Monday, March 25, 2013

किताबों की दुनिया -80

जयपुर से मुंबई आना जाना आजकल महीने में दो बार होने लगा है, जयपुर एयरपोर्ट पर जो किताबों की दूकान है उसका मैनेजर अब मुझे पहचानने लगा है। अब वो मेरे दुकान में दाखिल होने पर पहले ही बता देता है के शायरी की कोई नयी किताब आई है या नहीं। आई होती है तो उसकी मुस्कान चौड़ी हो जाती है और वो आँखों को मिचमिचाते हुए कहता है "आ गयी सर ". किताबें आती तो हैं लेकिन वो ही मुनव्वर राणा जी की ,बशीर बद्र साहब की, वसीम बरेलवी जी की, गुलज़ार साहब की और मैं उन पर सरसरी नज़र डाल के जब चलने को होता हूँ तो वो निराश हो के कहता है सर आपको चाहिए क्या ? इस सवाल का जवाब मेरे पास भी नहीं है।मुझे क्या चाहिए मुझे खुद नहीं पता। ये मैं किताब हाथ में आने पर ही तय कर पाता हूँ।

अब जैसे इस किताब को ही लें, जिसका जिक्र हम आज करने वाले हैं, ये मुझे जयपुर बुक फेयर में अचानक मिल गयी। रैक पर एक कोने में लुढ़की पुरानी सी दिखती इस किताब को शायद ही फेयर में आने वाले किसी दूसरे इंसान ने हाथ में लिया होगा, अगर लिया होता तो उस पर मिट्टी की परत नहीं होती।

न दे सबूत न दावा करे मगर मुझको 
सज़ा से पहले वो इल्ज़ाम तो बताया करे 

लड़ी सितारों की लाता है कौन किसके लिए 
मुझे जो चाहे वो फूलों के हार लाया करे 

नहीं है दोस्त के कपड़ों में वो अगर दुश्मन 
मिरा मज़ाक़ मेरे सामने उड़ाया करे 

अगर वो दोस्त है मेरा, तो टूट जाय जहाँ 
वहां से वो मिरी आवाज़ फिर उठाया करे 

ये किताब है "धूप तितली फूल" और शायर हैं अगस्त 1946 में मोतिहारी, बिहार में जन्में जनाब "प्रियदर्शी ठाकुर" जो "ख़याल " उपनाम से शायरी करते हैं। पटना कालेज से स्नातक और दिल्ली विश्व विद्यालय से सनातकोत्तर (इतिहास) शिक्षा प्राप्ति के बाद ख्याल साहब ने 1967 से 1970 तक भगत सिंह कालेज, नयी दिल्ली में अध्यापन कार्य किया। 1970 से आप भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्त हुए और नयी दिल्ली मानव संसाधन विकास मंत्रालय के शिक्षा विभाग में सचिव के पद पर कार्यरत रहे .


आसमानों को निगलती तीरगी के रू-ब-रू 
एक नन्हें दायरे भर रौशनी की क्या चले 

एक मजबूरी है हर शब् चाँद के हमराह चलना 
हो भले बीमार लेकिन चांदनी की क्या चले 

हुस्न लफ़्ज़ों में न था, अशआर में शेवा न था 
शायरी में सिर्फ आखिर आगही की क्या चले 
शेवा: शैली, ढंग ; आगही : ज्ञान 

ख्याल साहब की शायरी के लफ़्ज़ों में हुस्न भी है, अशआर में शेवा और हर शेर में आगही भी। हुस्न-ओ-इश्क वाली रिवायती शायरी के साथ साथ वो सामाजिक सरोकार को भी सफलता पूर्वक अपने शेरों में ढालते हैं।

रहनुमाँ ही ढूंढती रह जाएँ ना नादानियाँ 
दोस्तों, वीरान हो जाएँ न ये आबादियाँ 

आदमी का कत्ल ही जब रोज़मर्रा हो गया 
फिर दरख्तों के लिए क्यूँकर फटें अब छातियाँ 

क्यूँ नहीं सोचा कि अपना घर भी है आखिर यहाँ 
गुलसितां को राख करके ढूढ़ते हो आशियाँ 

जंगलों से शहर हो गये और हवाएं ज़हर-सी 
हम नयी पीढी को विरसे में न दें वीरानियाँ 

बकौल जनाब सैयद फ़ज़लुल मतीन साहब "इंसानी रिश्तों क गहराई से देखने, परखने और नये और खूबसूरत अदाज़ से पेश करने में 'ख्याल' ने अपनी एक अलग पहचान बनायीं है। अपनी जाती काविशों को अपने से बाहर निकल कर देखने और उनके हवाले से जीवन का सच उजागर करने का हौसला भी उसमें है "

दास्ताँ दिलचस्प थी वो धूप, तितली, फूल की 
वक्त बदले में मगर मेरी जवानी ले गया 

मेरी बातें अनसुनी कीं, मेरा चेहरा पढ़ लिया 
लफ्ज़ उसने फेंक डाले और मानी ले गया 

रूप का दरिया था वो, सब बुत बने देखा किये
हमको पत्थर कर गया ज़ालिम रवानी ले गया 

इस किताब की भूमिका में ख्याल साहब अपनी शायरी के बारे में कहते हैं " ज़िन्दगी में हर शख्स वही करता है या करने की कोशिश करता है जो उसे अच्छा लगता है और मेरी राय में सभ्य आचरण और सलीके के दायरों में रहते हुए हर एक को करना भी वही चाहिए जो वह चाहता हो, क्यूँ की ज़िन्दगी फिर दुबारा मिलती हो इसका कोई पक्का सबूत नहीं पाया जाता। मुझे ग़ज़ल कहना अच्छा लग रहा है, सो ग़ज़ल कह रहा हूँ।"

उसे कहो कि वो अब मुझसे दिल्लगी न करे 
उदासियों की कसक मेरी शबनमी न करे 

उतर न आयें कहीं ख़्वाब भी बगावत पर 
वो इस कदर मेरी नींदों की चौकसी न करे 

रहीं न याद मुझे सुबह रात की बातें 
मज़ाक मुझसे तो यूँ मेरी तिश्नगी न करे 

भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति के आसार कम ही हैं फिर भी कोशिश करने में क्या हर्ज़ है? अलबत्ता आपको 'ख्याल' साहब की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक "पता ही नहीं चलता " जो उपलब्द्ध है, को पढ़ कर उनके लेखन का अंदाजा हो सकता है। वैसे जिस शायर के लिए जनाब वसीम साहब फरमाते हैं कि "ख्याल साहब की शायरी धूप की तरह खिलती, तितली की तरह मचलती और फूल की तरह महकती सोच का खज़ाना है", उसके लिए और क्या कहा जाय?

रूह तक कुचली है लोगों ने मिरी पाँव तले 
और उस पर ये सितम है, मुझको समझा रास्ता 

फैसला मेरा गलत हो ये तो मुमकिन है जरूर 
हक़ मुझे भी था मगर चुनने का अपना रास्ता 

उसने पूछा नाम तो मेरा मगर उस वक्त तक 
आ चुका था ख़त्म होने पर हमारा रास्ता 

ख्याल साहब से इस से पहले दो ग़ज़ल संग्रह मंज़रे आम पर आ हैं चुके हैं "टूटा हुआ पुल " (1982) और "रात गए" (1989) , ये ख्याल साहब की तीसरी किताब है जो 1990 में प्रकाशित हुई थी। अभी, याने 2004 में राजकमल प्रकाशन ने "पता ही नहीं चलता " शीर्षक से उनकी किताब प्रकाशित की है जो अभी बाज़ार में उपलब्द्ध है।

"धूप तितली फूल", जिसका बाज़ार में मिलना सहज नहीं है, में ख्याल साहब की खूबसूरत नज्में भी शामिल की गयी हैं।आम फहम ज़बान में कही गयी इस किताब की सभी ग़ज़लें उर्दू और हिंदी दोनों ज़बान के पाठकों को प्रभावित करने क्षमता रखती हैं।

वक्ते रुखसत से पहले चलये पढ़िए ख्याल साहब की एक ग़ज़ल के चंद शेर:

यही बहुत है अगर मेरे साथ साथ चले 
वो मेरे बख्त के पत्थर तो ढो नहीं सकता 
बख्त: भाग्य 

न याद आयें वो हरदम, मगर मैं पूरी तरह 
भुला सकूँ कभी उनको, ये हो नहीं सकता 

जो शै मिली ही नहीं गुम वो मुझसे क्या होगी 
ये तय समझ कि तुझे अब मैं खो नहीं सकता

Monday, March 11, 2013

जो आँधियों में दीपक थामे हुए खड़ा है

गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर इस बार बसंत पंचमी के अवसर पर हुए मुशायरे में अद्भुत ग़ज़लें पढने को मिलीं। सम सामयिक विषयों पर शायरों ने खूब शेर कहे। उसी तरही, जिसका मिसरा था " ये कैदे बा-मशक्कत जो तूने की अता है " , में भेजी खाकसार ग़ज़ल यहाँ भी पढ़िए :



ये कैदे बा-मशक्क्त जो तूने की अता है
मंज़ूर है मुझे पर, किस जुर्म की सजा है ?

ये रहनुमा किसी के दम पर खड़ा हुआ है
जिसको समझ रहे थे हर मर्ज़ की दवा है

नक्काल पा रहा है तमगे इनाम सारे
असली अदीब देखो ताली बजा रहा है

इस दौर में उसी को सब सरफिरा कहेंगे
जो आँधियों में दीपक थामे हुए खड़ा है

रोटी नहीं हवस है, जिसकी वजह से इंसां
इंसानियत भुला कर वहशी बना हुआ है

मीरा कबीर तुलसी नानक फरीद बुल्ला
गाते सभी है इनको किसने मगर गुना है

आभास हो रहा है हलकी सी रौशनी का
उम्मीद का सितारा धुंधला कहीं उगा है

हालात देश के तुम कहते ख़राब "नीरज "
तुमने सुधारने को बोलो तो क्या किया है ?