Monday, November 17, 2014

किताबों की दुनिया -102

उस पार से मुहब्बत आवाज़ दे रही है 
दरिया उफ़ान पर है दिल इम्तहान पर है 

ऊंचाइयों की हद पर जा कर ये ध्यान रखना 
अगला कदम तुम्हारा गहरी ढलान पर है 

'राजेंद्र' से भले ही वाक़िफ़ न हो ज़माना 
ग़ज़लो का उसकी चर्चा सबकी जुबान पर है 

हम अपनी आज की 'किताबों की दुनिया ' श्रृंखला में 2 मार्च 1960 में जन्मे उसी राजेंद्र तिवारी जी की किताब 'संभाल कर रखना 'की चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्यों उनकी ग़ज़लें सबकी जबान पर हैं।


उठाती है जो ख़तरा हर क़दम पर डूब जाने का 
वही कोशिश समन्दर में खज़ाना ढूंढ लेती है 

हक़ीक़त ज़िद किये बैठी है चकनाचूर करने को 
मगर हर आँख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है 

न कारोबार है कोई , न चिड़िया की कमाई है 
वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूंढ लेती है 

कानपुर निवासी राजेंद्र जी को शुरू से ही शोहरत की कोई लालसा नहीं रही न मंचो के माध्यम से न प्रकाशनों के लेकिन जिस तरह फूल को अपने खिलने की सूचना किसी को देनी नहीं होती उसकी खुशबू उसके खिलने का पता दे देती वैसे ही लगनशील रचनाकार की उत्कृष्ट रचनाएँ उसकी शोहरत स्वयं फैला देती हैं। ऐसे ही रचनाकारों में शुमार किये जाते हैं राजेंद्र तिवारी जी। फ़िक्र और फ़न के सम्यक सामंजस्य के कारण उनकी ग़ज़लें एक अलग छाप छोड़ती हैं।

गृहस्थी में कभी रूठें -मनायें ठीक है, लेकिन 
हो झगड़ा रोज़ तो घर की ख़ुशी को चाट जाता है 

सिमट कर जैसे आ जाये समंदर एक क़तरे में 
कोई ऐसा भी लम्हा है, सदी को चाट जाता है 

ग़ज़ल की परवरिश करने पे खुश होना होना तो लाज़िम है 
ग़ुरूर आ जाये तो फिर शायरी को चाट जाता है 

चेहरे पे खिचड़ी दाढ़ी, गहरी आवाज, आकर्षक लहजा, लहज़े में ग़ज़ब का आत्म विशवास औरगुरूर से कोसों दूर राजेंद्र जी का शायरी से लगाव 18 साल की उम्र से हो गया था जिसे संवारा और परवान चढ़ाया उनके गुरु और मार्गदर्शक स्व.पं कृष्णानन्द जी चौबे ने। उनके स्नेहनिल संरक्षण, सम्यक मार्गदर्शन और उत्साह वर्धन ने उनकी रचनात्मकता को निखारने के साथ ही फ़िक्र को ग़ज़ल के साँचे में ढालने की कला सिखाई।

पर्वत के शिखरों से उतरी सजधज कर अलबेली धूप 
फूलों फूलों मोती टाँके, कलियों के संग खेली धूप 

सतरंगी चादर में लिपटी जैसे एक पहेली धूप 
जाने क्यों जलती रहती है, छत पर बैठ अकेली धूप 

मुखिया के लड़के सी दिन भर मनमानी करती घूमे 
आँगन -आँगन ताके - झाँके फिर चढ़ जाय हवेली धूप 

अपनी बेहतरीन और दिलफरेब शायरी के लिए राजेंद्र जी को सन 2000 में अली अवार्ड से और 2001 में वाक़िफ़ रायबरेली सम्मान से नवाजा गया. इसके अलावा अनुरंजिका ,सौरभ ,मानस संगम इत्यादि अनेक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। आपकी ग़ज़लों को देश की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे हंस, कथालोक, नवनीत, अक्षरा, इंद्र प्रस्थ भारती, कथन और गगनांचल इत्यादि में भी प्रकाशित किया गया है।

न जाने कौनसी तहज़ीब के तहत हमको 
सिखा रहें हैं वो ख़ंजर संभाल कर रखना 

ख़ुशी हो ग़म हो न छलकेंगे आँख से आंसू 
मैं जानता हूँ समंदर संभाल कर रखना 

तुम्हारे सजने संवरने के काम आएंगे 
मेरे ख्याल के ज़ेवर संभाल कर रखना 

भला हो मेरे मुंबई निवासी शायर मित्र सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब का जिनके माध्यम से मुझे राजेंद्र जी और उनकी की शायरी को जानने का मौका मिला। उत्तरा बुक्स केशम् पुरम दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह में राजेंद्र जी की 101 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिसे 09868621277 पर फोन कर प्राप्त किया जा सकता है। आप राजेंद्र जी से 9369810411 पर संपर्क कर के भी इस किताब को प्राप्त कर सकते हैं।

पत्थरोँ से सवाल करते हैं 
आप भी क्या कमाल करते हैं 

खुशबुएँ क़ैद हो नहीं सकतीं 
क्यों गुलों को हलाल करते हैं 

वे जो दावे कभी नहीं करते 
सिर्फ वे ही कमाल करते हैं 

बिना कोई दावा किये कमाल करने वाले इस सच्चे और अच्छे शायर की ये किताब हर शायरी प्रेमी पाठक को पढ़नी चाहिए ताकि इस बात की पुष्टि हो कि बाजार से समझौता किये बिना भी उम्दा शायरी के दम पर मकबूलियत हासिल की जा सकती है।
चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और निकलते हैं एक और किताब की तलाश में :

दर्द के हरसिंगार ज़िंदा रख 
यूँ ख़िज़ाँ में बहार ज़िंदा रख 

ज़िन्दगी बेबसी की कैद सही 
फिर भी कुछ इख़्तियार ज़िंदा रख 

ख्वाइशें मर रही हैं, मरने दे 
यार खुद को न मार , ज़िंदा रख 

गर उसूलों की जंग लड़नी है 
अपनी ग़ज़लों की धार ज़िंदा रख