Monday, December 3, 2018

ज़िस्म तक ही अगर रहे महदूद

अच्छा !!!आपने क्या समझा की "किताबों की दुनिया " श्रृंखला को विराम दे दिया तो आपको मुझसे छुट्टी मिल गयी? -वाह जी वाह -ऐसे कैसे ? कितने भोले हो आप ? लीजिये एक ग़ज़ल झेलिये - न न लाइक करने या कमेंट की ज़हमत मत उठायें -पढ़ लें ,यही बहुत है।


 मुझको कोई अलम नहीं होता
जो तुम्हारा करम नहीं होता
अलम =दुःख, दर्द

 ज़िस्म तक ही अगर रहे महदूद
तो सितम फिर सितम नहीं होता
महदूद=सीमित 

 तू नहीं याद भी नहीं तेरी
 हादसा क्या ये कम नहीं होता 

 उसकी आँखों में झांक कर सोचा 
क्या यही तो इरम नहीं होता 
इरम =स्वर्ग 

 मेरी चाहत पे हो मुहर तेरी
 प्यार में ये नियम नहीं होता 

 कहकहों को तरसने लगता हूँ 
जब मेरे साथ ग़म नहीं होता 

 इश्क 'नीरज' वो रक़्स है जिसमें 
पाँव उठने पे थम नहीं होता