जलो जिसके लिए उस तक भी थोड़ी सी तपिश पहुंचे
ये जीना भी कोई जीना है के बस चुपचाप जल जाओ
फ़क़त उसके लिए जीना बहुत अच्छा सही लेकिन
कभी अपने लिए भी सामने उसके मचल जाओ
यहाँ हर रास्ता बस एक ही मंज़िल को जाता है
सो, आँखें बंद करके तुम जिधर चाहो निकल जाओ
हमारे प्यार को तुम प्यार रहने दो तो अच्छा है
ना लाओ अपनी पेशानी पे टेढ़ा सा ये बल, जाओ
तबियत क्या है एक नादान बच्चे की कहानी है
बिखर जाए तो फिर आसां नहीं है उसको बहलाना
दीवानापन नहीं तो और क्या है ये 'दिल-ए-पागल'
कभी पतझड़ में खिल उठना, कभी सावन में कुम्हलाना
ग़ज़ल होती नहीं जादूगरी बे-शक्ल लफ़्ज़ों की
ग़ज़ल है ज़ज़्बा-ऐ-दिल को कबा-ए-सौत पहनाना
कबा-ए-सौत=आवाज़ का लिबास
हमारा क्या है हम तो हर घडी मिलना तुम्हें चाहें
कभी हाँ दिल तुम्हारा खुद कहे तो जान, आ जाना
प्यार घड़ी भर का भी बहुत है
झूठा, सच्चा मत सोचा कर
वो भी तुझसे प्यार करे है
फिर दुःख होगा , मत सोचा कर
दुनिया के ग़म साथ हैं तेरे
खुद को तन्हा मत सोचा कर
जीना दूभर हो जायेगा
जानां इतना मत सोचा कर
आवाज़ मेरी बैठ तो सकती है थकन से
लहजे में मगर मेरे गुज़ारिश नहीं होगी
हो फ़िक्र जिसे खुद वो मेरा हाल परख ले
मुझ से तो मेरे ग़म की नुमाइश नहीं होगी
धड़कन में तेरा नाम बहर हाल रहेगा
होठों पे मेरे हाँ , तेरी ख़्वाहिश नहीं होगी
ऐसा नहीं कि मुझको जुदाई का ग़म नहीं
लेकिन ये बात और, मेरी आँख नम नहीं
तेरे हुज़ूर लाए मुझे प्यार माँगने
इतना तो जान मेरी तेरे ग़म में दम नहीं
तन्हाई, ज़ख्म, रंज-ओ-अलम सब ही साथ हैं
सोचो अगर तो इतने अकेले भी हम नहीं
नज़र उससे न मिलती काश, अब
वो
लिए हाथों में पत्थर रह गया है
शिकस्ता है मेरा आईना या फिर
मेरा चेहरा बिखर कर रह गया है
नमाज़ी जा चुके अपने घरों को
ख़ुदा मस्जिद में फँस कर रह गया है
वो किस्मत के धनी हैं या मुनाफ़िक
के जिन शानों पे अब सर रह गया है
मुनाफिक़=पाखंडी
कोंपलें फिर फूट आयीं शाख पर कहना उसे
वो न समझा है ,न समझेगा मगर कहना उसे
राह में तेरी घडी भर की रिफ़ाक़त के लिए
जल रहा है धूप में पागल शजर कहना उसे
रिफ़ाक़त =साथ
रिस रहा हो खून दिल से, लब मगर हँसते रहें
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे
कभी यूँ हो कि पत्थर चोट खाये
ये हर दम आईने ही चूर क्यों हैं
फ़क़त इक शक्ल आँखों से छिनी थी
ये सारे ख़्वाब चकना चूर क्यों हैं
कोई पूछे तो दिल के हुक्मरां से
मुहब्बत का एवज़ नासूर क्यों है
जोश ,फ़राज़ बशीर बद्र और वसीम बरेलवी जैसी शख्सियतों से राब्ता रखने वाले जनाब फ़रहत शहज़ाद की इस किताब को, जिसमें उनकी 200 से ज्यादा ग़ज़लें संकलित हैं ,देवनागरी में तैयार करने में डाक्टर मृदुला टंडन साहिबा का बहुत बड़ा हाथ है। उन्होंने फ़रहत साहब की उर्दू में प्रकाशित सभी ग़ज़लों की किताबों में से चुनिंदा ग़ज़लें छांटी उनका लिप्यांतर किया और ख्याल रखा कि ग़ज़लें ऐसी हों जिसे हिंदी का पाठक ठीक से समझ सके. कुछ ग़ज़लों में आये उर्दू के मुश्किल लफ़्ज़ों का हिंदी अनुवाद भी उस ग़ज़ल के अंत में दिया। इस किताब को पढ़ते वक्त पाठक ज़ज़्बात के समंदर को खंगालता हुआ गुज़रता है।
बू-ए-गुल फूल का मोहताज नहीं है , लेकिन
फूल खुशबू से जुदा होगा तो मर जाएगा
किसको मालूम था जानां के तेरे जाते ही
दर्द खंज़र की तरह दिल में उतर जायेगा
शेर कहते रहो शायद के करार आ जाये
ज़ख्म-ए-दिल ज़ख्म-ए-बदन कब है के भर जाएगा
"कहना उसे "की प्राप्ति के लिए आपको वाणी प्रकाशन की साइट पर जाना पड़ेगा और उसके लिए आप www. vaniprkashan.in पर क्लिक करें या फिर +91 11 23273167 पर फोन करें वैसे ये किताब अमेज़ॉन पर भी हार्ड बाउन्ड और पेपर बैक में उपलब्ध है आप इसे वहां से भी ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये एक ऐसी किताब है जिसका हर सफ़्हा बेहतरीन शायरी से लबालब भरा हुआ है। शायरी प्रेमियों को ये किताब कतई निराश नहीं करेगी। किताब पढ़ कर आप फ़रहत शहज़ाद साहब को उनके ई -मेल farhatalishahzad@yahoo.com पर लिख कर बधाई जरूर दें। फ़रहत साहब फेसबुक पर भी हैं वहां भी उन्हें बधाई दी जा सकती है।
मैं अब भी मुन्तज़िर रहता हूँ तेरा
मगर अब वो परेशानी नहीं है
अकेला है बहुत सहरा भी लेकिन
मेरे दिल जैसी वीरानी नहीं है
सुनाऊँ हाले दिल मैं अंजुमन में
मेरे ग़म में वो अरजानी नहीं है
चलो शहज़ाद दिल के ज़ख़्म खुरचें
के यूँ भी नींद तो आनी नहीं है
कुछ ज़र्द हो चले थे तिरे हिज़्र के शजर
फिर शहर-ए-दिल में याद की बरसात हो गयी
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जब न तरकश में कोई तीर बचा
हाथ उसका सलाम तक पहुंचा
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क्या हुआ गर ख़ुशी नहीं बस में
मुस्कुराना तो इख़्तियार में है
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याद में तेरी आँख से गिर कर
रात अश्कों ने ख़ुदकुशी कर ली
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तमाम उम्र मुझे संगसार करता रहा
वो मेरा यार जो शीशे के घर में रहता था
संगसार =पत्थरों से मारना
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ज़िन्दगी कट गयी मनाते हुए
अब इरादा है रूठ जाने का
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एक पल में ज़िन्दगी मेरी समझने के लिए
सर्दियों की चांदनी रातों में बाहर देखिये
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उँगलियाँ फेरना बालों में मेरे देर तलक
उन दिनों मुझसे तुम्हें कितनी मुहब्बत थी ना
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ये पागलपन नहीं तो और क्या है
मैं सचमुच मुस्कुराना चाहता हूँ
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लगा कर ज़ख्म खुद मरहम भी देगा
उसे इतना क़रीना आ गया है