Monday, September 27, 2021

किताबों की दुनिया - 241


अज़ीब है ये सतरंगी शोहरत की चिड़िया। मैंने देखा है कि अक्सर इसे जिस नाम की मुंडेर पर बैठ कर चहचहाना होता है उसे छोड़ ऐसी मुंडेर पर बैठ कर गीत गाती है जो इस लायक भी नहीं होती कि उस पर कव्वे बैठ कर काँव काँव करें। शोहरत की चिड़िया को अपने नाम की मुंडेर पर बिठाने के लिए लोग क्या नहीं करते। कुछ ने इस काम के लिए गुर्गे पाले हुए हैं जो किसी न किसी तरह जोड़ तोड़ कर इस चिड़िया को उनके नाम की मुंडेर पर बिठा कर फिर उसे वहां से उड़ने ही नहीं देते। अधिकतर ऐसे हैं जो ये जानते हैं कि उनके नाम की मुंडेर इस लायक नहीं है कि उस पर ये चिड़िया बैठे तो वो इस फ़िराक में रहते हैं कि ये चिड़िया भले ही उनके नाम की मुंडेर से दूर रहे लेकिन किसी परिचित की मुंडेर पर भी न बैठ पाए। 

अगर आप किसी के नाम की मुंडेर पर शोहरत की सतरंगी चिड़िया चहचहाती देखें तो आँख मीच कर ये न मान लें कि उस नाम की मुंडेर इस लायक है कि उस पर बैठ ये चिड़िया चहचहाये और अगर किसी नाम की मुंडेर पर इस चिड़िया को चहचहाते न देखें तो ये भी न समझें कि वो मुंडेर इस लायक नहीं है। कहने का मतलब ये कि शोहरत हमेशा हुनरमंद के हिस्से में ही आये ये जरूरी नहीं है। हमारे आज के शायर ऐसे ही हैं जिनके नाम की मुंडेर पर शोहरत की चिड़िया को चहचहाने नहीं दिया गया। शोहरत की चिड़िया इनके नाम की मुंडेर पर नहीं आयी ऐसा नहीं है लेकिन उसे टिक कर बैठने नहीं दिया गया। इस वज़ह से इनके समकालीनों, जिनमें ज़फर इक़बाल ,जॉन एलिया ,अहमद फ़राज़ , नासिर काज़मी ,बशीर बद्र और निदा फ़ाज़ली आदि हैं, को जितनी शोहरत हासिल हुई उतनी तो क्या उसका दस प्रतिशत भी इनके हिस्से नहीं आयी।    

वह टूटते हुए रिश्तों का हुस्ने-आख़िर था 
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए
*
मुझको इस दिलचस्प सफ़र की राह नहीं खोटी करनी 
मैं उजलत में नहीं हूं यारों अपना रास्ता देखो तुम

आंँख से आंँख न जोड़ कर देखो सूए-उफ़ुक़ ऐ हमसफ़रो
लाखों रंग नज़र आएंगे तन्हा-तन्हा देखो तुम 

अब तो तुम्हारे भी अंदर की बोल रही है मायूसी 
मुझको समझाने बैठे हो अपना लहजा देखो तुम
*
जो मेरे वास्ते कल ज़हर बनके निकलेगा 
तेरे लबों पे संँभलता हुआ सा कुछ तो है

यह मैं नहीं न सही अपने सर्द बिस्तर पर 
ये करवटें बदलता हुआ सा कुछ तो है
*
किसी की लौटने की जब सदा सुनी तो खुला 
कि मेरे साथ कोई और भी सफ़र में था

कोई भी घर में समझता न था मेरे दुख सुख 
इक अजनबी की तरह मैं खुद अपने घर में था
*
ऐ सफ़े-अब्रे-रवाँ तेरे बाद 
एक घना साया शजर से निकला
सफ़े-अब्रे-रवाँ : गतीशील बादल
*
कहीं से आ गया एक अब्र दरमियांँ वरना 
मेरे बदन में ये सूरज उतरने वाला था

जब भी कोई इंसान लीक से हटकर काम करता है तो लीक पर चलने वाले उस पर दो तरह से प्रतिक्रिया देते हैं पहली या तो उसे सिरे से नकार देते हैं क्यूंकि अपने बनाये रास्ते पर चलने वाला उन्हें इस ग्रह का बंदा नहीं लगता और या उसकी पूजा करने लगते हैं। अफ़सोस हमारे आज के शायर के साथ लीक पर चलने वालों ने पहले वाला सलूक किया। कारण - इस शायर ने ऐसी भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जो इससे पहले किसी शायर ने नहीं अपनायी थी। लीक पर चलने वाले उसे ठीक से समझ ही नहीं पाए। लोकप्रिय बनाने के जो आवश्यक तत्व शायरी में डाले जाते हैं वो इस शायर की शायरी में सिरे से ग़ायब थे। न गुलो बुलबुल थी न विसाल ओ हिज़्र की बातें थीं न महबूब के हुस्न की चर्चा थी न छलकती शराब के पैमाने थे। ज़िन्दगी को बिना किसी मिलावट के पेश करने वाली इस शायर की शायरी खालिस और सच्ची थी। शायद यही कारण है कि इनका नाम जितने लोगों को जानना चाहिए था उतने नहीं जान पाए। हिंदी पढ़ने लिखने वालों ने तो शायद ही इनका नाम कभी सुना हो क्यूंकि न तो इनकी कोई किताब हिंदी में उपलब्ध है और न ही ये बहुत अधिक हिंदी अखबारों या पत्रिकाओं में छपे हैं। इंटरनेट पर भी इनके बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती। इस मोतबर शायर का नाम है राजेंद्र मनचंदा बानी।

क़ौमी उर्दू काउंसिल ने सं 2017 में कुलियात-ऐ-बानी हिंदी में शाया की है । 383 पेज की इस किताब में बानी जी की चुनिंदा ग़ज़लें और नज़्में संकलित की गयी हैं। इस किताब को आप जनाब शादाब शेख़ को 9329669919 पर फोन या वाट्सऐप कर मंगवा सकते हैं। जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के जनाब गोविन्द प्रसाद जी ने इसका हिंदी लिप्यांतरण किया है।


लगा जो पीठ में आकर वह तीर था किसका 
मैं दुश्मनों की सफ़ों में न मरने वाला था
सफ़ों: पंक्तियाँ
*
अनबन गहरी हो जाएगी यूंँ ही समय गुजरने पर
उसको मनाना चाहोगे जब बस न चलेगा देखो तुम

सच कहते हो इन राहों पर चैन से आते जाते हो 
अब थोड़ा इस क़ैद से निकलो कुछ अनदेखा देखो तुम
*
कैसे-कैसे मक़ाम आए हैं 
मैं हुआ हूँ कहांँ-कहांँ ख़ाली
*
वो चाहता ये होगा कि मैं ही उसे बुलाऊँ 
मेरी तरह वो फिरता है तन्हा यहीं कहीं
*
भरे शहर में इक बयाबाँ भी था 
इशारा था अपने ही घर की तरफ़
*
कौन दे आवाज खाली रात के अंधे कुँएंँ में 
कौन उतरे ख़्वाब से महरूम बिस्तर में अकेला
महरूम: वंचित
*
आ मिलाऊँ तुझे इक शख्स़ से आईने में 
जिसका सर शाह का है हाथ सवाली का है
*
मैं उसके पांव की जंजीर देखता था बहुत 
कुछ आशना न था आपनी ही मुश्किलों से मैं

मैं क्यों बुराई सुनूँ दोस्तों की ऐ बानी 
अलग नहीं इन्हीं खोटे-खरे दिलों से मैं

सत्तर के दशक में, पाकिस्तान से हिजरत करने वाले करतार सिंह दुग्गल, फ़िक्र तौंसवीं, अमृता प्रीतम, गोपाल मित्तल, जोगिन्दर पॉल, प्रकाश पंडित, कुमार पाशी, नन्द किशोर, वेदपाल अश्क, हीरानंद सोज़, दिलीप सिंह और देवेंद्र सत्यार्थी जैसे लोगों ने उर्दू का एक ज़िंदा और सेक्युलर माहौल तरतीब किया था आज उसका तसव्वुर करना भी मुहाल है। ये सभी अलग सोच के लोग थे और आपस में खीर और शकर की तरह एक दूसरे में घुले मिले नहीं थे। ये लोग अलग ग्रुपों और टोलियों में बटे हुए थे इनमें एका भी था और विचारों का मतभेद भी, दोस्ती भी थी तो दुश्मनी भी एक दूसरे को कभी गालियाँ बकते तो थोड़ी ही देर में एक ही बीड़ी या सिगरेट के  बारी बारी से कश खींचने लगते। ये लोग रिसाले निकालते जो कुछ वक़्त बाद बंद हो जाते। ये लोग अक्सर दिल्ली के रेडिओ स्टेशन , उर्दू बाजार के क़ुतुब खानों , दरिया गंज में बीसवीं सदी के अंसारी रोड ,आसिफ अली रोड के फुटपाथ या बैंचो पर या शमा के दफ्तर में मंडराते दिखाई देते। इन्हीं में से एक लेकिन सबसे अलबेले थे 'राजेंद्र मनचंदा बानी'।   .  
                     
दिल्ली के कनॉट प्लेस की रौनक हुआ करता था रीगल सिनेमा हाल। सन 1932 में बना ये सिनेमा घर दिल्ली के सबसे लोकप्रिय सिनेमा घरों में से एक था जिसमें सिनेमा के अलावा ड्रामा, बैले, संगीत के कार्यक्रम, कला प्रदर्शनियां आदि भी हुआ करते थे । इसी सिनेमा घर के सामने एक रेलिंग हुआ करती थी, जिसके सहारे खड़े, झुके, टिके कवि, शायर, साहित्यकार, रंगकर्मी , चित्रकार याने आर्ट से जुडी सभी विधाओं के लोग बीड़ियाँ फूंकते और चाय सुड़कते हुए आपस में बहस करते देखे जा सकते थे।  

अजीब तज़्रबा था भीड़ से गुजरने का 
उसे बहाना मिला मुझसे बात करने का

थमा के एक बिखरता गुलाब मेरे हाथ 
तमाशा देख रहा है वो मेरे डरने का 

खड़े हों दोस्त कि दुश्मन सफ़ें सब एक ही हैं 
वो जानता है, इधर से नहीं गुज़रने का
*
किसी चटान के अंदर उतर गया हूंँ मैं 
कि अब मेरे लिए तूफाँ भी क्या, भंँवर भी क्या
*
फिर उसके हाथों हमें अपना क़त्ल भी था कुबूल 
कि आ चुके थे क़रीब इतने, बच निकलते क्या 

तमाम शहर था इक मोम का अजायबघर 
चढ़ा जो दिन तो यह मंजर न फिर पिघलते क्या
*
कोई पहाड़ न दरिया न आग रस्ते में 
अजब सपाट सफ़र है कि हादसा चाहूँ
*
आज तो रोने को जी हो जैसे 
फिर कोई आस बंँधी हो जैसे 

शहर में फिरता हूं तन्हा तन्हा 
आशना एक वही हो जैसे 
आशना परिचित 

यासआलूद है एक एक घड़ी 
ज़र्द फूलों की लड़ी हो जैसे
यासआलूद: निराशापूर्ण

भारी जिस्म और कद दरमियाना से थोड़ा कम के 'बानी' दिल्ली की शरणार्थी कॉलोनी राजेंद्र नगर में रहते थे ,मुल्तानी लहज़े में बड़े पुर सुकून अंदाज़ से पंजाबी बोलते। अभी वो रीगल सिनेमा की रेलिंग से टिक कर जिससे बात कर रहे हैं उनका नाम है मख़्मूर सईदी। दोनों सड़क से गुज़रती एक दरवाज़े वाली हर लाल बस से रीगल के सामने उतरने वाले इंसान को बड़े गौर से देख रहे हैं. आखिर एक शख़्स को उतरते देख दोनों के चेहरे खिल उठे 'बानी' जोर से आवाज़ दे कर बोले ओये 'कुमार पाशी ऐद्दर आजा ओये'। 'पाशी' ने दोनों को देख हाथ हिलाया तभी एक स्कूटर वाला तेज़ी से उसके सामने से गुज़रा। पाशी ने उसे हसरत से देखते हुए कहा यार 'बानी' हमारे पास कब स्कूटर होगा ? इस सवाल का जवाब बानी के पास नहीं था। 'स्कूटर न सही यार चाय तो मिल ही सकती है' पाशी मुस्कुराते हुए बोले। 'मख़्मूर' साहब ने हँसते हुए कहा 'हाँ क्यों नहीं इतनी औकात तो है अपनी मगर सुरेंद्र प्रकाश और राज नारायण'राज़' भी आ जाएँ फिर मिल के पीते हैं। ये पाँचों उर्दू के बड़े लेखक थे और तकरीबन रोज़ मिलते। यूँ समझो दांत काटे की रोटी थी इनकी दोस्ती। अक्सर सभी मिल कर कभी ज़फर इक़बाल तो कभी अहमद मुश्ताक़ की ग़ज़लों पर चर्चा करते। बानी यारों के यार थे। एक मुकम्मल इंसान ,सबकी इज़्ज़त करने वाले। एक संभली हुई शख़्सियत के मालिक।                

कौन था मेरे पर तोलने पर नज़र किसकी थी 
जिसने सर पर मेरे आस्माँ रख दिया, कौन था
*
कोई खड़ा है मेरी तरह भीड़ में तन्हा 
नज़र बचा के मेरी सिम्त देखता है बहुत

ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर 
कहांँ ख़बर थी कि अंदर से खोखला है बहुत
*
अदा ये किस कटे पत्ते से तूने सीखी है 
सितम हवा का हो और शाख़ से शिकायत कर

नहीं अजब इसी पल का हो मुंतज़िर वो भी 
कि छूले उसके बदन को, ज़रा सी हिम्मत कर
*
मुझे बिछड़ने का गम तो रहेगा हमसफ़रो  
मगर सफ़र का तक़ाज़ा जुदा है मेरे लिए
*
वो मेरी ज़िन्दादिली का जाने क्या मांगे हिसाब 
जाता मौसम है, कोई पत्ता हरा लेता चलूँ
*
टोक के जाने क्या कहता वो 
उसने सुना सब बेध्यानी में 

याद तेरी जैसे कि सरे शाम 
धुंँध उतर जाए पानी में

आखिर सोचा देख लीजिए
क्या करता है वो मनमानी में

12 नवम्बर 1932 को मुल्तान ,अब पाकिस्तान,में जनाब गोबिंद राम मनचंदा के यहां राजिंदर जी का जन्म हुआ। मुल्क़ के बटवारे के कारण वो 1947 में दिल्ली आ गए और पंजाब यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स विषय में मास्टर्स की डिग्री हासिल की। गुज़र बसर के लिए दिल्ली के एक स्कूल, जो डेरा इस्माइल खां से आकर बसे शरमार्थियों ने चला रखा था, में बच्चों को इकोनॉमिक्स पढ़ाते और खाली वक्त में शायरी करते। बानी की माली हालत कभी बहुत अच्छी नहीं रही लेकिन उनका रहन-सहन बहुत सलीकेदार रहा। आम शायरों की तरह न उनके पहनावे में और और न ही बातचीत में बिखराव था।
 
'बानी' की ज़िन्दगी और शायरी दोनों ने उनके साथ इंसाफ़ नहीं किया। ज़िन्दगी मुश्किल हालातों में गुज़री और शायरी ने उन्हें वो मुक़ाम नहीं दिलवाया जिसके सच्चे हक़दार थे। रिश्तेदारों और दोस्तों ने भी उनका साथ नहीं दिया। इतना कुछ होने के बावज़ूद बानी ने कभी इस बात का गिला किसी से नहीं किया। वो बाहर से हँसते रहे और अंदर से घुलते रहे। नतीज़ा, छोटी उम्र में ही उन्हें बीमारियों ने खोखला करना शुरू कर दिया। गठिया और गुर्दे के रोग उनके शरीर को बेशक कमज़ोर करते रहे लेकिन उनके चेहरे की मुस्कराहट को कभी कम नहीं कर पाये। यही कारण था की जब 11 अक्टूबर 1981 को मात्र 49 वर्ष की उम्र में दिल्ली के होली फैमली हॉस्पिटल से उनके मौत की ख़बर आयी तो लोगों को समझ ही नहीं आया कि देखने में अच्छा ख़ासा कसरती बदन वाला इंसान यूँ इस दुनिया से अचानक कैसे रुख़्सत हो गया।
 
कुछ न कुछ साथ अपने ये अंधा सफ़र ले जाएगा 
पांँवों में ज़ंजीर डालूंगा तो सर ले जाएगा 

घूमता है शहर के सबसे हसीं बाज़ार में 
इक अज़ीयत नाक महरूमी वो घर ले जाएगा 
*
सितम ये देख कि खुद मोतबर नहीं वो निगाह
कि जिस निगाह में हम मुस्तहक़ सज़ा के हैं 
मोतबर :भरोसेमंद , मुस्तहक़:  हक़दार  
*
कोई क्या जानता क्या चीज़ किस पर बोझ है बानी 
ज़रा सी ओस यूंँ तो सीनए-पत्थर प रक्खी थी
*
क्या तमाशा है कि हमसे इक क़दम उठता नहीं 
और जितने मरहले बाकी हैं, आसानी के हैं 
मरहले: पढ़ाव

ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था
क़ाइल ही तिरी बात का अंदर से नहीं था
*
ओस से प्यास कहाँ बुझती है 
मूसलाधार बरस मेरी जान 
*
वो एक अक्स कि पल भर नज़र में ठहरा था
तमाम उम्र का अब सिलसिला है मेरे लिए
*
आज क्या लौटते लम्हात मयस्सर आए
याद तुम अपनी इनायात से बढ़ कर आए

बानी साहब ने अपनी ज़िन्दगी में खूब लिखा जो पूरा नहीं छप पाया। उनकी ग़ज़लें और नज़्में उर्दू में जिन किताबों में छपी हैं उनके नाम हैं 'हर्फ़-ऐ-मोतबर' (1971 ), हिसाब-ऐ-रंग (1976 ), और शफ़क़ शजर (1982 ) . उन्होंने 'तलाश' नाम की एक मासिक पत्रिका भी निकाली जो आर्थिक तंगी के कारण बंद हो गयी लेकिन उसके सभी अंक बहुत चर्चित हुए। 'तलाश' में उन्होंने अपने समकालीन नए और स्थापित शायरों को छापा। उनकी बहुत सी अप्रकाशित रचनाएँ दिल्ली में उनके बेटे श्री विपिन बानी जी के पास सुरक्षित हैं जिन्हें वो शायद जल्द ही प्रकाशित करवाएं।

उनके समकालीन शायर जनाब निदा फ़ाज़ली ने उन्हें एक बार लिखा कि ' बानी तुम्हारी ग़ज़लें और नज़्में क्लासिक हैं जिनमें नए सिम्बोलिस्मों का प्रयोग इंसानी सोच को झिंझोड़ देता है। तुम्हारा अपना एक अलग स्टाईल है जो सबसे अलग है और ये बहुत बड़ी बात है। मैं तुम्हारी ग़ज़लें नज़्में हमेशा पढता रहता हूँ और जी खोल कर दाद देता हूँ। तुम्हारी तीखी सूझबूझ का मैं क़ायल हूँ।'

बशीर बद्र साहब ने जो बानी जी के दोस्त थे एक जगह लिखा है कि 'बानी --मैं रिसालों में बानी की मुहब्बत से डर कर छपता हूँ। अपने बुत और तुम्हारे ख़ुदा की क़सम मेरी दिली आरज़ू है कि जब मैं थका हारा आऊँ तो दो लम्हे तुम्हारे पास बैठ लूँ अपने इस यार से दिल की बातें करुँ जो मेरी तरह आँसू ,शबनम, पत्थर लफ़्ज़ों में जमा करता है। मुबारक हो दोस्त तुम इन दिनों क्या खूब कह रहे हो ज्यादा भी और अच्छा भी। बानी तुम नज़्म लिखो या ग़ज़ल तुम्हारा हर सुखन इक मक़ाम से होता है। मैं तुम्हारा यार हूँ अगर तुम्हारा कोई दुश्मन हो तो उससे पूछ कर देखो तुम्हारे क़लाम का वो भी आशिक़ निकलेगा। बानी तुम बहुत प्यारे इंसान और शायर हो।'

प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी साहब का यू ट्यूब पर एक वीडिओ है जिसमें उन्होंने बानी साहब की शायरी पर रौशनी डाली है। वक़्त निकाल आप उसे सुनें।

आखिर में उनकी ग़ज़लों के कुछ और शेर आपको पढ़वाता हूँ :

'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
इक हादसा भी ताक में होगा यहीं कहीं  
*
जाने वो कौन था और किस को सदा देता था
उस से बिछड़ा है कोई इतना पता देता था
*
मोहब्बतें न रहीं उस के दिल में मेरे लिए
मगर वो मिलता था हँस कर कि वज़्अ-दार जो था
वज़्अ-दार: सुरुचिपूर्ण 
*
इस क़दर ख़ाली हुआ बैठा हूँ अपनी ज़ात में
कोई झोंका आएगा जाने किधर ले जाएगा
*
इस अँधेरे में न इक गाम भी रुकना यारो
अब तो इक दूसरे की आहटें काम आएँगी
*
वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
मगर मिरे लिए दफ़्तर खुला मआनी का

Monday, September 13, 2021

किताबों की दुनिया - 240

पहाड़ - हम जैसे मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए पहाड़ तफ़रीह के लिए हैं। शहर की घुटन से निज़ात पाने को खुली शुद्ध हवा में साँस लेने के लिए, झुलसाती गर्मी से परेशान हो कर ठण्डी हवाओं की तलाश के लिए या सर्दियों में रुई के फाहों सी गिरती बर्फ़बारी का आंनद लेने के लिए हम पहाड़ का रुख़ करते हैं। हम पहाड़ों पर जाते हैं मौज मस्ती करते हैं और लौट आते हैं। अपने आनंद के लिए हम पहाड़ों का लगातार दोहन करते हैं। हमें पहाड़ों की तकलीफ़ों की तरफ़ देखने की न जरुरत महसूस होती है न उसके लिए हमारे पास फुर्सत है। पहाड़ों के दुःख को वो ही समझ सकता है जो पहाड़ों में रहता है।पहाड़ जिसकी ज़िन्दगी का जरूरी हिस्सा हैं। हमारे आज के शायर का ताल्लुक पहाड़ से है इसीलिए वो पहाड़ पर ऐसे सच्चे शेर कह पाए हैं जिनमें पहाड़ की असलियत झलकती है  :   

ख़ुद तो जी अज़ल ही से तिश्नगी पहाड़ों ने 
सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ो ने

आदमी को बख़्शी है ज़िंदगी पहाड़ों ने 
आदमी से पाई है बेबसी पहाड़ों ने 

बादलों के आवारा कारवाँ  के गर्जन को 
बारिशों की बख़्शी है नग़मगी की पहाड़ों ने
*
जिस तरह चढ़ रहे हैं वो ज़ीना पहाड़ का 
लगता है बैठ जाएगा सीना पहाड़ का

ये ग़ार-ग़ार सीना ये रिसता हुआ वजूद 
दामन किया है किसने ये झीना पहाड़ का
ग़ार-ग़ार: जख़्म-जख़्म
*
न जाने कितनी सुरंगें निकल गईं उससे 
खड़ा पहाड़ भी तो आंँख का ही धोखा था
*
बस आसमान सुने तो सुने इन्हें यारों 
पहाड़ की भी पहाड़ों-सी ही व्यथाएँ हैं

कहते हैं चन्दन का सिर्फ़ एक पेड़ पूरे जंगल को महकाने के लिए काफी होता है। हमारे आज के  शायर का बचपन ऐसे ही चन्दन के पेड़ की छाया में गुज़रा , मेरी मुराद हिमाचल प्रदेश के लाजवाब शायर स्वर्गीय जनाब मनोहर शर्मा 'साग़र' पालमपुरी से है जिनकी शादी के 14 साल बाद उनके घर कांगड़ा की नूरपुर तहसील के एक गाँव में 10 अक्टूबर 1962 को जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रक्खा गया 'द्विजेन्द्र 'द्विज'। 'साग़र' साहब की शायरी की खुशबू चन्दन के पेड़ की तरह हिमाचल ही नहीं पूरे भारत में फैली हुई थी। चन्दन की वही खुशबू अब द्विजेन्द्र जी की शायरी में भी महसूस की जा सकती है।   

'साग़र' साहब पालमपुर के सब डिविजनल मजिस्ट्रेट के पी ऐ के पद पर कार्यरत थे और वो अधिकतर अपने काम में बहुत व्यस्त रहते। पालमपुर के पास मरिंडा में  उनका बड़ा सा पुश्तैनी घर था जिसमें 'साग़र' साहब की दादी , माता-पिता के अलावा बड़े भाई और उनका पूरा परिवार रहता था। ऐसे संयुक्त परिवार वाले घर में, जिसमें परिवार जन के अलावा ढेर सारे रिश्तेदार, पड़ौसी और दूसरे मिलने वालों के आने जाने से लगातार चहल-पहल बनी रहती,  द्विजेन्द्र जी का बचपन गुज़रा। घर के आँगन में जहाँ गायें बंधी थीं वहीँ अनेक फलों के पेड़ थे और ढेर सारी सब्ज़ियाँ भी उगी हुई थीं। 'द्विज' जी के दादाजी धार्मिक प्रवृति के थे गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका के नियमित पाठक थे जिसमें छपी कहानियां वो घर के सब बच्चों को इकठ्ठा कर सुनाया करते। दादाजी सब बच्चों को एक अच्छा इंसान बनने पर जोर दिया करते, यहाँ तक कि विविध प्रकार के खिलौने भी वो बच्चों को बना कर देते थे। घर के बच्चे आपस में खूब शैतानियां करते और हुड़दंग मचाते।आज के दौर में ऐसे संयुक्त परिवार वाले घर की कल्पना भी  करना कठिन है।  

शैतानी में अव्वल रहने के कारण द्विजेन्द्र जी को साढ़े पाँच साल की उम्र में घर के पास के एक स्कूल में दाख़िल करवा दिया। ये 1968 की बात है जब बच्चों को आज की तरह ढाई साल की उम्र में नहीं छै साल की उम्र में स्कूल भेजा जाता था। आज तो छै साल का बच्चा इतना कुछ सीख जाता है जितना शायद पहले ज़माने में ग्यारह साल का बच्चा भी नहीं सीख पाता था। हमने अपने बच्चों को जल्दी स्कूल भेज कर उनसे उनका बचपन छीन लिया है - ख़ैर ! ये बहस का विषय है इसलिए इसे यहीं विश्राम देते हैं।  

 हजारों सदियों का सारांश कुछ कथाएंँ हैं 
और इन कथाओं का सारांश प्रार्थनाएंँ हैं

इसलिए यहांँ ऊबी सब आस्थाएँ हैं 
पलों की बातें हैं पहरों की भूमिकाएँ हैं 

यही है हाल तो किस काम की है आज़ादी 
दिलों में डर है, हवाओं में वर्जनाएँ हैं
*
बजा है आईनों में सूरतें सँवरती हैं 
मगर वो कौन है लाया जो आईनों पे निखार

चमक-दमक में न बीनाई बरक़रार रही 
कुछ एक लोग ख़िज़ां को भी कह रहे हैं बहार 
बिनाई: दृष्टि
*
तन-बदन बेशक सुखा डाला ग़मों की आग ने 
हांँ मगर आंँखों में पानी है अभी तक गांँव में

बेतहाशा भागने की ज़िद में जो तुझ को मिले 
ऐसे छालों की दवाई है अभी तक गांँव में
*
पता करो कि अभी वो बचा भी है कि नहीं 
बड़े दरख़्त के नीचे जो नन्हा पौधा था
*
फिर वही होगा हमेशा जो हुआ है 
फिर मुसीबत आएगी इक  बेजुबां पर
*
ज़लील होते हैं कितने उन्हें हिसाब नहीं 
अभी तो गिन रहे हैं वो दिहाड़ियाँ अपनी

क्लास में सबसे छोटी उम्र का प्यारा लेकिन बातूनी बच्चा 'द्विज' स्कूल की एक बुजुर्ग अध्यापिका जिसे सब बच्चे 'बूढी बहनजी' कहते थे, का दुलारा बन गया। वो हमेशा क्लास में उसे अपनी कुर्सी के सामने रखी मेज पर बिठा लेतीं और कवितायेँ सुनातीं जिन्हें याद कर ये बच्चा स्कूल में होने वाले बाल सभा के कार्यक्रमों में सुनाता और वाहवाही लूटता। कविताओं के प्रति प्रेम इन्ही बूढ़ी मास्टरनी की वजह से द्विज जी के दिल में पनपा।

साहित्य के प्रति अनुराग आठवीं कक्षा में आने के बाद और बढ़ा। घर पर पिता बच्चों को सुबह रेडिओ पर ऑल इण्डिया रेडिओ की उर्दू सर्विस सुनवाते जिसमें अक्सर उमा गर्ग जी की आवाज़ में गायी उनकी लिखी ग़ज़ल 'वस्ल की सेज पे उभरी हुई सलवट की तरह, उनकी याद आयी है सन्नाटे में आहट की तरह' अक्सर ब्रॉडकास्ट हुआ करती थी। उस उम्र में इस ग़ज़ल का 'द्विज' जी को मतलब तो कुछ समझ नहीं आता था लेकिन धुन और शब्द सम्मोहित करते थे। इसके अलावा 'द्विज' जब अपने पिताजी को रेडिओ पर सलामत अली खान ,मेहदीहसन, ग़ुलाम अली की ग़ज़लों को सुनते हुए झूमते देखते तो उन्हें बहुत अच्छा लगता। पिताजी के शायर मित्रों का जमावड़ा भी अक़्सर ही घर पर लगा रहता था जिनकी आपस की गुफ़तगू द्विज जी को बहुत दिलकश लगती। पिता पहले बच्चों के लिए नन्दन, चंदामामा, पराग, चम्पक जैसी बाल पत्रिकाएँ लाया करते थे जिनकी जगह बाद में धर्मयुग, सारिका, दिनमान और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं ने लेली। कहने का मतलब ये कि द्विज को बचपन से ही घर में शायराना माहौल मिला।

कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना 
पेट काँधो पे कोई सर नहीं रहने देता
*
आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी 
यूंँ तो है दुनिया सभी आदिम-प्रथाओं के ख़िलाफ़

तजरिबे कर की ही होती है बुरा मत मानिए 
हर नई पीढ़ी पुरानी धारणाओं के ख़िलाफ़
*
ख़ुद को इस हाल में रखना भी कोई खेल नहीं
मेरे कांँधों से जो ऊंँचा मेरा सर लगता है
*
हमारे हक़ में बयान आपका ख़ुदा रक्खे 
हुजूर ! दाल में कुछ तो जरूर काला है

कोई बचा ही नहीं उसकी भूख से अब तक 
वजूद सबका किसी वक़्त का निवाला है
*
अभी हर बात में उनकी तू हांँ में हांँ मिलाता है 
परख के देख तू अपने किसी इनकार का जादू
*
मुश्किल में जान आ गई जब आईना हुए
पहले ये पत्थरों का नगर पुरख़तर न था
*
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा 
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी
*
रब्त और आहंग हैं गुम ज़िंदगी के शे'र से 
मिसरा ए ऊला अलग मिसरा ए सानी और है 
रब्त: संबंध आहंग: गान धुन

आठवीं तक के स्कूल से सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी का ईनाम लेकर आगे की पढाई के लिए 'द्विज' सेंट पॉल हाई स्कूल पालमपुर पहुंचे जो 1924 में अंग्रेज़ों द्वारा बनाया गया था। स्कूल के बच्चे और अध्यापक इस कॉन्वेंट स्कूल में सिर्फ़ अंग्रेजी ही बोला करते थे लिहाज़ा इस माहौल में ढलने में द्विज जी को थोड़ा वक़्त लगा। दसवीं की परीक्षा के बाद जब ग्यारवीं में वो विज्ञान विषय लेने के लिए स्कूल के प्रिंसिपल श्री एस.के.भारद्वाज जी से मिले तो दसवीं के विषयों में आये अंक देख कर उन्होंने विज्ञान की जगह उन्हें अंग्रेजी विषय लेने की सलाह देदी। देश विदेश में ख्याति प्राप्त श्री एस.के.भारद्वाज नेशनल अवार्ड प्राप्त अध्यापक थे और अंग्रेजी तथा फ्रेंच में पोस्ट ग्रेजुएट थे जिनकी बात को नकारा नहीं जा सकता था। फाइनल परीक्षा के दिन भारद्वाज साहब परीक्षा सेंटर पर अपने विद्यार्थियों को शुभकामनायें देने आये और जाते जाते द्विज जी से बोले 'बेटा मैं तुम्हारा नाम स्कूल के आनर्स बोर्ड पर देखना चाहता हूँ''। ये सुनकर सारे बच्चे ठहाके लगा कर हँसने लगे। परीक्षा के समस्त दिनों में द्विज जी ने न दिन देखा न रात डटकर मेहनत की और नतीज़तन अपना नाम ऑनर्स बोर्ड में सबसे ऊपर पाया।

ग्रेजुएशन की पढाई के लिए 'द्विज' जी जाना तो डी ऐ वी कॉलेज कांगड़ा चाहते थे लेकिन पारिवारिक मजबूरियों के चलते उन्हें एस.डी कॉलेज बैजनाथ में जाना पड़ा। बैजनाथ में उन्हें हिंदी की श्रेष्ठ कवयित्री सुश्री सरोज परमार, जो हिंदी पढ़ाती थीं, का सानिध्य मिला। हालाँकि द्विज जी हिंदी के विद्यार्थी नहीं थे लेकिन उनका रुझान हिंदी की और था परमार जी के निर्देशन में वो इंटर कॉलेज भाषण, वादविवाद और कविता प्रतियोगिताओं भाग लिया करते। उनके भाषा ज्ञान को परिष्कृत करने में सरोज जी का बहुत बड़ा हाथ रहा है।

'द्विज' जी ग्रेजुएशन के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन करना चाहते थे लेकिन पिता की मर्ज़ी थी कि वो कोई नौकरी करें क्यूंकि आगे की पढाई के लिए उन्हें हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी शिमला जाना पड़ता और वहां के खर्चे उठाना शायद परिवार के लिए संभव नहीं था। मन मार कर वो पालमपुर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में नौकरी करने लगे।

नमी संँभाल के रक्खी है दिल की परतों में 
इसी से आंँखों में रहते हैं क़हक़हे रौशन
*
फ़ाइलों से निकल न पाये हम 
ख़ुद को दफ़्तर में छोड़ आये हम 

फ़स्ल बनकर तो लहलहाये हम 
आ के मंडी में छटपटाये हम 

खून सबका है एक, भूल गए 
और फिर ख़ून में नहाये हम
*
'धृतराष्ट्र' को पसंद के 'संजय' भी मिल गए 
आंँखों से देख कर भी जो मुकरे ज़ुबान से
*
आप अंगारों की फ़ितरत को बदल सकते नहीं 
सिर्फ़ इतना सोचिए क्यों फूल अंगारे हुए
*
खामोशी की बर्फ़ में अहसास को जमने न दे 
गुफ़्तगू की धूप में आकर पिघल कर बात कर
*
ये माना आईने से सामना अच्छा नहीं लगता 
किसे खिड़की से बाहर देखना अच्छा नहीं लगता 

इन्हीं हाथों से तुम दिन में अंँधेरे घेर लाते हो 
इन्हीं हाथों से मनके फेरना अच्छा नहीं लगता
*
बुलंदी दर हक़ीक़त वक़्त की मोहताज होती है 
बहुत ऊंँचा हमेशा तो बहुत ऊंँचा नहीं रहता

हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता शाहरुख़ खान की फिल्म 'ओम शांति ओम' का एक प्रसिद्ध संवाद है 'कहते हैं अगर दिल से किसी चीज को चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है' ये संवाद 'द्विज' जी पर पूरी तरह से सही उतरा। अंग्रेज़ी में पोस्ट ग्रेजुएशन करने की जो जबरदस्त चाह, जब शिमला दूर होने की वजह से पूरी नहीं हो पायी, वो अचानक उसी साल से धर्मशाला में भी उसकी कक्षाएँ शुरू होने से पूरी हो गयी। शिमला तो घर से तीन सौ किलोमीटर दूर था लेकिन घर से मात्र 35 किलोमीटर दूर धर्मशाला जा कर अंग्रेजी की कक्षाएँ अटेंड करना तो संभव था। हालाँकि पिता एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में लगी नौकरी छोड़ कर रोज धर्मशाला जा कर द्विज जी के अंग्रेजी पढ़ने के पक्ष में नहीं थे लेकिन जब द्विज जी के दादा ने उनका साथ दिया तो पिता के पास सिवा हाँ करने के और कोई विकल्प बचा ही नहीं। पहाड़ों पर ये 35 की.मी की यात्रा लोकल बस लगभग दो ढाई घंटों में पूरी करती। इसके चलते द्विज जी रोज क्लास में आधा घंटा देरी से पहुँचते। एक दिन कॉलेज के प्राचार्य डा आत्माराम जी ने द्विज जी को बुला कर पूछा कि लगता है तुम्हारा कक्षाएँ अटेंड करने में रूचि नहीं है तभी तुम रोज देरी से आते हो। द्विज जी उन्हें अपनी समस्या बताई तो उन्होंने पूछा कि 'तुम किसके बेटे हो और पिताजी क्या करते हैं ?  द्विज जी ने जब पिताजी का नाम बताया तो वो खुश हो कर बोले अरे तुम तो हिमाचल प्रदेश की शान 'सागर' साहब के बेटे हो मैं तुम्हारे लिए स्कॉलरशिप और किताबों का इंतज़ाम कर देता हूँ। उनके इस सहयोग से 'द्विज' जी को पोस्ट ग्रेजुएशन करने में आसानी हुई। 

कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर एक दिन द्विज जी ने निकट भविष्य में होने वाली अंतरमहाविद्यालय भाषण प्रतियोगिता (डेक्लेमेशन ) का नोटिस लगा देखा जिसका विषय था 'मत कहो आकाश में कोहरा घना है ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है'। तब तक द्विज जी इस शेर के शायर दुष्यंत कुमार जी के नाम से परिचित नहीं थे इसलिए जब पता किया तो मालूम हुआ कि वो हिंदी के बहुत बड़े शायर हैं और उनकी ग़ज़लों की किताब 'साये में धूप' बहुत चर्चित हो चुकी है। द्विज जी ने दिल्ली से ये किताब तुरंत मंगवाई उसे पूरा पढ़ा और भाषण तैयार किया। उस भाषण प्रतियोगिता में हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के 65 कॉलेजों से आये प्रतियोगिओं को हरा कर द्विज जी ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। दूसरे दिन अंतर विश्वविधयालय की कविता प्रतियोगिता में भी प्रथम पुरूस्कार प्राप्त किया ।ट्राफियाँ जीतने के सिलसिले की ये शुरुआत थी। उसके बाद उन्होंने कॉलेज में दो साल पढ़ने के दौरान इतनी ट्रोफियाँ जीतीं कि प्रिंसिपल आत्माराम जी को उन्हें बुला कर कहना पड़ा कि बस करो बेटा अब तो कॉलेज में ट्रोफियाँ रखने की जगह ही नहीं बची। इस बात को उन्होंने द्विज जी को कॉलेज की पढाई पूरी करने के बाद दिए गए सर्टिफिकेट में भी लिखा।          

बात कहता तो है अपनी लेकिन 
उसमें सुनने का जज़्बा नहीं है 

शेर कहता हूंँ वरना समंदर 
कूज़े में यूँ सिमटता नहीं है
*
उनको भर भर थाली धूप 
हमको प्याली प्याली धूप 

अपना हर पत्ता सीला 
उनको डाली डाली धूप
*
ले उड़ेगा हवा का इक झोंका 
इन घटाओं की आनबान में क्या 

उसको कह तो दिया ख़ुदा हाफ़िज़ 
जान अब भी है तेरी जान में क्या
*
शामिल ही नहीं इसमें हुनरमंद लोग अब 
इतने कड़े नियम हैं ज़माने में होड़ के
*
लब पे आज़ादियों के क़िस्से हैं 
सोच लेकिन है सांँकलों वाली
*
परिंदे आने दो थोड़ा सा चहचहाने दो 
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से
*
मैं इसे घुटनों पर रहकर कब तलक बैठा रहूं 
क्या करूं इसका बता तू ही कि सर मेरा भी है

धर्मशाला के मॉल रोड की बात है एक शाम द्विज जी को चहलकदमी करते हुए उनके प्रोफ़ेसर मिल गए जिनके साथ एक बुजुर्ग सज्जन भी थे। द्विज जी ने प्रोफ़ेसर साहब के चरणस्पर्श किये और साथ में उन बुज़ुर्गवार के भी। प्रोफ़ेसर साहब ने कहा 'मिलो आप है श्री मुल्कराज आनंद', द्विज जी को यकीन ही नहीं हुआ कि ' टू लीव्स एन्ड अ बड' और 'कुली' जैसे कालजयी उपन्यासों के पद्म भूषण से सम्मानित लेखक से उनकी यूँ अचानक रूबरू मुलाक़ात हो जाएगी। जब प्रोफ़ेसर साहब ने मुल्कराज जी को बताया कि 'ये द्विज हैं हमारे कॉलेज के होनहार विद्यार्थी जो कवितायेँ और ग़ज़लें कहते हैं' तो मुल्कराज जी ने मुस्कुराते हुए पूछा 'कौनसी ज़बान में लिखते हो बरख़ुरदार, फिर बिना जवाब सुने आगे बोले कि 'किसी भी ज़बान में लिखो लेकिन अपनी ज़बान में भी जरूर लिखना'। मुल्कराज आनंद जी की ये बात द्विज जी ने गाँठ बाँध ली और प्रण किया कि अपनी मातृभाषा में भी ग़ज़लें कहूँगा। अपने इस प्रण को साकार करने की ओर उन्होंने अपना पहला क़दम 2004 में बढ़ाया। 2004 से 2021 तक हिमाचली ज़बान में लिखी उनकी ग़ज़लों का संग्रह 'ऐब पुराणा सीहस्से दा' हाल ही में मन्ज़रे आम पर आया है जो बहुत पसंद किया जा रहा है।

एम.ऐ. इंग्लिश करने के बाद 'द्विज' जी की नौकरी लेक्चरर के पद पर थुरल कॉलेज में लगी जहाँ के बच्चे इतने बदमाश थे कि किसी लेक्चरर को तीन दिन से ज्यादा कॉलेज में टिकने नहीं देते थे लेकिन द्विज साहब ने उन पर ऐसा जादू डाला कि बच्चे उनके मुरीद ही नहीं हुए बल्कि अपनी सारी शैतानियां छोड़ इंटर कॉलेज भाषण और कविता प्रतियोगिताएं में ट्रोफियाँ जीतने लगे। द्विज जी की लेक्चरर के रूप में ख़्याति इसकदर बढ़ी कि एस.डी. कॉलेज वाले, जहाँ से उन्होंने ग्रेजुएशन किया था, उन्हें अपने यहाँ ले गए। इसी बीच 1986 में उन्हें डिपार्टमेंट ऑफ टेक्निकल एजुकेशन में अँग्रेज़ी के लेक्चरर के पद पर नियुक्ति मिल गयी। इसी संस्थान से 34 वर्ष बाद सन 2020 में वो विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर हुए। 

स्थाई नौकरी मिलने के बाद ज़िन्दगी पटरी पर आ गयी। शादी हो गयी और पत्नी के रूप में एक ऐसी जीवन संगनी मिली जो उनकी रचनाओं पर एक कुशल आलोचक की तरह सटीक टिप्पणी करतीं हैं। ग़ज़ल लेखन इस दौरान अबाध गति से चलता रहा। देश के अधिकतर पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपने लगीं। मुशायरों में पिता के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के पवनेन्द्र पवन जी, प्रेम भारद्वाज जी ,प्रफुल्ल परवेज़ साहब, शेष अवस्थी जी जैसे बड़े शायरों के साथ मंच साझा करने का अवसर मिलता रहा।  

यकीनन हो गया होता मैं पत्थर 
सफ़र में मुड़ के पीछे देखता तो 

तुझे कुछ डर नहीं दुनिया का लेकिन 
कभी जो सामना खुद से हुआ तो
*
यूंँ ही बना कर रक्खोगे कब तक मेरा भरम 
दीवार का सवाल है अब इश्तिहार से
*
हादसो! तुमको बयां करने की फ़ुर्सत है किसे 
रह गए हैं अब उलझ कर राहतों, भत्तों में लोग
*
जो शख़्स है लंबा उसे रस्ते से हटा दें 
इस तरह तो क़द आपका ऊंँचा नहीं होता
*
छोड़ दे चिंगारियों से खेलने का अब जुनूं 
सिर्फ़ तेरा ही नहीं बस्ती में घर मेरा भी है
*
फूल ही फूल हों कदमों में चलो यूंँ कर लें 
प्यार के पेड़ की एक शाख़ हिला दी जाये
*
जहांपनाह! सज़ाओं से हम नहीं डरते 
मगर सज़ाओं से पहले ख़ता की बात करें 

ज़ुबानें, गर्दनें, सर, हाथ-पाँव, बाजू सब 
कहां बचेंगे जो अपनी रज़ा की बात करें
*
अजब तक़रीर की है रहनुमा ने अम्न पर देखो
निकल आए हैं चाकू, तीर और तलवार चुटकी में

नौकरी, गृहस्ती और शायरी सुचारु रूप से चल रही थी कि 1996 में लम्बी बीमारी के बाद द्विज जी के पिताजी का देहावसान हो गया। परिवार के लिए ये बहुत बड़ा झटका था उनके बिना घर की कल्पना ही किसी ने नहीं की थी। इस हादसे से उबरने में द्विज जी को पाँच साल लगे। ये पाँच साल का समय कैसे बीता ये द्विज जी को याद नहीं। ख़ैर !! जीवन कभी रुकता नहीं इसलिए धीरे धीरे ही सही वापस पटरी पर आ गया। लेखन में भी गति आयी। जब काफ़ी ग़ज़लें इकठ्ठा हो गयीं तो उन्हें एक किताब की शक्ल में प्रकाशित करने का फैसला लिया। द्विज जी के एक मित्र ने उन्हें कहा कि आप ग़ज़लों की किताब छपवा तो रहे हो लेकिन क्या आपने उनकी बहर, वज़्न आदि किसी उस्ताद को दिखाई हैं ? द्विज जी का तो कोई नियमित उस्ताद कभी था नहीं जो सीखा दूसरों को पढ़ के सीखा बाकी ये फ़न तो उन्हें तो उन्हें पिता से विरसे में मिला था। मित्र के बताये अनुसार उन्होंने ग़ज़ल के उरूज़ पर छपी बेहतरीन किताब 'फन्ने शायरी' जिसे अल्लामा अख़लाक़ हसन देहलवी साहब ने लिखा था दिल्ली में काफी खोजबीन के बाद हासिल की और उसे पढ़ा । सातवीं-आठवीं और उसके बाद वही नवीं-दसवीं में भी पढ़ी उर्दू, उस किताब को पढ़ने में काम आयी। किताब पढ़ने के बाद उन्होंने अपनी सभी ग़ज़लों को दुबारा से देखा और आखिर गुलमोहर पब्लिकेशन की और से जन-गण-मन किताब मंज़र -ऐ आम पर आयी जिसे आम पाठकों के अलावा उस्ताद शायरों ने भी बहुत पसंद किया और उस पर अपनी समीक्षाऐं भी लिखी जिनमें श्री ज़हीर क़ुरैशी, कमलेश भट्ट 'कमल' और ज्ञान प्रकाश विवेक जी की टिप्पणियॉं विशेष उल्लेखनीय हैं । 'द्विज' जी मानते हैं कि वो बहुत ख़ुशकिस्मत हैं क्यूंकि उन्हें शायरी में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी के हर मोड़ पर भरपूर मदद करने को लक्ष्मण सा भाई 'नवनीत' मिला है जो स्वयं भी लाजवाब शायर और कवि है साथ ही द्विज जी ग़ज़लों का पहला और सच्चा आलोचक भी।

फिर 2006 में इंटरनेट पर आया ब्लॉग का दौर। 'द्विज' जी 'पंकज सुबीर' जी के ब्लॉग 'सुबीर सुबीर संवाद सेवा' से जुड़े जहाँ हम जैसे बहुत से लोग ग़ज़ल का ककहरा सीख रहे थे। ब्लॉग पर हम एक दूसरे की ग़ज़लें पढ़ते और मदद भी करते। द्विज जी से मैंने बहुत कुछ सीखा है। पंकज जी के अलावा मेरे गुरुओं में 'द्विज' जी भी शामिल हैं। इंटरनेट के आने से द्विज जी ग़ज़लें बहुत बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचने लगीं। काव्य की बहुत मशहूर साइट 'कविता कोष' से भी द्विज जी जुड़े और उसे विस्तार दिया। आप उन्हें उर्दू साहित्य की सबसे बड़ी साइट 'रेख़्ता' पर भी पढ़ सकते हैं।

बेहद विनीत स्वाभाव के मृदुभाषी 'द्विज' जी अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी हैं। 'नवल प्रयास शिमला द्वारा उन्हें धर्मप्रकाश साहित्य सम्मान दिल्ली में 2019 प्रदान किया गया इससे पूर्व वो काँगड़ा लोक साहित्य परिषद् राजमंदिर नेरटी द्वारा वर्ष 2017 का परम्परा उत्सव सम्मान भी प्राप्त कर चुके हैं। सबसे बड़ा सम्मान वो प्यार है जो उनके लाखों पाठकों ने उन्हें दिया है।

अब आखिर में आपको बता दें कि आज जिस किताब को हम सामने खोले बैठे हैं वो 'द्विजेन्द्र द्विज' का ताज़ा ग़ज़ल संग्रह 'सदियों का सारांश' है। इसे हार्ड कवर में भारतीय ज्ञान पीठ ने प्रकाशित किया है। सरल भाषा में बेमिसाल ग़ज़लें पढ़ने वालों के लिए ये किताब किसी वरदान से कम नहीं। इस किताब में 'द्विज' जी की श्रेष्ठ 88 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिनका केनवास बहुत विस्तृत है। इस किताब के प्रकाशन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है विलक्षण प्रतिभा के शायर जनाब 'विजय कुमार स्वर्णकार' जी ने, उन्होंने किताब के फ्लैप पर इस ग़ज़ल संग्रह और द्विज जी के बारे बेहतरीन आलेख भी लिखा है।

आप इस किताब को भारतीय ज्ञानपीठ से 9350536020 पर फोन करके मंगवा सकते हैं। ये किताब फ्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध है और तेज़ी से बिक रही है। इस खूबसूरत किताब के प्रकाशन के लिए द्विज जी को 9418465008 पर बधाई देना न भूलें।


हमें चेहरों से कोई बैर कब था 
हमारी जंग थी बेचहरगी से 

ख़ुदा महफ़ूज़ है वो है जहांँ भी 
बचा लो आदमी को आदमी से 

तो क्या मैं भी सियासी हो रहा हूंँ 
मेरी बनने लगी है हर किसी से
*
रंग ने, रंग में, रंग से बात की 
रंग और आ गए रंग के रंग में