Wednesday, September 18, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -16


लगाया था किसी ने आंख से काजल छुटाकर जो 
मेरे बचपन के अल्बम में वो टीका मुस्कुराता है 

दिया था उनको हामिद ने कभी लाकर जो मेले से 
अमीना की रसोई में वो चिमटा मुस्कुराता है 

किताबों से निकलकर तितलियां ग़ज़लें सुनाती हैं 
टिफिन रखती है मेरी मां तो बस्ता मुस्कुराता है
*
मुझे रदीफ़ बनानी पड़ी उदासी की 
कि काफ़ियों से तो बनना था क्या उदासी का
*
किसी के हाथ में सिक्के कभी नहीं डाले 
जो हाथ ख़ाली थे उनको कुदाल दी मैंने
*
निहारता रहा दरिया वो देर तक बैठा 
फिर उसके बाद उठा और उसी में डूब गया
*
एलान फ़त्ह का न अभी से करें रक़ीब 
ज़ख़्मी हुआ हूं क़ब्र के अंदर नहीं हूं मैं

ये शेर जो आपने अभी पढ़े हमारे आज के शायर की उस किताब से नहीं है जिसकी बात हम करने वाले हैं। अब आप पूंछेंगे ही तो फिर किस किताब से हैं? बताते हैं, ये हमारे आज के शायर की पहली किताब "क्या तुम्हें याद कुछ नहीं आता" से हैं जो 2021 में 'एनी बुक्स' इंदौर से छपी थी और मक़बूल हुई थी। इससे पहले कि आप पूछें हम बता देते हैं कि इन शेरों को पढ़वाने का मक़सद आपको सिर्फ़ युवा शायर 'सिराज़ फ़ैसल ख़ान' की शायरी की बानगी देने का था। 

अपनी पहली किताब से ही हमारे आज की युवा शायर ने अपनी कलम का लोहा मनवा लिया था। जिस युवा शायर को 'मयंक अवस्थी' और 'सर्वत जमाल' जैसे कद्दावर शायरों का मार्गदर्शन मिला हो उसकी शायरी तो पुख़्ता होनी ही है।

हमारे सामने 'सिराज फ़ैसल ख़ान' साहब की दूसरी किताब "चांद बैठा हुआ है पहलू में" खुली हुई है। ये किताब हाल ही में याने इसी साल One Align Publication - Delhi से प्रकाशित हो कर मंजर ए आम पर आई है और धूम मचा रही है। इस किताब को आप अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं या प्रकाशक को उनके मोबाइल नंबर 6264443917 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।

रात हर कोई बिता लेगा मगर उम्र नहीं 
उसको ये बात समझ आई मगर मेरे बाद
*
मानता हूं नहीं मिली मंज़िल 
दाद दीजे कि चल रहा हूं मैं 
*
ग़ज़ल के फूल अपनी डायरी में टांक देता हूं 
किसी की गोद में बच्चा कोई जब मुस्कुराता है
*
क्यों मरें अश्क बहते हुए हम सहरा में 
आइए पेड़ लगाते हुए मर जाते हैं
*
न जाने उसको सिखाया है किस रक़ीब ने ये 
कि हो ख़फ़ा तो बुके में गुलाब कम कर दे

शहीदों के नगर 'शाहजहांपुर' के गांव 'महानंदपुर' में 10 जुलाई 1991 को 'सिराज' का जन्म हुआ। 'सिराज' अपने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि "ना तो घर ना ही गांव में शायरी पढ़ने लिखने का कोई माहौल था और ना ही कहीं साहित्यिक किताबें मिलती थीं। कोर्स की हिंदी की किताबों के अलावा साहित्य पढ़ने के लिए उस वक्त कुछ भी नहीं होता था। ये वो दौर था जब गांव में अख़बार भी नहीं पहुंचते थे। वालिद साहब तहसील में 'संग्रह अमीन' के पद पर कार्यरत थे और वो इतवार का 'अमर उजाला' सोमवार को घर लाया करते थे। साहित्य से मेरा परिचय इस इतवार की अख़बार से हुआ था क्योंकि उस दिन उसमें कहानियां, कविताएं और ग़ज़लें प्रकाशित होती थीं। मैं उन्हें काटकर एक फाइल में रख लेता था। कोर्स की किताबों में मेरी सबसे पसंदीदा किताब हिंदी की होती थी और मैं अपने से बड़े बच्चों की भी हिंदी की किताबें घर लाकर पढ़ा करता था।"

सिराज आगे लिखते हैं की "पांचवी क्लास के बाद मैं शाहजहांपुर चला गया और इस्लामिया इंटर कॉलेज में दाखिला ले लिया यहां मुझे मोइनुद्दीन आजाद मिले जिनकी दिलचस्पी साहित्य में थी। हमने साथ मिलकर बहुत सी किताबें खरीदी।"
साहित्य में उनकी रुचि इस क़दर बढ़ती चली गई की हाई स्कूल में आते-आते उन्होंने अपने हॉस्टल की सीनियर साथियों की भी और एम.ए की अंग्रेजी किताबों तक में शामिल सभी कहानियां, कविताएं गाइड की मदद से पढ़ डालीं।

राहत इंदौरी साहब की किताब 'चांद पागल है' पढ़ने के बाद सब कुछ बदल गया। जैसे बारूद के ढेर में कोई चिंगारी गिरे, ठीक इसी तरह राहत साहब की शायरी ने सिराज की मन को छुआ। वो अपने दोस्तों और सहपाठियों को राहत साहब के शेर सुनाया करते थे। उन दिनों उनकी कॉपियां पर नोट्स कम और राहत साहब के शेर ज्यादा लिखे मिलते थे।

आज ढीला था बाजुओं में वो 
इब्तिदा है ये क्या जुदाई की 
*
उतर जाता है कुछ नोटों पे सब कुछ 
तवायफ़ की अदा क़ानून में है 

वतन दुनिया मैं रुसवा हो रहा है 
रिआया धर्म की पतलून में है
*
अगर मतलब है केवल जीत से तो 
करो पीछे से उस पर वार अब के 

बहुत महंगा पड़ेगा ख़ूं बहाना 
कि हैं मज़लूम भी तैयार अब के 
*
फिर कोयले सुलग उठे उसके ख़्याल के 
फिर आज मैं घुटन में बहुत देर तक रहा
*
जाने कब के मर गए होते बिछड़ कर उससे हम 
'मीर' के शेरों ने जीने के वसीले कर दिए

सिराज अपनी इस किताब की भूमिका में आगे लिखते हैं कि "मैं अपने आसपास जो घटित होते देखता था या अखबारों में पढ़ता था वो मेरी शायरी का हिस्सा बनता चला गया। इसके चलते अक्सर मुझे कई लोगों के मैसेज मिला करते थे कि मैं जो लिख रहा हूं वह ग़ज़ल नहीं है बल्कि ग़ज़ल की रवायत से खिलवाड़ है। कई बार इस तरह के मैसेज मुझे डिमोटिवेट भी करते थे लेकिन मैं खुशनसीब रहा कि मुझे "मयंक अवस्थी" भाई और "सर्वत जमाल" साहब का साथ और मार्गदर्शन मिला जिन्होंने मेरी रचनात्मकता को किसी दायरे में सीमित नहीं किया और ना ही हिंदी उर्दू ग़ज़ल के बंटवारे में उलझने दिया।"

उर्दू के मशहूर शायर जनाब "हसीब सोज़" साहब लिखते हैं की "नई नस्ल के शायरों की एक लंबी फेहरिस्त है मगर कभी-कभी कोई नाम इस तरह चौंकाता है कि मजबूरन पन्ने पलटना पढ़ते हैं। 'सिराज फ़ैसल ख़ान' उन्हीं शायरों में शामिल हैं जिनके लिए पन्ने पलटना पढ़ते हैं।"

अपनी तरह के अकेले लाज़वाब शायर जनाब 'मयंक अवस्थी' साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की "जिस तरह एक फूल सिर्फ पंखुड़ियां और खुशबू का जोड़ नहीं है बल्कि उससे अधिक है ठीक उसी तरह ग़ज़ल के शेर के दो मिसरों के बीच अगर शायर खुद मौजूद नहीं है तो उसकी शायरी भावानुवाद से अधिक कुछ नहीं होती और मुझे फ़ख़्र है कि सिराज अपनी शायरी में अपने इब्तिदाई दौर से ही मौजूद था। मुकम्मल मिसरों की टहनियां, पत्ते पत्ते, बूटे बूटे में मिज़ाज का तसलसुल,जदीदियत की कोंपलें ,सड़क पर चलने वाले लफ़्ज़ों को ऐशो इशरत की छांव अता करना अपने अशआर में और पूरी ग़ज़ल में शेरियत की फ़ज़ा क़ायम रखने के हुनर ने सिराज को बेहद खूबसूरत शायरी का दरख़्त बना दिया है।

सिराज खूबसूरत शायरी ही नहीं करते बल्कि बेखौफ हो कर ऐसे तमाम लोगों को गरियाते भी हैं जो इंसानियत के दुश्मन हैं। मुहब्बत में यकीन रखने वाले युवा सिराज फेसबुक के अपने चाहने वालों के ही नहीं बल्कि इस दौर के कद्दावर शायरों के भी चहेते हैं।
"चांद बैठा हुआ है पहलू में" से पहले उनकी नज़्मों की किताब 'परफ्यूम' बहुत चर्चित हो चुकी है।
'सिराज' जी को आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों के लिए 
+91 76686 66278 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।

इसका नहीं मलाल उन्हें ख़ुद ना उठ सके 
उनको ख़ुशी ये है कि मुझे भी गिरा दिया 

ये डर भी इब्तिदा से मोहब्बत में साथ है 
इक रोज़ तुम कहोगी मुझे तुमने क्या दिया
*
पहले पहल तो सबने दिखाई बड़ी ही फ़िक्र 
कुछ दिन में ऊब हर कोई बीमार से गया 
*
बात तो कोई बची नहीं है कहने को 
फिर भी दोनों फ़ोन लगाए बैठे हैं
*
जो शख़्स अंजुमन में हुआ ही नहीं शरीक 
वो शख़्स अंजुमन में बहुत देर तक रहा






Monday, August 26, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 15

लगभग तीन-चार साल पुरानी बात होगी, शाम का समय था जब अमेरिका से श्री अनूप भार्गव जी का फोन आया। अनूप जी बिट्स पिलानी से केमिकल इंजीनियरिंग और आईआईटी दिल्ली से सिस्टम एवं मैनेजमेंट का कोर्स किए हुए हैं और वर्षों से अमेरिका में रह रहे हैं। प्रतिभाशाली अनूप जी का साहित्य प्रेम विशेष रूप से हिंदी के प्रति अनुकरणीय है। विदेश में रह कर जिस तरह उन्होंने हिंदी की सेवा की है उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। हम दोनों एक दूसरे को उस समय से जानते हैं जब इंटरनेट पर ब्लॉग लेखन बहुत लोकप्रिय हुआ करता था।

अनूप जी की इच्छा थी कि एक ऑनलाइन ग़ज़ल की पाठशाला आरंभ की जाए जिससे देश विदेश के ग़ज़ल सीखने वाले जुड़कर ग़ज़ल कहना सीख सकें। उन्होंने मुझसे इस काम को अंजाम देने में मदद करने को कहा। विचार उत्तम था लेकिन ग़ज़ल कहने और सिखाने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। ग़ज़ल का व्याकरण अपने आप में एक वृहद विषय है।मुझे अपनी सीमाएं पता थीं इसलिए अपने बचाव में मैंने कुछ उस्तादों के नाम उनको सुझाए जो इस काम को बहुत अच्छे से अंजाम दे सकते थे। उस्तादों से उन्होंने संपर्क किया तो कुछ ने साफ ही ना किया कुछ ने नुकुर, किसी ने कहा देखते हैं तो किसी ने कहा सोचते हैं। यानी एक-एक करके सब के सब उस्ताद पतली गली से निकल लिए।

अनूप जी ने कहा कि आप शुरुआत तो करो मैं और लोगों को भी आपके साथ जोड़ने का प्रयास करता हूं भला हो अनूप जी का जिन्होंने इस कार्य में मेरे साथ एक ऐसे शख़्स को जोड़ा जिनका ग़ज़ल व्याकरण का ज्ञान मुझसे कई गुना बढ़कर था। वो शख़्स थे हमारे आज के शायर, एक बेहतरीन इंसान, जनाब "अनिल कुलश्रेष्ठ" साहब।
अनिल जी ने ग़ज़ल के व्याकरण को जिस धैर्य,सरलता और अंदाज से ग्रुप में सीखने वालों को सिखाया और आज भी सिखा रहे हैं, उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं है।

उनकी ग़ज़लों की दूसरी किताब "नक्श-ए- पा रह जाएगा" मेरे सामने है।

हासिले जम्हूरियत तो ये भी है अपने यहां
खूब तलवारे खिचेंगी मुद्दआ रह जाएगा

रोज ताला बंद करके जाने वाले जान ले
घर तो क्या ये हाथ आंखें, सब खुला रह जाएगा
*
पिछली जो कमाई थी अब तक वो गंवा बैठे 
आगे के सफ़र को भी कुछ दाम कमाने हैं
*
हर सुबह की दोपहर फिर शाम होगी 
मत कहो इसको कि सूरज ढल रहा है
*
वक्त की मरहम का बेशक काम उम्दा है मगर 
घाव भरना था भरा लेकिन निशान बनता गया

गजल की सैकड़ो बेहतरीन किताबें बाजार में उपलब्ध हैं तो फिर अनिल जी किस किताब में ऐसा क्या अलग है जो और किताबों में नहीं है? चलिए इस विषय में अनिल जी के ही शब्दों से आपको बताते हैं, वो लिखते हैं कि:
"मेरी यह किताब एक मायने में लीक से बिल्कुल अलग है। कोशिश है कि इसके केंद्र में सामान्य पाठकगण हों इसलिए प्रस्तुत किताब में मैंने हर ग़ज़ल के साथ ही मिसरे का वज़्न भी लिखा है। इसका मक़सद ही ये है कि जो पाठक ग़ज़ल की बहर को न पकड़ पा रहे हो उन्हें आसानी हो। मैंने बहर के साथ साथ ग़ज़ल के अरकान भी लिख दिए हैं"

इसके चलते ग़ज़ल सीखने वालों के लिए ये किताब बहुत उपयोगी है। इसे पढ़कर उन्हें बहरों का ज्ञान तो हो ही जाएगा साथ में ये भी समझना आसान हो जाएगा कि वज़्न कहां कैसे गिराया जा सकता है। जिन्हें व्याकरण का ज्ञान है वो इस किताब की ग़ज़लों में पिरोए भाव से आनंदित होंगे। कहने का मतलब ये है कि इस किताब को ग़ज़ल सिखाने वाले और ग़ज़ल सीख चुके दोनों ही पाठक पसंद करेंगे।

15 नवंबर 1953 को जन्मे अनिल जी पेशे से बैंकर रहे हैं और भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य प्रबंधक के पद से रिटायर होकर आजकल ग़ज़ल लेखन और ग़ज़ल प्रशिक्षण में व्यस्त रहते हैं। जिस लगन और मेहनत से वो ग़ज़ल सीखने वालों को ग़ज़ल की बारीकियां और सुझाव देते हैं उसकी तारीफ़ शब्दों में संभव नहीं।
जिस ग्रुप को अनूप जी ने आरंभ किया था उसके सदस्य अनिल जी के मार्गदर्शन में बेहतरीन ग़ज़लें कह रहे हैं ।एक साल के अंतराल में ही उन सदस्यों की ग़ज़लों का एक साझा संकलन "आग़ाज़" मंज़र ऐ आम पर आना किसी उपलब्धि से कम नहीं।

रोशनी जिसने अता की है शमा को इतनी 
वोही भरता है जुनूं इश्क़ का परवाने में
*
तीरगी चांद पर पड़े भारी 
उस पहले ही तू सहर कर दे
*
जां बचाकर भागता जो चाक के चक्कर से वो
ढेर मिट्टी का कभी बढ़कर घड़ा होता नहीं
*
न कोई इब्तदा मेरी न कोई इंतिहा मेरी 
मुसलसल जो चलेगा उस सफ़र का सिलसिला हूं मैं
*
कुछ तो उसमें कमी यक़ीनन है 
जो बुरे को बुरा नहीं कहता

कभी नोएडा तो कभी सिंगापुर में निवास करने वाली अनिल जी को छात्र जीवन से ही कविताएं लिखने का शौक रहा जो धीरे-धीरे ग़ज़लों तक आ पहुंचा। इस विधा में पारंगत होने के बावजूद भी वो अपने आप को अभी भी ग़ज़ल का एक विद्यार्थी ही मानते हैं। जहां आजकल एक मिसरा लिखकर लोग खुद को उस्ताद समझने लगते हैं वहीं अनिल जी जैसे अपवाद भी हैं जो स्वयं को हमेशा ग़ज़ल का विद्यार्थी ही समझते हैं। हम ये भूल जाते हैं कि सीखना एक सतत क्रिया है जो जीवन भर पूरी नहीं होती।

कभी पत्नी "अनुपम" ही उनकी रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद 'अनिल जी' ने अपना ये ग़ज़ल संग्रह उन्हीं को इस शेर के साथ समर्पित किया है :

मिसरे मेरे, ग़ज़लें मेरी, पर पूरा दीवान तेरा 
पन्ना पन्ना चेहरा तेरा, अक्षर अक्षर आंख तेरी

पर्यटन के शौकीन रहे अनिल जी ने देश-विदेश के अनेक दौरे किए हैं अब उन्होंने अपनी अधिकतर यात्राएं नोएडा और सिंगापुर तक ही सीमित कर ली हैं।

आप उन्हें इस संग्रह के लिए 9999781298 पर बात कर बधाई दे सकते हैं अथवा 9897066711 पर वाट्सएप पर जुड़ सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आपको जिज्ञासा प्रकाशन गाज़ियाबाद से 9958426855 पर संपर्क करना होगा।

पुरानी एक चिट्ठी है कभी भेजी थी बेटे ने 
मैं जितनी बार पढ़ता हूं अधूरी छूट जाती है
*
हर्फ़ ढाई हैं इश्क़ में लेकिन 
इससे गहरी कोई किताब नहीं
*
सारी बातें न मानिए सबकी
कुछ तो बाकी अगर मगर रखिए

ज़िन्दगी भी ग़ज़ल के जैसी है
सारे मिसरों को बा-बहर रखिए
*
खुद को बदल सके ना जमाने के साथ जो
वालिद वो कह रहे हैं कि बच्चे बदल गए
*
सांस, आंखें और जुबां भी बंद हो जाएंगे जब
अपनी ग़ज़लों से ही शायर बोलता रह जाएगा






Monday, August 19, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -14


सच में,बहुत दुविधा पूर्ण स्थिति है साहब!!! दुविधा ये है कि क्या लिखूं ?जी हां मैं उस किताब पर क्या लिखूं जिस पर मुझसे अधिक समझदार लोग मुझसे पहले बहुत बेहतरीन लिख चुके हैं। मेरा मानना है कि जो कुछ लिखा जा चुका है जब आप उसे बेहतर या इतर नहीं लिख सकते तो आपको नहीं लिखना चाहिए।

फिर भी मैं क्यों लिख रहा हूं ? वो इसलिए कि ये जो दिल है न, ये कमबख़्त नहीं मान रहा। कह रहा है कि तू लिख और हम तो मुकेश जी के इस गाने के शुरू से मुरीद रहे हैं कि "दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है" इसलिए दिल की मान कर लिख रहे हैं। अब आप अपने दिल से पूछ लें कि आपको आगे पढ़ना है या नहीं। वैसे मुझे यक़ीन है कि आपका दिल मना नहीं करेगा यदि करना होता तो अब तक कर चुका होता और आप ये सब नहीं पढ़ रहे होते। है न ?

यह तो हुआ अनर्गल प्रलाप, अब मुद्दे पर आते हैं। मुद्दा है, हमसे ठीक एक साल एक महीने पहले याने, 14 सितंबर 1951 को मथुरा में पैदा हुए जनाब रवि खंडेलवाल साहब की पहली ग़ज़लों की किताब "तज कर चुप्पी हल्ला बोल" का। आप कहेंगे इसमें मुद्दा क्या है? मुद्दा वो है जो मैं ऊपर बयान कर चुका हूं यही कि इस किताब पर क्या लिखूं? पर लिखना है तो सोचा कि इस किताब में छपी शायरी पर तो आप इंटरनेट से बहुत आला विद्वानों द्वारा की गई समीक्षा में सब कुछ पढ़ ही लेंगे इसलिए  क्यों न मैं उस पर लिखूं जिसने इस अनूठी शायरी को इस किताब में पेश किया है याने इस किताब के शायर जनाब "रवि खंडेलवाल" साहब पर।
शायर और उसके संघर्ष को यदि आपने जान लिया तो समझिए कि आपने उसकी शायरी को भी जान लिया हालांकि इसमें अपवाद हो सकते हैं। कई बार शायर का चरित्र अपनी शायरी के विपरीत भी मिलता है लेकिन सौभाग्य से 'रवि खंडेलवाल' भाई अपवाद नहीं है क्योंकि वो खरे हैं और तप कर कुंदन बने हैं।

वो खा रहे हैं एकता की क़समें बारहा 
हाथों में जिनके अपने-अपने इश्तिहार हैं
*
कांच का मंदिर बना है 
और पत्थर पूजना है

आइज खुशियां मनाएं https 
आंख ने आंसू जना है
*
सर झुका कर ज़ुल्म सहना नहीं है ज़िंदगी
ज़िंदगी के तौर बदलो और हल्ला बोल दो
*
ये मध्यम वर्ग का जो आदमी दिखता है चमकीला 
मुझे मालूम है है कोट के पीछे नहीं अस्तर
*
ज़िंदगी एक ऐसी ग़ज़ल दोस्तो 
जिसमें सब कुछ मगर क़ाफ़िया ही नहीं

बात शुरू से शुरू करते हैं, याने मथुरा से। मथुरा में रवि खंडेलवाल जी के पिताजी का कारोबार था जो किन्हीं कारणों से कानपुर ले जाना पड़ा। उनके पिता स्वांत:सुखाय के लिए कविताएं लिखा करते थे। पिता को देख कर बालक रवि ने भी तुक बंदी शुरू कर दी। कानपुर के एक कवि सम्मेलन में रवि जी को उनके भाई साथ ले गए जहां उन्होंने पहली बार श्री गोपाल दास 'नीरज' जी को सुना। उस छोटी सी उम्र में वो 'नीरज' के दीवाने हो गए।

पिता के आकस्मिक देहावसान के बाद पूरा परिवार फिर से वापस मथुरा आ गया। आर्थिक स्थिति बिगड़ गई, संघर्ष का कठिन दौर शुरू हो गया, लेकिन इस सब के बावजूद रवि जी का कविता प्रेम कम होने की बजाय बढ़ता गया।

रवि जी ने ढूंढ ढूंढ कर नीरज जी की किताबें पड़ी और उन्हीं की तरह लिखने की कोशिश जारी रखी सौभाग्य से ग्रेजुएशन के दौरान उन्हें डॉक्टर वेद प्रकाश शर्मा 'अमिताभ' जैसे शिक्षक मिले जिनका पढ़ने का अंदाज निराला था। वेद जी बात-बात पर क्लास में किसी कवि की कविता या किसी शायर का शेर सुनाया करते थे। एक दिन एक शेर वेद प्रकाश जी ने क्लास में सुनाया जो रवि जी के दिल ओ दिमाग पर हमेशा के लिए चस्पां हो गया और वो उसकी गिरफ्तार से आज भी नहीं निकल पा रहे।शेर था:-

समझो न दागे चेचक इस नाज़नी के मुख पर 
देखा है आशिकों ने नज़रें गड़ा गड़ा कर

मुझे यक़ीन है कि आप में से शायद ही किसी ने ये शेर सुना होगा, यदि सुना है तो कमेंट बॉक्स में शायर का नाम बता दें बड़ी मेहरबानी होगी। इस एक शेर से रवि भाई शायरी की ओर बढ़ गए। ट्रांजिस्टर पर ग़ज़लें सुनने लगे और 

आपको देख के बेगौर भी अच्छा लगा 
गौर से देखा तो फिर और भी अच्छा लगा 

या फिर 

जब ख़्याल आया कि मैंने रात छत पर क्या किया 
सोच कर देखा तो पाया चांद को देखा किया 

जैसे शेर कहने लगे और उन्हें सुना सुना कर गोष्ठियों में दाद पाने लगे ।

जब सह सका ना ज़ुल्म तो आख़िर यही हुआ 
ज़ालिम के ज़ोर-ज़ुल्म से टकरा गया हूं मैं
*
बुराई अगर आप देखेंगे मुझ में 
दिखेगी सदा ही बुराई-बुराई
*
ग़लती तो आखिर ग़लती है चाहे जिसकी हो 
फ़र्क नहीं पड़ता किसने कम-ज्यादा ग़लत कहा
*
बुत बनके रह गया क़सम से आम आदमी 
देखा है दोनों हाथ से मैंने झिंझोड़ कर 

सुखी तलाश में 'रवि' निकला था घर से मैं 
दुनिया खंगाल डाली मैंने, ख़ुद को छोड़कर

साहित्यिक के अलावा मथुरा में वो रंगमंच से भी जुड़ गये। उन दिनों स्वर्गीय श्री अमृतलाल नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर 'स्वास्तिक' नाट्यसंस्था के अंतर्गत नाटकों का मंचन किया करती थीं। रवि खंडेलवाल जी उनके साथ जुड़ कर नाटकों में अभिनय करने लगे और अपनी अभिनय क्षमता का लोहा उन्होंने 'खामोश अदालत जारी है', 'सिंहासन खाली है' तथा 'गांधी जी की बकरी' जैसे नाटकों में अभिनय कर मनवाया। उनके साथ के अभिनेता बृजेंद्र काला आज नाट्य और सिने जगत के प्रसिद्ध कलाकारों में से एक हैं।

किसी का जीवन एक गति से नहीं चलता, रवि जी भी अपवाद नहीं थे। मथुरा में जो कारोबार ठीक ठाक चल रहा था वो अपरिहार्य कारणों से डांवाडोल हो गया। आय के विकल्प जब मथुरा में नहीं दिखे तो उन्होंने इंदौर जाना तय किया वहां उनकी ससुराल भी है। इंदौर में व्यापार ज़माने में वक्त लगता इसलिए नौकरी का विकल्प सूझा और वो इंदौर की 'फैरों कंक्रीट कंस्ट्रक्शन कम्पनी' में काम करने लगे। ये सन 1993 की बात है। अपनी लगन और मेहनत के चलते अब वो इस कंपनी में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं और आज भी उसी ऊर्जा से काम कर रहे जिस ऊर्जा से वो सन् 1993 में किया करते थे। 

1993 से 2013 यानी 20 साल वो नौकरी में इस कदर व्यस्त रहे कि साहित्य एक कोने में धरा रह गया। उन्हें लगने लगा कि उनके अंदर की साहित्यिक प्रतिभा धीरे-धीरे मर रही है। लेकिन ऐसी बात नहीं थी। वो प्रतिभा अंदर ही अंदर प्रगाढ़ हो रही थी ।

सन 2013 में रवि खंडेलवाल फेसबुक से जुड़े और फिर एक विस्फोट हुआ। फेसबुक के माध्यम से वो अपने उन साहित्यिक मित्रों से जुड़े जो कहीं पीछे छूट गए थे। मित्रों ने उन्हें फिर से साहित्य की धारा में बहने को प्रेरित किया।

2013 से अब तक उनका लेखन अबाध गति से चल रहा है। फेसबुक और स्थानीय गोष्ठियों में उनकी रचनाएं चर्चित होने लगीं। उनकी कलम साहित्य की सभी प्रचलित विधाओं में जैसे गीत, नवगीत, दोहे, समकालीन कविताएं और ग़ज़ल आदि पर सफलतापूर्वक चलने लगी। सन 2022- 23 में उनकी तीन पुस्तकें 'उजास की एक किरण' जिसमें समकालीन कविताएं हैं, 'मौत का उत्सव' जिसमें कोरोना कल की त्रासदी पर लिखी कविताएं हैं और 'तज कर चुप्पी हल्ला बोल' ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुईं।

रवि जी के आकाशवाणी से कई एकल काव्य पाठ हो चुके हैं। इनके बहुत से काव्यात्मक संगीत रूपकों एवं लगभग 100 गीतों का विभिन्न गायको द्वारा समय-समय पर संगीत बद्ध प्रसारण हुआ है।

युवाओं को मात देने वाली ऊर्जा वाले रवि जी की 9 पुस्तकें, जिनमें तीन ग़ज़ल संग्रह, तीन कविता संग्रह दो नवगीत संग्रह और एक दोहा संग्रह है, प्रकाशनाधीन है। अंतर्जाल और पत्र पत्रिकाओं में छपी उनकी विभिन्न रचनाओं का ज़िक्र किसी एक पोस्ट में करना असंभव है।

यहां इस बात का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि रवि जी ने ब्रजभाषा में भी ग़ज़ले कही हैं। बृज ग़ज़लो को लोकप्रिय बनाने में 'नवीन चतुर्वेदी' भाई के योगदान की जितनी प्रशंसा की जाए कम है।ब्रज ग़ज़लों की भाषा में वो मिठास है जो मधुमक्खी के छत्ते से टपकते शहद में होती है।

निर्वसन लगने लगी है आत्मा जब से 
संस्कारों ने हैं पहने वस्त्र झीने से
*
मौन धारण कर नहीं कुछ भी तुझे मिल पाएगा 
है अगरचे चाहिए हक़ रार कर, तकरार कर
*
आदमी को और ना, बदनाम कर ऐ आदमी 
आदमी बनकर ही रहना, आदमी के वेश में
*
फूल ऐसा भी 'रवि' किस काम का 
आप फ़ेंके और पत्थर सा लगे
*
क्या आम आदमी इसी को बोलते हैं हम
आंखें खुशी में और जिसकी ग़म में भी है नम

रवि जी के इस पहले संग्रह की ग़ज़लें दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परम्परा की तो हैं ही साथ ही इनमें गिरते मानवीय मूल्यों के प्रति आक्रोश के अलावा सामाजिक सरोकार की बातें भी हैं। अलग से तेवर वाली ये ग़ज़लें पाठक को सोचने पर मजबूर करती हैं।
'तज कर चुप्पी हल्ला बोल' की ग़ज़लों के लिए आप विलक्षण प्रतिभा के धनी रवि खंडेलवाल जी को उनके मोबाइल नंबर 7697900225 पर बधाई दे सकते हैं और श्वेत वर्णा प्रकाशन से प्रकाशित इस अद्भुत किताब को 84475 40078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।







Monday, August 12, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 13


लखनऊ' में देश के कद्दावर उर्दू शायर के घर की बैठक है, जिसमें आए दिन देश-विदेश के नामवर शोअरा आते रहते हैं, गुफ़्तगू करते हैं, अपनी शायरी सुनाते हैं। इन शोअरा से मिलने और उन्हें सुनने वालों का हर वक्त मंजूर साहब के घर तांता लगा रहता है। इन सब मेहमानों की ख़िदमत में इस घर का जो बच्चा लगा हुआ है वो बड़ी हैरत से उर्दू शाइरी के इन बड़े सितारों को देखता है, सुनता है और सोचता है और कि वो भी बड़ा होकर इनके जैसा बनेगा। 

बात उर्दू के उस्ताद शायर जनाब 'मलिकजादा मंजूर अहमद' साहब के उस घर की हो रही है जहां उनके बेटे, हमारे आज के शाइर जनाब "मलिक जादा जावेद" साहब की परवरिश हुई। 'मंजूर' साहब ने 'जावेद' साहब को शायरी करने के लिए कभी नहीं उकसाया बल्कि ये कहा कि, बरखुरदार पहले पढ़ाई लिखाई करो, अपने पांव पर खड़े हो जाओ फिर कर लेना शायरी- वायरी। 'जावेद' साहब पढ़ते भी रहे और अपने अब्बा से छुप-छुप कर शायरी भी करने लगे जो। छुपछुपा कर मुशायरे भी पढ़ने लगे। ऐसे ही किसी मुशाइरे में लखनऊ के आला अफसर 'अनीस अंसारी' साहब ने भी उन्हें सुना और उनके बगावती तेवरों से बड़े मुत्तासिर हुए। उन्होंने ने 'जावेद' को बुलाया और पूछा कि बरखुरदार आप करते क्या हो, तो 'जावेद' साहब ने कहा कि उर्दू में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद पीएचडी कर रहा हूं जिसमें तीन साल तो लग ही जाएंगे उसके बाद अल्लाह मालिक है। बात आई गई हो गई। 

एक दिन 'जावेद' साहब की पहचान के जनाब 'बशीर फ़ारुक़ी' साहब जो सचिवालय में काम करते थे, उन्हें ढूंढते हुए आए और कहा कि जावेद भाई आपको 'अंसारी साहब' ने याद किया है। 'अंसारी' साहब तब 'उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक वित्तीय विभाग' जो कि नया ही बनाया गया था के, एम.डी. बनाए गये थे। 'जावेद' साहब उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा, बरखुरदार सरकारी नौकरी करोगे? और उनका ज़वाब सुनने से पहले ही विभाग के जनरल मैनेजर 'शर्मा जी' को बुला कर कहा कि ये नौजवान 'मलिकजादा जावेद' बहुत होशियार है और इससे पहले कि ये फ्रस्ट्रेशन का शिकार हो जाए इसे अपने विभाग में नौकरी दे दो। आनन-फानन में उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। इस तरह 'जावेद' साहब को अपनी शायरी की बदौलत सरकारी नौकरी मिल गई।

बेतरतीबी ठीक नहीं
कमरे में अलमारी रख

सबको बांट के खे़मों में 
अपने घर सरदारी रख
*
सुखन में दस्तकारी बढ़ रही है
ग़ज़ल के कारखाने लग रहे हैं

ये दुनिया एक पल में ख़त्म होगी 
मगर इसमें ज़माने लग रहे हैं
*
ज़ुबां एजाज़ देकर काट लेगा
ये हाकिम कुछ अजब किरदार का है एजाज़: इनाम
*
बारिश का मौसम तो बीत गया लेकिन 
उजली दीवारों पर धब्बे उग आए 
*
ख़त लिखने को जी चाहे अल्फ़ाज़ बगैर
इतनी भी शिद्दत से तुम याद आना मत

देश के नामवर शायर जनाब 'बशीर बद्र' साहब 'मलिकजादा जावेद' साहब की शायरी के काइल थे।लखनऊ में नौकरी के साथ-साथ जावेद साहब मुशायरे तो पढ़ते थे लेकिन उन्हें उतनी शोहरत नहीं मिलती जिसके वो हकदार थे। सब जानते हैं कि एक बड़े दरख़्त के नीचे छोटे पौधों का पनपना मुश्किल होता है वही हाल 'जावेद' साहब का था। लखनऊ में लोग उनकी शायरी पे दाद तो देते लेकिन साथ ये भी कहते कि ये एक बहुत बड़े शायर का बेटा है अपने अब्बा जैसा तो कभी कह नहीं पाएगा। कभी किसी अच्छी शेर पर लोग ये भी कमेंट करते कि ये शेर इसने अपने अब्बा से लिखवा लिया होगा। 

ये सब देखकर एक बार 'जावेद' साहब ने 'बशीर बद्र' साहब से कहा कि वो उन्हें दिल्ली के डी.सी.एम. के मुशायरे में पढ़ने का मौका दिलवाएं। उस वक्त डी.सी.एम. का मुशायरा पढ़ने वाला शायर ही असली शायर समझा जाता था। 'बशीर बद्र' साहब की सिफ़ारिश पर 'जावेद' साहब को मुशायरे में बुलाया गया जिसकी निजामत 'मलिकजादा मंजूर' करने वाले थे। 'जावेद' साहब चाहते थे कि उनके उस मुशायरे में शिरकत की बात उनके अब्बा तक मुशायरा से पहले ना पहुंच पाए। ऐसा हुआ भी, 'मंजूर' साहब जिस ट्रेन से दिल्ली गए 'जावेद' साहब उस ट्रेन की बजाए दूसरी ट्रेन से दिल्ली पहुंचे और उनसे अलग होटल में रुके। मुशायरे की स्टेज पर सबसे छुपते-छुपाते आख़िरी सफ़ जा कर बैठ गए। जब शायरों की लिस्ट मंजूर साहब को निजामत से पहले सौंपी गई तो वो उसमें 'जावेद' साहब का नाम देखकर हैरान हुए और पलट कर पीछे देखा। 'जावेद' उन्हें बैठे दिखाई दिये। 'मंजूर' साहब ने मुशायरे का आगाज़ ये कह कर किया कि मैं सबसे पहले उस नौजवान को दावते-सुखन दे रहा हूं जो मेरा बेटा है लेकिन इसे यहां बुलाने में मेरा कोई हाथ नहीं है। इससे ज़्यादा इनका तार्रुफ़ इनकी शायरी ही आपको करवाएगी। 'जावेद' साहब माइक पर आए और अपनी तीन ग़ज़लें पढ़ी। मजे की बात ये हुई कि अगले दिन अख़बारों में जहां नामवर शायरों का एक एक ही शेर कोट किया गया वहीं 'जावेद' के तीन शेर कोट किए गए। उस दिन के बाद से 'जावेद' साहब शोहरत की बुलंदियां छूने की और बढ़ चले।

अब तो ख़त लिख कर ही होगी गुफ़्तगू 
फ़ोन पर करता है वो बातें बहुत
*
मौसम तक पैग़ाम ये लेकर जाए कौन
सूखे शजर पत्तों की चाहत करते हैं
*
एक भी तस्वीर एल्बम में नहीं
मेरी यादों का सफ़र है मुख़्तलिफ़
*
मैं भी पंजों पर खड़ा हो जाऊंगा 
हैसियत से वो अगर बढ़ कर मिले
*
सभी कमरों में घुस जाते हैं आकर
कहां होती है कोई बात घर में

नौकरी लगने के कुछ ही सालों बाद 'जावेद' साहब का लखनऊ से नोएडा ट्रांसफर हो गया और यहीं से 'जावेद' साहब को अपनी असली पहचान मिली। उन्होंने अपने पिता की रिवायती शैली से बिल्कुल अलग ग़ज़ल की शैली अपनाई। बड़े भाई समान 'बशीर बद्र' साहब की इस सलाह को हमेशा याद रखा की "शायरी उस ज़बान में की जानी चाहिए जिसको समझने के लिए किसी को लुगत का सहारा ना लेना पड़े, यानी आम बोलचाल की सीधी सरल ज़बान।

उन्होंने ग़ज़लें न सिर्फ़ आम ज़बान में कहीं बल्कि उनमें सामाजिक सरोकारों को, इंसानी फितरत को, आम इंसान के सुख-दुख को बड़े दिलकश अंदाज में जोड़ा। 

"धूप में आईना" 'जावेद' साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें उनकी 101 बेहतरीन ग़ज़लें शामिल हैं ।ये ग़ज़ल संग्रह 'आदम पब्लिशर्स' नई दिल्ली से 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में ज्यादातर ग़ज़लें छोटी बहर में है और जैसा सब जानते हैं कि छोटी बहर में ग़ज़ल कहना बहुत हुनर का काम होता है। 'जावेद' हुनर इनमें सर चढ़कर बोलता है। इस संग्रह से पहले सन 1992 में उर्दू में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "खंडर में चिराग" छपकर मक़बूल हो चुका है। इस संग्रह को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने पुरस्कृत भी किया था।

हाल ही में नोएडा से, रिटायर होकर, 'जावेद' साहब अब अपने लखनऊ के पुश्तैनी मकान में जाकर बस गए हैं। आप 'जावेद' साहब से उनके मोबाइल नंबर 9312439228 पर संपर्क कर इस किताब को प्राप्त करने का तरीका पूछ सकते हैं।

कहां तुम आ गए बैसाखियों की नगरी में 
यहां तो पांव से चलता नहीं है कोई भी
*
इल्म के मांझे से क्या हासिल 
लफ़्फ़ाज़ी की डोर बहुत है
*
इकट्ठा हो गए वो एक पल में 
मगर बच्चों की मांए लड़ रही हैं
*
खिड़की के बाहर मत झांक 
अपने घर के अंदर देख
*
मेरी गली के शिवाले में कीर्तन भी हो
तेरे पड़ोस की मस्जिद में भी अज़ान रहे 





Monday, August 5, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 12


सूरज का साथ देने में नुक्सान ये हुआ
हम रात की नज़र में गुनाहगार हो गए

इस बार मेरे पास मुहब्बत की ढाल थी
इस बार उसके तीर भी बेकार हो गए
*
ख़याल ज़िद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं
*
फ़ज़ायें एक सी रहती नहीं कभी दिल की
हमेशा चांद भी पूरा नहीं निकलता है
*
हटा लो मील का पत्थर हमारे राहों से 
हमारे ज़ौक़े-सफ़र को थकान देता है
*
हम हैं शायर हमें तफ़रीक़ नहीं आती है
ढलते सूरज को भी हम लोग दुआ देते हैं 
तफ़रीक़: मतभेद 

हमको इंसाफ़ की उम्मीद नहीं है लेकिन 
आप कहते हैं तो ज़ंजीर हिला देते हैं
*
जवाब देना है अपनी ज़मीर को भी मुझे
मैं शायरी को पहेली नहीं बनाऊंगा

ख़याल जिद भी करें उनको टाल देता हूं 
मैं हल्का शेर ग़ज़ल से निकाल देता हूं


शायरी और मुहब्बत दोनों ही "इक आग का दरिया है और डूब के जाना है" वाला काम है। जो लोग मुश्किल काम को अंजाम देने का हौंसला रखते हैं और साथ ही जुनूनी हैं उन्हें ही इस और क़दम बढ़ाने चाहिएं 

आप उस्ताद शायरों की शायरी को ग़ौर से पढ़ें तो महसूस करेंगे कि उन्होंने किस कमाल से हर शेर के मिसरों में लफ़्ज़ों को इस तरतीब से रखा है कि किसी भी लफ़्ज़ को आप अपनी जगह से हटा नहीं सकते। लफ़्ज़ों की तरतीब बदलते ही आपको उस शेर की रवानी में फ़र्क साफ़ नज़र आ जाएगा।

शायरी और तुकबंदी में बहुत फ़र्क है और ये फ़र्क आपको हमारे आज के शायर जनाब "कशिश होशियारपुरी" साहब की ग़ज़लों की किताब "मंज़िलों से दूर" पढ़ते वक्त साफ़ नज़र आ आएगा। उनकी ग़ज़ल के हर शेर में लफ़्ज़ नौलखा हार में जड़े नगीनों की तरह तराश कर बड़ी कारीगरी से टांके गए हैं। शेरों में रवानी किसी अल्हड़ नदी की तरह कलकल बहती हुई सी है। नए ग़ज़लकारों के साथ साथ उनको जो ग़ज़ल कहने का फ़न अभी सीख रहे हैं, "कशिश होशियारपुरी" साहब की इस किताब को बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि वो समझें कि शेर कहने का शऊर और हुनर क्या होता है और इसके लिए कितनी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है। "कशिश होशियारपुरी" साहब कहते हैं कि :

'शेरो सुख़न की मंजिलें पाने के वास्ते 
मैंने पहाड़ काटा है फ़रहाद की तरह 

सीधी सी बात है जो लोग पहाड़ काटकर रास्ता बनाने की बजाय बनी बनाई सड़क या पगडंडी पर चलने में विश्वास रखते हैं उन्हें शायरी करना छोड़ ही देना चाहिए क्योंकि ऐसी शायरी, जिसमें पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने जैसी मशक्कत ना करनी पड़े, भले ही सोशल मीडिया पर तुरंत वाह वाही बटोर ले लेकिन वो वक्त की आंधी में बहुत जल्दी और आसानी से उड़ जाती है और भुला दी जाती है। 

"मंज़िलों से दूर" की ग़ज़लों में "कशिश" साहब ने एक से बढ़कर एक नए रदीफ़ और काफियों का इस्तेमाल किया है जो कारी को हैरान भी करता है और उनकी ग़ज़लों को पढ़ने में दिलचस्पी भी बनाए रखता है।
उसूल होते हैं सबको बहुत अज़ीज़ मगर 
कभी-कभी ये परेशान करने लगते हैं
*
हम ये पूछेंगे लहू से की कभी क़त्ल के बाद
क्या किसी तीर का ख़ंजर का बदन दुखता है
*
वो मुझे तोड़ गया आज इसलिए रिश्ता 
मैं उसकी एक भी आदत बुरी न देख सका
*
कहीं कहीं पे ज़रूरी है थोड़ी तल्ख़ी भी
क़फ़स में है वह परिंदे जो मीठा बोलते हैं
*
अपनी ग़ैरत का उसे करना है सौदा लेकिन
मुझसे कहता है ख़रीदार भी मैं ला कर दूं

कशिश होशियारपुरी" साहब जिनका वैसे नाम 'कुलतार सिंह' है वैसे तो होशियारपुर, पंजाब के बाशिंदे हैं लेकिन इन दिनों वो 'अमेरिका' के 'शिकागो' शहर में रहते हैं। आइए उनके बारे में उन्हीं द्वारा इस किताब में लिखी भूमिका से जानते हैं, वो लिखते हैं कि:

जैसा कि आप जानते हैं पंजाब का एक शहर होशियारपुर, जिसे हल्का-ए-अरबाबे-ज़ौक का शहर कहा जाता है, इस अदबी और तारीखी शहर की ज़रखे़ज़ ज़मीन से बड़े अदीब पैदा हुए जिनके नाम आज भी जहाने-अदब के फ़लक पर रौशन हैं उनमें 'मुनीर नियाज़ी', 'हफ़ीज होशियारपुरी', 'हबीब जालिब', 'नरेश कुमार शाद' वगै़रह नुमायां हैं। मेरा ख़मीर भी इसी शहर के तारीख़ी ही गांव खड़ियाला सैणीयां की ज़मीन से 1 मार्च 1965 को उठा। मैंने अपने शहर की इस अज़ीम अदबी विरासत को संभालने में ही अपने आप को खर्च किया है

यहां से गुज़रे हैं साहिर, नज़र, मुनीर, 'कशिश' 
हमारे नाम को निस्बत उसी दयार से है

मेरे खानदान का शायरी से कहीं दूर का भी रिश्ता नहीं था मेरी मिट्टी खराब की मैंने यह सख्त राह इख़्तियार कर ली। यह मेरी ख़ुशबख़्ती कह लें कि ज़िंदगी मुझे उत्तर प्रदेश के बहुत ही ज़रख़ेज़ इलाके बाराबंकी की फ़ज़ाओं में ले गई वहां मैंने क़रीब 12 साल गुज़ारे वहीं मेरे फ़न ने तरबियत पाई। इब्तिदाई दिनों में मैंने उस्ताद-ए-मोहतरम 'बादल सुल्तानपुरी' साहब से उर्दू ज़ तयबान, उर्दू ग़ज़ल और उरूज़ के बारे में इल्म हासिल किया। 'बादल' साहब ने बहुत सख्त इम्तिहान लिए यहां तक की 7 साल बाद मुझे अपना शागिर्द तस्लीम किया। 'बादल' साहब के इंतकाल के बाद माहिरे फ़न उस्ताद हज़रते 'रहबर ताबानी' साहब की शफ़क़्त हासिल हुई ।आपने मेरे लहजे और फ़न को निखारा।

शायरी मेरे नज़दीक इबादत का फ़न है, शायरी ज़िंदगी को पाकीज़गी बख़्शती है, शायरी मेरे जीने का मक़्सद है, मेरी ज़िंदगी का हिस्सा है। शायरी ज़िंदगी की रा'नाई है, शायरी आदमी को तहज़ीब सिखाती है, शायरी आसमानों से उतरती है और आलिम बनती है। शायरी तेज सूरज की रोशनी का गुज़र नहीं बल्कि नर्म चांदनी का जादू है।

मैं शायरी के दावेदारों की फ़ेहरिस्त में कहां पर हूं मैंने इस पर कभी और नहीं किया ना हाथ फैला कर शोहरत मांगने की कोशिश की मैंने अपनी हर ग़ज़ल को पिछली ग़ज़ल से बेहतर करने की कोशिश की है। मुझे 'मज़रूह सुल्तानपुरी', 'कैफ़ी आज़मी', 'ख़ुमार बाराबंकवी', 'बशीर बद्र', 'राहत इंदौरी', 'मुनव्वर राणा', 'गोपाल दास नीरज' जी जैसी कद्दावर शायरों के साथ मुशायरे पढ़ने का फ़क़्र हासिल है। मेरी ग़ज़लें आकाशवाणी जालंधर और लखनऊ एवम दूरदर्शन दिल्ली और जालंधर से प्रसारित हो चुकी हैं।

'टाइम्स पब्लिकेशन' होशियारपुर से सन 2022 में प्रकाशित"मंज़िलों से दूर" से किताब से पहले भी 'कशिश' साहब की किताब "एहसास की परतें" 1994 में छप कर मक़बूल हो चुकी है। 
आप 'टाइम्स पब्लिकेशन' से 9888033233 पर संपर्क कर इस किताब को मंगवा सकते हैं और 'कशिश' साहब को उनके फेसबुक पेज https://www.facebook.com/kashish.hoshiarpuri?mibextid=ZbWKwL पर अथवा उनके ईमेल kashishhoshiarpuri123gmail.com पर बधाई दे सकते हैं।

आप हर बात सलीक़े से कहें घर में भी 
आपकी बातों का बच्चों पे असर पड़ता है 

सारे इस फ़र्क को महसूस नहीं कर सकते 
चांदनी का जो सितारों पे असर पड़ता है
*
फ़ायलातुन फ़ायेलुन में लोग तो उलझे रहे
आपका ग़म आके मेरा शेर पूरा कर गया
*
चलो, उठो कि ज़माने के साथ-साथ चलें 
अब इस मक़ाम पे ख़तरा दिखाई देता है
*
तूने दुनिया को बनाया था मुहब्बत के लिए
तेरी दुनिया से मुहब्बत नहीं देखी जाती
*
हरे पहाड़ों की चोटियों पर झुके झुके ये सफ़ेद बादल 
नदी के तन पे हवा अज़ल से जो नाचती है वो शायरी है

ये बात मौजे-तरब से पूछो, यक़ीन कर लो या रब से पूछो 
कि ज़िंदगानी में हादसों की जो चाशनी है वो शायरी है
मौजे-तरब: ख़ुशी की लहर
*
उर्दू सीख के सबसे पहले 
मैंने तेरा नाम लिखा था
*
इश्क़ जो दे उसे क़ुबूल करें
दर्द हो, वस्ल हो, जुदाई हो





Monday, July 29, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 11



यूं तो माना जाता है की ग़ज़ल का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू हुआ लेकिन यदि हम अमीर खुसरो से इसकी शुरुआत मान लें तो भी ये अब तक 1200 साल पुराना हो चुका है। इन 1200 सालों में ग़ज़ल की ज़मीन पर हज़ारों की तादाद में शाइरों ने खेती की है। अब आलम ये है की खेती छोड़िए एक पौधा तक लगाने के लिए खाली ज़मीन तलाशे नहीं मिलती। इस ज़मीन पर जहां ग़ालिब, मीर, दाग़, इक़बाल, फ़िराक़, फ़ैज़ जैसे कालजयी शाइरों के जहां लहलहाते बाग़ हैं वहीं पर ढेरों शाइरों की उगाई खरपतवार की भी कमी नहीं है। अब इस ज़मीन पर अपना एक भी बूटा लगाना, जो अलग से नज़र आए, आसान काम नहीं रहा है। बड़े-बड़े बरगदों की छांव में छोटे-मोटे पौधे तो वैसे भी दम तोड़ देते हैं इस बात को जानते हुए भी बहुत से जांबाज शाइर कोशिश करना नहीं छोड़ते। उन्हीं में से एक है हमारी आज की शाइरा *आशा पांडे ओझा 'आशा'*।

अब 'आशा' जी के बारे में क्या कहूं ? क्योंकि मैं जो कहूंगा, जितना कहूंगा वो कम ही पड़ेगा। दरअसल बात ये है कि 'आशा' जी एक ज़िंदा ज्वालामुखी हैं जिसमें से प्रतिभा का लावा लगातार बहता रहता है। इस ज्वालामुखी से लावे के रूप में कभी गीत, कभी कविता, कभी हाइकु, कभी दोहे, कभी व्यंग, कभी लघु कथाएं, कभी शोध पत्र, कभी समीक्षाएं, कभी छंद, कभी कहानी तो कभी ग़ज़लें रह-रह कर फूटती रहती हैं। उनकी इस प्रतिभा से हम सब हतप्रभ हैं और दुआ करते हैं कि ये रंग-बिरंगा लावा सदा यूं ही लगातार फूटता ही रहे।

जीने को है जरूरी 
आंखों में ख़्वाब रखना

तलवार तीर तज कर 
घर में किताब रखना
*
अब मिलते हैं अक्सर दुश्मन
बांह गले में डाले पगले

चोर सभी हैं भाई भाई 
या फिर जीजा साले पगले
*
जरा ग़म के आते दफ़ा हो गई
खुशी दांव हारी जुआरी लगे

हंसता, रुलाता, नाचता वही 
ख़ुदा भी ग़ज़ब का मदारी लगे
*
फिर महकने से लगे हैं सांस के ये मोगरे 
नैन की पंखुरी तले कुछ सरसराहट सी हुई 

लौट आने से तेरे महसूस ये होने लगा 
बांझ घर में बाद में मुद्दत खिलखिलाहट सी हुई
*
कोरी छत खाली दीवारें 
प्यार बिना फिर ये घर क्या है

मन से ज्यादा क्या उपजाऊ 
मन से ज्यादा ऊसर क्या है

यदि आप उनसे परिचित हैं तो 'आशा' जी की प्रशंसा के लिए उपयुक्त शब्द आपको किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। उनके व्यक्तित्व के इतने आयाम है कि उसे एक शब्द में व्यक्त करना असंभव है, इसलिए इस असंभव काम पर वक्त जाया करने से बेहतर मुझे लगा कि मैं उनके बारे में कुछ और बात करूं। 

सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात जो 'आशा' जी में है वो है उनकी ज़िंदादिली। उनसे बात करते वक्त तो आप हंसे बिना रह ही नहीं सकते, बातचीत ख़त्म होने के महीनों बाद तक उनकी बातों को याद कर आप हंसते रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनको बनाते वक्त ईश्वर इतना खुश हुआ होगा कि उसने उनमें सौ-दो सौ लोगों की बुद्धि एक साथ डाल दी।

ग़ज़लों पर उनकी कलम हाल ही में चलनी शुरू हुई है और आप उनकी किताब "कहां सांस लें खुलकर" पढ़ते हुए पाएंगे कि किस खूबी से ग़ज़ल की इस पहले से ही भरी पूरी ज़मीन पर उन्होंने अपने बूटों को रोपने के लिए जगह तलाश की और वो बूटे अलग से दिखाई भी देते हैं। 

आपके दांत न हो और उंगलियों पर चोट लगी हो तो अलग बात है वरना उनके ये आंकड़े आपको दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर कर देंगे। आप ध्यान से पढ़ें:

उनके चार काव्य संग्रह, दस साझा संग्रह, एक हाइकू संग्रह, एक दोहा संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
वो पचास से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्य गोष्ठियों में शिरकत कर चुकी हैं।
उनके बीस से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। 
उनकी 250 से अधिक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं ई पत्रिकाओं में रचनाएं छप चुकी हैं। 
वो रेडियो और टेलीविजन पर न जाने कितनी बार आ चुकी हैं और 
वो 150 से अधिक विभिन्न संस्थाओं व अकादमियों द्वारा सम्मानित हो चुकी हैं 

इतना सब कुछ हो चुकने की बावजूद भी वो कभी फोन करके कहती हैं कि "भाई जी कोई काम हो तो बताओ टाइम ही पास नहीं हो रहा" इससे आप उनमें बह रही ऊर्जा का अंदाजा लगा सकते हैं।

रोकना चाहती हूं तुझे ज़िंदगी 
तू पिघलने लगी कुल्फ़ियों की तरह

रूपकों की तरह गीत में तू रहा 
हर ग़ज़ल में रहा काफ़ियों की तरह
*
लोग रस्ता बना के निकलेंगे
दिल की गलियों आम मत करना
*
किसने सोचा देख दुपहरी चढ़ते तेवर सूरज के
शाम ढले तक कोई इतना धीमा भी हो सकता है
*
तोता-मैना जिसमें प्रीत रचा करते 
बाग़ हमारा कौओं की जागीर हुआ
*
ज़बान खोलने से टूटती है ज़ंजीरें
रहे क्यों बर्फ के जैसे, उबल के देखते हैं

25 अक्टूबर को ओसियां जिला जोधपुर में पैदा हुई 'आशा' जी ने बी.ए. के बाद लाॅ किया और जोधपुर हाई कोर्ट में प्रैक्टिस भी की। इसी दौरान स्वयं पाठी के रूप में हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। साहित्यिक अभिरुचियों के चलते वकालत को उन्होंने नमस्कार किया और लेखन को समर्पित हो गईं।

मुझे गर्व है कि वो मुझ जैसे अनाड़ी को अपना बड़ा भाई मानती हैं। लोग कहते हैं 'नीरज' जी आपके पांव ज़मीन पर क्यों नहीं है? आप हवा में क्यों रहते हो? तो मैं कहता हूं कि जिसकी इतनी प्रतिभाशाली छोटी बहन हो उस भाई के पांव जमीन पर टिक ही नहीं सकती चाहे वो कितना भी जोर लगा ले। 

अब बात उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "कहां हम सांस लें खुलकर" की। ये किताब 'श्वेत वर्ण' प्रकाशन नई दिल्ली से राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से सन 2023 में प्रकाशित हुई थी, जिसे आप प्रकाशक से 8447540078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे ये किताब अमेजॉन से ऑनलाइन भी मंगवाई जा सकती है। इस किताब की ग़ज़लों में मुहावरे दार भाषा और दिलचस्प रदीफ़ काफियों के प्रयोग से कमाल की ग़ज़लें कहीं गई हैं। अधिकतर ग़ज़लें छोटी बहर में है और उनके लिए "सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगै, घाव करें गंभीर" वाली बात सटीक बैठती है।

जहां तक 'आशा' जी से बात का प्रश्न है तो उसके लिए आप उनके फेसबुक पेज Asha Pandey Ojha Asha के लिंक https://www.facebook.com/kavyatri.asha?mibextid=ZbWKwL से जुड़कर उनसे संपर्क कर सकते हैं अथवा उन्हें उनके ई मेल asha09.pandey@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।

पीपल बड़ से बाबा मेरे 
तुलसी केली जैसी अम्मा 

न्यारी न्यारी उंगली बच्चे 
और हथेली जैसी अम्मा
*
रिश्ते नाटक ऐसे करते 
बिगड़ी जैसे घोड़ी साहब

टूट टूट फिर से जुड़ जाती 
होती आस निगोड़ी साहब
*
समय नहीं था पल भर हमको भागा दौड़ी इतनी थी 
आज समय को काटे कैसे प्रश्न पकड़ कर कान खड़ा
*
उसने पहले ईट उठाई हमने पत्थर फिर मारा 
जैसे को तैसा करने की अपनी भी लाचारी है





Monday, July 22, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 10


तुम्हीं ने बनाया तुम्हीं ने मिटाया
मैं जो कुछ भी हूं बस इसी दरमियां हूं
*
उंगली तो उठाना है आसां
पर कौन यहां कब कामिल है
कामिल: पूर्ण, पूरा
*
गुमराह हो गया तू भटक कर इधर-उधर
इक राह ए इश्क़ भी है कभी इख़्तियार कर
*
ऐ शेख! सब्र कर तू नसीहत न कर अभी
आता हूं मैकदे से जरा इंतज़ार कर
*
जब से तुम हमराह हुए हो 
साथ हमारे खुद ही मंज़िल

सबसे पहले रुबरु होते हैं हमारे आज के शाइर जनाब *आनन्द पाठक'आनन* साहब के इन विचारों से जिन्हें उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब *मौसम बदलेगा* के फ्लैप पर प्रकाशित किया है :-

प्रकृति का यही नियम है और यही जीवन दर्शन भी कि मौसम एक सा नहीं रहता। वक्त भी एक सा नहीं रहता।
पतझड़ है तो बहार भी, उम्र भर किसी का इंतज़ार भी, मिलन के लिए बेकरार भी। जीवन में सुख-दुख आशा-निराशा विरह-मिलन का होना, नई आशाओं के साथ सुबह का होना, शाम का ढलना, एक सामान्य क्रम और एक शाश्वत प्रक्रिया है, फिर विचार करना कि जीवन में क्या खोया क्या पाया। दिन भर की भाग दौड़ का क्या हासिल रहा और यही सब हिसाब किताब करते-करते एक दिन आदमी सो जाता है। यही जीवन का क्रम है यही शाश्वत नियम है। बहुत सी बातों पर हमारा आपका अधिकार नहीं होता। सब नियति का खेल है। कोई एक अदृश्य शक्ति है जो हम सबको संचालित करती है।

सुख का मौसम दुख का मौसम, आंधी पानी का हो मौसम
मौसम का आना-जाना है, मौसम है मौसम बदलेगा

दांव पर दांव चलती रही ज़िंदगी
शर्त हारे कभी हम, कभी ज़िंदगी
*
मिलेगी जब कभी फुर्सत तुम्हें रोटी भी दे देंगे
अभी मसरूफ़ हूं तुमको नए सपने दिखाने में
*
'आनन' तू खुशनसीब है दस्तार सर पे है 
वरना तो लोग बेच कमाई में आ गए
*
पूछ लेना जमीर ओ ग़ैरत से 
पांव पर जब किसी के सर रखना
*
आप जो मिल गए मुझको
आप से और क्या मॉंगू

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में 31 जुलाई 1955 को जन्मे आनंद पाठक ने सिविल इंजीनियरिंग क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक आई.आई.टी. रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 

सन 1978 में ऑल इंडिया इंजीनियरिंग सर्विस में चयनित होने के बाद बिहार, बंगाल, असम, झारखंड, गुजरात एवं राजस्थान राज्यों में योगदान दिया और अंततः जयपुर से मुख्य अभियंता (सिविल) भारत संचार निगम लिमिटेड के पद से रिटायर हुए। 

सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में दक्षता के साथ-साथ उनकी अभिरुचि कविता, गीत, ग़ज़ल, माहिया, व्यंग, अरूज तथा अन्य विविध लेखन में भी रही। एक ही व्यक्ति में इतने गुण होना साधारण बात नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वो विलक्षण प्रतिभा वान हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है कि इतनी उपलब्धियां प्राप्त करने के बाद भी वो बेहद सरल सहज सच्चे इंसान हैं। उनसे बात करके आपको लगेगा जैसे आप अपने किसी परिवार जन से ही बात कर रहे हैं। उनका ये गुण उन्हें सबसे अलग करता है। 

इश्क़ भी क्या अजब शै है 
रोज़ लगता नया क्यों है
*
ज़ाहिरी तौर पर हों भले हमसुखन 
आदमी आदमी से डरा उम्र भर 
हमसुखन: आपस में बात करने वाला
*
जादूगरी थी उसकी दलाइल भी बाकमाल
उसके फ़रेब को भी ज़हानत समझ लिया 
दलाइल: दलीलें, ज़हानत: प्रतिभा
*
जब सामने खड़ा था भूखा गरीब कोई 
फिर ढूंढता है किसको दैर ओ हरम में जाकर
*
जहां सर झुक गया आनन वहीं काबा वहीं काशी 
वो चलकर खुद ही आएंगे, बड़ी ताकत मुहब्बत में

*आनन्द पाठक* जी का गीत- ग़ज़ल संग्रह, *मौसम बदलेगा* जिसमें उनकी 99 ग़ज़लें और 9 गीत हैं सन 2022 में 'अयन प्रकाशन' नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। इससे पूर्व आनंद पाठक जी की 9 किताबें मंजर ए आम पर आ चुकी हैं जिन में चार 'व्यंग्य संग्रह' तीन 'गीत-ग़ज़ल संग्रह एक गीति काव्य संग्रह और एक माहिया संग्रह है। इससे पता चलता है कि उनके लेखन का कैनवास कितना विशाल है।

यूं तो मैं उनकी प्रतिभा का कायल उनके ब्लॉग लेखन के दौर से ही रहा हूं ।सन 2018 के विश्व पुस्तक मेले में उनसे पहली मुलाकात हुई जब उन्होंने रोष जताते हुए कहा था कि क्या भाईसाहब जयपुर रहते हुए भी नहीं मिलते हो।जयपुर में उनसे जब जब बात हुई तो ठहाकों से शुरू हो कर ठहाकों पर ही रुकी। उनके बार बार "घर पर आइए" के निमंत्रण को मूर्त रूप देने से पहले ही वो रिटायरमेंट के बाद जयपुर छोड़ कर गुरुग्राम बस गये। देखिए अब कब उनसे मुलाक़ात होती है। खैर!! हमारा उनसे दुबारा मिलना तो जरूर होगा , लेकिन हां आप चाहें तो उनसे उनके मोबाइल नं 8800927181 पर फोन कर उन्हें बधाई दे सकते हैं।


Monday, July 15, 2024

किताब मिली - शुक्रिया 9


कभी तो इनकी गर्माहट मिलेगी मेरे अपनों को 
जो रिश्ते बुन रहा हूं मैं मुहब्बत की सलाई से
*
उसूलों की तरफ़दारी का यह इनाआम है 
उधर सारा जमाना है, इधर तन्हा है हम
*
जहां से हम चले थे फिर वहीं आखिर में जा पहुंचे
हमारी सोच ने हमको क़बीलाई बना डाला
*
उसे हम पूछते हैं रोटियों का घर 
वो हमको चांद का रस्ता बताता है
*
यूं तो हमारी बेटियां बेटों से कम न थीं
हम ही थे बदनसीब कि बेटों के साथ थे

किसी भी शाइर या लेखक की पहचान उसकी स्पष्टवादिता से होती है। मेरी नज़र में जो भी अपनी बात बिना लाग लपेट के सबके सामने रखने में सक्षम है वही सच्चा साहित्यकार है।

हमारे आज की शाइर 'श्री संजीव गौतम'  की यही ख़ासियत सबसे पहले आकृष्ट करती है। पहली बात तो ये है कि वो ग़ज़ल की भाषा को लेकर किसी भ्रम में नहीं है इसलिए लिखते हैं कि "तमाम विद्वानों ने ग़ज़ल को हिंदी या उर्दू होने पर एतराज़ किए हैं लेकिन वे मात्र आभासी तौर पर ही सही प्रतीत होते हैं। मुझे लगता है कि ये बात सिर्फ़ हिंदी और उर्दू के सगेपन के कारण ऐसी महसूस होती है। एक अर्थ में ग़ज़ल तो ग़ज़ल ही है और हिंदी ग़ज़ल अलग कोई विद्या नहीं है।" दूसरी बात, वो देश की आज की स्थिति पर बेबाकी से अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि "आज सबसे बड़ा अंतर जो उत्पन्न हुआ है और जो आजादी के संघर्ष काल एवं आपातकाल के दिनों से भी अलग है वो है कि आज समाज में उदार तत्व कम होता जा रहा है। जैसे-जैसे हम महात्मा गांधी से दूर होते जा रहे हैं वैसे-वैसे भारतीय समाज से नैतिकता का ह्रास होता जा रहा है। वर्तमान समय को यदि मैं एक पंक्ति में व्यक्त करना चाहूं तो आज नकारात्मकता वैद्यानिकता हासिल करना चाहती है। आपके चारों ओर ऐसे व्यक्तियों का बहुमत है जो अन्य के विषय में उदारता से नहीं सोचते। आज चिंतनशील होना अभिशाप जैसा है और बुद्धिजीवी होना गाली।

सीधी सरल बात है कि ऐसी सोच और विचारधारा का शाइर अनूठा ही होगा। धारा के विपरीत बहने का साहस करने वाले बिरले ही हुआ करते हैं और 'संजीव गौतम' उन बिरले शाइरों में से एक है।

अगर चाहें कि धरती पर रहे इंसान ज़िंदा तो
बचानी ही पड़ेंगी नरमिंया हमको जबानों में
*
समझता था तुझे मैं सिर्फ़ शाइर 
ग़ज़ब है तू भी हिंदू हो रहा है
*
हमें तो फ़िक्र है उसकी सो हम तो टोकेंगे 
हमें पता है वो हमको बुरा समझता है
*
हुई है दोस्ती जो ज़िंदगी से 
भरेंगे उम्र भर चालान हम भी
*
ज़रूरत आ पड़ी है जब तभी खामोश है ये 
हमारे दौर की भी शाइरी क्या शाइरी है

उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए वरिष्ठ ग़ज़ल कार श्री 'अशोक रावत' जी की इस किताब में 'संजीव गौतम' के बारे में लिखी बात पर आसानी से यक़ीन किया जा सकता है की 'संजीव गौतम की ग़ज़लों में जो आत्मविश्वास नज़र आता है वो किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इस आत्मविश्वास के पीछे ग़ज़ल के शिल्प का पूरा ज्ञान तो है ही उनकी स्पष्ट दृष्टि और मानवीय मूल्यों के प्रति गहरा लगाव भी है। उनके विचार और आचरण में फ़ासले नहीं है इसलिए कथ्य स्वत: ही विश्वसनीय बन जाता है जो पाठक के दिल तक पहुंचता है।

जाने माने ग़ज़ल कार 'ओमप्रकाश नदीम' जी लिखते हैं कि आम तौर पर इतिहास शासक वर्ग के आसपास ही चक्कर लगाता है लेकिन आम जन के पक्षधर प्रगतिशील चेतना के रचनाकार शोषित पीड़ित मानवता के प्रतिरोध को आवाज़ देकर प्रजा का इतिहास भी लिखते हैं। व्यवस्था के प्रति आक्रोश के साथ-साथ परिवर्तन की उम्मीद से लबरेज़ चिंतन को नुमायां करती हैं 'संजीव गौतम' की ग़ज़लें।

अब तो रिश्तों की हवेली में कहां शर्मो- हया 
सारे दरवाज़े खुले हैं कोई पर्दा ही नहीं
*
चलो तुम आखिरश खुश तो हुए 
हमें रोना पड़ा तो क्या हुआ
*
बंद करते जा रहे हो सारे दरवाज़े तो तुम
ये बताओ कैसे होगी फिर तुम्हारी वापसी
*
दुनिया जिससे दुनिया है
वो ढाई आखर हूं मैं
*
मई और जून में भी क्या पिघलना
दिसंबर में पिघल कर देखिए तो

श्री 'संजीव गौतम' का जन्म 3 जनवरी 1973 को आगरा में हुआ था। आपने हिंदी में एम.ए. किया है और अब सहकारिता विभाग में अपर जिला सहकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। 


'बुतों की भीड़ में' उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जो सन 2021 में 'अयन प्रकाशन' महरौली से प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में उनकी 90 बेहतरीन ग़ज़लें संग्रहीत हैं। उनकी रचनाएं देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।
 
इस किताब को आप 'अयन प्रकाशन' से 92113 12372 पर फोन करके या अमेजॉन से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं और पढ़ कर संजीव जी को उनके मोबाइल नं 94562 39706 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।

बेहतरीन शाइर डॉक्टर 'त्रिमोहन तरल' साहब की इस बात से पूरी तरह सहमत होते हुए मैं आपसे विदा लेता हूं कि "हम यहां कितना भी लिख ले अंततः इन ग़ज़लों का असली मूल्यांकन तो इनके पाठकों को ही करना है और वही आंकलन सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है।

इसे मुश्किल तो हम ही मान बैठे हैं नहीं तो 
अभी भी झूठ को ललकारना कुछ भी नहीं है
*
ये दुनिया जैसी थी अब भी वैसी है 
अच्छे-अच्छे आये आकर चले गये
*
जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं

मेरे चुप रहने की वजहें पूछो मत
मेरे भीतर कई समंदर रहते हैं
*
बात बिल्कुल साफ़ है अब आइने सी
दीमको की ज़द में अब अल्मारियां हैं















Monday, July 8, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 8


अपने दुश्मन तो हम खुद हैं 
हमसे हमको कौन बचाए
*
बेवजह जो दाद देते हैं
कैक्टस को खाद देते हैं
*
इस नदी का जल कहीं भी अब लगा है फैलने
बांध कोई इस नदी पर अब बनाना चाहिए
*
लोग कुर्सी पर जो बैठे हैं ग़लत हैं माना
प्रश्न ये है जो सही हैं वो कहां बैठे हैं
*
ज़माने से तुमको शिक़ायत बहुत
क्या तुमसे किसी को शिकायत नहीं

आपको याद होगा कि देश में 1975 में इमरजेंसी घोषित हुई थी, यानी अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी।1977 में जैसे ही इमरजेंसी हटी, जनता का गुस्सा फूट कर सामने आया और सत्ता के विरोध में कहानियों, उपन्यासों कविताओं और ग़ज़लों की बाढ़ सी आ गई जैसे कोई बांध टूट गया हो। 

सत्ता के विरोध में और आम इंसान के दुख- तकलीफों पर लिखने वाले सफल रचनाकारों में से एक थे 'दुष्यंत कुमार' जिनकी ग़ज़लों ने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। बहुत से नए ग़ज़ल कारों ने उन्हें अपना आदर्श माना। आम बोलचाल की भाषा में हुस्न और इश्क़ के रुमानी संसार से निकल कर हक़ीक़त की खुरदरी ज़मीन पर ग़ज़ल कहने का दौर आया। 

हमारे आज के ग़ज़लकार श्री सुरेश पबरा 'आकाश' ने भी दुष्यंत जी को आदर्श मानते हुए ग़ज़लें कहना शुरू किया। उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब 'वो अकेला' जो अभी हमारे सामने है में लिखा है कि 'ग़ज़ल अब केवल मनोरंजन ही नहीं कर रही बल्कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही है। कभी-कभी किसी ग़ज़ल का एक शेर भी आदमी की जीने की दिशा बदल देता है। मेरी ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में कही गई आम आदमी की ग़ज़लें हैं। ये ग़ज़लें ईमानदार आदमी पर हुए अत्याचार की, उसके साथ हुई पक्षपात की ग़ज़लें हैं। आम ईमानदार आदमी इन ग़ज़लों में अपनी पीड़ा महसूस करेगा और बेईमान आदमी इनको पढ़कर तिलमिलाएगा और ये तिलमिलाहट ही इन ग़ज़लों की सफलता होगी।'

बहुत मिले रावण से भी बढ़कर रावण
पर इस युग में नकली सारे राम मिले
*
अपनी तो ये इच्छा है सब दुष्टों को
जल्द सुदर्शन चक्र लिए घनश्याम मिले
*
शराफ़त से सहना ग़लत बात को
मियां बुजदिली है शराफ़त नहीं
*
साफ कहने का मुझे अंजाम भी मालूम है
जानता हूं मैं कहां हूं और कहां हो जाऊंगा
*
ये सही है मैं बहुत तन्हा रहा हूं उम्र भर
एक दिन तुम देखना मैं कारवां हो जाऊंगा

स्व.श्रीमति विद्यावती एवं स्व.श्री कर्म चंद पबरा के यहां चार जून 1954 को सुरेश जी का जन्म हुआ। अपने बारे में सुरेश जी बताते हैं कि "मैंने 1973 से व्यंग्य कवितायें लिखना प्रारम्भ किया मैंने दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें पत्रिकाओं में पढ़ी उनसे प्रभावित हुआ। मैं मंचों पर भी जाया करता था एक कवि सम्मेलन में 'माणिक वर्मा' जी ने व्यंग के साथ कुछ ग़ज़लें भी सुनायीं बाद में उनमें से एक ग़ज़ल सारिका में भी छपी थी जिसका मिसरा था 'आज अपनी सरहदों में खो गया है आदमी' मैंने इसी  बहर पर एक ग़ज़ल लिखी 'जुल्म हँस हँस के सभी सहने लगा है आदमी' और सारिका को भेजी । ये ग़ज़ल 1977 में लिखी थी जो 1979 में सारिका में प्रकाशित हुई। उसके बाद मैंने ग़ज़लें कहना शुरू किया और आज तक कह   रहा हूँ ।

मेरी ग़ज़लें कादम्बिनी एवं नवनीत आदि बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। मेरा कोई उस्ताद नहीं रहा। 'डा आज़म' की आसान उरूज़' एवं 'वीनस केसरी' की किताब 'ग़ज़ल के बहाने' से बहर सीखी। अधिकांश ग़ज़लें स्वतः ही बहर में आयीं। शंका समाधान मैंने कइयों से किया।

मैंने 2003 में भेल (BHEL)शिक्षा मण्डल, भोपाल से व्याख्याता के रूप में VRS लिया उसके बाद पन्द्रह वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में प्राचार्य रहा सन् 2020 में, मैं प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुआ फिर उसके बाद वकालत करने लगा जो अभी तक कर रहा हूँ ।"
'वो अकेला' सुरेश जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है जो 'पहले पहल प्रकाशन' भोपाल से सन 2018 में प्रकाशित हुआ था। उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह ' सितारों को जगाना है' सन 2022 में प्रकाशित हुआ है।

सुरेश जी की ग़ज़लें पढ़ कर आप उन्हें उनके मोबाइल +91 98932 90590 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।

जाग कर इक रात काटी यार तेरी याद में
याद महकी रात भर और रात रानी हो गई
*
पल भर जिधर ठहरना हमको लगता है दूभर
मजबूरी में उधर उम्र भर रहना पड़ता है
*
भाईचारे की बात होती है
भाईचारा जहां नहीं होता
*
उम्र भर तन्हा रहा है जो
भीड़ में वो खो नहीं सकता
*
मखमल के गद्दों पर बैठे गीत गरीबी पर लिखते
बातें करते इंकलाब की दारू पीकर जाड़े में







Monday, July 1, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 7

तो क्यों रहबर के पीछे चल रहे हो 
अगर रहबर ने भटकाया बहुत है 
मैं छोड़ कर चला आया हूं शहर में जिसको 
मुझे वो गांव का कच्चा मकान खींचता है 
ज़ालिम को ज़ुल्म ढाने से मतलब है ढायेगा 
तुम चीखते रहो की गुनहगार हम नहीं 
तलाशे ज़र में भटकता फिरा ज़माने में 
जो मेरे पास था मैं वो ख़ज़ाना भूल गया 
मंजिल मिली न हमको मगर ये भी कम नहीं 
हमसे किसी के पांव का कांटा निकल गया 

आप सोचते होंगे की आसान है, जी नहीं आप ग़लत सोचते हैं, चूड़ी बनाना और वो भी कांच की, बेहद मुश्किल काम है. कांच को न जाने कितनी बार आग में तपना, गलना और फिर पिटना पड़ता है तब कहीं जाकर वो तार बनता है जिसे एक गोल घूमते हुए पाइप पर लपेटकर चूड़ी बनाई जाती है.चूड़ी बनाने से कम मुश्किल नहीं है शेर कहना...अच्छा शेर कहना समझिए सबसे मुश्किल कामों में से एक है. 
इंसान की फितरत है कि उसे मुश्किल काम करने में मजा आता है, जितना ज्यादा मुश्किल काम उतना ही ज्यादा मजा. तभी एक अच्छा शेर शायर को तो दिली सुकून देता ही है पढ़ने सुनने वाले के दिलों दिमाग पर भी छा जाता है.आप सोच रहे होंगे कि मैं चूड़ी और शेर इन दोनों की बात एक साथ क्यों कर रहा हूं। सही सोच रहे हैं, मैं बताता हूं। 
 हमारे आज के शाइर जनाब अनवर कमाल 'अनवर' जिनकी किताब "जहां लफ़्ज़ों का" हमारी सामने है, फिरोजाबाद की कांच की चूड़ी के व्यवसाय से जुड़े है इसीलिए तो उनके शेर चूड़ियों की तरह ही नाज़ुक दिलकश और खनखनाते हुए हैं। उस्ताद शायर जनाब 'हसीन फिरोजाबादी' साहब के शागिर्द 'अनवर कमाल' साहब फिरोजाबाद ही नहीं इसके बाहर भी पूरी दुनिया में अपनी बेहतरीन शायरी का डंका बजवा चुके हैं। बड़ा फनकार वो है जो अपने लहज़े में अपनी बात कहने का हुनर जानता हो और ये हुनर 'अनवर कमाल' साहब को खूब आता है। 

 नहीं था कोई खरीददार खुशबुओं का 'कमाल' 
 मगर चमन में वो पैदा गुलाब करता रहा 
बेकार जिसको जान के हमने गंवा दिया 
वो वक्त क़ीमती था बहुत अब पता चला 
यूं तो मुझे तलाश उजाले की है मगर 
जो भीख में मिले महे कामिल नहीं पसंद 
महे कामिल: चौदहवीं का चांद 
हज़ार कांटों ने एहसास को किया जख़्मी 
मुझे पसंद थी ख़ुशबू गुलाब उगाता रहा 
चांद से प्यार करके ये हासिल हुआ 
नींद आंखों की अक्सर गंवानी पड़ी

 'अनवर'साहब की शायरी के बाबत डॉक्टर 'अपूर्व चतुर्वेदी ' साहब लिखते हैं की 'इजाफ़त से परहेज और बातचीत की भाषा में शाइरी 'अनवर' साहब की ख़ासियत रही है। वो शेर, बल्कि चुभते हुए शेर इतनी सफाई से कहते हैं कि मुंह से वाह वाह निकल जाए। शाइरी में बोलचाल की भाषा के जनाब अनवर कमाल 'अनवर' भी कायल हैं।
 'अनवर' साहब के बहुत से कामयाब शागिर्द भी हैं जिनमें से एक हैं जनाब 'हरीश चतुर्वेदी' जी जिन्होंने 'अनवर' साहब की शाइरी को हिंदी में 'जहां लफ़्ज़ों का' के नाम से प्रकाशित करवा कर उसे उन लोगों तक पहुंचाने में मदद की है जो उर्दू लिख पढ़ नहीं सकते। हिंदी में प्रकाशित इस किताब से पहले 'अनवर' साहब के दो दीवान 'धूप का सफर' और 'बूंद बूंद समंदर' उर्दू में छप कर पूरी दुनिया में मशहूर हो चुके हैं। उनकी ग़ज़लों की हिंदी में दूसरी किताब 'इब्तिदा है ये तो इश्क़ की' सन 2021 में निखिल पब्लिशर आगरा से प्रकाशित होकर धूम मचा चुकी है। 

अनवर साहब को शाइरी विरासत में नहीं मिली, उनके वालिद मोहतरम जनाब बसीरउद्दीन का फिरोजाबाद में चूड़ियों का बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसे अब 'अनवर' साहब और उनके बेटे संभालते हैं।भले ही उन्हें शाइरी विरासत में नहीं मिली लेकिन उर्दू शाइरी से मुहब्बत तो उन्हें बचपन से ही हो गई थी जिसे बाद में उसे उनके उस्ताद ए मोहतरम ने तराशा और उसमें पुख्तगी पैदा की। 

 'अनवर' साहब की किताब 'जहां लफ़्ज़ों का' को आप उनके शागिर्द जनाब 'हरीश चतुर्वेदी' जी को 9760014590 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे इस किताब को 'रेख़्ता' की साइट पर ऑनलाइन भी पढ़ा जा सकता है। आप पढ़िए और 'अनवर' साहब को 9837775811 पर फोन कर दाद देना मत भूलियेगा। 

बताओ ऐसी सूरत में बुझाये प्यास किसकी कौन 
समंदर भी यह कहता है कि पानी ढूंढ कर लाओ
 * 
ऐसी सूरत में बताओ क़ाफ़िला कैसे बने 
साथ कोई भी किसी के दो क़दम चलता नहीं
 * 
ख़ाक वो दिन में मिलायेंगे नजर सूरज से 
रात में जिन से सितारे नहीं देखे जाते 
मसअला तो यही है लोगों को 
मसअले करने हल नहीं आते 
मेरा दामन मिल गया जब से तुम्हें 
आंसुओं क़ीमत तुम्हारी बढ़ गई 
*