Monday, April 30, 2018

किताबों की दुनिया - 175

शायरी की दीवानगी से मुझे वो ईनाम मिला है जो किसी भी इनाम से बहुत बड़ा है। ये वो ईनाम है जो मिलने के बाद किसी खूबसूरत अलमारी में बंद हो कर दम नहीं तोड़ता ना ही किसी दीवार पर खूबसूरत फ्रेम में टंगा टंगा अपनी अहमियत खो देता है। ये ईनाम हमेशा ज़िंदा रहता है और मेरे साथ धड़कता है। ये ईनाम है कुछ बहुत ही प्यारे लोगों की सोहबत जो मुझे सिर्फ अपनी इसी दीवानगी की वजह से हासिल हुई है। ये प्यारे लोग मेरी हौसला अफजाही भी करते हैं तो मौका पड़ने पर टांग भी खींचते हैं। इनके साथ कायम हुए राबते से मिलने वाले आनंद को लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता। ऐसे प्यारे इंसानों में से एक हैं लुधियाना निवासी, बेहतरीन शायर जनाब 'सागर सियालकोटी' साहब जिनकी किताब " अहतिजाज़-ए-ग़ज़ल" पर की गयी चर्चा को आप पढ़ चुके हैं। सागर साहब गाहे बगाहे फोन करते हैं, कभी कभी मूड में बेहतरीन तरन्नुम के साथ अपनी ग़ज़लें भी सुनाते हैं। ऐसी ही किसी बात चीत के दौरान उन्होंने मुझे चंद शेर सुनाये :

किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की 
ख़ुदा हरेक को अपना पता नहीं देता
***
हवेलियाँ भी हैं कारें भी कार-खाने भी 
बस आदमी की कमी देखता हूँ शहरों में 
*** 
फलदार था तो गाँव उसे पूजता रहा 
सूखा तो क़त्ल हो गया वो बे-जबाँ दरख़्त
*** 
तुमने क्यों बारूद बिछा दी धरती पर 
मैं तो दुआ का शहर बसाने वाला था 
 *** 
तू कलमा पढ़ के परिंदों को ज़िबह करता है 
खुदा मुआफ करे सब इबादतें तेरी 

इन शेरों को सुन कर मैं उछल पड़ा और सागर साहब से पूछा ये शेर किसके हैं ? तो सागर साहब कहने लगे आपने "परवीन कुमार अश्क" का नाम नहीं सुना ? उनके हैं। मैं झूठ बोल कर अपनी इज़्ज़त बचा सकता था लेकिन इससे मेरा ही नुक्सान ज्यादा होता लिहाज़ा जो सच था मैंने वही कहा कि "नहीं -मैंने तो जी नहीं सुना"। मेरे जवाब से वो थोड़े निराश जरूर हुए, होना भी चाहिए था क्यूंकि 'अश्क' साहब जिस पाए के शायर हैं उस लिहाज़ से उनका नाम मुझे पता होना चाहिए था। इसमें दोष 'अश्क' साहब का नहीं मेरी नासमझी का है। वो बोले मेरे पास उनकी किताब 'ग़ज़ल तेरे शहर में " है, आप पढ़ना चाहेंगे ? अँधा क्या मांगे ? दो आँखें ? मैंने फ़ौरन हाँ कर दी और साहब कमाल की बात ये है कि बात ख़त्म होने के एक घंटे के अंदर सागर साहब का फिर फोन आया और उन्होंने बताया कि "नीरज जी किताब कोरियर कर दी है " अब आप ही बताइये दुनिया का कौनसा ईनाम इस मोहब्बत और अपनेपन से बड़ा है ? तीसरे दिन किताब आ भी गयी जिसे पढ़ने के बाद आज उसे आपके सामने रख रहा हूँ।


दवा, दुआ की कमी तो नहीं मगर यह दर्द 
जो आँख उठा के भी देखे न दूसरों की तरफ 

सवाल करते हैं सहरा-ए-बेगुनाह कब से 
हर इक नदी है रवाँ क्यों समुंदरों की तरफ

मज़ार छोड़ के तनहा, मुरादें मांग के 'अश्क' 
तमाम शहर पलट जाएगा घरों की तरफ 

जनाब 'परवीन कुमार अश्क' साहब का जन्म लुधियाना में 1 नवम्बर 1951 को हुआ। उनके वालिद जनाब कुलवंत राय कँवल होशियारपुरी साहब उस्ताद शायर थे। घर में उर्दू-अंग्रेजी की हज़ारों किताबें थीं। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, वकील का बेटा वकील होते हुए तो बहुत देखा है सुना है लेकिन शायर का बेटा भी अपने वालिद की तरह कद्दावर शायर बने ऐसा बहुत कम होता है। पर ऐसा हुआ और खूब हुआ। वो बचपन से शायर बन गए ऐसा नहीं हुआ लेकिन शायरी के जींस उनमें बचपन से ही आ गए थे। पिता के ये कहने पर कि पहले कोई अच्छी सी तालीम हासिल करो फिर शायरी करना, उन्होंने इंजिनीरिंग की पढाई की और सरकारी नौकरी में लग गए. 1971 में जब वो मात्र 20-21 बरस के थे तभी उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया, जो अश्क साहब के लिए बहुत बड़ा झटका था। सदमे से उबरने के बाद उनकी नज़र घर की लाइब्रेरी पर गयी जिसमें किताबों का ज़खीरा था। वो सोच में पड़ गए कि अब इन 20-25 हज़ार किताबों का क्या होगा ? अधिकांश किताबें उर्दू में थीं।

कि एक ख़ुश्बू हूँ क्या जाने कब मैं दर आऊँ 
तुम अपने घर का दरीचा ज़रा खुला रखना 

ख़ुशी का एक भी सिक्का न अपनी जेब में रख
खज़ाना दर्द का हर आँख से छुपा रखना 

बहुत करीब के रिश्ते ही ज़ख़्म देते हैं 
दिलों के दरम्याँ थोड़ा सा फ़ासला रखना 

अब परवीन साहब के सामने दो ही रास्ते थे पहला या तो इन किताबों को बेच दिया जाय और दूसरा ये कि इन्हें पढ़ा जाय। बेचना उनके ज़मीर को गवारा नहीं हुआ और पढ़ने के लिए उर्दू जानना जरूरी था। उन्होंने उर्दू सीखने का फैसला लिया। उर्दू पढ़ना सीखने के लिए वो बाजार से किताबें ले आये और पढ़ने में जुट गए। बुजुर्गों से अपनी समस्याओं का निदान पाया। मेहनत का फल मीठा ही होता है सो हुआ, धीरे धीरे उन्हें उर्दू लिखना पढ़ना आ गया। फिर शुरू हुआ किताबें पढ़ने का सिलसिला जो बरसों बरस चला। परवीन साहब ने खूब पढ़ा और सीखा। जब उन्हें लगा कि अब वो अपने ख्यालात को लफ़्ज़ों का ज़ामा पहना सकते हैं तो उन्होंने लिखना शुरू किया। हज़ारों किताबों की पढाई काम आई और वो पुख्ता शेर कहने लगे। परवीन साहब ने शुरू से ही ये तय कर लिया था कि वो किसी शैली की नक़ल नहीं करेंगे और अपने ज़ज़्बात को नए अनूठे ढंग से ही कहने की कोशिश करेंगे। इस सोच से उन्हें बहुत फ़ायदा पहुंचा और उनके अशआर जल्द ही लोकप्रिय होने लगे। सन 1973 में शिमला के गेयटी थियेटर में उन्होंने अपना पहला मुशायरा पढ़ा और उसे लूट लिया।

बर्फ मुझे जब आग दिखाने लगती है 
सूरज मेरे सर पर साया करता है 

लहू समंदर में उसने दिल फेंक दिया 
अब वो सबसे हाथ मिलाया करता है 

पेड़ के पत्ते आंसू आंसू गिरते हैं 
जब कोई शाख-ए-दर्द हिलाया करता है 

परवीन साहब कहते हैं कि 'ग़ज़ल सबसे मुश्किल ग़ज़ल सबसे शफ़्फ़ाक़ सिन्फ़े-सुखन है और ये हर ऐरे-गैरे के बस का रोग नहीं है, आप अपनी ग़ज़लें इस्लाह के लिए किसी उस्ताद को दिखा जरूर सकते हैं लेकिन उसका मफ़हूम और शिल्प आपका अपना ही होना चाहिए।उस्ताद आपका काफिया रदीफ़ बहर तो ठीक कर देगा लेकिन अगर उसने आपकी सोच और कहन को भी ठीक किया तो फिर वो शेर आपका नहीं रह जायेगा वो उस्ताद का हो जायेगा भले ही नाम आपका रहे। किसी भी फितरती फ़नकार को आप फ़नकारी नहीं सीखा सकते क्यूंकि फ़नकार तो उसके भीतर छुपा हुआ होता है । मैं किसी उस्ताद के पास नहीं गया ,उरूज मैंने खुद सीखा और मेरे पास जो किताबों का ज़खीरा था उसने मेरी कहन को पुख्ता किया " 

बहुत रोया मैं दीवारों से मिल कर 
मकाँ ख़ाली हुआ जब साथ वाला 

उठाले अपने चलते फिरते पत्थर 
कोई इंसान दे ज़ज़्बात वाला 

ला मेरे चाँद सूरज मुझको दे दे 
तमाशा खत्म कर दिन रात वाला 

उनका पहला शेरी मजमुआ 'दर-बदर" जिसे भाषा विभाग -पंजाब ने छपवाया था ,जब सन 1980 में मंज़र-ए-आम पर आया तब तक वो देश के जाने माने जदीद या मॉडर्न शायरों की लिस्ट में तस्लीम किये जा चुके थे। उनके शेर खास-ओ-आम की जुबाँ पर आ चुके थे,जो किसी भी शायर की मकबूलियत की सबसे पुख्ता निशानी मानी जाती है। आप भले हज़ारों अवार्ड ले लें, रिसालों, किताबें में छपें लेकिन अगर आपके अशआर आम लोगों की जबान पर नहीं हैं या आपके अशआर आपसी बातचीत में कोट नहीं किये जाते तो समझ लीजिये कि आप अभी मकबूलियत से दूर हैं।"दर-बदर" को हर खास-ओ-आम ने हाथों हाथ लिया। इस किताब की उस्ताद शायर जनाब महमूद हाश्मी साहब, कुमार पाशी साहब ,मशहूर नक़्क़ाद जनाब शम्सुर्रहमान फारुखी साहब और बलराज कोमल साहब जैसे बहुत से उर्दू अदब से जुड़े लोगों ने भरपूर तारीफ़ की.

हवा की आँख से भी जो छुपाकर हमको रखता था 
उसी को अब हमारी जग हंसाई अच्छी लगती है 

मैं अश्कों में बहा देता हूँ अपने दर्द की मिट्टी 
कि बारिश में दरख्तों की धुलाई अच्छी लगती है 

ज़माने की तरह अब बेवफ़ा मैं भी न हो जाऊँ 
कि अपने आप से अब आशनाई अच्छी लगती है 

अश्क साहब कभी किसी गिरोह किसी टोले या अदबी सियासत से नहीं जुड़े न ही किसी सियासी पार्टी से उनका राब्ता रहा। टोले और गिरोह उन लोगों के होते हैं जो बैसाखियों का सहारा लेकर आगे बढ़ते हैं। परवीन साहब ने ग़ज़ल की देवी को पूजा है। उनके शेरों में हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी की परेशानियां खुशियां तकलीफें झलकती हैं।हमारा समाज उसमें सांस लेता नज़र आता है। बशीर बद्र ने उनके लिए कहा है कि " परवीन कुमार अश्क ने ग़ज़ल में अनोखे अहसास को बड़ी मुहब्बत से अपना लिया है। वो किसी बाहरी मंज़र , निशाँ या सामने की चीज को ऐसी अंदरूनी प्यारी और ज़ाती तख़्लीक़ीयत (सृजनता ) से ग़ज़ल बनाते हैं कि उनके बहुत से शेर पढ़ने से ज्यादा दिल में छुपा कर रखने का तोहफा बन जाते हैं। " 

सुना है साथ रहता है वो मेरे 
मगर मैंने उसे देखा नहीं है

मुरव्वत की तिजोरी बंद रखना 
ये सिक्का शहर में चलता नहीं है 
मुरव्वत=वफ़ादारी 

ये हो सकता है वो आ जाये मुड़कर 
मगर ऐसा कभी होता नहीं है

"चांदनी के खुतूत" उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह था जो सन 1992 में प्रकाशित हुआ। इसी साल ही उनकी उर्दू ज़बान में कही चुनिंदा ग़ज़लों को "ग़ज़ल तेरे शहर में " के नाम से उर्दू न जानने वाले पाठकों के लिए देवनागरी में प्रकाशित किया गया। इस किताब में उनकी 52 ग़ज़लें हैं जो पाठक को बाँध लेती हैं। उनके ख़्याल पाठक को उद्वेलित करते हैं। हालाँकि किताब की छपाई आजकल प्रकाशित होने वाली ग़ज़ल की किताबों से बिलकुल अलग है लेकिन फिर भी इस के जादू से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है। परवीन साहब को देश विभाजन की त्रासदी ने भीतर से तोड़ कर रख दिया था। उनके बहुत से शेरों में विभाजन का दर्द बहुत शिद्दत से उबरकर नज़र आता है। उन्होंने पंजाबी में भी ग़ज़लें और कवितायेँ लिखी जो पाकिस्तान में भी उतनी ही लोकप्रिय हुईं जितनी कि हिंदुस्तान में।

उसने भी आँखों में आंसू रोक लिए 
मैं भी अपने ज़ख्म छुपाने वाला था 

पार के मंज़र ने मौके पर आँखें दीं 
मैं अँधा दीवार उठाने वाला था 

बच्चे 'अश्क' को पागल कह कर भाग गए 
वो परियों की कथा सुनाने वाला था 

सन 2005 में उनका तीसरा शेरी मजमुआ दुआ ज़मीन मंज़र-ए-आम पर आया जिसने जनाब 'परवीन कुमार अश्क' साहब को देश का बेहतरीन सूफ़ी शायर सिद्ध कर दिया। उनकी ग़ज़लों और शख्सियत पर मिथिला यूनिवर्सिटी दरभंगा बिहार की छात्रा ने 2014 में पी एच डी की डिग्री हासिल की। परवीन कुमार अश्क अपनी पीढ़ी के पहले उर्दू शायर है जिनकी शायरी पर उनके अपने प्रांत पंजाब के बाहर की उर्दू यूनिवर्सिटी पीएचडी करवा रही है. उन्हें ढेरों अवार्ड से नवाज़ा गया जिनमें पंजाब सरकार के मुख्य मंत्री द्वारा दिया गया "शहनशाहे ग़ज़ल अवार्ड और पंजाब लोकसभा के स्पीकर साहब द्वारा दिया गया 'ग़ज़ल हीरो' अवार्ड ,बिहार उर्दू अकेडमी अवार्ड ,उत्तरप्रदेश अकादमी अवार्ड ,दिल्ली से 'ग़ज़ल भास्कर' अवार्ड आदि प्रमुख हैं. अश्क साहब ने लगभग 200 टीवी प्रोग्रामस और 150 से भी अधिक कुल हिन्दो पाक मुशायरों में भी शिरकत की।अश्क साहब की अनोखी गजलों पर निदा फ़ाज़ली , बशीर बद्र , गोपीचंद नारंग, साकी फ़ारूक़ी , वज़ीर आगा , अमजद इस्लाम, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जैसी विश्व प्रसिद्ध उर्दू शख्शियत ने बहुत खूबसूरती के साथ लिखा है। अश्क साहब के लगभग तीन सौ शेयर पूरी दुनिया में मशहूर है।

सफ़र में मुझसे वो लड़ता रहा था 
बिछड़ते वक्त फिर क्यों रो पड़ा था 

न पकड़ी काफ़िले की जिसने ऊँगली
वो बच्चा सबसे आगे चल रहा था 

समुन्दर चीखता उस वक्त पहुंचा 
मकाँ पूरी तरह जब जल चुका था 

उनकी ग़ज़लों और गीतों को मशहूर गायक दिलेर मेहंदी, जसविंदर नरूला, शंकर साहनी, रूपकुमार राठौर, सोनाली राठोर, अल्ताफ राजा, अनुराधा पौडवाल, जावेद अली, अरविंद्र सिंह, घनश्याम वासवानी जैसे गायक आवाज दे चुके हैं । उनके सूफियाना कलाम को कराची में पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल फरीद गुलाम और गायक खलील हैदर ने भी महफिलों में खूब गाया है उनके कई गीतों के वीडियो यू ट्यूब पर भी लोगों की पसंद बने हुए हैं। उन्होंने कुछ फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। परवीन साहब जुलाई 2017 में इस दुनिया-ए-फ़ानी से अचानक रुख़सत हो गए और अपने पीछे शायरी का एक ऐसा नायाब खज़ाना छोड़ गए जिस से आने वाली नस्लें बरसों बरस मालामाल होती रहेंगी।

ज़मीं को या खुदा वो जलजला दे 
निशाँ तक सरहदों के जो मिटा दे 

बुजुर्गों का बस इक कमरा बचा कर
तू जब चाहे पुराना घर गिरा दे 

मैं सूरज तोड़ लाऊंगा नहीं तो 
मुझे ऐ रौशनी अपना पता दे 

मैं आपको इस किताब की प्राप्ति का रास्ता नहीं बता सकता क्यूंकि 1992 में समीक्षा प्रकाशन पठानकोट से छपी इस किताब की कोई प्रति कहीं मिलेगी भी या नहीं कह नहीं सकता। हाँ आप चाहे तो उनके छोटे भाई जनाब 'अनिल पठानकोटी' जो खुद भी बेहतरीन शायर हैं और जिनकी ग़ज़लों की किताब" आवाज़ के साये" का कभी हम यहाँ जिक्र करेंगे,से उनके मोबाईल न 9465280779 पूछ सकते हैं। आप उनकी ग़ज़लों को रेख़्ता की साइट पर जरूर पढ़ सकते हैं। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले हाज़िर हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

सूरज उसको निगल गया
मेरे पास इक जुगनू था 

एक सहारा बस तू है 
एक सहारा बस तू था 

मेरे पास धड़कता दिल 
उसकी जेब में चाकू था

Monday, April 23, 2018

किताबों की दुनिया-174

माली चाहे कितना भी चौकन्ना हो 
फूल और तितली में रिश्ता हो जाता है 

गुलशन गुलशन हो जाने की ख़्वाहिश में 
धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है 

अब लगता है ठीक कहा है ग़ालिब ने 
बढ़ते बढ़ते दर्द दवा हो जाता है 

घर के बाहिरी कोने में एक कमरा है जिसे मैंने अपना ऑफिस बनाया हुआ है , मिलने जुलने वाले वहीँ आते हैं, बैठते हैं, गप्पें मारते हैं, चाय पीते हैं और चले जाते हैं। एक दिन एक सज्जन आये तब मैं किसी किताब पर लिख रहा था, वो बैठे बैठे मुझे देखते रहे फिर अचानक बोले "नीरज जी आपको मिलता क्या है ? " मैंने चौंकते हुए पूछा "किस से क्या मिलता है ?" वो बोले "ये ही किताब के बारे में लिखने से " , मैंने कहा "आनंद" .अब चौंकने की बारी उनकी थी बोले "आनंद ? कैसे ? इसे पढता भी है कोई ". मैंने कहा भाई आनंद मुझे लिखने से मिलता है किसी के पढ़ने या न पढ़ने से नहीं। इसे यूँ समझें जैसे कोई शार्क के साथ तैरने में आनंद लेता है कोई ऊंची जगह से बंगी जम्पिंग करने में तो कोई पैराशूट पहन कर कूदने में , शार्क के साथ तैरने वाले या बंगी जम्पिंग करने वाले या पैराशूट के साथ कूदने वाले लोग दर्शकों के मोहताज़ नहीं होते। वो ये काम सिर्फ अपने आनंद के लिए करते हैं, बस वैसे मैं भी करता हूँ. मुझे लगता है , जरूरी नहीं कि जो मुझे लगे वो सही ही हो ,कि ये बात सभी क्रिएटिव काम करने वालों पर लागू होती है जिनमें शायर भी शामिल हैं. शायर, शायरी अपने आनंद के लिए करते हैं।जो शायर, शायरी आनंद पाने के लिए करता है उसे मकबूलियत अपने आप मिल जाती है। अच्छे शायर कभी पाठक को ध्यान में रख कर ग़ज़ल नहीं कहते ऐसा काम सिर्फ मज़मेबाज़ करते हैं।“

गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा 
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ 

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है 
यही तो सोच कर घबरा रहा हूँ 

ये नादानी नहीं तो और क्या है 'दानिश' 
समझना था जिसे, समझा रहा हूँ 

ग़ज़ल के जानकार तो मक्ते में शायर का नाम पढ़ कर ये पहचान ही गए होंगे कि हमारे आज के शायर हैं 'दानिश' साहब। जी हाँ बिलकुल सही पहचाना ,आज हम शायर 'मदन मोहन मिश्र 'दानिश' साहब की ग़ज़लों की किताब ' आस्मां फ़ुर्सत में है " का जिक्र करेंगे जिसे 2018 में मंजुल पब्लिशिंग हॉउस भोपाल ने प्रकाशित किया था। 'दानिश' साहब के लिए शायरी आनंद प्राप्त करने का जरिया है। अगर किसी दिन कोई मनचाहा शेर शायर के ज़ेहन में आ जाये तो समझिये कि उस का दिन बन जाता है और कहीं पूरी ग़ज़ल ही कागज़ पर उतर जाए तो फिर जो ख़ुशी मिलती है उसकी तुलना उस माँ की ख़ुशी से की जा सकती है जिसने प्रसव पीड़ा के बाद अपने बच्चे का पहली बार मुंह देखा हो। मुझे यकीन है कि 'दानिश' भाई भी इस तरह की ख़ुशी से जरूर रूबरू हुए होंगे।


मेरे चुप रहने पे हंगामा है क्यूँ
ख़ामशी भी मुद्दआ होती है क्या 

दिल में गर अफ़सोस ही न हो तो फिर 
जुर्म की कोई सज़ा होती है क्या 

इंतिहा साँसों की होती हो तो हो 
ज़िन्दगी की इंतिहा होती है क्या 

खूबसूरत शख़्सियत के मालिक "दानिश" का जन्म 8 सितम्बर 1961 को उत्तर प्रदेश के ज़िला बलिया के रामगढ़ गाँव में हुआ था। ये इत्तेफ़ाक़ ही है कि इसी गाँव में हिंदी के मूर्धन्य विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का भी जन्म हुआ था।उनका गाँव छोटा था लेकिन उसके एकमात्र प्राइमरी स्कूल, की लाइब्रेरी बहुत बड़ी थी। हिंदी के लगभग सभी श्रेष्ठ साहित्यकारों की पुस्तकें वहां बहुतयात में थीं। दानिश जी को पढ़ने की रूचि वहीँ से पड़ी। छंद और काव्य के रस का चस्का उन्हें अपने पूज्यनीय दादा जी की सोहबत से लगा जो हर शाम घर के आँगन में गाँव के बच्चों से रामायण की चौपाइयां गवाया करते थे। चूँकि आस पड़ौस में बहुत से मुस्लिम परिवार भी थे लिहाज़ा उर्दू शेरो शायरी के दौर भी चलते, इसके चलते मदन जी का शायरी से परिचय भी बचपन में ही हो गया।

मैं अपनी गूँज को महसूस करना चाहता हूँ 
उतर के मुझमें ,मुझे जोर से पुकारे कोई 

अब आरज़ू है वो हर शय में जगमगाने लगे 
बस एक चेहरे में कब तक उसे निहारे कोई 

है दुःख तो कह लो किसी पेड़ से परिंदे से 
अब आदमी का भरोसा नहीं है प्यारे कोई 

वो ज़िन्दगी ही क्या जो सीधी सपाट राह पर चले। 'दानिश' साहब की ज़िन्दगी भी पेचो ख़म से भरपूर रास्तों पर चली। हालात ऐसे हुए कि उन्हें दसवीं के बाद अपनी पढाई दूरस्त पाठ्यकर्मो याने कॉरेस्पोंडेंस के माध्यम से जारी रखनी पड़ी। ज़िन्दगी की मुश्किलों को उन्होंने सहजता से लिया और उस पर पार पाते चले गए। झुझारू प्रवति के मदन जी ने ज़िन्दगी की तल्खियों पर आंसू नहीं बहाये बल्कि उसे ख़ूबसूरती से अपनी शायरी में ढालने का हुनर सीख लिया। अपनी शुरूआती परवरिश के बारे में वो लिखते हैं कि " उस दौर में ज़िन्दगी इस क़दर सहमी हुई और खामोश नहीं थी। वो सबकी हमजोली हुआ करती थी.....रोज़ रोज़ की तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद भी हँसती-खिलखिलाती, अल्हड़ और अलमस्त। बाग़-बगीचे खेत-खलियान दरिया-झरने हम सब के थे। रिश्ते-नाते इंसानों के थे जातियों और मज़हबों के नहीं। बहुत थोड़े में भी खुश रहने की न जाने कितनी वजहें थीं।" ये ही कारण है कि हमें उनकी शायरी में ज़िन्दगी के सभी रंग दिखाई देते हैं।

मुहब्बतों में नए क़र्ज़ चढ़ते रहते हैं 
मगर ये किसने कहा है कभी हिसाब करो 

तुम्हें ये दुनिया कभी फूल तो नहीं देगी 
मिलें हैं कांटें तो काँटों को ही गुलाब करो 

कई सदायें ठिकाना तलाश करती हुईं 
फ़िज़ा में गूँज रही हैं उन्हें किताब करो

'दानिश' साहब की शायरी पर उर्दू के कद्दावर शायर जनाब निदा फ़ाज़ली साहब ने लिखा था कि " दानिश आज के शायर हैं। आज की ज़िन्दगी से उनका ग़ज़ल का रिश्ता है। जो जिया है उसे ग़ज़ल में दर्शाया है। उन्होंने अपने लिए जिस भाषा का इंतख़ाब किया है वो सड़क पर चलती भी है ,वक़्त के साथ बदलती भी है , चाँद के साथ ढलती भी है-सूरज के साथ निकलती भी है। ये वो भाषा है जो घर की बोली में खनकती है,गली-चौराहों में महकती है, परिंदों की उड़ानों में चहकती है ,दरख़्तों की शाखों में लहकती है और अपने एकांत में अपने ग़म के साथ सिसकती भी है। " उनके इस ग़ज़ल संग्रह को पढ़ते वक्त आप अपने आप को निदा साहब से शत- प्रतिशत सहमत पाएंगे।

मसअला तो इश्क का है ,ज़िंदगानी का नहीं
यूँ समझिये प्यास का शिकवा है ,पानी का नहीं

क्या सितम है वक़्त का, इस दौर का हर आदमी
है तो इक किरदार पर अपनी कहानी का नहीं

अनसुना करने से पहले सोच लो तुम एक बार
ख़ामशी का शोर है ये बेजुबानी का नहीं

वक़्त को क्या हो गया है, क्यों सुनाता है हमें
जंगली फूलों का किस्सा, रातरानी का नहीं

दानिश साहब की ज़िन्दगी में सुकून की घड़ियाँ तब दाखिल हुईं जब उन्हें सन 1992 में उन्हें ऑल इण्डिया रेडियो में स्थाई नौकरी मिल गयी। ऑल इंडिया रेडियों की नौकरी में आने के बाद वो शायरी में पूरी तरह डूब गए।‌ नतीज़तन सन 2005 में उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "अगर" मेधा बुक्स द्वारा प्रकाशित हो कर मंज़र-ऐ-आम पर आयी और बहुत चर्चित हुई। 'अगर' के बाद एक लम्बा वक्फ़ा बीत गया और अब 13 सालों बाद उनकी शायरी की दूसरी किताब 'आसमां फुर्सत में है ' आयी है । इस किताब में दानिश साहब की 83 ग़ज़लें और 9 नज़्में संगृहित हैं। किताब पेपरबैक में और बहुत ख़ूबसूरती से प्रकाशित की गयी है। अधिकतर ग़ज़लें बहुत आसान ज़बान में कही गयी हैं जिनके शेर पढ़ते पढ़ते याद होते जाते हैं। आसान ज़बान में ज़िन्दगी के तजुर्बों को बयां करना एक बेहद मुश्किल हुनर है जो बहुत मेहनत से हासिल होता है।

कोई ये लाख कहे मेरे बनाने से मिला 
हर नया रंग ज़माने को पुराने से मिला 

उसकी तक़दीर अंधेरों ने लिखी थी शायद 
वो उजाला जो चिरागों को बुझाने से मिला 

फ़िक्र हर बार ख़मोशी से मिली है मुझको 
और ज़माना ये मुझे शोर मचाने से मिला 

और लोगों से मुलाकात कहाँ मुमकिन थी 
वो तो ख़ुद से भी मिला है तो बहाने से मिला 

सरल भाषा के छोटे छोटे मिसरों में ज़िन्दगी के रंग भरने का हुनर हर किसी को नहीं आता,हर कोई 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर" वाली कला को नहीं साध पाता उसके लिए बहुत प्रयत्न करने पड़ते हैं। दानिश साहब ने इस असाधारण कला पर सफलता से हाथ आज़माये हैं। ।छोटी बहर के उस्ताद शायर मरहूम जनाब मुहम्मद अल्वी साहब ने उनके बारे में लिखा था कि "दानिश की शायरी पर दिल से वाह निकलती है , उनकी शायरी और मेरी शायरी के लफ़्ज़ों के स्टाइल में कोई फ़र्क नज़र नहीं आता। उनकी शायरी सोचने समझने और कुछ हासिल करने की तहरीक देती है। मैं उनकी शायरी से बहुत मुतास्सिर हूँ ". अल्वी साहब के दानिश साहब की शायरी को लेकर कहे ये लफ्ज़ किसी भी शायर को मिले बड़े से बड़े अवार्ड से ज्यादा महत्व रखते हैं।

वो भी मेरे ही जैसा है 
हँसते-हँसते रो पड़ता है

लिख लो हथेली पर चाहो तो 
इतना सा तो नाम पता है 

जिस को बाँट नहीं सकते हम 
उस ग़म को पीना पड़ता है 

तुम तो चाहे जब आ जाते 
वक्त बता कर सितम किया है

'वक्त बता कर सितम किया है " जैसा मिसरा बताता है कि दानिश किस पाए के शायर हैं। आप इस मिसरे पर घंटों सर धुन सकते हैं ,ऐसा कमाल इस किताब में जगह जगह बिखरा पड़ा है। आप अगर शायरी के प्रेमी हैं तो इस किताब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आप को बार बार ठिठकना पड़ेगा। कभी कोई मिसरा तो कभी कोई शेर आपकी बांह पकड़ के अपने पास बिठा लेगा और आप चाह कर भी नहीं उठ पाएंगे। मदन मोहन 'दानिश' साहब ने शायरी नहीं की, जादू किया है। जादू भी ऐसा जो सर चढ़ कर बोलता है। जनाब सचिन चौधरी इस किताब में लिखते हैं कि "दानिश की शायरी ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ रंगों से सजा हुआ एक ऐसा कोलाज़ है जिसमें हर आदमी को अपना रंग नज़र आता है। यही वजह है कि दानिश की शायरी की खुशबू मुल्क की सरहदों से होती हुई दुनिया के तमाम मुल्कों में फ़ैल चुकी है।अमेरिका, पकिस्तान, दुबई, शारजाह, दोहा, क़तर कर आबूधाबी जैसे कई मुल्कों, कई शहरों के अदबी मुशायरों में दानिश की शिरकत इसकी मिसाल है "

 रंगे दुनिया कितना गहरा हो गया 
आदमी का रंग फीका हो गया 

रात क्या होती है हमसे पूछिए 
आप तो सोए , सवेरा हो गया 

डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गयी 
बस यहीं मज़बूर दरिया हो गया 

दानिश साहब को मध्यप्रदेश उर्दू अकेडमी , जयपुर के भगवत शरण चतुर्वेदी स्मृति और राष्ट्रीय अनामिका साहित्य परिषद् जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड्स से नवाज़ा जा चुका है। उनकी ग़ज़लें अंतरजाल की लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक साइट पर मौजूद हैं। देश के पत्र- पत्रिकाओं में भी वो निरंतर छपते रहते हैं। आप इस किताब को अमेज़न से तो ऑन लाइन मंगवा ही सकते हैं यदि ऐसा न करना चाहें तो मंजुल पब्लिशिंग हॉउस को 'सेकंड फ्लोर, उषा प्रीत काम्प्लेक्स ,42 मालवीय नगर भोपाल-462003 "के पते पर लिख सकते हैं। मंजुल की साइट www. manjulindia.com से भी इसे मंगवाया जा सकता है। मेरा तो आपसे ये ही अनुरोध है कि आप 'मदन मोहन दानिश साहब को, जो ग्वालियर में "ऑल इण्डिया रेडियो" के प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव के पद पर कार्यरत हैं, उनके मोबाईल न. 09425114435 पर संपर्क कर उन्हें इन खूबसूरत अशआरों के लिए भरपूर बधाई दें।

मंदिर-मस्जिद गिरिजाघर और गुरुद्वारा 
लफ्ज़ कई हैं , एक मआनी हम दोनों

ज्ञानी-ध्यानी, चतुर-सियानी दुनिया में 
जीते हैं अपनी नादानी हम दोनों 

तू सावन की शोख घटा, मैं प्यासा बन 
चल करते हैं कुछ मनमानी हम दोनों 

अब जिस शायर के लिए उस्ताद शायर जनाब " शीन काफ़ निज़ाम" ये लिखते हों कि " मदन मोहन दानिश का शुमार हमारे उन शायरों में होता है , जो आपबीती को जगबीती बनाना जानते हैं। यही सबब है कि उनकी शायरी पढ़ने वालों को अच्छी लगती है और सुनने वालों को भी पसंद आती है।" उसके बारे में और क्या लिखा जा सकता है ? अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले आईये पढ़ते हैं दानिश साहब की उस ग़ज़ल के कुछ शेर जिसने उन्हें बुलंदियों पर पहुंचा दिया और हर कहीं लोग उनसे ये ग़ज़ल बार बार सुनने की फरमाइश करते नहीं थकते :

ये कहाँ की रीत है ,जागे कोई सोए कोई 
रात सबकी है तो सबको नींद आनी चाहिए 

क्यों जरूरी है किसी के पीछे-पीछे हम चलें 
जब सफर अपना है तो अपनी रवानी चाहिए 

कौन पहचानेगा दानिश अब तुझे किरदार से 
बेमुरव्वत वक़्त को ताज़ा निशानी चाहिए

Monday, April 16, 2018

किताबों की दुनिया -173

सोये सपनों को जगाने की ज़रूरत क्या है 
बे सबब अश्क बहाने की ज़रूरत क्या है 

तेरा एहसास ही काफ़ी है मेरे जीने को 
तेरे आने कि न आने की ज़रुरत क्या है 

यह फ़िजा तेरी ज़मीं तेरी हवा भी तेरी 
सरहदें इस पे बनाने की ज़रूरत क्या है 

आज अपनी पोस्ट की शुरुआत हम जनाब 'अज़हर जावेद' साहब की बात से करते हैं जो उन्होंने उस किताब के फ्लैप पे लिखी है जिसका जिक्र आज होने जा रहा है। वो लिखते हैं कि " जदीदियत की लहर और मुशायरों की भरमार ने ग़ज़ल का बांकपन बिगाड़ने में बहुत बड़ा किरदार अदा किया है। मगर कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने तग़ज़्ज़ुल को संभाला ही नहीं उजाला भी है,उनमें जाखू 'साहिल' का नाम भी बहुत नुमाया और बेहद अहम हैं। " जाखू 'साहिल' ? अरे ? ये कौन है ?ये नाम तो मैंने कभी पढ़ा सुना नहीं। फिर अपने आप को समझाया कि शायरी का समंदर बहुत विशाल है 'नीरज' बाबू ,अभी तो आप इसकी सतह पर ही तैर रहे हैं ,अभी आपने डुबकी लगाई कहाँ हैं? सच्ची बात है ,सिर्फ सतह पर तैरने भर से समंदर की गहराई का अंदाज़ा थोड़े होता है।

जन्नत मिरे ख्याल की है, मेरी मुन्तज़िर 
 लेकिन मैं हूँ कि जिसको ख़राबे ही रास हैं 

होती हैं मुद्दतों में कभी मेरी उनसे बात 
कहने को घर हमारे बहुत पास पास हैं 

बस है वही ख़ुलूस का परचम लिए हुए 
रहने को जिन के घर न बदन पर लिबास हैं 

अब जब उनके बारे में पता करना शुरू किया तो अपनी कमअक्ली पर शर्म सी आयी क्यूंकि रमेंद्र जाखू 'साहिल' तो बड़े नामी गरामी शायर और कवि निकले। अपने आप को फिर ये कह कर सांत्वना दी कि कोई बात नहीं - 'नहीं' से देर भली या देर आये दुरुस्त आये। तो लीजिये पेश है उनके बारे में पता की गयी जानकारी के साथ साथ उनकी ग़ज़लों की किताब "एक जज़ीरा धूप का" का थोड़ा सा जिक्र। शुरुआत पंजाब के खूबसूरत शहर जालंधर के पास के क़स्बे "नकोदर" से करते हैं ,नकोदर नाम पर्शियन शब्द 'नेकी का दर" से पड़ा है ,जहाँ 17 अप्रेल 1953 को श्री ऊधोराम और श्रीमती करम देवी के यहाँ जिस बालक का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया "रमेंद्र". तब ये किसे पता था कि 'रमेंद्र" नकोदर का नाम आगे जाकर खूब रौशन करने वाला है।"रमेंद्र" ने वहीँ नकोदर के स्कूलों में उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की और फिर आगे पढ़ने के लिए 49 कि.मी. दूर बसे जालंधर चले गए।


 आपने ऐसा मसीहा भी कभी देखा है क्या 
 ज़ख़्म दे कर जो यह पूछे दर्द-सा होता है क्या 

कोई भी उम्मीद उसके घर से बर आती नहीं 
अब खुदा के घर सिफ़ारिश का चलन चलता है क्या 

जाने कैसे लोग थे जो मर मिटे इक बात पर 
अब किसे मालूम दस्तूर-ऐ-वफ़ा होता है क्या 

कॉलेज के दिनों में जब वो मात्र 17 साल के थे उन्हें कवितायेँ और नज़्में कहने और संगीत का शौक चढ़ा। उन्हें लगता था जैसे कवितायेँ और नज़्में उनसे कान में हलके से आ कर कह रही हैं कि हमें कागज़ पर उतारो। कॉलेज में लगातार तीन सालों तक उन्हें कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिलता रहा। काव्य की रसधार जो उनमें उस समय से बही वो अभी तक अबाध गति से बहे जा रही है। भारतीय प्रशासनिक अधिकारी की परीक्षा में वो उत्तीर्ण हुए और मसूरी ट्रेनिंग पर चले गए जहाँ उनकी मुलाकात शकुंतला जी हुई जो अंग्रेजी की लेक्चररशिप की नौकरी छोड़ कर के प्रशासनिक अधिकारी की परीक्षा पास कर मसूरी में ट्रेनिंग पर आयी हुई थीं। शंकुन्तला जी उनसे एक साल सीनियर थीं। मुलाकातें दोस्ती में बदलीं, दोस्ती प्यार में और प्यार शादी में। शकुंतला जी की प्रेरणा से शादी के लगभग 10 साल बाद उन्होंने ग़ज़लें कहनी शुरू कीं।

जाने कितनी सरहदों में बट गई है ज़िन्दगी 
बस ज़रा-सी बात पर खुद से लड़ाई हो गई 

भूल जाना हादसों को भीड़ का दस्तूर है 
एक पल में बात सब आई गई सी हो गई

क्या मिलेगा तुझको 'साहिल' रोने धोने से यहाँ 
थी समन्दर ही की कश्ती जो उसी में खो गई 

साहिल साहब के बारे में मशहूर ग़ज़लकार जनाब 'बशीर बद्र' साहब ने इस किताब में लिखा है कि "जाखू ज़िम्मेदार ज़हीन और खूबसूरत शख्सियत के मालिक हैं। ज़िम्मेदार और भरपूर ज़िन्दगी जीना प्रेक्टिकल ग़ज़ल है। ग़ज़ल जी लेने के बाद ग़ज़ल लिख लेना बहुत दुश्वार नहीं होता। आप ज़रा सी देर साहिल की ग़ज़लों के साथ रहिये फिर उनकी ग़ज़लों के कितने ही मिसरे ज़िन्दगी के सुख-दुःख की बहुत खूबसूरत इमेज बनकर आपके साथ रहेंगे। साहिल ग़ज़ल और नज़्म के सच्चे शायर हैं। आज की ग़ज़ल का एक खूबसूरत नाम जाखू साहिल है" इस किताब को पढ़ते वक्त बशीर बद्र साहब की उक्त पंक्तियाँ अक्षरशः सच्ची लगती हैं। पहले जाखू साहब हिंदी में ग़ज़लें लिखते थे लेकिन धीरे धीरे उन्हें लगा कि बिना उर्दू सीखे अच्छी ग़ज़ल नहीं कही जा सकती इसलिए उन्होंने बाकायदा उर्दू पढ़ने लिखने की तालीम हासिल की और फिर उर्दू में ग़ज़लें कहने लगे। उन्होंने सिद्ध किया कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती सिर्फ आपने सीखने ज़ज़्बा होना चाहिए बस।

शिकवा ही क्या जो उम्र भर राहत मिली नहीं 
जैसी भी है ये ज़िन्दगी हरगिज़ बुरी नहीं 

तनक़ीद आपकी तो बहुत खूब है जनाब 
लेकिन किताब आपने शायद पढ़ी नहीं 

जब दोस्त कह दिया है तो फिर खामियां न देख
टुकड़ों में जो क़ुबूल हो , वो दोस्ती नहीं 

मैं इतना खो गया था खुदाओं की भीड़ में 
असली खुदा पे मेरी नज़र ही पड़ी नहीं 

ये तो आपको भी पता होगा कि शायरी महज़ उर्दू ज़बान सीखने भर से नहीं आ जाती उसके लिए आपको ये पता होना चाहिए कि आपके एहसास किस लफ्ज़ की सवारी करके दिल पर दस्तक देने में कामयाब होंगे। कुछ लोगों में ये हुनर जन्मजात होता है वो लोग उस्ताद कहलाते हैं जिनके पास ये हुनर नहीं होता वो उस्ताद की शरण में जाते हैं।आज सोशल मिडिया के इस दौर में आपको उस्ताद आसानी से मिल जायेंगे लेकिन जब मोबाईल और इंटरनेट का ज़माना नहीं था तब उस्ताद को ढूंढ निकालना टेढ़ी खीर हुआ करता था ,खास तौर पे सही उस्ताद का मिलना तो किस्मत की बात होती थी। रमेंद्र जाखू जी किस्मत के धनी थे तभी उन्हें जनाब "गोपाल कृष्ण" 'शफ़क' जैसे गुणी उस्ताद मिले जिन्होंने उनका शायरी की तकनीक के साथ-साथ ग़ज़ल की ख़ूबसूरती से परिचय करवाया।शायर की असली परख उसके द्वारा छोटी बहर में कही ग़ज़लों से होती है क्यूंकि ये गागर में सागर भरने जैसा दुष्कर काम होता है। छोटी बहर में कही जाखू जी की ग़ज़लें पढ़ कर पता चलता है कि उन्होंने अपने उस्ताद जी की रहनुमाई में कितना कुछ सीखा है :

ख़फ़ा ही सी रहती है क्यों मुझसे अक्सर 
बता ज़िन्दगी क्या मैं इतना बुरा हूँ 

मुझे गैर से कोई शिकवा नहीं है 
मैं अपनी अना का सताया हुआ हूँ 

हवस का जुनूं है मुहब्बत पे भारी 
हैं जिस्मों के मेले जिधर भी गया हूँ 

जाखू साहब की शायरी में एक रवानी है,सादगी है सरलता है जो ग़ज़ल गायकों को अपनी और खींचती है। उनकी शायरी आम आदमी की ज़िन्दगी के एहसासात और मुश्किलात को छू कर गुज़रती है और ज़िन्दगी के बहुत पास पास है। उनकी ग़ज़लें पढ़ कर जब आम पाठक ही गुनगुनाने लगता है तो गायकों की क्या बात करनी। ये ही कारण है कि उनकी ग़ज़लें "ग़ुलाम अली" , जगजीत सिंह ", "पीनाज़ मसानी" , "राजकुमार रिज़वी" "रूप कुमार राठौड़" और "परवीन मेहदी" जैसे श्रेष्ठ ग़ज़ल गायकों ने गायी हैं। साहिल साहब खुद जब मुशायरों में अपनी ग़ज़लें तरन्नुम से पढ़ते हैं तो श्रोता झूम-झूम जाते हैं। देश ही नहीं लाहौर, दुबई,अबुधाबी,मस्कट और कतर जैसे दूसरे मुल्कों में जहाँ उर्दू बोली या समझी जाती है साहिल साहब के चाहने वालों की कमी नहीं।

 मज़हब हज़ारों बन गये आदम की ज़ात के 
रस्में बदल के रह गईं, फितरत मगर नहीं 

इस दौरे खुद परस्ती में बदली है वो हवा 
अपनों से खौफ है मुझे गैरों का डर नहीं 

'साहिल' मुहब्बतों की रविश हो गई तमाम 
अब राह-ए-आशिक़ी में वफ़ा का शजर नहीं 

भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधीन हरियाणा सरकार में वित्तायुक्त एवं प्रधान सचिव के पद से सेवामुक्त होने पर रमेंद्र जाखू साहब ने हरियाणा सरकार के अनुरोध पर उन्होंने हरियाणा उर्दू अकेडमी के सचिव पद पर तीन वर्षों तक सफलता पूर्वक कार्य किया। उन्हें ,उनकी साहित्य सेवाओं के लिए अनेको पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए जिनमें सन 2003 में मिला "बलराज साहनी अवार्ड और 2012 में मिला 'सरस्वती सम्मान" प्रमुख है। एक जज़ीरा धूप का" जाखू साहब की ग़ज़लों की दूसरी और यूँ तीसरी किताब है। इस से पूर्व सन 1987 में उनकी कविताओं का संग्रह "शब्द सैलाब" और सन 2001 में प्रकाशित पहला ग़ज़ल संग्रह " मेरे हिस्से की ग़ज़ल " साहित्यिक जगत में धूम मचा चुका है. उसी साल याने 2001 में ही उनकी चुनिंदा 12 ग़ज़लों का ऑडियो संग्रह बहुत लोकप्रिय हुआ था। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप आधार प्रकाशन पंचकूला हरियाणा को aadhar_prakashan@yahoo. com पर मेल कर सकते हैं या नेट पर ढूंढ सकते हैं , जाखू साहब का नंबर मुझे पता नहीं इसलिए आप तक पहुँचाने में असमर्थ हूँ ,अगर किसी पाठक को पता हो तो मुझे बताये ताकि मैं इस पोस्ट में उसे दूसरों के लिए जोड़ सकूँ। चलते-चलते मैं आपको उनकी एक ग़ज़ल के शेर पढ़वाता चलता हूँ :

 कोई साजिश कहीं हुई होगी 
आग यूँ ही नहीं लगी होगी 

ज़र्द पत्तों से भर गया आँगन 
कोई उम्मीद मर गयी होगी 

कश्मकश कब तलक छुपी रहती 
 बात हद से गुज़र गयी होगी

Monday, April 9, 2018

किताबों की दुनिया - 172

उसे तो जाना था , वो जा चुकी, है शिकवा क्या
वो कितना खींच भी सकती थी मेरी व्हील चेयर 

वो जिसको पाँव के नीचे से कब का खींच लिया 
बना रहा हूँ मैं अब भी उसी ज़मीन पे घर

फ़िराक़ में था वो दीवारो-छत बनाने की
मैं फिर भी कह नहीं पाया कि कोई नींव तो धर 

आज के दौर में जो चाहो वो जानकारी सहजता से उपलब्ध है। कुछ भी अब अनजाना नहीं रह गया है ,भला हो इंटरनेट के गूगल महाराज का जिसने हर बात की गोपनीयता को सार्वजनिक करने का ठेका ले रखा है -वो भी मुफ़्त में। ऐसे में आपको 13 सितंबर 1879 को बदायूं जिले के एक मोतबर शायर का नाम मालूम न हो ऐसा हो ही नहीं सकता जब तक कि आपमें उसे जानने की रूचि ही न हो। लेकिन मैं मान के चलता हूँ कि 26 अगस्त 1940 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़्सत फ़रमाने वाले उर्दू के महानतम शायरों में से एक ,जिनका ये शेर "मौत का इंतज़ार बाक़ी है; आप का इंतज़ार था,न रहा" आज भी उतना ही मक़बूल जितना कि ये आज से करीब 100 साल पहले था,ये शेर जनाब ज़नाब "फ़ानी बदायूनी " का है जिनका नाम तो आपने सुना ही होगा। क्या कहा ? नहीं सुना ? ओह !! कोई बात नहीं अब सुन लिया ना , लेकिन इनकी शायरी की बात हम आज नहीं करने वाले , कभी करेंगे , लेकिन आज नहीं , तो फिर आज उनका जिक्र क्यों ? बताते हैं , बताते हैं सब्र तो कीजिये :

चाँद तारों को पुकारूंगा मैं अपनी छत से 
जो भी चाहे मेरी आवाज़ में शामिल हो जाय 

धूप बिखरी है जो सड़कों पे उठा लो इसको 
कल इसे देखना शायद यहाँ मुश्किल हो जाय 

सर झुकाये हुए बैठा हूँ मैं कब से 'फ़ानी" 
हो जिसे शौक़ वो आ के मेरा क़ातिल हो जाय 

दरअसल 'फ़ानी' का जिक्र आते ही जो नाम ज़ेहन में गूंजा वो 'फ़ानी बदायूनी' साहब का ही था इसलिए उनका जिक्र करना पड़ा। सोच लिया है कि बात तो आज हम 'फ़ानी' साहब की ही करेंगे लेकिन "फ़ानी बदायूनी" की नहीं "फ़ानी जोधपुरी" की, जो हमारे पहले वाले 'फ़ानी' साहब से पूरे 106 सालों के बाद याने 24 फ़रवरी 1985 को जोधपुर में पैदा हुए। इन 106 सालों में पूरी दुनिया बदल चुकी है ,इंसान की सोच भी बदल चुकी है लेकिन इंसान के सुख-दुःख, परेशानियां, फ़ितरत आदि में कोई खास बदलाव नहीं आया है। आपके व्हील चेयर पर बैठे होने पर पुराने ज़माने वाली महबूबा आपको छोड़ के नहीं जाती इसकी कोई गारंटी नहीं है ,ये हो सकता है कि सामाजिक दबाव के चलते वो जबरदस्ती मन मार के आपकी चेयर का हैंडल पकडे रहती जबकि आज की महबूबा हैंडल छोड़ने का निर्णय बिना दबाव के ले सकती है और महबूब भी प्रेक्टिकल सोच रखते हुए उसे जाने दे सकता है। ये उस बदलाव का फल है जो इंसानी फितरत में आया है। इंसान अब दिल से कम दिमाग से ज्यादा काम लेने लगा है।

ऋषि दधीचि सा आओ सलूक़ मुझसे करो 
जो तुमको चाहिए भरपूर मेरे अंदर है 

बनाता रहता है बेचैनियों के महलों को 
जो तेरी याद का मज़दूर मेरे अंदर है 

न कोई चेहरा न साया न अक्स है 'फ़ानी'  
तो किसकी मांग का सिन्दूर मेरे अंदर है 

'फ़ानी बदायूनी' और 'फ़ानी जोधपुरी' में सिर्फ फ़ानी ही कॉमन है बाक़ी दोनों की शायरी में ज़मीन आसमान का अंतर है। फ़ानी जोधपुरी की शायरी के तेवर कुछ नए से हैं। रिवायत से दूर लेकिन हक़ीक़त के पास। मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की सेकेट्री जनाब 'नुसरत मेहदी' साहिबा ने, जो खुद भी देश की अव्वल दर्ज़े की शायरा हैं और जिनकी किताब "मैं भी तो हूँ " का जिक्र हम इस श्रृंखला में बहुत पहले कर चुके हैं,'फ़ानी जोधपुरी' साहब की किताब "पानी बैसाखियों पे ' जिसका हम आज जिक्र कर रहे हैं, की भूमिका में लिखा है कि "कोई भी फ़नकार अपने ज़माने का आईना होता है उसे जो कुछ उस आईने में दिखाई देता है उसे वो अपने फ़नकारा अंदाज़ में पेश करता है। इस तरह कोई भी शायर अपने कलाम में ज़िन्दगी के रोज़मर्रा के मसाइल के साथ समाज में आई गिरावट का ज़िक्र करने के साथ साथ उनके इस्लाह की तदबीरों को भी अपने अंदाज़ में पेश करता है। उर्दू ज़बान को सलासत आमफ़हम होने और हरदिल अज़ीज़ बनाने के हवाले से एक नयी शक्ल देना भी शायर अपना अख़लाक़ी फ़र्ज़ समझता है। फ़ानी जोधपुरी ने हुस्नो-इश्क के साथ अपने मुआशरे की बेराहरवी का बहुत सलीके और हुनरमंदी से अपने अशआर में ढाला है


बदल डालूंगा मैं जब खोखले रस्मो-रिवाज़ों को 
मेरे अंदर बसी कमज़ोर औरत जीत जाएगी 

मुझे इक डर सताता है सदा बाज़ार जाने से 
मेरे बटुवे से मेरी हर जरुरत जीत जाएगी 

हिफ़ाज़त से नहीं रक्खा अगर तहज़ीब को 'फ़ानी' 
ज़हानत हार जाएगी, जहालत जीत जायेगी 
ज़हानत =विद्व्ता, जहालत=अज्ञानता 

शायद अप्रेल या जून 2013 में "लफ्ज़" के पोर्टल पर फ़ानी जोधपुरी को पहली बार पढ़ने का मौका मिला था उनके ये शेर मुझे अभी तक याद हैं " फक़त इक दायरे में घूमती है , मगर क्या वक़्त बदला है घड़ी से " और "मैं ही अपनी वफ़ा का क़ैदी हूँ,वो ज़मानत पे छूट जाती है" .जब लोगों से उनके बारे में पता किया तो मालूम पड़ा कि हज़रत सिर्फ 28 साल के युवा है, जोधपुर से तअल्लुक़ रखते हैं अंग्रेजी में एम् ऐ किये हुए हैं और उर्दू-हिंदी में बहुत मयारी शायरी करते हैं। मात्र 28 साल की उम्र में ऐसे उस्तादाना शेर ? फिर ख़्याल आया की प्रतिभा उम्र की मोहताज़ नहीं होती। आपको तो पता ही होगा कि शकेब जलाली ने उर्दू शायरी को मात्र 32 साल की अपनी अल्प उम्र में जिस तरह से मालामाल किया है वैसा करने में लोगों को सदियाँ लग जाती हैं. युवाओं को पढ़ना और उनके बारे में लिखना मुझे बहुत पसंद है क्यूंकि अब ये प्रतिभावान युवा ही शायरी का मुस्तकबिल संवारने का हौंसला रखते हैं और अपनी बात को नए मौलिक अंदाज़ में पेश करते हैं। सोचा था कि इस होनहार शायर की कोई किताब कभी मंज़र-ऐ-आम पे आयी तो जरूर लिखूंगा। किताब आयी लेकिन मुझे पता ही नहीं चला , लेकिन जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है इसलिए जो पहले होना चाहिए था वो अब हो रहा है :

मैं लैम्प पोस्ट का मध्दम सा बल्ब हूँ जिस पर 
तमाम शहर की रातों की ज़िम्मेदारी है 

मैं ख़्वाब, अक्स, नज़रों में चाहे जो भी हूँ 
मुझे संभालना आँखों की ज़िम्मेदारी है 

दवा को जिस्म के बीहड़ में डाल आया हूँ 
अब इसके बाद दुआओं की ज़िम्मेदारी है 

लैम्प पोस्ट का बल्ब और जिस्म के बीहड़ जैसे लफ्ज़ उर्दू शायरी के लिए नए हैं और नया है कहन का ये दिलचस्प अंदाज़। मैंने देखा कि ,फ़ानी की सभी 85 ग़ज़लों में, जो इस किताब में संग्रहित हैं , उनके लहज़े की ये जादूगरी नज़र आती है। मासूम से चेहरे और दिलकश व्यक्तित्व के मालिक सरताज अली रिज़वी उर्फ़ फ़ानी जोधपुरी (जैसा वो फोटो और वीडियो में दिखाई देते हैं ) ये मानते भी हैं कि "आदमी जब होशियार हो जाता है तो रचना की मासूमियत पर खतरा हो जाने का डर भी रहता है। इसलिए रचना के लिए लेखक के भीतर एक बच्चा जरूरी है..."हम दुआ करते हैं की उनके भीतर का बच्चा कभी बड़ा न हो ताकि वो अपनी लाजवाब शायरी से हमें बरसों बरस सराबोर करते रहें। उस्ताद शायर जनाब 'शीन काफ़ निज़ाम" साहब के फ़ानी साहब के लिए कहे ये लफ्ज़ किसी सर्टिफिकेट या पुरूस्कार से कम नहीं है " कि इल्म की उतरन और अखबार की कतरन शायरी नहीं होती फ़ानी की शायरी में चिंगारियां-शरारे हैं। फ़ानी में सीखने का हौसला है "
"
किसी की ख़ुश्बू कॉलर पे मैं जब घर ले के आता था 
मुझ ही से रात भर फिर मेरा कमरा बात करता था 

किसी की उँगलियाँ बालों से मेरे बात करती थीं 
मेरी बातों में जब तक एक बच्चा बात करता था 

मेरी आँखों में पलते ख़्वाब पढ़ लेता था जब भी वो 
तो लब खामोश हो जाते थे, झुमका बात करता था 

ये जो फ़ानी की शायरी में अजीब सी मिठास है ये जोधपुर में रहने के कारण है ,आप में इस बात को कितने लोग जानते हैं ये मेरे लिए कहना मुश्किल है कि जोधपुर में बोली जाने वाली राजस्थानी भाषा की मिठास की तुलना आप बंगाली या मैथिलि से कर सकते हैं , जोधपुरी भाषा वो भाषा है जिसमें दुश्मन को भी सम्मान से पुकारा जाता है. उनकी शायरी में जो नए मिज़ाज़ के तेवर हैं वो ' फ़ानी' की जड़ों याने ददिहाल और ननिहाल से आये हैं, जो इलाहबाद से ताल्लुक रखते हैं। उनकी वालिदा ,जिनकी मौजूदगी में फ़ानी हमेशा बेफ़िक्र बच्चे से बने रहे ,ने उन्हें ज़िन्दगी ज़िंदादिली से जीने का हुनर सिखाया और सिखाया कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में हौंसला बरकरार रखा जा सकता है। उनकी बड़ी बहन ने उन्हें सलीके से जीना सिखाया। फ़ानी की शायरी को संवारने में उनके उस्ताद मोहतरम जनाब 'हसन फतेहपुरी' का बहुत बड़ा हाथ है। उस्ताद ने सिखाया कि कैसे कलम की छैनी-हथौड़ी से लफ़्ज़ों के पत्थर तराश कर ग़ज़ल का हसीन और दिलकश मुजस्समा गढ़ा जाता है:

 ये दिन और रात की आवारगी का है सबब इतना 
सफ़र इक तयशुदा है और तैयारी से बचना है 

सज़ाएं काटते हैं अनगिनत मासूम खत जिसमें 
मुझे लोहे की उस बदरंग अल्मारी से बचना है 

बितानी है मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरह 'फ़ानी' 
गुज़िश्ता दौर की बासी समझदारी से बचना है 

प्रसिद्ध ब्लॉगर, शायर और आलोचक जनाब के.पी अनमोल साहब ने अपने ब्लॉग पर फ़ानी साहब के बारे में लिखा है कि " यह नौजवान शायर इतनी कमसिनी में भी ऐसी ज़हीन बातें कह जाता है कि एकबारगी इसकी उम्र पर शक़ होने लगता है। लेकिन यह सच है कि अनुभव उम्र के आंकड़ों से नहीं बल्कि दुनिया में खाये धक्कों से आता है। इस शायर ने कम उम्र में ही कई बड़े-बड़े धक्के खा लिये हैं कि इसे दुनिया के फ़ानी होने का अंदाज़ा बखूबी हो गया है। फ़ानी जोधपुरी की ग़ज़लों को पढ़कर यह सहज ही समझा जा सकता है कि ख़ुदा ने इन्हें दुनिया को देखने/समझने की कितनी बारीक नज़र अता की है। इनकी शायरी में एक नयापन है जो इन्हें आधुनिक ग़ज़लकारों की पहली सफ (पंक्ति) में खड़ा करने में सक्षम है।"

खुद पे नाज़िल तुझे करवा लिया आयत की तरह 
मैं न कहता था कि ईज़ाद करूँगा तुझको 
ईज़ाद =आविष्कार 

नब्ज़ चलती है मेरी मुझ में तेरे होने से 
क्या मैं पागल हूँ जो आज़ाद करूँगा तुझको 

एक चेहरे के सिवा कुछ न दिया 'फ़ानी' को 
ज़िन्दगी फिर भी बहुत याद करूँगा तुझको 

"पानी बैसाखियों पे" फ़ानी साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है इस से पहले उनका मजमुआ " आसमां तक सदा नहीं जाती " सन 2016 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है। शेरो-अदब की ख़िदमद के लिए फ़ानी साहब को 'दलित साहित्य अकादमी अवार्ड' ,' निशाने-लतीफ़ सम्मान' 'हिंदुस्तान गौरव सम्मान ' और 'भारतेंदु सम्मान' से नवाज़ा जा चुका है। इसके अलावा देश भर में फैले उनके हज़ारों प्रशंसकों का प्यार सबसे बड़ा सम्मान है। रेडियो और दूरदर्शन के प्रोग्राम्स में शिरकत करने के अलावा उन्हें देश भर में होने वाले ऑल इण्डिया मुशायरों में बहुत एहतराम से बुलाया जाता है। मुल्क की सभी आला उर्दू-हिंदी के रिसालों और अखबारों में उनका कलाम छपता रहता है। इतनी कम उम्र में इतनी शोहरत किसी का भी दिमाग ख़राब कर सकती है लेकिन फ़ानी ज़मीन से जुड़ा शायर है उसे पता है कि जरा सी हवा से भरे, आसमान में उड़ने वाले, गुब्बारे हवा के निकलते ही ज़मीन पे आ गिरते हैं.

अपने अतराफ़ में कुछ फूल से बच्चे रखना 
ज़िन्दगी कितनी है आसान समझ जाओगे 
अतराफ़ = आसपास 

कांच के सामने रख देना किसी पत्थर को 
फिर ये जीवन का घमासान समझ जाओगे

ख़्वाब को अपने जला देना किसी की खातिर 
तुम सुलगता हुआ लोबान समझ पाओगे

बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित इस किताब के बारे में लिखने का उद्देश्य फ़ानी साहब की शायरी का आंकलन करना नहीं है बल्कि उनके कुछ खूबसूरत अशआर आप तक पहुँचाना है। शायरी पसंद करना न करना हर व्यक्ति की निजी रूचि पर निर्भर करता है। अपनी पसंद को किसी पर आरोपित करना ठीक नहीं होता। आप से गुज़ारिश है कि आप ये किताब बोधि प्रकाशन से जनाब मायामृग साहब को 9829018087 पर फोन करके मंगवाएं और जनाब फ़ानी जोधपुरी साहब को उनके लाजवाब कलाम के लिए 9829270098 पर फोन करके बधाई दें। मुझे पूरी उम्मीद है कि "दस्तख़त पत्रिका" जिस के कि वो संपादक हैं ,के काम से फुर्सत निकाल कर आपसे जरूर बात करेंगे। चलते चलते आपको पढ़वाता हूँ ,उनकी कमाल की ग़ज़लों में से किसी एक ग़ज़ल के ये शेर :-

प्यास तक दौड़ के नहीं आता 
पानी बैसाखियों पे चलता है 

वहशतें, तीरगी, अकेलापन 
चाँद कितने सवाल करता है 

ये पतंगे तो खुद लिपटती हैं 
पेड़ तो अपनी हद में रहता है   

Monday, April 2, 2018

किताबों की दुनिया - 171

चलिए एक बार फिर से अतीत में झांकते हैं। अतीत, जहाँ शायरी के उस्ताद हैं, कहन का निराला अंदाज़ है, लफ़्ज़ों का जादू है, एहसास की गहराई है, रिवायत का नशा है. आज के युवाओं को पता होना चाहिए कि पहले शायरी कैसी थी अब कैसी है। हिंदी के पाठक उर्दू के पुराने शायर जैसे ग़ालिब, मीर, दाग, जफ़र, मज़ाज़, इक़बाल, फ़िराक़ आदि के नामों से बखूबी वाकिफ़ हैं लेकिन शायरी के लम्बे इतिहास में ऐसे बेमिसाल शायरों की कमी नहीं जिन्हें हिंदी के पाठकों ने अधिक पढ़ा सुना नहीं। नाम सुना भी हो तो उन्हें पढ़ा नहीं होगा क्यूंकि ऐसे शायरों का कलाम आसानी से पढ़ने को नहीं मिलता। इस श्रृंखला में ऐसे शायरों ज़िक्र होता रहा है उसी कड़ी को आज आगे बढ़ाते हैं :

मरने की दुआएं क्यों माँगूँ जीने की तमन्ना कौन करे 
ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख्वाइशे-दुनिया कौन करे 

जब कश्ती-साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी 
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे 

जो आग लगाई थी तुमने उसको तो बुझाया अश्कों ने  
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे

शायद आपको याद होगा कुछ इसी तरह के ज़ज्बात 1972 में आयी फिल्म "अमर प्रेम " में गीतकार आनंद बक्शी साहब ने "चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये..."गीत में पिरोये थे जो खूब मशहूर हुआ था. हो सकता है कि मेरी सोच गलत हो लेकिन मुझे ग़ज़ल ये शेर पढ़ते वक्त वो ही गाना याद आया है। खैर !!ये ग़ज़ल सन 1934 में याने आज से लगभग 84 साल पहले लाहौर से छपने वाले मासिक रिसाले "हुमायूँ" में जब प्रकाशित हुई तो एक-दम से पाठक और लेखक सभी चौंक उठे और उस शायर की गणना अचानक आधुनिक काल के प्रथम श्रेणी के शायरों में होने लगी। दिलचस्प बात ये है कि इस से पहले जो पत्र-पत्रिकाएं इस शायर की रचनाओं को कूड़ा पात्र में डाल रहीं थी वो ही लाइन लगा कर उसका कलाम छापने को लालाइत रहने लगीं। और तो और इस ग़ज़ल को 1948 में आयी हिंदी फिल्म 'जिद्दी' में किशोर कुमार की आवाज़ में देवआनंद साहब पर फिल्माया गया था।

इस तरफ़ इक आशियाने की हक़ीक़त खुल गयी 
उस तरफ़ इक शोख़ को बिजली गिरना आ गया 

रो दिए वो खुद भी मेरे गिरया-ए-पैहम पे आज 
अब हक़ीक़त में मुझे आंसू बहाना आ गया 
गिरया-ए-पैहम=लगातार रोने पर 

मेरी ख़ाके-दिल भी आखिर उनके काम आ ही गई 
कुछ नहीं तो उनको दामन ही बचाना आ गया 

हमारे आज के शायर जनाब "मुईन अहसन ' जज़्बी' जिनकी रचनाओं का संकलन श्री प्रकाश पंडित ने "राजपाल ऐंड संस" की लोकप्रिय सीरीज़ "उर्दू के लोकप्रिय शायर" के अंतर्गत किया था, का जन्म 21 अगस्त 1912 में जिला आजमगढ़ के पास के एक गाँव 'मुबारकपुर" में हुआ। उनके दादा डाक्टर अब्दुल गफ़ूर खुद शायर थे और 'मतीर' उपनाम से ग़ज़लें कहते थे। घर के साहित्यिक माहौल में 'जज़्बी' ने मात्र नौ-दस साल की उम्र से तुकबंदी शुरू कर दी और पन्द्रह-सोलह की उम्र से तो बाकायदा मयारी ग़ज़लें कहने लगे। बचपन में ज़िन्दगी जज़्बी साहब पर बहुत मेहरबान नहीं रही। शायरी के शौक ने पढाई से दिल हटा दिया नतीजा ये निकला कि जनाब ने मेट्रिक पास करने में चार साल लगा दिए। वो ही हुआ जो अक्सर ऐसे हालात में होता है -पिता नाराज़ और सौतेली माँ ताने मार मार कर जीना हलकान करने लगी। जब सब्र की इंतिहा हो गयी तो हुज़ूर घर से भाग खड़े हुए। 


अपनी निगाहे-शौक को रुसवा करेंगे हम 
हर दिल को बेक़रारे-तमन्ना करेंगे हम 

ऐ हुस्न हमको हिज़्र की रातों का ख़ौफ़ क्या
तेरा ख्याल जागेगा सोया करेंगे हम 

ये दिल से कह के आहों के झोंके निकल गए 
उनको थपक-थपक के सुलाया करेंगे हम 

घर से भागना जितना आसान है उतना ही भाग कर ज़िंदा रहना मुश्किल। ग़ालिब के शेर को नकारते हुए उन पर मुश्किलें भी इतनी पड़ीं कि आसान नहीं हुई। उन्होंने ऐसे दिन भी देखे जब उन्हें सुबह की चाय तो किसी तरह मिल जाती लेकिन दोपहर के खाने के लिए पांच-छै मील पैदल चल कर किसी मित्र-मुलाकाती का मुंह देखना पड़ा और न जाने कितनी रातों को फाकों की नौबत आई। ट्यूशनें करके और पेट पर पत्थर बांधकर उन्होंने आगरा के सेंट जोंस कॉलेज से इंटर किया। स्कूल के दिनों और फिर उसके बाद भी जनाब गफ़्फ़ार और सादिक़ के रूप में उन्हें उस्ताद मिले। गफ़्फ़ार साहब उनके लिखे को देखते सुधारते और फिर सादिक़ साहब को दिखाते जो थोड़ी फेर बदल से उनकी शायरी को चमका देते। स्कूल के बाद उन्होंने आगरा के ही एंग्लो अरेबिक कॉलेज में दाखिला लिया और वहीँ से बी.ऐ की डिग्री हासिल की।

ऐश से कुछ खुश हुए क्यों ग़म से घबराया किये
ज़िन्दगी क्या जाने क्या थी और क्या समझा किये 

वो हवाएं, वो घटायें, वो फ़ज़ा वो उनकी याद 
हम भी मिज़राबे-अलम से साज़े-दिल छेड़ा किये 
मिज़राबे-अलम =दुःख रूपी सितार बजाने का छल्ला 

काट दी यूँ हमने 'जज़्बी' राहे मंज़िल काट दी 
गिर पड़े हर गाम पर, हर गाम संभला किये 
गाम=डग 

कॉलेज के दिनों में उनकी दोस्ती लाजवाब शायर मज़ाज़ से हुई और फ़ानी बदायूनी से पहचान। इन दोनों के सानिध्य से जज़्बी साहब की शायरी में सुधार आया। एक महफ़िल में उन्हें जनाब जिगर मुरादाबादी साहब ने कलाम पढ़ते सुना और खुश हो गए। वो उन्हें जनाब मैकश अकबराबादी से मिलवाने ले गए। मैकश साहब की रहनुमाई में जज़्बी साहब की शायरी बराबर संवरती रही। उनका व्यक्तिगत ग़म सामूहिक ग़म में परिवर्तित हो गया।सन 1941 में जज़्बी साहब अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने चले गए और वहां से एम् ऐ की डिग्री हासिल की। फ़ाक़ा मस्ती और शायरी का दौर साथ साथ चलता रहा।

रूठने वालों से इतना कोई जाकर पूछे 
खुद ही रूठे रहे या हमसे मनाया न गया 

फूल चुनना भी अबस, सैर-बहारां भी फ़जूल 
दिल का दामन ही जो काँटों से बचाया न गया 
अबस=व्यर्थ 

उसने इस तरह मुहब्बत की निगाहें डालीं 
हमसे दुनिया का कोई राज़ छुपाया न गया 

अलीगढ़ में पढाई करने के दौरान उनका लख़नऊ आना जाना भी लगा रहा जहाँ उनकी मुलाकात अली सरदार ज़ाफ़री और सिब्ते हसन साहब से हुई। इन लोगों ने उनका परिचय प्रगतिवादी विचारधारा से करवाया जिसके बाद जज़्बी अलीगढ़ में एम.ए. के दौरान आंदोलन के सक्रिय सदस्यों में गिने जाने लगे. एम.ए. करने के बाद कुछ अर्से तक जज़्बी ने माहनामा ‘आजकल’ में सहायक सम्पादक के रूप में अपनी सेवाएँ दीं. 1945 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के रूप में नियुक्ति हो गयी जहाँ वह अंतिम समय तक विभन्न पदों पर रहे. अलीगढ़ में लगी इस नौकरी ने उनके माली हालात अच्छे कर दिए और ज़िन्दगी में कुछ सुकून के पल हासिल होने लगे। नौकरी लगने के बाद उन्होंने अपनी बूढ़ी बीमार सौतेली मां को ,जिसने बचपन में जज़्बी साहब को बहुत सताया था ,अपने पास ले आये और उनकी खूब सेवा की।

शिकवा ज़बान से न कभी आशना हुआ
नज़रों से कह दिया जो मेरा मुद्दआ हुआ 

अल्लाह री बेखुदी कि चला जा रहा हूँ मैं
मंज़िल को देखता हुआ कुछ सोचता हुआ 

फिर ऐ दिल-शिकस्ता कोई नग्मा छेड़ दे 
फिर आ रहा है कोई इधर झूमता हुआ 

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए उन्होने सन 1956 में ‘हाली का सियासी शुऊर’ विषय पर पी.एच. डी. हासिल की । यह किताब हाली अध्ययन में एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में भी स्वीकार की गयी. इसके अतिरिक्त ‘फ़ुरोज़ां’, ‘सुखन-ए-मुख्तसर’ और ‘गुदाज़ शब’ उनके काव्य संग्रह हैं. जज़्बी साहब ' प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा संचालित 'तरक्की पसंद तहरीक " से लम्बे वक्त तक जुड़े रहे।जज़्बी साहब ने अपने समकालीनों के मुकाबले बहुत कम लिखा है लेकिन जो लिखा पुख्ता लिखा है । उनके बारे में कहा जाता है कि वो अपने एक एक शेर को महीनों मांझते थे और उस वक्त तक सामने नहीं लाते थे जब तक कि उन्हें विश्वास न हो जाय कि किसी भी दृष्टि से उस शेर में अब काट-छाँट की गुंजाइश नहीं बची है। फ़ेसबुक पे फ़टाफ़ट अपनी ग़ज़ल चिपका कर लाइक पाने वाले इस दौर में ,इतनी मेहनत करने वाले शायर अब हैं कहाँ ?

यही ज़िन्दगी मुसीबत यही ज़िन्दगी मसर्रत 
यही ज़िन्दगी हक़ीक़त यही ज़िन्दगी फ़साना 

कभी दर्द की तमन्ना, कभी कोशिशे-मुदावा 
कभी बिजलियों की ख्वाइश कभी फ़िक्रे-आशियाना 
कोशिशे-मुदावा=उपचार की कोशिश 

जिसे पा सका न ज़ाहिद, जिसे छू सका न सूफ़ी 
वही तार छेड़ता है, मेरा सोज़े-शायराना 

जज़्बी की शायरी को आलोचकों ने सही से परखा नहीं किसी ने उन्हें 'केवल शब्दों का जौहरी' कह कर ख़ारिज किया तो किसी ने उसकी शायरी को उर्दू के महान निराशावादी शायर 'फ़ानी बदायूनी' की शायरी का चर्बा माना। जबकि असलियत ये है कि जज़्बी के यहाँ हमें अन्तर्गति और कला का ऐसा सुन्दर समावेश मिलेगा जो उर्दू की नई पीढ़ी के बहुत कम शायरों के हिस्से में आया है और जिसके लिए एक-दो दिन की नहीं बरसों की तपस्या चाहिए। उर्दू के इस कद्दावर शायर ने जीवन भर कभी शोहरत और आलोचकों की परवाह नहीं की और अपने काम पर लगे रहे। जज़्बी साहब की याद में नवंबर 2017 को आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में दो दिन की संगोष्ठी का आयोजन किया गया था जहाँ देश भर से आये उर्दू अदब के नामी गरामी साहित्यकारों ने शिरकत की थी। वहां आये सभी लोग इस बात से सहमत थे कि 'उनकी ज़िन्दगी और उनकी शायरी एक है। जब तक उर्दू शायरी ज़िंदा है जज़्बी का नाम अज़मत से लिया जाएगा "

मुस्कुरा कर डाल ली रुख पर नक़ाब
मिल गया जो कुछ कि मिलना था जवाब 

दिल की इक हल्की सी जुम्बिश चाहिए 
किसका पर्दा और फिर कैसी नक़ाब 

अब तो मंज़िल की भी कुछ पर्वा नहीं 
मैं कहाँ हूँ ऐ दिले-नाकामियाब 

जज़्बी साहब इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से 13 फरवरी 2005 से रुख़्सत हो गए और पीछे छोड़ गए ऐसी लाजवाब शायरी जो उर्दू शायरी के फ़लक पर हमेशा जगमगाती रहेगी। मुझे अफ़सोस है कि मैं आपको इस किताब तक पहुँचने का रास्ता नहीं बता सकता क्यूंकि राजपाल वालों के यहाँ ये आउट ऑफ प्रिंट हो चुकी है। किसी लाइब्रेरी में पड़ी मिल जाए तो मिल भी जाय वरना रेख़्ता की साइट पर आप जज़्बी साहब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। इस किताब में आप जज़्बी साहब की लगभग 21 नज़्में और 45 के करीब ग़ज़लें पढ़ सकते हैं। जज़्बी साहब की नज़्म "मौत" उर्दू की सर्वकालीन बेहतरीन नज़्मों में से एक मानी जाती है। ये नज़्म इंटरनेट पर उपलब्ध है , इसे एक बार जरूर पढ़ें। अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले हाज़िर हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

अजल से लरज़ते रहे हैं मिज़ां पर 
खुदा जाने टूटेंगे कब ये सितारे 
मिज़ां=पलकें 

तुझे आस्मां नाज़ है इक शफ़क़ पर
ज़मीं पर तो हैं कितने खूनीं नज़ारे 

वहां से भी तूफ़ान उठ्ठे हैं ऐ दिल
जिन्हें लोग समझा किये हैं किनारे 

सियह रात क्यों काँप उठती है 'जज़्बी' 
सहर के तो होते हैं दिलकश इशारे