Monday, June 17, 2013

किताबों की दुनिया - 83

("इस ब्लॉग से आप सब के प्यार का नतीजा है ये 301 वीं पोस्ट" )

*********

जागती आँखों ही से सोती रहती हूँ 
मैं पलकों में ख़्वाब पिरोती रहती हूँ 

तेजाबी बारिश के नक्श नहीं मिटते 
मैं अश्कों से आँगन धोती रहती हूँ 

मैं खुशबू की कद्र नहीं जब कर पाती 
फूलों से शर्मिंदा होती रहती हूँ 

जब से गहराई के खतरे भांप लिए 
बस साहिल पर पाँव भिगोती रहती हूँ 

मैं भी 'नुसरत' उसके लम्स की गर्मी से 
कतरा कतरा दरिया होती रहती हूँ

"किताबों की दुनिया " में अरसे से तलाशी जा रही एक शायरा द्वारा लिखी ग़ज़लों वाली किताब आखिर मिल ही गयी. ऐसा नहीं है कि सिर्फ शायर ही ग़ज़लें कह रहे हैं लेकिन ये मेरी बदकिस्मती थी की मुझे किसी शायरा की ऐसी किताब नहीं मिली जिसका जिक्र अपनी इस श्रृंखला में करता। आखिर बिल्ली के भाग का छींका टूटा और शिवना प्रकाशन, सीहोर,म.प्र. ने "नुसरत मेहदी " साहिबा की किताब "मैं भी तो हूँ " छाप कर मेरी मुराद पूरी कर दी।


कतरा के ज़िन्दगी से गुज़र जाऊं क्या करूँ 
रुसवाइयों के खौफ़ से मर जाऊं क्या करूँ 

मैं क्या करूँ के तेरी अना को सुकूँ मिले 
गिर जाऊं, टूट जाऊं, बिखर जाऊं क्या करूँ 

फिर आके लग रहे हैं परों पर हवा के तीर 
परवाज़ अपनी रोक लूं डर जाऊं क्या करूँ 

 प्रसिद्द साहित्यकार श्री पंकज सुबीर ने इस किताब में एक जगह लिखा है "ग़ज़ल, ये शब्द सुनते ही दिमाग में परों से हल्के शब्द, रेशम के महीन धागों से बहुत नफासत के साथ लगाए गए जोड़, चांदनी का पानी छिड़क कर चमकाए हुए और चन्दन की खुशबू से महकाए हुए विन्यासों का ख्याल आ जाता है। और इन सब उपमाओं पर पूरी तरह से खरी उतरती हैं नुसरत मेहदी जी की ग़ज़लें।"

हर कोई देखता है हैरत से 
तुमने सब को बता दिया है क्या 

क्यूँ मेरा दर्द सहते रहते हो 
कुछ पुराना लिया दिया है क्या 

क्यूँ हवाओं से लड़ता रहता है
कौन है आस का दिया है क्या 

 मध्य प्रदेश उर्दू अकेडमी की सचिव नुसरत साहिबा ने शायरी के अलावा लेख ,कहानियां, ड्रामा आदि साहित्य की हर विधा पर सफलता पूर्वक अपनी कलम चलाई है। बशीर बद्र साहब इस किताब की भूमिका में लिखा है "नुसरत हमारे दौर की शाइ रात में विशिष्ट ढंग की शाइरा हैं. पुरानी किसी महान शाइरा से उनकी तुलना या प्रतिस्पर्धा करना उचित नहीं। उनकी शायरी आज के दौर में ज़िन्दगी की सच्चाइयों का उदगार है."

अपनी बे चेहरगी भी देखा कर 
रोज़ इक आईना ना तोड़ा कर 

ये सदी भी कहीं ना खो जाए 
अपनी मर्ज़ी का कोई लम्हा कर 

मसअले हैं तो हल भी निकलेंगे 
पास आ, साथ बैठ, चर्चा कर 

नुसरत जी को उनके साहित्यिक योगदान के लिए "खातूने अवध सम्मान -लखनऊ के अलावा कह्कशाने अवध भोपाल और माइनोरिटी फोरम द्वारा भी सम्मानित किया गया है " उनका संकलन "इन्तेखाबे सुख़न" को एम ऐ (उर्दू) के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है.
इशरत कादरी साहब का विचार है की नुसरत साहिबा की ग़ज़लों में परम्परागत, प्रगतिशील और आधुनिक विचारों के साथ निजी भावनाओं का दर्द, माहौल की घुटन के अलावा जीती जागती ज़िन्दगी का बिखराव, समस्याएं और राजनितिक सतह पर असमानता आदि पर उनके विचार और अनुभव दिखाई देते हैं .

मैं हूँ इक जिंदा हकीकत मुझे महसूस करो 
मैं किसी कोने में रखी हुई तस्वीर नहीं 

घर की देहलीज़ मेरे साथ चला करती है 
देखने में तो मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं 

मैंने जो पाया वो सब अपने अमल से पाया 
मेरे हाथों की लकीरें मिरी तकदीर नहीं 

इस किताब को पढ़ते हुए आप जनाब जुबैर रिज़वी साहब की इस बात से इतेफाक रखेंगे की " नुसरत साहिबा ने आधुनिक फैशन वाले भावों को अपनी ग़ज़लों में आने नहीं दिया। इस रवैये से उनकी ग़ज़ल केन्द्रीय मुख्य धारा से बाहर नहीं आती। वो शेर को ग़ज़ल का शेर बनाकर पढने वालों को सौंपती हैं।

कोई ग़म याद नहीं शिकवा गिला याद नहीं 
आज कुछ भी तेरी चाहत के सिवा याद नहीं 

ये तेरे नाम की तासीर है वरना पहले 
ऐसे निखरी हो हथेली पे हिना याद नहीं 

उसने बेजुर्म सजा दी थी मगर अब 'नुसरत' 
मैं हूँ मुन्सिफ तो मुझे उसकी जफा याद नहीं 
मुंसिफ:इन्साफ करने वाला 

आप इस किताब की प्राप्ति के लिए शिवना प्रकाशन को shivna.prakashan@mail.com मेल करें या फिर पंकज सुबीर जी से उनके मोबाइल 9977855399 पर संपर्क करें। किताब पढ़ें और पढ़ कर नुसरत जी को उनके मोबाइल 9425012227 पर इतनी खूबसूरत और दिलकश शायरी के लिए बधाई दें . आप ये काम करें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए ढूँढने एक और किताब और हाँ चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये शेर भी आपकी खिदमत में पेश करते हैं :

मिरे आँगन में उड़कर आ रही है 
नए मौसम नए लम्हों की खुशबू 

महकने की इजाज़त चाहती है 
हंसी चाहत भरे ज़ज्बों की खुशबू 

कई सपने सजाकर रख गयी है 
मिरी पलकों पे उन होठों की खुशबू 

चली आती है हर शब् गुगुनाती 
हवा के दोश पर यादों की खुशबू 



Monday, June 3, 2013

नीम के ये पेड़


हो खफा हमसे वो रोते जा रहे हैं 
और हम रुमाल होते जा रहे हैं 

नीम के ये पेड़ इक दिन आम देंगे 
 सोच कर रिश्तों को ढोते जा रहे हैं

पत्थरों से दोस्ती कर ली है जब से 
आईने पहचान खोते जा रहे हैं 

कब तलक दें फूल उनको ये बताओ 
जो हमें कांटे चुभोते जा रहे हैं

रहनुमा मक्खन का वादा करके देखो 
कब से पानी ही बिलोते जा रहे हैं 

है यकीं इक दिन यहीं गुलशन बनेगा 
बीज हम बंज़र में बोते जा रहे हैं 

पास मत आना हमारे, कह रहे जो 
आँख से "नीरज" वो न्योते जा रहे हैं