़ जा कर बैठ गए। जब शायरों की लिस्ट मंजूर साहब को निजामत से पहले सौंपी गई तो वो उसमें 'जावेद' साहब का नाम देखकर हैरान हुए और पलट कर पीछे देखा। 'जावेद' उन्हें बैठे दिखाई दिये। 'मंजूर' साहब ने मुशायरे का आगाज़ ये कह कर किया कि मैं सबसे पहले उस नौजवान को दावते-सुखन दे रहा हूं जो मेरा बेटा है लेकिन इसे यहां बुलाने में मेरा कोई हाथ नहीं है। इससे ज़्यादा इनका तार्रुफ़ इनकी शायरी ही आपको करवाएगी। 'जावेद' साहब माइक पर आए और अपनी तीन ग़ज़लें पढ़ी। मजे की बात ये हुई कि अगले दिन अख़बारों में जहां नामवर शायरों का एक एक ही शेर कोट किया गया वहीं 'जावेद' के तीन शेर कोट किए गए। उस दिन के बाद से 'जावेद' साहब शोहरत की बुलंदियां छूने की और बढ़ चले।

अब तो ख़त लिख कर ही होगी गुफ़्तगू 
फ़ोन पर करता है वो बातें बहुत
*
मौसम तक पैग़ाम ये लेकर जाए कौन
सूखे शजर पत्तों की चाहत करते हैं
*
एक भी तस्वीर एल्बम में नहीं
मेरी यादों का सफ़र है मुख़्तलिफ़
*
मैं भी पंजों पर खड़ा हो जाऊंगा 
हैसियत से वो अगर बढ़ कर मिले
*
सभी कमरों में घुस जाते हैं आकर
कहां होती है कोई बात घर में

नौकरी लगने के कुछ ही सालों बाद 'जावेद' साहब का लखनऊ से नोएडा ट्रांसफर हो गया और यहीं से 'जावेद' साहब को अपनी असली पहचान मिली। उन्होंने अपने पिता की रिवायती शैली से बिल्कुल अलग ग़ज़ल की शैली अपनाई। बड़े भाई समान 'बशीर बद्र' साहब की इस सलाह को हमेशा याद रखा की "शायरी उस ज़बान में की जानी चाहिए जिसको समझने के लिए किसी को लुगत का सहारा ना लेना पड़े, यानी आम बोलचाल की सीधी सरल ज़बान।

उन्होंने ग़ज़लें न सिर्फ़ आम ज़बान में कहीं बल्कि उनमें सामाजिक सरोकारों को, इंसानी फितरत को, आम इंसान के सुख-दुख को बड़े दिलकश अंदाज में जोड़ा। 

"धूप में आईना" 'जावेद' साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें उनकी 101 बेहतरीन ग़ज़लें शामिल हैं ।ये ग़ज़ल संग्रह 'आदम पब्लिशर्स' नई दिल्ली से 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में ज्यादातर ग़ज़लें छोटी बहर में है और जैसा सब जानते हैं कि छोटी बहर में ग़ज़ल कहना बहुत हुनर का काम होता है। 'जावेद' हुनर इनमें सर चढ़कर बोलता है। इस संग्रह से पहले सन 1992 में उर्दू में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "खंडर में चिराग" छपकर मक़बूल हो चुका है। इस संग्रह को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने पुरस्कृत भी किया था।

हाल ही में नोएडा से, रिटायर होकर, 'जावेद' साहब अब अपने लखनऊ के पुश्तैनी मकान में जाकर बस गए हैं। आप 'जावेद' साहब से उनके मोबाइल नंबर 9312439228 पर संपर्क कर इस किताब को प्राप्त करने का तरीका पूछ सकते हैं।

कहां तुम आ गए बैसाखियों की नगरी में 
यहां तो पांव से चलता नहीं है कोई भी
*
इल्म के मांझे से क्या हासिल 
लफ़्फ़ाज़ी की डोर बहुत है
*
इकट्ठा हो गए वो एक पल में 
मगर बच्चों की मांए लड़ रही हैं
*
खिड़की के बाहर मत झांक 
अपने घर के अंदर देख
*
मेरी गली के शिवाले में कीर्तन भी हो
तेरे पड़ोस की मस्जिद में भी अज़ान रहे 





Monday, August 5, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 12


सूरज का साथ देने में नुक्सान ये हुआ
हम रात की नज़र में गुनाहगार हो गए

इस बार मेरे पास मुहब्बत की ढाल थी
इस बार उसके तीर भी बेकार हो गए
*
ख़याल ज़िद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं
*
फ़ज़ायें एक सी रहती नहीं कभी दिल की
हमेशा चांद भी पूरा नहीं निकलता है
*
हटा लो मील का पत्थर हमारे राहों से 
हमारे ज़ौक़े-सफ़र को थकान देता है
*
हम हैं शायर हमें तफ़रीक़ नहीं आती है
ढलते सूरज को भी हम लोग दुआ देते हैं 
तफ़रीक़: मतभेद 

हमको इंसाफ़ की उम्मीद नहीं है लेकिन 
आप कहते हैं तो ज़ंजीर हिला देते हैं
*
जवाब देना है अपनी ज़मीर को भी मुझे
मैं शायरी को पहेली नहीं बनाऊंगा

ख़याल जिद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं


शायरी और मुहब्बत दोनों ही "इक आग का दरिया है और डूब के जाना है" वाला काम है। जो लोग मुश्किल काम को अंजाम देने का हौंसला रखते हैं और साथ ही जुनूनी हैं उन्हें ही इस और क़दम बढ़ाने चाहिएं 

आप उस्ताद शायरों की शायरी को ग़ौर से पढ़ें तो महसूस करेंगे कि उन्होंने किस कमाल से हर शेर के मिसरों में लफ़्ज़ों को इस तरतीब से रखा है कि किसी भी लफ़्ज़ को आप अपनी जगह से हटा नहीं सकते। लफ़्ज़ों की तरतीब बदलते ही आपको उस शेर की रवानी में फ़र्क साफ़ नज़र आ जाएगा।

शायरी और तुकबंदी में बहुत फ़र्क है और ये फ़र्क आपको हमारे आज के शायर जनाब "कशिश होशियारपुरी" साहब की ग़ज़लों की किताब "मंज़िलों से दूर" पढ़ते वक्त साफ़ नज़र आ आएगा। उनकी ग़ज़ल के हर शेर में लफ़्ज़ नौलखा हार में जड़े नगीनों की तरह तराश कर बड़ी कारीगरी से टांके गए हैं। शेरों में रवानी किसी अल्हड़ नदी की तरह कलकल बहती हुई सी है। नए ग़ज़लकारों के साथ साथ उनको जो ग़ज़ल कहने का फ़न अभी सीख रहे हैं, "कशिश होशियारपुरी" साहब की इस किताब को बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि वो समझें कि शेर कहने का शऊर और हुनर क्या होता है और इसके लिए कितनी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है। "कशिश होशियारपुरी" साहब कहते हैं कि :

'शेरो सुख़न की मंजिलें पाने के वास्ते 
मैंने पहाड़ काटा है फ़रहाद की तरह 

सीधी सी बात है जो लोग पहाड़ काटकर रास्ता बनाने की बजाय बनी बनाई सड़क या पगडंडी पर चलने में विश्वास रखते हैं उन्हें शायरी करना छोड़ ही देना चाहिए क्योंकि ऐसी शायरी, जिसमें पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने जैसी मशक्कत ना करनी पड़े, भले ही सोशल मीडिया पर तुरंत वाह वाही बटोर ले लेकिन वो वक्त की आंधी में बहुत जल्दी और आसानी से उड़ जाती है और भुला दी जाती है। 

"मंज़िलों से दूर" की ग़ज़लों में "कशिश" साहब ने एक से बढ़कर एक नए रदीफ़ और काफियों का इस्तेमाल किया है जो कारी को हैरान भी करता है और उनकी ग़ज़लों को पढ़ने में दिलचस्पी भी बनाए रखता है।
उसूल होते हैं सबको बहुत अज़ीज़ मगर 
कभी-कभी ये परेशान करने लगते हैं
*
हम ये पूछेंगे लहू से की कभी क़त्ल के बाद
क्या किसी तीर का ख़ंजर का बदन दुखता है
*
वो मुझे तोड़ गया आज इसलिए रिश्ता 
मैं उसकी एक भी आदत बुरी न देख सका
*
कहीं कहीं पे ज़रूरी है थोड़ी तल्ख़ी भी
क़फ़स में है वह परिंदे जो मीठा बोलते हैं
*
अपनी ग़ैरत का उसे करना है सौदा लेकिन
मुझसे कहता है ख़रीदार भी मैं ला कर दूं

कशिश होशियारपुरी" साहब जिनका वैसे नाम 'कुलतार सिंह' है वैसे तो होशियारपुर, पंजाब के बाशिंदे हैं लेकिन इन दिनों वो 'अमेरिका' के 'शिकागो' शहर में रहते हैं। आइए उनके बारे में उन्हीं द्वारा इस किताब में लिखी भूमिका से जानते हैं, वो लिखते हैं कि:

जैसा कि आप जानते हैं पंजाब का एक शहर होशियारपुर, जिसे हल्का-ए-अरबाबे-ज़ौक का शहर कहा जाता है, इस अदबी और तारीखी शहर की ज़रखे़ज़ ज़मीन से बड़े अदीब पैदा हुए जिनके नाम आज भी जहाने-अदब के फ़लक पर रौशन हैं उनमें 'मुनीर नियाज़ी', 'हफ़ीज होशियारपुरी', 'हबीब जालिब', 'नरेश कुमार शाद' वगै़रह नुमायां हैं। मेरा ख़मीर भी इसी शहर के तारीख़ी ही गांव खड़ियाला सैणीयां की ज़मीन से 1 मार्च 1965 को उठा। मैंने अपने शहर की इस अज़ीम अदबी विरासत को संभालने में ही अपने आप को खर्च किया है

यहां से गुज़रे हैं साहिर, नज़र, मुनीर, 'कशिश' 
हमारे नाम को निस्बत उसी दयार से है

मेरे खानदान का शायरी से कहीं दूर का भी रिश्ता नहीं था मेरी मिट्टी खराब की मैंने यह सख्त राह इख़्तियार कर ली। यह मेरी ख़ुशबख़्ती कह लें कि ज़िंदगी मुझे उत्तर प्रदेश के बहुत ही ज़रख़ेज़ इलाके बाराबंकी की फ़ज़ाओं में ले गई वहां मैंने क़रीब 12 साल गुज़ारे वहीं मेरे फ़न ने तरबियत पाई। इब्तिदाई दिनों में मैंने उस्ताद-ए-मोहतरम 'बादल सुल्तानपुरी' साहब से उर्दू ज़ तयबान, उर्दू ग़ज़ल और उरूज़ के बारे में इल्म हासिल किया। 'बादल' साहब ने बहुत सख्त इम्तिहान लिए यहां तक की 7 साल बाद मुझे अपना शागिर्द तस्लीम किया। 'बादल' साहब के इंतकाल के बाद माहिरे फ़न उस्ताद हज़रते 'रहबर ताबानी' साहब की शफ़क़्त हासिल हुई ।आपने मेरे लहजे और फ़न को निखारा।

शायरी मेरे नज़दीक इबादत का फ़न है, शायरी ज़िंदगी को पाकीज़गी बख़्शती है, शायरी मेरे जीने का मक़्सद है, मेरी ज़िंदगी का हिस्सा है। शायरी ज़िंदगी की रा'नाई है, शायरी आदमी को तहज़ीब सिखाती है, शायरी आसमानों से उतरती है और आलिम बनती है। शायरी तेज सूरज की रोशनी का गुज़र नहीं बल्कि नर्म चांदनी का जादू है।

मैं शायरी के दावेदारों की फ़ेहरिस्त में कहां पर हूं मैंने इस पर कभी और नहीं किया ना हाथ फैला कर शोहरत मांगने की कोशिश की मैंने अपनी हर ग़ज़ल को पिछली ग़ज़ल से बेहतर करने की कोशिश की है। मुझे 'मज़रूह सुल्तानपुरी', 'कैफ़ी आज़मी', 'ख़ुमार बाराबंकवी', 'बशीर बद्र', 'राहत इंदौरी', 'मुनव्वर राणा', 'गोपाल दास नीरज' जी जैसी कद्दावर शायरों के साथ मुशायरे पढ़ने का फ़क़्र हासिल है। मेरी ग़ज़लें आकाशवाणी जालंधर और लखनऊ एवम दूरदर्शन दिल्ली और जालंधर से प्रसारित हो चुकी हैं।

'टाइम्स पब्लिकेशन' होशियारपुर से सन 2022 में प्रकाशित"मंज़िलों से दूर" से किताब से पहले भी 'कशिश' साहब की किताब "एहसास की परतें" 1994 में छप कर मक़बूल हो चुकी है। 
आप 'टाइम्स पब्लिकेशन' से 9888033233 पर संपर्क कर इस किताब को मंगवा सकते हैं और 'कशिश' साहब को उनके फेसबुक पेज https://www.facebook.com/kashish.hoshiarpuri?mibextid=ZbWKwL पर अथवा उनके ईमेल kashishhoshiarpuri123gmail.com पर बधाई दे सकते हैं।

आप हर बात सलीक़े से कहें घर में भी 
आपकी बातों का बच्चों पे असर पड़ता है 

सारे इस फ़र्क को महसूस नहीं कर सकते 
चांदनी का जो सितारों पे असर पड़ता है
*
फ़ायलातुन फ़ायेलुन में लोग तो उलझे रहे
आपका ग़म आके मेरा शेर पूरा कर गया
*
चलो, उठो कि ज़माने के साथ-साथ चलें 
अब इस मक़ाम पे ख़तरा दिखाई देता है
*
तूने दुनिया को बनाया था मुहब्बत के लिए
तेरी दुनिया से मुहब्बत नहीं देखी जाती
*
हरे पहाड़ों की चोटियों पर झुके झुके ये सफ़ेद बादल 
नदी के तन पे हवा अज़ल से जो नाचती है वो शायरी है

ये बात मौजे-तरब से पूछो, यक़ीन कर लो या रब से पूछो 
कि ज़िंदगानी में हादसों की जो चाशनी है वो शायरी है
मौजे-तरब: ख़ुशी की लहर
*
उर्दू सीख के सबसे पहले 
मैंने तेरा नाम लिखा था
*
इश्क़ जो दे उसे क़ुबूल करें
दर्द हो, वस्ल हो, जुदाई हो