कहीं ये इश्क की वहशत को नागवार न हो
झिझक रहा हूँ तिरे ग़म को प्यार करते हुए
वहशत :उन्माद
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देख तितली की अचानक परवाज़
शाख़ से फूल उड़ा हो जैसे
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अजीब फ़ैसला था रौशनी के ख़ालिक़ का
कि जो दिया भी नहीं थे वही सितारा बने
ख़ालिक़ :निर्माता
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अब एक उम्र में याद आयी है तो याद आया
सितारा बुझते हुए रौशनी बिखेरता है
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वो फिर मिला तो मुझे हैरतों से ताकता रहा
कि दिल-गिरफ़्ता न लगता था बोलचाल से मैं
दिल-गिरफ़्ता :उदास,दुखी
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फिर एक बार मैं रोया तो बेख़बर सोया
वरना ग़म से निकलना मुहाल था मेरा
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अजीब राहगुज़र थी कि जिसपे चलते हुए
क़दम रुके भी नहीं रास्ता कटा भी नहीं
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ये दुःख है उसका कोई एक ढब तो होता नहीं
अभी उमड़ ही रहा था कि जी ठहर भी गया
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जो अक्स थे वो मुझे छोड़ कर चले गए हैं
जो आइना है मुझे छोड़ कर नहीं जाता
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सच ये है कि पड़ता ही नहीं चैन किसी पल
गर सब्र करूँगा तो अदाकारी करूँगा
मैं मुरारी बापू का भक्त नहीं लेकिन उनकी एक बात का क़ायल हूं और वो है उनका रामकथा के दौरान ग़ज़ल के शेर सुनाना। उन के माध्यम से शायरी जन-जन तक पहुंच रही है. उन्हें शायरी की कितनी समझ है यह तो पता नहीं लेकिन उन्हें शायरी से कितनी मोहब्बत है यह साफ दिखाई देता है। सन 2005 में राजस्थान के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल नाथद्वारा में राम कथा हुई जिसमें उनकी मौजूदगी में इंडो पाक मुशायरा रखा गया. एक हिंदू धार्मिक स्थल पर मुस्लिम शायरों की शायरी को जिस तरह से मुरारी बापू की मौजूदगी में सुना गया उसे देखकर अलगाववादी ताक़तों की अगर नींद उड़ गई हो तो हैरत की बात नहीं होगी. इससे एक बात स्पष्ट होती है कि शायरी, धर्म के दायरे में नहीं आती ।कोई भी व्यक्ति चाहे वो किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो शायरी का दीवाना हो सकता है. खुशी की बात है कि आज के दौर में भी लोग शायर का नाम देखकर शेर पसंद नहीं करते.
इसी मुशायरे में पाकिस्तान से आए हमारे आज के शायर को उनके कलाम पर ज़बरदस्त दाद हासिल हुई थी.
ये दुःख पहले कभी झेला नहीं था
अकेला था मगर तन्हा नहीं था
हवा से मेरी गहरी दोस्ती थी
मैं जब तक शाख़ से टूटा नहीं था
मुहब्बत एक शीशे का शजर थी
घना था पेड़ पर साया नहीं था
मैं जिसमें देखता था अक्स अपना
वो आईना फ़क़त मेरा नहीं था
चलिए क़रीब 50 साल पहले के लाहौर चलते हैं. 6 दिसम्बर 1961 को लाहौर में पैदा हुआ एक बारह तेरह साल का लड़का स्कूल से घर लौट रहा है और रास्ते में खुद से ही बातें कर रहा है ।घर पर आकर बस्ता टेबल पर रख कर चहकते हुए मां से कहता है कि 'अम्मी आज मैंने शेर की कहे हैं'. ये सुनकर मां का दिल कैसा बल्लियों उछला होगा, आप सोच सकते हैं। जिस परिवार में लड़के के पिता, दादा, परदादा और दो फूफियां बेहतरीन शायर हों, वहां लड़के का शेर कहना कोई बहुत बड़ी घटना होनी तो नहीं चाहिए लेकिन मां इस बात पर खुश हुई कि उसकी 6 औलादों में से किसी एक में तो खानदान की रिवायत कायम रखने की काविश नजर आई. बात लड़के के पिता तक पहूंची । शाम को पिता ने उसे बुलाया, उससे से शेर सुने और खुश होते हुए बोले बरखुरदार तुम तो वज़न में कहते हो, शाबाश !! दो-चार दिन बाद घर पर हर महीने होने वाला मुशायरा एक कमरे में चल रहा था कि अचानक पिता ने लड़के को बुलाया और सबसे बोले कि मेरा बेटा भी शेर कहता है आप सब साहिबान इसे सुनेंं । लड़के ने घबराते हुए शेर पढे जिसे सुनकर सदारत कर रहे मशहूर शायर जनाब 'अहसान दानिश' साहब उठे और लड़के को गले लगाते हुए उसके पिता से बोले 'ज़की कै़फी साहब मुबारक हो आपके यहां शायर पैदा हुआ है, क्या नाम है इसका ?' ' सऊद अशरफ उस्मानी' पिता गर्व से बोले.
हम भी वैसे न रहे दश्त भी वैसा न रहा
उम्र के साथ ही ढलने लगी वीरानी भी
वो जो बर्बाद हुए थे तेरे हाथों वही लोग
दम-ब-ख़ुद देख रहे हैं तिरि हैरानी भी
आखिर इक रोज़ उतरनी है लबादों की तरह
तने-मलबूस ये पहनी हुई उरियानी भी
शरीर का वस्त्र , उरियानी :नग्नता
ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
दोस्त इक उम्र में मिलती है ये आसानी भी
अहसान दानिश साहब ने ये बात बिल्कुल ठीक कही कि शायर पैदा ही होते हैं बनते नहीं .शायरी कोई डॉक्टरी, वकालत या इंजीनियरिंग जैसा पेशा नहीं है कि किसी कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़े, डिग्रियां ली और बन गए, ना ही ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले किसी दूसरे पेशे की तरह है। शायरी का फ़न किसी को तोहफ़़े की तरह भी नहीं दिया जा सकता ।शायरी इंसान के अंदर होती है लेकिन हर इंसान के अंदर नहीं. ये तौफ़ीक़ ऊपर वाला हर किसी को अता नहीं करता। शायर होता तो दूसरे आम इंसानों की तरह ही है लेकिन उसकी सोच का दायरा बड़ा होता है. वो औरों से ज्यादा संवेदनशील होता है इसलिए दूसरों के सुख दुःख को अच्छे से महसूस कर सकता है. शायर को अपने या दूसरों के अहसास एक खास रिदम में खूबसूरत अंदाज़ के साथ लफ्जों में पिरोने का हुनर आता है. कामयाब शायर बनने के लिए ऊपर वाले के दिए इस फ़न को लगातार मेहनत से सँवारना पड़ता है।
जब तक मैं तेरे पास था बस तेरे पास था
तूने मुझे जमींं पे उतारा तो मैं गया
अपनी अना की आहनी जंजीर तोड़ कर
दुश्मन ने भी मदद को पुकारा तो मैं गया
अना: घमंड, आहनी: इस्पात की
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
तू मुझसे एक बार भी हारा तो मैं गया
ये ताक ये चराग़ मेरे काम के नहीं
आया नहीं नज़र वो दोबारा तो मैं गया
सऊद साहब पढ़ाई के दौरान शायरी करते रहे लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया. साइंस में ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने लाहौर से एमबीए की डिग्री हासिल की. एमबीए के बाद उन्होनें अपनी ग़जलें इक्ठ्ठा की उन में से कुछ छाँटी और मशहूर शायर 'अहमद नदीम कासमी' साहब के दफ्तर जा पहुंचे. उस वक्त कासमी साहब एक रिसाला निकाला करते थे जिसमें मयारी गजलें छपा करती थींं. दफ्तर में कासमी साहब के सामने लाजवाब शायरा परवीन शाक़िर साहिबा बैठी थींं. सऊद साहब अपनी गजलें नदीम साहब को देकर वापस आ गए. जब कुछ दिन तक जवाब नहीं आया तो वह फिर से कासमी साहब के दफ्तर पहुंचे जहां कासमी साहब नहीं थे लेकिन परवीन शाकिर साहिबा बैठी थी उन्होंने सऊद साहब को देखते ही कहा 'अरे आप तो वही है ना जो कुछ दिन पहले अपनी गजलें छपने के लिए दे गए थे माशा अल्लाह आप बहुत अच्छा लिखते हैं, लिखते रहेंं '. परवीन शाक़िर जैसी शायरा से अपनी तारीफ सुन कर उसी पल सऊद साहब ने ग़जल की दुनिया में अपना एक मुकाम बनाने का फ़ैसला कर लिया.
जैसे कोई दो दो उम्रें काट रहा हो
झेली अपनी और उसकी तन्हाई मैंने
एक मुहब्बत मुझमें शोलाज़न रहती थी
ख़ैर फिर इक दिन आग से आग बुझाई मैंने
खुद को राज़ी रखने की हर कोशिश करके
आखिर अपने आप से जान छुड़ाई मैंने
मेरी पूँजी और थी , मेरे ख़र्च अलग थे
ख़्वाब कमाए मैंने ,नींद उड़ाई मैंने
सऊद साहब की शायरी के प्रति इस दीवानगी के चलते ही उन्हें ये मुकाम हासिल हुआ कि आज पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर उस गोशे में जहाँ उर्दू शायरी समझी जाती है लोग उनको पढ़ना सुनना पसंद करते हैं। उनकी शायरी से रूबरू होते हुए 'अहमद नदीम क़ासमी' साहब की उनके बारे में कही ये बात ज़ेहन में आ जाती है वो फरमाते हैं कि " जब ग़ज़ल विधा से ऊब चुके लोग मुझसे ये कहते हैं अब इस विधा में कहने को कुछ नहीं रहा तो मैं उनको मशवरा देता हूँ कि वो सऊद अशरफ़ उस्मानी को पढ़ लें क्यूंकि उसने ग़ज़ल के जिस्म में नयी जान फूंकी है।" इस नए पन के कारण ही उनके पहले ग़ज़ल के मुज़मुए "कौस" को 1997 में पाकिस्तान प्राइम मिनिस्टर अवार्ड ,2006 में दूसरे मज़मुए "बारिश" को अहमद नदीम क़ासमी अवार्ड और 2016 में तीसरे मज़मुए "जलपरी" को भी ढेरों अवार्ड हासिल हुए हैं। शायरी के वो प्रेमी जो उर्दू लिपि पढ़ नहीं सकते अब उनकी चुनिंदा ग़ज़लों को देवनागरी में 'राजपाल एंड संस ' द्वारा प्रकाशित किताब " सरहद के आर-पार की शायरी" श्रृंखला में पढ़ सकते हैं। इस किताब में उनके साथ लाजवाब भारतीय शायर मरहूम 'रऊफ रज़ा ' साहब की ग़ज़लें भी संकलित हैं। किताब का संपादन देश के प्रसिद्ध शायर और शायरी के बेहतरीन जानकार जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी ' साहब ने किया है। सऊद साहब की तीनों ग़ज़ल की किताबों से 85 ग़ज़लें छाँटना आसान काम नहीं था लेकिन तुफैल साहब ने जिस खूबी से इसे अंजाम दिया है उसके लिए उनकी जितनी भी तारीफ की जाय कम है। आज हम इस किताब का सिर्फ आधा हिस्सा, याने जो सऊद साहब की शायरी का है , ही आपके सामने लाये हैं।
दिल की अपनी ही समझ होती है
जो फ़क़त ज़हन हैं, वो क्या समझेंं
एक भूली हुई ख़ुश्बू मुझसे
कह रही है मुझे ताज़ा समझें
बात करते हुए रुक जाता हूं
आप इस बात को पूरा समझें
दिल को इक उम्र समझते रहे हम
फिर भी इक उम्र में कितना समझें
आप इस किताब के संकलनकर्ता जनाब तुफैल चतुर्वेदी जी की व्यक्तिगत सोच या उनके और किसी भी दृष्टिकोण से भले मतभेद रखें लेकिन उनकी इस बात को झुठलाने की आपको कोई वज़ह नहीं मिलेगी कि "हमारे समय की शायरी पुराने उस्तादों से कहीं आगे की, ताज़ा और बेहतर है। आज के शायर हर एतबार से हर हवाले से बहुत अच्छे और नए शेर कह रहे हैं। कोई भी कसौटी तय कर लीजिये आप पाएंगे कि ये माल खरा सच्चा और चोखा है। इनके काम फीकापन नहीं है. इसके लिए ये लोग भी ज़िम्मेदार हैं कि फ़ीके ,बेस्वाद बल्कि बदज़ायका अशआर का पहाड़ नहीं लगाते बल्कि अपने क़लाम को काटते छांटते हैं ,न सिर्फ अच्छा कहते हैं बल्कि सिर्फ अच्छा क़लाम मन्ज़रे-आम पर लाते हैं" इस बात को समझने के लिए आपने जो अब तक अशआर पढ़ें वो अगर काफ़ी नहीं हैं तो लीजिये पढ़िए सऊद साहब के कुछ मुख़्तलिफ़ अशआर :
उस पेड़ का अजीब ही नाता था धूप से
खुद धूप में था सबको बचाता था धूप से
***
सांस में रेत की लहरें करवट लेती हैं
अब मेरे लहज़े में सहरा बोलता है
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हम ऐसे लोग तो अपने भी बन नहीं पाते
सो खूब सोच-समझ कर कोई हमारा बने
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लेकिन उनसे और तरह की रौशनियां सी फूट पड़ीं
आंसू तो मिलकर निकले थे आँख के रंग छुपाने को
***
कहीं कुछ और भी हो जाऊँ न रेज़ा-रेज़ा
ऐसा टूटा हूँ कि जुड़ते हुए डर लगता है
***
दिल से तेरी याद उतर रही है
सैलाब के बाद का समां है
***
कभी-कभी मिरे दिल में धमाल पड़ती हुई
कभी-कभी कोई मुझमें मलंग होता हुआ
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मैं इक शजर से लिपटता हूँ आते जाते हुए
सुकूँ भी मिलता है मुझको दुआ भी मिलती है
***
वो तितलियों के परों पर भी फूल काढ़ता है
ये लोग कहते हैं उसकी कोई निशानी नहीं
***
ये तुम जो आईने की तरह चूर-चूर हो
तुमने भी अपनी उम्र को दिल पर गुज़ारा क्या
सऊद साहब शायरी करते नहीं जीते हैं शायरी उनके लिए मश्गला याने टाइम पास करने की चीज नहीं ज़िंदगी गुज़ारने का तरीका है. वो कहते हैं कि अपनी ग़ज़लों का पहला पाठक मैं ही होता हूं और जिस शेर पर मेरे मुंह से वाह नहीं निकलती उसे तुरंत खारिज ही नहीं करता बल्कि उसको तब तक सुधारता रहता हूं जब तक वह मुझे पसंद नहीं आ जाता. इनका मानना है कि इंसान को शायरी से मोहब्बत होनी चाहिए, जरूरी नहीं कि आप शायरी ही करें अगर आप शायरी पढ़ते हैं तो भी आपकी शख्सियत पर उसका असर पड़ता है आप एक बेहतरीन इंसान ही नहीं बनते आपका सेंस ऑफ ह्यूमर भी सुधरता है. पाकिस्तान के संपन्न घराने से ताल्लुक रखने वाले सऊद साहब का प्रकाशन का बड़ा व्यवसाय है
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ:
वो गोरी छांव में है और सियाह धूप में हम
तो उनका हक़ है, उन्हीं का जलाना बनता है
ख़िरद के आढ़तियों को यह इल्म ही तो नहीं
कि खूब सोच समझकर दिवाना बनता है
खुदा को मानता और दोस्त जानता हूं 'सऊद'
और आजकल ये चलन क़ाफिराना बनता है
आखिरी में एक ज़रूरी बात करनी रह गई किताबों की दुनिया अब सिमटती जा रही है ।कभी लोगों के हाथों में रहने वाली किताबें अब धीरे-धीरे अलमारियों में बंद दम तोड़ रही हैं और वहां से भी गायब हो रही हैं. उनकी जगह मोबाइल, लैपटॉप और किंडल पर इ- बुक ने ले ली है. इसमें कोई बुराई नहीं, क्योंकि तकनीक आपको यह सुविधा देती है कि आप चाहे जितनी किताबें अपने साथ लिए जहां चाहे वहां ले जा सकते हैं. शायद आने वाली पीढ़ी किताब से निकलने वाली खुशबू और वर्क पलटने से उपजे संगीत को कभी नहीं जान पाएगी.
सऊद साहब का एक शेर, जिसे मेरी तमन्ना है कि कभी सच ना हो, पेश है :
कागज की ये महक ये नशा रूठने को है
ये आखिरी सदी है किताबों से इश्क की