Monday, December 21, 2015

किताबों की दुनिया -116

नहीं चुनी मैंने वो ज़मीन जो वतन ठहरी 
नहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना 
नहीं चुना मैंने वो मजहब जो मुझे बख्शा गया 
नहीं चुनी मैंने वो ज़बान जिसमें माँ ने बोलना सिखाया 
और अब 
मैं इन सबके लिए तैयार हूँ 
मरने मारने पर 

कितनी सच्ची और अच्छी नज़्म है ये। मैंने जब से पढ़ी है तब से दिमाग में घूम रही है। काश इस नज़्म और इसमें छुपी सच्चाई को यदि हम सभी समझ लें, मान लें तो सोचिये दुनिया में कितना अमन चैन कायम हो जाय। इतनी छोटी और मूलभूत सच्चाई को नकारने के कारण ही आदि काल से नर संहार हो रहा है और शायद आगे भी होता रहेगा । ऐसी अनेकों बेजोड़ नज़्मों के रचयिता जनाब " फ़ज़ल ताबिश " साहब हमारी "किताबों की दुनिया " श्रृंखला के अगले शायर हैं जिनकी किताब " रौशनी किस जगह से काली है " की चर्चा हम आज करेंगे।


शहर दर शहर हाथ उगते हैं 
कुछ तो है जो हर इक सवाली है 

'मीर' का दिल कहाँ से लाओगे 
खून की बूँद तो बचा ली है 

जिस्म में भी उतर के देख लिया 
हाथ खाली था अब भी खाली है 

रेशा रेशा उधेड़ कर देखो 
रौशनी किस जगह से काली है 

5 अगस्त 1933 में जन्में ताबिश साहब, भोपाल की हिन्दी उर्दू दुनिया के महत्वपूर्ण सेतु थे। 1969 में उर्दू में एम ए करने के बाद वे लेक्चरर हो गए। 1980 से 1991 तक मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी के सचिव रहे और अगस्त 1993 में मध्य प्रदेश शिक्षा विभाग से पेंशन पा कर रिटायर हुए और 10 नवंबर 1995 को दुनिया-ए-फ़ानी से रुख्सत हो गए।आपने शायरी, कहानियाँ, अनुवाद, नाटक और एक अधूरा आत्मकथात्मक उपन्यास (" वो आदमी " , जो बाद में राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया ) याने साहित्य की हर विधा में लिखा है।

बरगद ने अपने बाल न कटवाए उम्र भर 
हर चन्द उसकी उम्र कटी आदमी के साथ 

दीवारें होंठ बन्द किये घूरती रहीं 
दरवाज़े दिल लगाते रहे हर किसी के साथ 

'ताबिश' किसी उम्मीद पे सर रख के सो रहो 
सड़कें भी सो रही हैं थकी चाँदनी के साथ 

जनाब "फज़ल ताबिश" साहब किसी एक खास विचारधारा के साथ नहीं थे ,वो ज़िन्दगी के साथ जुड़े थे, वो पहले से ही बने बनाये हुए रास्तों से कतरा कर निकल जाते थे, उनकी शायरी ज़िन्दगी से लिए गए तजुर्बों की देन है। वो उर्दू जबाँ के बाँके शायर थे इसीलिए उनकी शायरी अपने समकालीन शायरों की भीड़ से अलग एक ख़ास मुकाम हासिल किये हुए है।

सिवाय प्यार के कोई भी हुनर नहीं सीखा 
बहुत न सीखना हमको कमाल रास आया 

शराब पी के भी हम बेखबर गुज़र न सके 
हमारे पाँव के नीचे कोई नहीं कुचला 

सितमगरों को सितम से नहीं मिली फुरसत 
सितमगरों ने ख़ुशी का मज़ा नहीं चक्खा 

फ़जल़ ताबिश मूल रूप से ऊर्दू के आदमी होने के बावजूद हिन्दी साहित्य-जगत के लिए कोई अपरिचित नाम नहीं है। उनके दो नाटक-‘डरा हुआ आदमी’ और ‘अखाड़े के बाहर से’ पुस्तकालय में, वाणी प्रकाशन, दिल्ली से लगभग 25 वर्ष पूर्व हिन्दी में ही मंचित भी हुए थे। वह ऊर्दू के उन गिनती के नाटककारों में से थे , जिसके नाटक मंचित भी हो सके और उन्होंने ब.व. कारंत और अलखनन्दन जैसे प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम किया। इसी प्रकार फिल्मों में उन्होंने मणि कौल की मुक्तिबोध-साहित्य पर आधारित फिल्म अनीता देसाई के अग्रेजी उपन्यास, ‘इन कस्टडी’ पर बनी फ़िल्म ‘मुहाफ़िज’ के संयोजक-सहायक की चुनौतिपूर्ण ज़िम्मेदारी अपने सिर ली।

न कर शुमार के हर शै गिनी नहीं जाती 
ये ज़िन्दगी है हिसाबों से जी नहीं जाती 

सुलगते दिन में थी बाहर, बदन में शब को रही 
बिछड़ के मुझसे बस इक तीरगी नहीं जाती 

नक़ाब डाल दो जलते उदास सूरज पर 
अँधेरे जिस्म में क्यों रौशनी नहीं जाती 

मचलते पानी में ऊँचाई की तलाश फ़िज़ूल 
पहाड़ पर तो कोई भी नदी नहीं जाती 

किताब के फ्लैप पर लिखी बात कि " ताबिश साहब की ग़ज़लों में एक मासूम उदासी है, मगर बेरुखी नहीं है। उमड़ता हुआ ख्वाब, एक चुभता हुआ शीशा है जो दिल में ज़ज़्ब होता है , एक टहलती हुई हवा का झौंका जो खुद को दुलार लेता है। फज़ल साहब की शायरी की पच्चीकारी शब्दों में नहीं दिखती मगर संवेदना के स्तर पर बहुत बारीक दिखती है " किताब पढ़ने के बाद एक दम सही लगती है।

रिश्ता खाज़ियाया हुआ कुत्ता है 
एक कोने में पटक रक्खा है 

रात को ख्वाब बहुत देखें हैं 
आज ग़म कल से जरा हल्का है 

मैं उसे यूँ ही बचा देता हूँ 
वो निशाने पे खिंचा बैठा है 

यूँ तो ताबिश साहब का लिक्खा हिंदी पाठकों के लिए अख़बारों रिसालों में छपता रहा है लेकिन मुकम्मल तौर पर उनकी बहुत सारी ग़ज़लें पहली बार हिंदी में एक ही जगह इस किताब " रौशनी किस जगह से काली है " में शाया हुई हैं , इस किताब का उर्दू से देवनागरी में लिप्यान्तरण "अंजलिका चतुर्वेदी ने किया है और जिसे "भारतीय ज्ञानपीठ " ने प्रकाशित किया है। लगभग 100 पृष्ठों की इस किताब में उनकी ग़ज़लों के अलावा कुछ प्रसिद्ध नज़्में और चुनिंदा अशआर भी शामिल किये गए हैं।

सूरज ऊंचा होकर मेरे आँगन में भी आया है 
पहले नीचा था तो ऊंचे मीनारों पर बैठा था 

माज़ी की नीली छतरी पर यादों अंगारे थे 
ख़्वाहिश के पीले पत्तों पर गिरने का डर बैठा था 

दिल ने घंटों की धड़कन लम्हों में पूरी कर डाली 
वैसे अन्जानी लड़की ने बस का टाइम पूछा था 

मणिकौल की फिल्म " सतह से उठता आदमी " कुमार साहनी फिल्म "ख्याल गाथा " में अभिनय कर चुके ताबिश साहब को 1962 में मिनिस्ट्री ऑफ साइंटिफिक रिसर्च एंड कल्चरल अफेयर्स ने उन्हें "बिना उन्वान" उर्दू ड्रामा पर पहला पुरस्कार अता किया था । उनकी प्रतिभा विलक्षण थी तभी तो मर्चेंट आइवरी की फिल्म "मुहाफ़िज़" के लिए उन्होंने लोकेशन ऑर्गेनाइजर की हैसियत से काम किया और स्क्रिप्ट लेखन में सहायता की।

इक दिन ऐसा भी हो सूरज से पहले जागूँ 
दिन शरमाते देखें हैं इक शब शरमाती देखूँ 

रेलिंग से लटकी औरत बच्चा भी तो थामे है 
पैसेंजर कुछ भी सोचें मैं उस से बच्चा ले लूँ 

जिस गुड़िया के दबने से सीटी बजने लगती है 
'ताबिश' उसके क़दमों में क्यों न अपना सर रख दूँ 

उर्दू -हिंदी शायरी में इस तरह की कहन और शेर बहुत मुश्किल से मिलते हैं। ताबिश साहब ने अपनी ज़मीन खुद तलाश की है और कामयाब शेर कहें हैं। अपनी ज़िन्दगी पढ़ने पढ़ाने में खर्च करने वाला ही ऐसे अनूठे शेर कह सकता है। जैसी कि कहावत है, कुछ लोग अपनी ज़ात में एक अंजुमन होते हैं, और यह कहावत फ़जल ताबिश से ज्यादा किसी दूसरे पर लागू नहीं होती। सुबह के तड़केदम से रात देर तक उनकी व्यस्तता, और उस व्यस्तता के प्रति उनकी चाह एक अजूबा थी, और उसी के साथ-साथ उनका दम-ख़म सड़कों पर पैदल चलना ज़्यादा पसन्द करते थे जब किसी काम की जल्दी हो। अगर मुहब्बत और मुरव्वत उनका ख़ामीर था तो उनके सफ़ाई और बेबाकी से अपनी बात कहने में अभी आड़े नहीं आ सका और किसी से मतभेद या अपने दिल की बात वह बहुत खुलकर सामने रखते थे।– इस तरह कि उसमें दोस्ताना बेतकल्लुफ़ी क़ायम रह सके।

चाँद, सूरज, बाग़, सड़कें और सितारे 
कल तलक मेरे लिए क्या क्या नहीं था 

हो न हो मुझमें कमी सी आ गयी है 
मैं तो बचपन में भी यूँ रोया नहीं था 

वो तो हम खुद थे जो उसको दोस्त समझे 
वो किसी को दोस्त बतलाता नहीं था 

किताब प्राप्ति के लिए जैसा ऊपर बताया है आपको ज्ञानपीठ से संपर्क करना पड़ेगा संपर्क के लिए आप या तो 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली जायें या उन्हें 011-24698417 पर फोन करें या 9350536020 मोबाइल पर काॅल करें या उनकी वेब साइट www.jnanpith.net पर सीधे ऑन लाइन आर्डर करें। कुछ भी करें बस ये किताब मँगवा कर पढ़ें।

मैं किस किस की आवाज़ पर दौड़ता 
मुझे चौ तरफ से पुकारा गया 

वहाँ जख्म पर बात ही कब हुई 
फ़क़त आँसुओं को शुमारा गया 

हवस थी उसे मेरी हर चीज़ की 
मगर मुझसे सब कुछ न हारा गया 

पोस्ट कुछ लम्बी होती जा रही है और आज के दौर में किसके पास इतनी फुरसत है की अपना समय शायरी की किताब की चर्चा पढ़ने में लगाये , फिर भी कुछ ऐसे शौदाई हैं जिनकी वजह से ये श्रृंखला अब तक दम नहीं तोड़ पायी है। जब तक शेरो शायरी और ग़ज़लों का जूनून लोगों के दिल में मौजूद है तभी तक इस श्रृंखला को चलाये रखने में आनंद है। आईये चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ते हैं :-

कैसे दरवाज़े पे दस्तक सुनें खामोश रहें 
इससे बेहतर है कि लाइट ही बुझा दी जाए 

यूँ नहीं होता कि हर बात ही चिल्ला के कहें 
यह भी कब होता है हर बार जुबाँ सी जाए 

गालियां सुनते हुए उम्र हुई है 'ताबिश' 
अब बुरे काम करें और दुआ ली जाए

Monday, December 7, 2015

किताबों की दुनिया -115

बात 1952 की है , तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में कांग्रेस द्वारा आयोजित एक चुनाव अभियान के तहत होने वाले कार्यक्रम में आने वाले थे. नेहरू जी के आगमन पर युवा कवि मोहम्मद शफी खान जिन्होंने 1945 में हज़रत वारसी की मज़ार पर अपना नाम बेकल वारसी रख लिया था ने मंच से ओज भरी लेकिन सुरीली आवाज़ में अपनी कविता " किसान भारत का " सुनाई जिसे सुन कर नेहरू जी बहुत प्रसन्न हुए और कहा की ये तो हमारा उत्साही शायर है।
बस तब से लोग उन्हें "बेकल उत्साही" कहने लगे। आज किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम उन्हीं "बेकल उत्साही" साहब, जिसे सुनने के लिए दुनिया के किसी भी कोने में मौजूद हर शायरी प्रेमी हमेशा तत्पर रहता है ,की ग़ज़लों की किताब " लफ़्ज़ों की घटायें " का जिक्र करेंगे।



जो मेरा है वो तेरा भी अफ़साना हुआ तो 
माहौल का अंदाज़ ही बेगाना हुआ तो 

तुम क़त्ल से बचने का जतन खूब करो हो 
क़ातिल का अगर लहज़ा शरीफ़ाना हुआ तो 

काबे की जियारत का सफर कर तो रहे हो 
रस्ते में कहीं कोई सनमख़ाना हुआ तो 
सनमख़ाना = मूर्ती गृह 

 उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद के गाँव गोरमवाँपुर में 1928 में उनका जन्म हुआ। उन्हें नाम दिया गया ‘लोदी मुहम्मद सफी खाँ’। पिता ज़मींदार थे और शेरी-नाशिस्तों के शौकीन, घर पर शाइरों का आना जाना रहता था, उन्ही को देख देख के लिखने की ललक बढ़ी. पहले नात मजलिस का दौर शुरू हुआ फिर गीत नज़्म ग़ज़ल लिखीं आरम्भ गीतों से ही हुआ. बाद में वे दोहे रुबाई कतए और ग़ज़लें भी कहने लगे।

दिन भी क्या जो फूल की मानिंद खिल कर सूख जाय 
रात वो क्या जो चटानो की तरह भारी न हो 

सुनते आये हैं यही हम 'मीर' से 'इकबाल' तक 
वो ग़ज़ल क्या जिसको सुनकर कैफ़ियत तारी न हो 

इस सफर पर सबको जाना ही है बेकल एक दिन 
हो नहीं सकता तेरी हो और मेरी बारी न हो 

बेकल साहब शायद अकेले ऐसे शायर कवि हैं जिन्हें दो अलग याने मुशायरों और कवि सम्मलेन के मंचों से बहुत आदर और सम्मान के साथ सुना जाता है. उन्होंने ग़ज़ल में कविता का और कविता में ग़ज़ल का प्रभाव पैदा किया है। लकदक कुरता और अलीगढ़ी पायजामा सर पर ऊंची मखमली टोपी काली दाढ़ी में निचले होंट के पास से झरने की तरह गिरती उनकी एक सफ़ेद लट वाली छवि, देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती है, रही सही कसर उनकी तरन्नुम में पढ़ी अनूठी रचनाएँ पूरी कर देती हैं। वो मुशायरों, कवि सम्मेलनों की आबरू हैं।श्रोता उन्हें ही सुनने की लगातार बारबार फरमाइश करते हैं। 

कोई मस्जिद, गुरूद्वारे न शिवाले होंगे 
सिर्फ तू होगा तेरे चाहने वाले होंगे 

ऐब चेहरों का छुपा लेना हुनर था जिनका
सोचिये कितने वो आईने निराले होंगे 

बेच दे अपनी जबाँ, अपनी अना, अपना ज़मीर 
फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे 

तुम को तो मील के पत्थर पे भरोसा है मगर 
मेरी मंज़िल तो मेरे पाँव के छाले होंगे 

हिंदुस्तानी तहज़ीब में रची बसी और खास तौर पर अवध के आंचलिक परिवेश में ढली उनकी शायरी भाषा की सरलता के कारण उर्दू शायरी में अपना अलग मुकाम रखती है। गाँव और गाँव वासियों के सुख दुःख जिस तरह से बेकल साहब की शायरी में प्रगट हुए हैं उस तरह से उर्दू शायरी में पहले कभी देखे सुने नहीं गए। उस्ताद चाहे उनकी शायरी पर नाक भों सिकोड़ें लेकिन पाठकों और श्रोताओं ने उनकी शायरी को खूब पसंद किया है। उनकी लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है की उनके द्वारा शायरी में किये गए आंचलिक भाषा के प्रयोग बहुत सफल हुए हैं। 

अब तो गेहूं न धान बोते हैं 
अपनी किस्मत किसान बोते हैं 

गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम 
शहर जाकर मकान बोते हैं 

लोग चुनते हैं गीत के अल्फ़ाज़ 
हम ग़ज़ल की ज़बान बोते हैं 

अब हरम में नमाज़ उगे न उगे 
हम फ़ज़ा में अज़ान बोते हैं 

सन 1976 में भारत सरकार द्वारा साहित्य के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए "पद्मश्री" से सम्मानित किया गया। वे 1989 से 1992 तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे। इस दौरान उन्होने अवध प्रदेश की समस्याओं और मुद्दों को गंभीरता के साथ संसद में उठाया. संसद की कई समितियों के भी वे मेम्बर रहे. उस दौर में जब दक्षिण में हिन्दी विरोधी लहर चल रही थी बेकल जी ने दक्षिण में घूम घूम कर अवधी और हिन्दी कवि सम्मेलन किए और वहां के लोगों को अपनी बात समझाने की भरसक कोशिश की.

पल दो पल को सावन की शहज़ादी उतरी थी 
मेरे खेत की मिटटी कितनी सौंधी लगती है 

बरसों बाद बिदेस से अपने गाँव में लौटा हूँ 
अब मुखिया की लाल हवेली छोटी लगती है 

बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था 
भूख में ज़हरीली रोटी भी मीठी लगती है 

बेकल साहब की रोमांटिक ग़ज़लों को बहुत से गायकों ने अपना स्वर दिया है। उनकी ग़ज़लें लोगों की जुबाँ पे चढ़ कर बहुत मक़बूल हुईं। जयपुर के प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन बंधुओं के वो चहेते शायर रहे।ग़ज़ल प्रेमियों ने उनकी इस ग़ज़ल को उनकी आवाज़ में जरूर सुन कर गुनगुनाया होगा :

सादगी सिंगार हो गयी 
आइनों की मार हो गयी 

आँख ही थी ज़ख्म की दवा 
आँख ही कटार हो गयी 

चाँद नाव में उत्तर पड़ा 
अब नदी अपार हो गयी 

दोस्तों का कारवां तो है 
दोस्ती गुबार हो गयी 

बेकल साहब की लगभग दो दर्ज़न किताबें शाया हो चुकी हैं लेकिन ऐसी किताब जिसमें सिर्फ उनकी ग़ज़लें ही संकलित हों "लफ़्ज़ों की घटायें" ही है। उनकी ग़ज़लों की किताबें न होने के पीछे एक कारण है , बेकल साहब का कहना है कि वो मूलरूप से ग़ज़लकार नहीं हैं , गीत उनकी पहली पसंद था, है और रहेगा। इस किताब में भी उनकी सिर्फ 87 ग़ज़लें ही हैं जिन्हें सुरेश कुमार जी ने संकलित किया है। किताब के प्रकाशक हैं "डायमंड बुक्स पब्लिकेशनस" जिनकी किताबें आपको सरलता से किसी भी किताबों की दुकान से मिल सकती हैं।

जब से हम तबाह हो गये 
तुम जहाँपनाह हो गये 

हुस्न पर निखार आ गया 
आईने सियाह हो गये 

आँधियों की कुछ खता नहीं 
हम ही गर्दे राह हो गये 

दुश्मनों को चिट्ठियां लिखो 
दोस्त ख़ैरख़्वाह हो गये 

अगर आपको अपने निकटवर्ती पुस्तक विक्रेता के पास ये किताब न मिले तो आप डायमंड बुक्स वालों को 011 -511611861 -865 पर फोन करें या sales@diamondpublication.com पर मेल करें। किताब को ओन लाइन मंगवाने के लिए डायमंड बुक्स की वेब साइट www.diamondpocketbooks.com पर जा कर आर्डर दें।

चलते चलते आइये उनकी एक बेहद लोकप्रिय ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें और हाँ अगर आपने उन्हें पूरे मंच और श्रोताओं को अपनी मधुर आवाज़ से अपनी गिरफ्त में लेते नहीं देखा सुना तो समझिए आपने बहुत कुछ खोया है। आपके लिए उनके दो विडिओ क्लिप भी हैं ,क्लिक करें उन्हें देखें, सुनें और भरपूर आनंद लें।

जुल्फ बिखरा के निकले वो घर से 
देखो बादल कहाँ आज बरसे 

ज़िन्दगी वो संभल ना सकेगी 
गिर गयी जो तुम्हारी नज़र से 

मैं हर इक हाल में आपका हूँ 
आप देखें मुझे जिस नज़र से 

फिर हुई धड़कने तेज़ दिल की 
फिर वो गुज़रे हैं शायद इधर से   




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Monday, November 23, 2015

किताबों की दुनिया - 114

" मोती मानुष चून" ये तीन शब्द पढ़ते ही हमें रहीम दास जी के दोहे " रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून , पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून " का स्मरण हो आता है और ये स्वाभाविक भी है क्यों कि हमने अब तक इन तीन शब्दों को इस दोहे के अलावा शायद ही कभी कहीं और पढ़ा हो। हमें पता ही नहीं था कि किसी अलबेले शायर ने इन तीन शब्दों को न केवल अपनी ग़ज़ल के एक शेर में ख़ूबसूरती से पिरोया है बल्कि इसी शीर्षक से अपनी ग़ज़लों की एक किताब भी प्रकाशित करवाई है।

दिल में एक तन्हाई घर करने लगी 
बस गयी जब घर-गृहस्थी जिस्म की 

रूह की महफ़िल तभी सज पाती है 
जब उजड़ जाती है बस्ती जिस्म की 

मोती मानुष चून में से क्या है ये 
जल गयी जल में ही हस्ती जिस्म की 

अब जिस शायर ने रहीम दास जी के दोहे की एक पंक्ति के टुकड़े को किताब का शीर्षक देने का साहस किया है वो यकीनन कोई आम शायर तो हो ही नहीं सकता। जरूर उसमें रहीम की तरह बेबाक हो कर अपनी बात कहने की कुव्वत होगी, रहीम ही की तरह समाज को कुछ नया कुछ अच्छा समझाने की चाहत होगी और रहीम ही की तरह उसकी भाषा ऐसी होगी जो आम जन मानस की हो याने उसकी अपनी हो, सहज हो ,सरल हो. हम आज 'किताबों की दुनिया ' श्रृंखला में चर्चा करेंगे ग़ज़लों की किताब " मोती मानुष चून ' की जिसके शायर हैं जनाब "देवेन्द्र आर्य" साहब।


दिनन के फेर हैं, चुप बैठ देखिये रहिमन 
समय बसाने के पहले उजाड़ देता है 

ये मुफलिसी है कि अज्ञान है कि कमज़र्फ़ी 
ये क्या है, वो मुझे जब देखो झाड़ देता है 

लगा न बैठे कोई शेरो-शायरी दिल से 
अदब दिमाग़ का नक्शा बिगाड़ देता है 

हमारा होना न होना है फ़ायदे से जुड़ा 
दरख़्त अपने ही पत्तों को झाड़ देता है 

देवेन्द्र आर्य का जन्म 18 जून 1957 में गोरखपुर में हुआ. गोरखपुर विश्विद्यालय से ही देवेन्द्र ने इतिहास में एम. ए. किया। पिछले ग्यारह वर्षों में उनकी ग़ज़लों की चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। "मोती मानुष चून" देवेन्द्र जी की चौथी ग़ज़लों की किताब है, इस से पूर्व उनकी ग़ज़लों की ये तीन किताबें "किताब के बाहर (किताब महल , इलाहबाद ), ख्वाब ख्वाब ख़ामोशी (शिल्पायन, दिल्ली ) और उमस (अभिदा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर ) प्रकाशित हो चुकी हैं. ग़ज़लों अलावा उनके गीतों के संकलन "खिलाफ जुल्म के (सहकारी प्रकाशन -सिलसिला ), धूप सिर चढ़ने लगी (राजेश प्रकाशन -दिल्ली) , सुबह भीगी रेत पर ( शैवाल प्रकाशन - गोरखपुर) और आग बीनती औरतें (किताब महल -इलाहबाद) भी प्रकाशित हुए हैं।

खिलाफ जुल्म के कविता बयान है कि नहीं 
अगर नहीं है तो फिर बेज़बान है कि नहीं 

सवाल ग्राम-सभा, ब्लाक ,बीडीओ के तो हैं 
मगर एजेंडे में भूखा किसान है कि नहीं 

चलो ये मान लिया जनविरोधी है फिर भी 
हलफ़ उठाने को एक संविधान है कि नहीं 

देवेन्द्र जी के ये तेवर अदम गौंडवी साहब की याद दिलाते हैं लेकिन उनकी ग़ज़लों की अपनी एक अलग पहचान है , अलग राह है , अलग सोच है इसीलिए वो भीड़ में भी अकेले खड़े नजर आ जाते हैं। ग़ज़ल के एक बहुत बड़े उस्ताद मुज़फ्फर हनफ़ी साहब फरमाते हैं कि
"गजल बड़ी अजीब विधा है, बिलकुल छुई-मुई जैसी. जहाँ इसके साथ किसी ने अनुचित व्यवहार किया और यह लाजवंती की भाँती अपने आप में सिमटी. आज रचनाकार हिन्दी, मराठी, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी तो क्या फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन, जापानी आदि भाषाओँ में भी गज़ल कह रहे हैं. जहाँ तक हिंदी का सवाल है मेरे स्वर्गीय मित्र दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त गिनती के दो-चार कवि गण ही गज़ल की नजाकतों को सहार पाए हैं. और मुझे स्वीकार करते हुए प्रसन्नता है कि देवेन्द्र आर्य उनमें से एक हैं."

क्या क्या न हुआ देश में गांधी तेरे रहते 
क्या होता अगर देश में गांधी नहीं होते 

अब कौन भला पेड़ों को दुलरा के सुलाता 
और कौन जगाता जो ये पंछी नहीं होते 

स्कूल यूनिफार्म सा घर हो गया होता 
बच्चे जरा नटखट जरा पाजी नहीं होते 

कुछ टोल फ्री नंबर हैं मुसीबत के समय में 
हम फ़्लैट हैं और फ़्लैट पड़ौसी नहीं होते 

हनफ़ी साहब देवेन्द्र जी की ग़ज़लों के बारे में आगे कहते हैं कि " देवेन्द्र की गज़ल लाजवंती जैसी सिमटी न हो कर चंचल तितली की तरह परों को फैला कर थिरकती है. इन ग़ज़लों में भाषा के साथ रचनात्मक बर्ताव की निराली शान देखी जा सकती है. अपने रोजमर्रा के संवेदनशील अनुभवों को सरल स्वभाव वरन गहरे चिंतन में संजो कर देवेन्द्र आर्य ने अपनी गज़ल को गज़ल भी रखा है और उर्दू गज़ल से मुख्तलिफ भी कर लिया है. यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है. उन्हें इसकी दाद मिलनी चाहिए " 

मैं कहूँ और वह सुने, ना भी कहूँ तो भी सुने 
बंदगी किस काम की , कहनी पड़े अपनी रज़ा 

खदबदाहट, खिलखिलाहट, तिलमिलाहट और बस 
शायरी क्या है, खुद अपनी आहटों का सिलसिला 

ज़िन्दगी कविता है जिसका फ़न यही है दोस्तों 
अनकहा कहना मगर कहके भी रहना अनकहा 

देवेन्द्र जी ने किताब की भूमिका में अपने हवाले से बहुत दिलचस्प और काम की बात कही है जो सभी शायरों पर भी लागू होती है वो कहते है कि " ग़ज़ल इंसानियत की आँख का पानी है. आब हो या हया या खुद्दारी या मौलिकता एक तरह की आतंरिक नमी है जो आभा बनके चेहरे पर चमकती है और जिसके बिना मोती मानुष और चून निरर्थक हैं, निर्जीव हैं। पानीदार होना पानी में रहना और किसी का पानी न उतारना तीनो अन्तर्वस्तु एक ही हैं। " इस किताब की ग़ज़लें पढ़ते वक्त लगता है कि ये रहीम के 'पानी' को बचाने मददगार हैं।

जीत पाने का सलीका खुद-ब -खुद मिट जाएगा 
छीन ली जाएँगी जब भी हार की संभावना 

तोड़ देती है ज़रा सी चूक ,हलकी सी चुभन 
चाहना पर तुम किसी को टूट कर मत चाहना 

स्वाद और आस्वाद में क्या फर्क है क्या साम्य है 
कविता लिखने से नहीं कमतर है आटा सानना 

 'मोती मानुष चून' में देवेन्द्र जी की मार्च 2009 के बाद कही ग़ज़लों में से 105 ग़ज़लें संकलित की गयीं जो कहन के अंदाज़ और कथ्य की नवीनता के कारण बार बार पढ़ी जा सकती हैं। कुछ ग़ज़लों में जो काफिये और रदीफ़ के साथ प्रयोग किये गए हैं वो बहुत दिलचस्प और लीक से हट कर हैं। ये प्रयोग देवेन्द्र जी के साहस के प्रतीक हैं। उन्होंने ग़ज़ल के मापदंडों को बरकरार रखते हुए नया कुछ कर गुजरने की ठानी है।

शुरू तो हुई थीं विरासत की बातें 
मगर छिड़ गई हैं सियासत की बातें 

शराफ़त की बातें, नफ़ासत की बातें 
लुटेरों के मुंह से हिफाज़त की बातें 

मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे 
सुनी जा रही हैं रियासत की बातें 

मुझे भी मज़ा है , कमाई उसे भी 
समझता है हाथी महावत की बातें 

आज इंटरनेट मोबाइल के इस दौर में ग़ज़ल की लोकप्रियता में जबरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है। यूँ लगता है मानो जितने ग़ज़ल कहने वाले हैं उतने ही सुनने वाले भी हैं।अक्सर देखा गया है कि जहाँ जिस चीज की बहुतायत से आमद हुई है वहीँ उसकी क़द्र और गुणवत्ता में कमी हुई है। ग़ज़लकार तो बहुत हो गए लेकिन या तो वो सदियों से कही गयी, भुगती गयी, सुनी गयी बातों की जुगाली कर रहे हैं या सिर्फ शुद्ध रूप से तुक्केबाज़ी। इस भीड़ में सिर्फ वो ग़ज़लकार अपनी पहचान बना पा रहे हैं जो ग़ज़ल के मूलरूप से उसके नियम कायदे से छेड़ छाड़ किये बिना उसमें नवीनता पैदा करने की ईमानदार कोशिश में लगे हैं। देवेन्द्र आर्य यकीनन उनमें एक हैं जो अपनी पहचान बनाये रखने में कामयाब हैं।

बचेगी कितनी जमीं हम से आपसे यारो 
हमारे बच्चों का जीवन उसी से तय होगा 

ये फोरलेन की बातें बहुत हुई अब तक 
नए विकास का नक्शा गली से तय होगा

हमारे मुल्क का मेयार क्या है, कितना है 
अमीरी से नहीं ये मुफलिसी से तय होगा 

केन्द्र सरकार के मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार तथा उ. प्र. हिन्दी संस्थान के विजयदेव नारायण साही पुरस्कार से सम्मानित देवेन्द्र जी अभी पूर्वोत्तर रेलवे, गोरखपुर में मुख्य वाणिज्य निरीक्षक के पद पर कार्यरत हैं। देवेन्द्र जी को आप उनकी ग़ज़लों के लिए उनके मोबाइल 09794840990 अथवा 07408774544 पर या उनसे इ-मेल devendrakumar.arya1@gmail.com पर संपर्क कर उन्हें बधाई सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए जैसाकि पूर्व में भी बताया है अयन प्रकाशन के श्री भूपल सूद साहब से 09818988613 पर संपर्क कर सकते हैं।

साथ में होके भी जब कोई न हो 
सोचिये कैसा लगेगा आपको 

या तो फ्रीज़र में, नहीं तो सीधे फिर 
आँच पर रखता है संबंधों को वो 

बस यही अंतर है माँ और बाप में 
बाप के संग रास्ते भर चुप रहो 

चाहते हो शायरी में गर निखार 
बाल बच्चों को भी थोड़ा वक़्त दो 

अब 105 बेहतरीन ग़ज़लों में से कुछ अशआर छाँट कर आपतक पहुँचाने का काम है तो मुश्किल लेकिन जो काम आसान हो उसे करने में मज़ा भी क्या है ?जब तक आप जैसे पाठक मौजूद हैं हम ये मजे उठाते रहेंगे।
किताब में देवेन्द्र जी की कुछ मुसलसल ग़ज़लें भी शामिल हैं उनमें उर्दू और औरत पर कही उनकी मुसलसल ग़ज़ल कमाल हैं। इस पहले कि आप से रुखसत हुआ जाय चलिए औरत वाली मुसलसल ग़ज़ल के कुछ अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :-

मैके में पी का घर, पी के घर पीहर 
औरत की फितरत में होते दो-दो घर 

यहाँ रहो तो वहां की चिंता मथती है 
वहाँ जाओ तो लगता यहीं पे थे बेहतर 

शौहर भी क्या किस्मत लेकर आते हैं 
खाए-पीए, उठे, चले आये दफ़्तर 

आंसू जैसे मौन हो गयी हो भाषा 
हँसी कि जैसे मक्खन सूखी रोटी पर 

छाँव भी है, ईंधन भी है और फल भी है 
औरत है या चलता फिरता एक शजर 

सारे ईश्वर मर्दों की पैदाइश हैं 
काश! हुई होती कोई औरत ईश्वर

Monday, November 9, 2015

किताबों की दुनिया -113

कितने झुरमुट कट गए बांसों के , किसको है पता 
इक सुरीली-सी, मधुर-सी, बांसुरी के वास्ते 

रतजगे, बैचेनियां, आवारगी और बेबसी 
इश्क ने क्या क्या चुना है पेशगी के वास्ते 

झूठ की दुनिया है ये, अहले-सुखन ! लेकिन सुनो 
कुछ तो सच्चाई रखो तुम, शायरी के वास्ते 

सच्चाई रखने की बात कहने और करने में बहुत फर्क होता है। सच्चाई की बात रखने के लिए अदम्य साहस की जरुरत होती है। हमारे आज के शायर के पास साहस की कोई कमी नहीं। यही कारण है कि हमें उसकी बातों पे यकीन होता है। शायर तो कोई भी हो सकता है लेकिन वो शायर जो अपने हाथों में बन्दूक थामे देश के लिए दुश्मन का सीना छलनी करने वाला भी हो और फिर उन्हीं हाथों में कलम थामे लोगों के सीनों में मोहब्बत के फूल उगा देने की कुव्वत भी रखता हो विरला ही होता है। हमारी "किताबों की दुनिया" श्रृंखला में आज हम उसी युवा जाँबाज शायर की शायरी की चर्चा करेंगे।

बारिश की इक बूँद गिरी जो टप से आकर माथे पर 
ऐसा लगा , तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में 

हौले-हौले लहराता था, उड़ता था दीवाना मैं 
रूठ गई हो जब से तो इक सुई चुभी गुब्बारे में 

फ़िक्र करे या जिक्र करे ये, या फिर तुमको याद करे 
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में 

इस पोस्ट को लिखते वक्त ये मुश्किल आज मुझे भी हो रही है। तय करना मुश्किल हो रहा है कि शायर का जिक्र करूँ या उनकी किताब "पाल ले इक रोग नादाँ " का। इस किताब से मेरा परिचय तो सिर्फ साल भर पुराना है लेकिन इसके शायर से मेरा परिचय तो बरसों का है। सन 2012 सिहोरे में गुज़ारी सर्द रात की याद अभी भी ज़ेहन में ताज़ा है जब चुम्बकीय व्यक्तित्व के इस बाँके अलबेले फक्कड़ शायर से पहली बार रूबरू मुलाकात हुई। जो भी एक बार "गौतम राजरिशी", जी हाँ ये ही नाम है हमारे आज के इस शायर का, से मिल लेता है वो उनका दीवाना हुए बिना नहीं रह सकता। अगर आपको कहीं मेरी उनके या उनकी शायरी के प्रति कही बातों में अतिरेक झलके तो आप मुझे उसे मेरी उनके प्रति दीवानगी समझ कर मुआफ करें ।



लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूड़ियाँ 
जो सरहदों पर जाती हैं, उन चिट्ठियों से पूछ लो 

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अबके आम में 
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो 

होती हैं इनकी बेटियां कैसे बड़ी रह कर परे 
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो 

सभी प्रकार की सुविधा से भरा अपना घर बार, परिवार और खास तौर पर नन्हीं बेटी तान्या, अपने संगी-साथी , बाग़- बगीचे, फूल-तितलियाँ, नदियां-तालाब, रंग बदलते मौसम , चमकते सूरज से कोसों दूर बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर सीमा के पास बने बंकर में समय बिताते, लहू जमा देने वाली ठण्ड से झूझते, हर वक्त मौत की आहट सुनते जैसे गैर शायराना मौहोल में जिस तरह की शायरी गौतम ने की है उसे पढ़ कर कभी होटों पर मुस्कान खिलती है तो कभी आँखें छलछला उठती हैं। ये गौतम का करिश्मा ही है कि उसने बंकर के काले, सफ़ेद और घूसर से दिखाई देने वाले रंगों को अपनी बेमिसाल शायरी की मदद से इंद्रधनुषी जामा पहना दिया है। दिल करता है उसे सेल्यूट करते हुए लगातार तालियां बजाता रहूँ।

मिट गया इक नौजवाँ कल फिर वतन के वास्ते 
चीख तक उठ्ठी नहीं इक भी किसी अखबार में 

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर 
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योंहार से 

मुठ्ठियाँ भींचे हुए कितने दशक बीतेंगे और 
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से 

बैठता हूँ जब भी 'गौतम' दुश्मनों की घात में 
रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से 

किताब की भूमिका में डा. राहत इंदौरी लिखते हैं कि " गौतम की शायरी में मुझे नासिर काज़मी की शायरी बिखरी नज़र आती है। मुझे उनकी शायरी में जहाँ बशीर बद्र के महबूब का खूबसूरत, मासूम और सलोना चेहरा, उदास मुस्कराहट और आँचल का नाज़ुक लम्स भी महसूस होता है वहीँ फ़िराक गोरखपुरी की शोख़ उदासी भी मयस्सर होती है। मालूम होता है, गौतम की ग़ज़लों की सरहदें नासिर, बशीर और फ़िराक की सरहदों से दूर नहीं है।
लेकिन जो बात गौतम को अपने समकालीन शायरों से अलग करती है, एक नयी पहचान देती है वो है गौतम की इमेजरी ---रोजमर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल होनी वाली चीजें और आम जुबान में पुकारी जाने वाली बातें कुछ इसतरह उनके अशआर में घुल-मिल कर उभरती है कि बस दाद निकलती रहती है पढ़ने के बाद।"

उँड़स ली तूने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली 
हुई ये ज़िन्दगी इक चाय ताज़ा चुस्कियों वाली 

भरे-पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं 
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिठ्ठियों वाली 

खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन 
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली 

राहत साहब की बात की ताकीद करती गौतम की एक ग़ज़ल के इन शेरों पर गौर फरमाएं और देखें कि किस बला की ख़ूबसूरती से वो ऐसे नए लफ़्ज़ों को मिसरों में पिरोते हैं जो अमूमन अब तक ग़ज़ल की हदों दूर ही रखे गए हैं। मज़े की बात ये है कि ये लफ्ज़ शेर को नया मानी देते हैं और लगता है जैसे ये लफ्ज़ इन शेरों के लिए ही इज़ाद किये गए हों , ये गौतम का सिग्नेचर स्टाइल है :-

सुब्ह के स्टोव पर चाय जब खौल उठी 
ऊंघता बिस्तरा कुनमुना कर जगा 

धूप शावर में जब तक नहाती रही 
चाँद कमरे में सिगरेट पीता रहा 

दिन तो बैठा है सीढ़ी पे चुपचाप से 
और टेबल पे है फोन बजता हुआ 

रात की सिलवटें नज़्म बुनने लगीं 
कँपकपाता हुआ बल्ब जब बुझ गया 

वीरता के लिए पराक्रम पदक और सेना मेडल प्राप्त सौम्य व्यक्तित्व के मालिक मृदु भाषी गौतम, जो वर्तमान में कर्नल के पद पर एक इन्फेंट्री बटालियन का कमांड संभाले हुए हैं, की ग़ज़लें अपनी नजाकत और नए लहज़े से पाठकों को हैरान करती हैं तभी तो उन्हें 'हंस' ,'वागर्थ' 'आजकल', 'कादम्बिनी', 'कथादेश' , 'कथाक्रम' , ' बया' , ' काव्या', 'लफ्ज़', 'शेष' , 'कृति' ' हिन्द चेतना 'और 'अहा ज़िन्दगी ' जैसी हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं द्वारा नियमित रूप से प्रकाशित किया जाता है। पाठकों का एक बहुत बड़ा वर्ग उनकी नयी ग़ज़लें की प्रतीक्षा में हमेशा पलक-पांवड़े बिछाए रहता है।

उन होंठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं 
इंग्लिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं 

चाँद उछल कर आ जाता है कमरे में जब रात गये 
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग जाते हैं 

घर-घर में तो आ पहुंचा है मोबाइल बेशक, लेकिन 
बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं 

लगभग कॉफी टेबल साइज़ की इस निहायत ही खूबसूरत किताब को श्री पंकज दीक्षित जी ने अपने अद्भुत रेखा चित्रों से संवारा है। शिवना प्रकाशन, सिहोरे के श्री सनी गोस्वामी की आकर्षक आवरण डिजाइन और शहरयार अमजद खान की बेजोड़ कम्पोजिंग-लेआउट ने किताब में चार चाँद लगा दिए हैं
इस किताब में सहरसा (बिहार) निवासी कर्नल गौतम की 104 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिन्हें ग़ज़ल प्रेमियों के साथ साथ इस देश से प्यार करने वाले हर व्यक्ति को भी जरूर पढ़ना चाहिए ताकि उन्हें सिर्फ गौतम के ही नहीं बल्कि उन जैसे अनेक फ़ौज की कड़क वर्दी में सामने नज़र आते भावहीन चेहरों के नकाब के पीछे छिपे अति संवेदनशील इंसान के ज़ज़्बात का भी थोड़ा बहुत एहसास हो।

रह गयी उलझी किचन में भीगी जुल्फों की घटा 
और छत पर 'धूप' बेबस हाथ मलती रह गयी 

चौक पर 'बाइक' ने जब देखा नज़र भर कर उधर 
कार की खिड़की में इक 'साड़ी' संभलती रह गयी 

एक कप कॉफी का वादा भी न तुमसे निभ सका 
कैडबरी रैपर के अंदर ही पिघल कर रह गयी 

किताब की सभी लाजवाब ग़ज़लों लिए आप कर्नल गौतम को सबसे पहले उनके मोबाइल न 09759479500 पर दाद दें और फिर किताब की प्राप्ति के लिए शिवना प्रकाशन सीहोर से +917562405545 पर संपर्क करें। ये किताब अमेजन, फ्लिपकार्ड आदि साइट पर ऑन लाइन भी उपलब्ध है।

ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन --- उफ़ 
और दिसंबर ज़ालिम उस पर फ़ुफ़कारें है सन सन --उफ़ 

बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से 
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन --उफ़ 

पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल 
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन --उफ़ 

पोस्ट की लम्बाई और आप के पढ़ने का धैर्य आड़े आ रहा है वरना दिल तो पूरी किताब आप तक पहुँचाने का कर रहा है। पन्ने पलटते हुए अफ़सोस हो रहा है कि अरे ये शेर तो पढ़वाने से रह ही गए !!!!!

खैर, आईये चलते चलते उनकी उस ग़ज़ल के ये शेर पढ़ते चलें जिन्हें मैं जब मौका मिले उनसे सुनाने का हमेशा आग्रह करता हूँ :-

दूर उधर खिड़की पे बैठी सोच रही हो मुझको क्या ? 
चाँद इधर छत पर आया है थक कर नीला नीला है 

बादल के पीछे का सच अब खोला तेरी आँखों ने 
तू जो निहारे रोज इसे तो अम्बर नीला नीला है 

इक तो तू भी साथ नहीं है, ऊपर से ये बारिश उफ़ 
घर तो घर, सारा का सारा दफ्तर नीला नीला है



Monday, October 26, 2015

किताबों की दुनिया -112

आँख भर आयी कि यादों की धनक सी बिखरी 
अब्र बरसा है कि कंगन की खनक सी बिखरी 
अब्र = बादल 

जब तुझे याद किया रंग बदन का निखरा 
जब तिरा नाम लिया कोई महक सी बिखरी 

शाख-ए -मिज़गां पे तिरी याद के जुगनू चमके 
दामन-ए-दिल पे तिरे लब की महक सी बिखरी 
शाख-ए -मिज़गां = पलकों की डाली 

उर्दू शायरी का पूरा आनंद लेने लिए यूँ तो उर्दू भाषा की जानकारी होनी चाहिए लेकिन भला हो "सुरेश कुमार " जैसे अनेक अनुवादकों का जिनकी बदौलत हम जैसे लोग देवनागरी में इसका आनंद उठा पा रहे हैं । आज उर्दू के हर छोटे बड़े शायर का कलाम देवनागरी में उपलब्ध है लेकिन फिर भी बहुत से ऐसे लाजवाब शायर अभी भी बचे हुए हैं जिन्हें पढ़ने की तमन्ना बिना उर्दू लिपि जाने पूरी नहीं हो पा रही।

मैं उर्दू सीख कर ऐसे शायर और उनकी किताबों का जिक्र इस श्रृंखला में कर भी दूँ तो भी उनकी किताबें मेरे पाठकों के हाथ शायद ना पहुंचे क्यूंकि सभी पाठकों से उर्दू लिपि सीखने की अपेक्षा रखना सही नहीं होगा। इसलिए मैं इस श्रृंखला में सिर्फ उन्हीं किताबों जिक्र करता हूँ जो जो देवनागरी में उपलब्ध हैं और मेरी समझ से पाठकों तक पहुंचनी चाहियें।

उस एक लम्हे से मैं आज भी हूँ ख़ौफ़ज़दा 
कि मेरे घर को कहीं मेरी बद्दुआ न लगे 
ख़ौफ़ज़दा = भयभीत 

वहां तो जो भी गया लौट कर नहीं आया 
मुसाफिरों को तिरे शहर की हवा न लगे 

परस्तिशों में रहे मह्व ज़िन्दगी मेरी 
सनमकदों में रहे वो मगर खुदा न लगे 
परस्तिशों = पूजाओं ; मह्व = लिप्त ; सनमकदों = मूर्ती गृहों 

शब-ए -फ़िराक की बेरहमियों से कब है गिला 
कि फ़ासले न अगर हों तो वो भला न लगे 
शब-ए -फ़िराक = विरह की रात 

रेशमी एहसास से भरी अपनी शायरी से जादू जगाने वाली हमारी आज की शायरा हैं मोहतरमा " इरफ़ाना अज़ीज़ " जिनकी सुरेश कुमार जी द्वारा सम्पादित किताब " सितारे टूटते हैं " का जिक्र हम करने जा रहे हैं। पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान की जिन शायराओं ने आधुनिक उर्दू शायरी को नयी दिशा दी है उनमें “इरफ़ाना अज़ीज़” साहिबा का नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाता है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों और नज़्मों से उर्दू शायरी के विकास में बहुत अहम भूमिका अदा की है।



लगाओ दिल पे कोई ऐसा ज़ख्म-ए-कारी भी 
कि भूल जाये ये दिल आरज़ू तुम्हारी भी 
ज़ख्म-ए-कारी = भरपूर घाव 

कभी तो डूब के देखो कि दीदा-ए-तर के 
समन्दरों से झलकती है बेकिनारी भी 

मोहब्बतों से शनासा खुदा तुम्हें न करे 
कि तुमने देखी नहीं दिल की बेकरारी भी 
शनासा = परिचित 

शब-ए-फ़िराक में अब तक है याद शाम-ए-विसाल 
गुरेज़-पा थी मोहब्बत से हम-किनारी भी 
गुरेज़-पा =कपट पूर्ण , अस्पष्ट 

एक साध्वी की तरह, लगभग गुमनाम सी रहते हुए, उर्दू साहित्य की पचास सालों से अधिक खिदमत करने वाली इरफ़ाना साहिबा ने अपनी ज़िन्दगी के अधिकांश साल केनेडा में गुज़ारे जहाँ उनके पति प्रोफ़ेसर थे। केनेडा प्रवास के दौरान उनका घर पूरी दुनिया के शायरों की तीर्थ स्थली बना रहा. फैज़ अहमद फैज़ और अहमद फ़राज़ साहब उनके नियमित मेहमान रहे। लोग कहते हैं कि उनकी शायरी पर फैज़ साहब का रंग दिखाई देता है जबकि इरफ़ाना साहिबा ने इस बात से इंकार करते हुए कहा कि वो फैज़ साहब से प्रभावित जरूर हैं लेकिन इस्टाइल उनकी अपनी है।

हसरत-ए-दीद आरज़ू ही सही 
वो नहीं उसकी गुफ़्तगू ही सही 
हसरत-ए-दीद = देखने की इच्छा 

ए' तिमाद-ए-नज़र किसे मालूम 
वो तरहदार खूबरू ही सही 
ए' तिमाद-ए-नज़र = देखने का भरोसा ; तरहदार = छबीला ; खूबरू = रूपवान 

आदमी वो बुरा नहीं दिल का 
यूँ बज़ाहिर वो हीलाजू ही सही 
बज़ाहिर = देखने में , एप्रेंटली ; हीलाजू = बहाना ढूंढने वाला 

कोई आदर्श हो मोहब्बत का 
वो नहीं उसकी आरज़ू ही सही 

अनोखे रूपकों और उपमाओं से सजी उनकी आधा दर्ज़न उर्दू में लिखी शायरी की किताबे मंज़रे आम पर आ चुकी हैं, देवनागरी में ये उनका पहला और एक मात्र संकलन है ,अफ़सोस बात तो ये है कि इतनी बड़ी शायरा के बारे में कोई ठोस जानकारी हमें नेट से भी नहीं मिलती। गूगल, जो सबके बारे में जानने का ताल ठोक के दावा करता है ,भी इरफ़ाना साहिबा के बारे में पूछने पर बगलें झाकने लगता है। नेट पर आप इस किताब के बारे में भाई अशोक खचर के ब्लॉग के इस लिंक पर क्लिक करने से जान सकते हैं। http://ashokkhachar56.blogspot.in/2013/09/sitaretootatehaiirfanaaziz.html

छाँव थी जिसकी रहगुज़र की तरफ 
उठ गए पाँव उस शजर की तरफ 

चल रही हूँ समन्दरों पर मैं 
यूँ कदम उठ गये हैं घर की तरफ 

जब भी उतरी है मंज़िलों की थकन 
चाँद निकला है रहगुज़र की तरफ 

इरफ़ाना साहिबा की शायरी संगीतमय , असरदार चुनौती पूर्ण है और शांति, प्रेम ,न्याय की पक्षधर हैं इसीलिए उनकी शायरी का कैनवास बहुत विस्तृत है। उनकी सोच संकीर्ण न होकर सार्वभौमिक है. वो मानव जाति के कल्याण का सपना देखती हैं। मोहब्बत की हिमायती उनकी शायरी में प्रेम सीमाएं तोड़ कर वेग से नहीं वरन मंथर गति से हौले हौले बहता नज़र आता है और उसका असर अद्वितीय है ।

तिरी फ़ुर्क़त में ज़िंदा हूँ अभी तक 
बिछुड़ कर तुझसे तेरा आसरा हूँ 
फ़ुर्क़त = वियोग 

रही है फासलों की जुस्तजू क्यों 
मैं किसके हिज़्र में सबसे जुदा हूँ 
हिज्र = विछोह 

गिला है मुझको अपनी ज़िन्दगी से 
मैं कब तेरी मोहब्बत से खफा हूँ 

खुले सर आज निकली हूँ हवा में 
बरहना सर सदाक़त की रिदा हूँ 
बरहना सर = नंगे सर ; सदाक़त = सच्चाई ; रिदा = रजाई 

"सितारे टूटते हैं" पढ़ते वक्त इसके संपादक सुरेश कुमार से हमें सिर्फ एक ही शिकायत है कि उन्होंने किताब में इरफ़ाना साहिबा की सिर्फ 44 ग़ज़लें ही शामिल की हैं हालाँकि इसके अलावा किताब में उनकी 43 नज़्में भी हैं पर लगता है जैसे जो है बहुत कम कम है, भरपूर नहीं है। किताब पढ़ने के बाद एक कसक सी रह जाती है और और पढ़ने की। हमारी तो सुरेश साहब से ये ही गुज़ारिश है कि वो इरफ़ाना साहिबा की शायरी की एक और किताब सम्पादित करें। जिस शायरा के कलाम लिए फैज़ साहब ने फ़रमाया हो कि " इरफ़ाना अज़ीज़" हर एतबार से हमारे जदीद शुअरा की सफ-ऐ-अव्वल में जगह पाने की मुस्तहक है " उसकी चंद ग़ज़लें ही अगर को मिलें तो भला तसल्ली कैसे होगी ?

कहीं न अब्रे-ऐ-गुरेज़ाँ पे हाथ रख देना 
कि बिजलियाँ हैं अभी नीलगूँ रिदाओं में 
अब्रे-ऐ-गुरेज़ाँ = भागता हुआ बादल ; नीलगूँ = नीले रंग की ; रिदाओं = चादरों 

उसे तो मुझसे बिछुड़ कर भी मिल गयी मंज़िल 
मैं फासलों की तरह खो गयी ख़लाओं में 

अजीब बात है कि अक्सर तलाश करता था 
वो बेवफ़ाई के पहलू मिरी वफाओं में 

सबसे अच्छी बात ये है कि इस किताब को प्रकाशित किया है " डायमंड बुक्स " वालों ने ,जिनकी प्रकाशित पुस्तकें हर शहर में और उसके स्टेशन, बस स्टेण्ड पर मिल जाती हैं , याने इसे पाने लिए आपको पापड़ नहीं बेलने पड़ेंगे। अगर आपको किताब आपके घर के निकटवर्ती पुस्तक विक्रेता के पास न मिले तो आप डायमंड बुक्स वालों को उनके पोस्टल अड्रेस "एक्स -30 , ओखला इंडस्ट्रियल एरिया ,फेज -2 नई दिल्ली -110020" पर लिखें या 011 -41611861 पर फोन करें। आप किताब को http://pustak.org/home.php?bookid=3458 पर आर्डर कर के घर बैठे भी मंगवा सकते हैं।

अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले आईये इरफ़ाना साहिबा की कलम का एक और चमत्कार आपको दिखाते चलें :-

जो हम नहीं हैं कोई सूरत -ऐ-करार तो है 
किसी को तेरी मोहब्बत पे ऐ'तबार तो है 

यही बहुत है कि इस कारज़ार-ऐ-हस्ती में 
उदास मेरे लिए कोई ग़मगुसार तो है 
कारज़ार-ऐ-हस्ती = जीवन संग्राम ; ग़मगुसार= सहानुभूति रखने वाला 

रह-ऐ-तलब में कोई हमसफ़र मिले न मिले 
निगाह-ओ-दिल पे हमें अपने इख्तियार तो है

Monday, October 12, 2015

किताबों की दुनिया - 111

पैशन और फैशन सुनने में तुकांत शब्द हैं लेकिन दोनों में बड़ा फर्क है। पैशन आत्मा /रूह का श्रृंगार है और फैशन बदन का। बिना किसी पैशन के ज़िन्दगी कागज़ के उस खूबसूरत फूल की तरह है जिसमें खुशबू नहीं होती। "पैशन" से इंसान का मन महकता है और महके मन से किये काम की प्रशंशा हर ओर होती है. आज हम जिस शायर की किताब का जिक्र "किताबों की दुनिया ' में करने जा रहे हैं उसको शायरी का 'पैशन' इस कदर है कि वो सिर्फ शायरी में ही जीता है उसे ही ओढ़ता बिछाता है. वो उन फैशनेबल शायरों से अलग है जो व्हाट्सऐप और फेसबुक पर वाह वाही और सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए आननफानन में ग़ज़लों की झड़ी लगा देते हैं :-

मिज़ाज़ अपना यही सोच कर बदल डाला 
दरख्त धूप को साये में ढाल देता है 

ये शायरी तो करिश्मा है दस्ते-कुदरत का 
हैं जिसके लफ्ज़ वही तो ख्याल देता है 
दस्ते कुदरत = कुदरत का हाथ 

ये काम अहले-ख़िरद के लिए है नामुमकिन 
दीवाना पल में समंदर खंगाल देता है 
अहले-ख़िरद = बुद्धिमान लोग 

हमारे दौर में वो शख्स अब कहाँ है 'ज़हीन' 
जो करके नेकियां दरिया में डाल देता है 

हमारे आज के शायर हैं ,10 अगस्त 1979 को जन्मे ,जनाब 'बुनियाद हुसैन' जो शायरी के हलके में 'ज़हीन बीकानेरी’ नाम से जाने जाते हैं जिनकी किताब 'हुनर महकता है' का जिक्र का हम करेंगे। युवा ‘ज़हीन’ ने थोड़े से ही वक्त में शायरी में बड़ा मुकाम हासिल किया है। ये मुकाम उनके पैशन, मेहनत और जूनून का मिला जुला नतीजा है।


उसने मेरे वजूद को ज़ेरो-ज़बर किया 
जब भी किया है वार तो एहसास पर किया 
जेरो-ज़बर : छिन्न भिन्न 

तूने भुला दिए वो सभी यादगार पल 
मैंने तो इंतज़ार तेरा टूटकर किया 

आये थे बिन लिबास ज़माने में हम 'ज़हीन' 
बस इक कफ़न के वास्ते इतना सफर किया 

'ज़हीन' बीकानेरी’ जैसा की उनके तखल्लुस से ज़ाहिर है बीकानेर के जवाँ शायर हैं और बीकानेर के ही अपने उस्ताद जनाब मोहम्मद हनीफ 'शमीम' बीकानेरी साहब से उन्होंने ग़ज़ल की बारीकियां सीखीं। उनका पहला ग़ज़ल संग्रह 'एहसास के रंग ' सन 2008 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुका है, दूसरा 'हुनर महकता है ' ग़ज़ल संग्रह 2013 में प्रकाशित हुआ था।

खरे उत्तर न सके जो कहीं किसी भी जगह 
ये क्या कि वो भी हमें आज़मा के देखते हैं 

तमाम रिश्तों में है कौन कितने पानी में 
ज़रा-सी तल्ख़नवाई दिखा के देखते हैं 

'ज़हीन' रहता है हर वक्त जिनकी नज़रों में 
वही 'ज़हीन' को नज़रें चुरा के देखते हैं 

'ज़हीन' साहब की कामयाबी का राज उनकी सकारात्मक सोच और बुलंद हौसलों में छुपा हुआ है ,वो कहते भी हैं कि :ज़मीं पे हैं कदम, ख़्वाब आसमान के हैं : शिकस्ता पर हैं मगर हौसले उड़ान के हैं " ज़हीन साहब की खासियत है कि वो शायरी में डूबने के साथ साथ अपने कार मेकेनिक के कारोबार को भी बखूबी संभाले हुए हैं। बहुत कम लोग जानते हैं की उन्हें कार के इंजिन हैड को ठीक करने में महारत हासिल है। जिस तरह वो इंजिन के कलपुर्जों की जटिलता से वाकिफ हैं वैसे ही उन्हें इंसानी फितरत उसके रंजो, ग़म, खुशिया, दुःख, बेबसी, उदासी, घुटन की भी जानकारी है तभी तो वो इन ज़ज़्बात अपनी को ग़ज़लों में बखूबी पिरो पाते हैं।

उसने अश्कों के दिए कैसे जला रखें हैं 
रात के घोर अंधेरों में वो तन्हा होगा 

याद आएगा तुम्हें गाँव के पेड़ों का हजूम 
जिस्म जब शहर की गर्मी से झुलसता होगा 

जब भी अंगड़ाई मेरी याद ने ली होगी 
'ज़हीन' उसने आईना बड़े गौर से देखा होगा

'सर्जना' प्रकाशन शिवबाड़ी बीकानेर द्वारा प्रकाशित "हुनर महकता है" किताब में 'ज़हीन' साहब की करीब 90 ग़ज़लें संगृहीत हैं। किताब में दी गयी एक संक्षिप्त भूमिका में डा.मोहम्मद हुसैन जो उर्दू डिपार्टमेंट ,डूंगर कालेज में सद्र हैं, लिखते हैं कि " शायरी महज़ ज़हन की तरंग नहीं बल्कि ये एक संजीदा तख्लीक़ी अमल है। बुनियाद हुसैन 'ज़हीन' में ये संजीदगी नज़र आती है जो उनके शै'री मुस्तकबिल की तरफ इशारा करती है। "

सारी खुशियां इसके पैरों में रहती हैं 
जब चिड़िया की चौंच में दाने रहते हैं 

रंजो-ग़म की धूप यहाँ आये कैसे 
इस बस्ती में लोग पुराने रहते हैं 

सिर्फ भरम उम्मीद का रखने की खातिर 
रिश्तों के सब बोझ उठाने रहते हैं 

बे-घर हैं दुःख-दर्द 'ज़हीन' इनके अक्सर 
खुशियों के घर आने जाने रहते हैं 

'ज़हीन' साहब की शायरी की सबसे बड़ी खासियत है उसकी सादा बयानी। वो जो कहते हैं सुनने पढ़ने वाले के दिल में सीधा उत्तर जाता है उनकी बात समझने के लिए न तो लुगद या शब्दकोष का सहारा लेना पड़ता है और न ही अधिक दिमाग लगाना पड़ता है। वो अपनी बात घुमा फिरा कर नहीं कहते, जो जैसा है सामने रख देते हैं। मेरी नज़र में ये बात एक कामयाब शायर की निशानी है। ये ऐसा हुनर है जो बहुत साधना और काबिल उस्ताद की रहनुमाई से हासिल होता है. जन-साधारण में लोकप्रिय होने के लिए यही खासियत काम आती है। शायरी में इस्तेमाल किये बड़े लफ्ज़ और उलझी फिलासफी की बातें आपको किसी कोर्स की किताब में शामिल जरूर करवा सकती हैं लेकिन किसी के दिल में घर नहीं।

निकहत, बहार, रंग, फ़ज़ा, ताज़गी, महक 
साँसों में तेरी आके गिरफ्तार हो गए 

उनके ख़ुलूसे-दिल का अजूबा न पूछिए 
सुनते ही हाल मेरा वो बीमार हो गए 

ऊंची लगी बस एक ही बोली ज़मीर की 
जितने थे बिकने वाले खरीदार हो गए 

खूबसूरत व्यक्तित्व के मालिक बुनियाद हुसैन साहब इन तमाम खूबसूरत ग़ज़लों के लिए दिली दाद के हकदार हैं। इस किताब की प्राप्ति लिए आप ज़हीन साहब को उनके मोबाइल न 09414265391 पर पहले तो इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए बधाई दीजिये और फिर इस किताब को हासिल करने का आसान तरीका पूछिए। शायरी प्रेमियों का फ़र्ज़ बनता है के वो नए काबिल उभरते हुए शायरों की हौसला अफ़ज़ाही करें क्योंकि आने वाले कल में शायरी का मुस्तकबिल इन्ही के मज़बूत कन्धों पर टिकने वाला है।

आखिर में ज़हीन साहब की एक ग़ज़ल के इन शेरों के साथ विदा लेते हुए आपके लिए अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ।

जिस्म लिए फिरते हैं माना हम लेकिन 
इक-दूजे की रूह के अंदर रहते हैं 

सदियों से बहते देखा है सदियों ने 
इन आँखों में कई समंदर रहते हैं 

हमदर्दी कमज़ोर बना देती है 'ज़हीन' 
हम ज़िंदा अपने ही दम पर रहते हैं

Monday, September 28, 2015

किताबों की दुनिया -110

आज हम अपनी बात मशहूर शायर "शकील ग्वालियरी " द्वारा लिखे लेख की इन पंक्तियों से करते हैं कि " उर्दू शायरी में ग़ज़ल ऐसी विधा है जिसे सैंकड़ों सालों से समझा जा रहा है। जिनका दावा है कि उन्होंने ग़ज़ल को उसके हक़ के मुताबिक समझ लिया है वो एक मुकाम पर ठहर गए हैं। और कुछ वो हैं जो ग़ज़ल को बकवास समझ कर ख़ारिज किये हैं , वो सब किनारे पर खड़े तमाशाई हैं। उन्हें ग़ज़ल की तूफानी ताकत का अंदाज़ा नहीं है। "

निकले हैं दीवार से चेहरे 
बुझे बुझे बीमार से चेहरे 

मेरे घर के हर कोने में 
आ बैठे बाजार से चेहरे 

दादी के संदूक से निकले 
चमकीले दीनार से चेहरे 

मज़हब की दस्तार पहन कर 
चमक रहे तलवार से चेहरे 
दस्तार : पगड़ी 

हमारे आज के शायर डा. ओम प्रभाकर उनमें से हैं जिन्हें ग़ज़ल की ताकत का बखूबी अंदाज़ा है तभी तो उन्होंने हिंदी भाषा में डाक्टरेट करने के बावजूद उर्दू सीखी और शेर कहने में महारत हासिल की उसी का नतीजा है उनका पहला ग़ज़ल संग्रह " ये जगह धड़कती है " जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं।


पुराने चोट खाए पत्थरों के चाक सीनो में 
लिए छैनी हथोडी हाथ में मैमार ज़िंदा हैं 
मैमार : भवन निर्माता ,मिस्त्री 

हैं टीले दीमकों के, था जहाँ पहले कुतुबखाना 
वहाँ कीड़े-मकौड़े-घास-पत्थर-खार ज़िंदा हैं 
कुतुबखाना :पुस्तकालय 

हैं इन गड्डों में शायद तख्ते-साही मसनदें-क़ाज़ी 
उधर वो ठोकरें खाती हुई दस्तार ज़िंदा हैं 
मसनदे-क़ाज़ी : न्यायाधीश का आसन , दस्तार : पगड़ी 

5 अगस्त 1941 को जन्मे श्री ओम प्रभाकर पी एच डी तक शिक्षा प्राप्त हैं। आप शासकीय स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट ) महाविद्यालय एवम शोध केंद्र ,भिंड (म. प्र) में हिंदी के प्रोफ़ेसर एवम विभागाध्यक्ष रहे। बाद में जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के डीन ऑफ फैकल्टी ऑफ आर्ट्स नियुक्त हुए। आजकल उनका स्थाई निवास स्थान 'देवास' म.प्र. है डा. प्रभाकर का रचना संसार बहुत विविधता पूर्ण है। उन्होंने अलग अलग विषयों पर लेख, कवितायेँ, शोध समीक्षाएं, कहानियां, नज़्में और ग़ज़लें कहीं हैं. देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं.
कुछ रचनाएँ उर्दू, बांग्ला,गुजराती,अंग्रेजी, पंजाबी, अरबी और ब्रेल लिपि में अनूदित हुई हैं .

कभी तेरे कभी मेरे सहारे 
मज़े से इश्क ने कुछ दिन गुज़ारे 

जहाँ दरया था अपना रेत है अब 
मगर फिर भी अलहदा हैं किनारे 

दुखी मत हो कि सूरज,चाँद तारे 
चलो आधे मेरे, आधे तुम्हारे 

शकील साहब किताब की भूमिका में आगे लिखते हैं कि " ओम प्रभाकर की ग़ज़ल के अलफ़ाज़ और बंदिशों पर भाषागत बुद्धिजीविता की छाप नहीं है। वो शब्दों की ऐसी संगती पेश करते हैं जो उनके सहज उपचेतन की सतह पर खुद-ब-खुद उभरती है। वो ज़िन्दगी की सच्चाइयों को कला के सत्य के साथ कबूल करते हैं। इसी वजह से उनकी ग़ज़ल हकीकत और ख्वाब के दरम्यान अपना रास्ता बनाती है। "

मोजिज़ा किस्मत का है या है ये हाथों का हुनर 
आ गिरा मेरा जिगर ही आज नश्तर पर मेरे 
मोजिज़ा : चमत्कार 

गो कि रखता हूँ मैं दुश्मन से हिफाज़त के लिए 
नाम तो मेरा मगर लिख्खा है खंज़र पर मेरे 

ढूंढता रहता हूँ अपना घर मैं शहरे-ख्वाब में 
रात भर सोता है कोई और बिस्तर पर मेरे 

उनकी लिखी 'पुष्परचित', 'कंकाल राग' ,'काले अक्षर भारतीय कवितायेँ ' (कविता संग्रह), एक परत उखड़ी माटी (कहानी संग्रह), ' तिनके में आशियाना' (उर्दू ग़ज़लों मज़्मुआ ), 'अज्ञेय का कथा साहित्य ', 'कथाकृति मोहन राकेश ' (शोध समीक्षा), 'कविता -64' और 'शब्द' (सम्पादन) पुस्तकें प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुकी हैं।उन्हें 'पुष्परचित'और बयान पाण्डुलिपि पर म. प्र. साहित्य परिषद और उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृृत किया चुका है. वर्ष 2010 -2011 के लिए म. प्र. उर्दू अकेडमी द्वारा गैर उर्दू शायर को दिया जाने वाला ' शम्भूदयाल सुखन अवार्ड' भी मिल चुका है।

याद रखने से भूल जाने से 
कट गए दिन किसी बहाने से 

घर में भूचाल आ गया गोया 
सिर्फ दरवाज़ा खटखटाने से 

कुल बगीचा ही बन गया नगमा 
एक पंछी के चहचहाने से 

ओम प्रभाकर साहब की ग़ज़लों में हमें अक्सर कुछ ऐसे चौकाने वाले शेर मिलते हैं जिससे उनका अपने वजूद में ग़ुम और उससे लबरेज़ होने के बजाय उस पर आलोचनात्मक निगाह डालने का हौसला भी दिखाई देता है और ये हौसला उन्हें अपने समकालीन शायरों से अलग करता है। हमारी सभ्यता के ह्रास और संस्कृति के पतन की पीड़ा भी उनकी शायरी में झलकती है।

मैं वो हूँ या तुम्हारा दौरे-हाज़िर 
सड़क पर कौन वो औंधा पड़ा है 

मवेशी हैं, न दाना है, न पानी 
कभी थे ,इसलिए खूंटा गडा है 

कुल आलम अक्स है मेरी जुबाँ का 
मेरे लफ़्ज़ों में आईना जड़ा है 

मशहूर शायर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने इसी किताब की दूसरी भूमिका में लिखा है कि " ओम जी की ग़ज़लों में बेतकल्लुफी का लहज़ा और एक तरह की साफगोई का अंदाज़ है। हालाँकि वो हिंदी से आये हैं लेकिन वो ग़ज़ल के लहज़े में शेर कहते हैं और ऐसे मज़्मून लाते हैं जिन्हें आमतौर पर ग़ज़ल में नहीं बरता जाता। ये बहुत बड़ी बात है और ये ऐसा इम्तिहान है जिसमें ग़ज़लगो शायर नाकाम रहते हैं।"

हमारी खिल्वतों की धुन दरो-दीवार सुनते हैं 
चमन में रंगो-बू की बंदिशों को खार सुनते हैं 
खिल्वतों :एकांत 

हवा सरगोशियाँ करती है जो चीड़ों के कानों में 
उसे उड़ते हुए रंगीन गुल परदार सुनते हैं 
रंगीन गुल परदार : पंख वाले रंगीन फूल 

सभी सुनते हैं घर में सिर्फ अपनी अपनी दिलचस्पी 
धसकते बामो-दर की सिसकियाँ बीमार सुनते हैं 

भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित "ये जगह धड़कती है " किताब में ओम जी की लगभग 99 ग़ज़लें संगृहीत हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप 'भारतीय ज्ञानपीठ' , 18 , इंस्टीटूशनल एरिया ,लोदी रोड ,नयी दिल्ली -110003 को लिख सकते हैं , उन्हें sales@jnanpith.net पर मेल भेज सकते हैं या फिर सीधे ओम जी से उनके मोबाइल न 09977116433 पर संपर्क कर सकते हैं।

ओम जी की एक ग़ज़ल के इन शेरों को आपकी खिदमत में प्रस्तुत करते हुए अब मैं निकलता हूँ एक किताब की तलाश में।

जो अक्सर बात करता था वतन पर जान देने की 
उसे देखा तो पूरा पेट ही था सर नदारद था 

कहीं सर था, कहीं धड़ था, कहीं बाजू कहीं पा थे 
मगर कातिल न दीखता था कहीं, खंज़र नदारद था 

वहां पर एक आलिशान बंगला मुस्कुराता था 
मगर मेरे पिता की कब्र का पत्थर नदारद था