Monday, December 30, 2013

किताबों की दुनिया - 90



सभी पाठकों को नव वर्ष कि ढेरों शुभकामनाएं

*****

ख़ुशी के गीत लिखेगी हयात फूलों पर
बया ने टांग दिए घौंसले बबूलों पर

सुनहरी राहों पे चलते तू भी थका होगा
जरा सा बैठ लें इन घास के दुकूलों पर

'नज़र जहान में होते हैं लोग कम ऐसे
कि सर कटा दिया करते हैं जो उसूलों पर

जब कभी किताबों कि दुनिया में ऐसे शायर की किताब का जिक्र आता है जो युवा है या जो बहुत छोटी अनजान जगह का रहने वाला है तब मुझे जो ख़ुशी हासिल होती है उसे बयां नहीं कर सकता। इस से ये बात ज़ाहिर होती है कि शायरी उम्र दराज़ और बड़ी जगह के शायर की मोहताज़ नहीं होती . मानवीय रिश्तों के पौधे जितने युवाओं में या दूर दराज़ के इलाकों में फलते हैं उतने उम्र दराज़ या शहरी चकचौंध में रहने वाले शायरों में नहीं. नये साल की शुरुआत हम ऐसे ही एक युवा और दूर दराज़ इलाके के शायर की किताब के साथ कर रहे हैं।

नहीं उनको अभी तक मौसमों के छल का अंदाजा
छतों पर बैठ कर जो धूप में जुल्फें सुखाते हैं

अज़ब फ़नकार हैं ये लोग तेरे शहर वाले भी
बजा कर पत्थरों से आईनों को आज़माते हैं

किसी को जब मिला कीजे सदा हंस कर मिला कीजे
उदास आँखों को अक्सर लोग जल्दी भूल जाते हैं   

राजस्थान के जिले 'सवाई माधोपुर' की 'बामनवास' तहसील के गाँव 'पिपलाई' का नाम आपने शायद ही सुना हो, ईमानदारी से कहूं तो राजस्थान में पचास से ऊपर वर्षों रहने के बावजूद मैंने भी नहीं सुना था . 'सवाई माधोपुर' तो मैं गया हूँ लेकिन उसकी किसी तहसील में नहीं ,इस छोटी सी अनजान जगह के उम्र में छोटे लेकिन शायरी में कद्दावर शायर ए.एफ.'नज़र' का नाम भी मेरे अन्जाना ही था.

चूल्हा चौका फ़ाइल बच्चे, दिन भर उलझी रहती है
वो घर में और दफ्तर में अब आधी आधी रहती है

मिलकर बैठें दुःख सुख बांटे इतना हम को वक्त कहाँ
दिन उगने से रात गए तक आपा-धापी रहती है

क्या अब भी घुलती हैं रातें चाँद परी की बातों में
क्या तेरे आँगन में अब भी बूढी दादी रहती है  

दिलचस्प बात ये है कि 30 जून 1979 को जन्में 'नज़र' साहब का मूल नाम 'अशोक कुमार फुलवरिया' है. आप हिंदी साहित्य में एम.ए. हैं साथ ही बी.एड. और बी.एस.टी.सी. के कोर्स भी किये हैं। 'नज़र' साहब की किताब का मेरी नज़र में आना भी कम दिलचस्प नहीं। किताब की खोज में जयपुर के ‘लोकायत प्रकाशन’ गया जहाँ हमेशा की तरह शेखर जी किसी हिसाब किताब में व्यस्त गर्दन झुकाये बैठे थे. मुझे देखा मुस्कुराये और बोले अरे नीरज जी इस बार आपको निराशा ही हाथ लगेगी , आपके मतलब की सारी किताबें उदयपुर में चल रहे पुस्तक मेले में भेजी हुई हैं , आज तो आप चाय पियें और गप्पें मारें .लेकिन साहब हम उन में से नहीं जो यूँ हार मान जाएँ। पूरी दुकान खंगाल डाली कुछ नहीं मिला ऊपर से चाय भी आ गयी। चाय पीने के लिए अचानक मुड़ा तो लड़खड़ा गया और किताबों के ढेर पे ढेर हो गया। ढेर में लगीं किताबें गिरीं और बीच में दबी ये किताब "पहल" नज़र आ गयी. पन्ने पलटे तो बांछे खिल गयीं.

फ़ुर्सतों में जब कभी मिलता हूँ दिन इतवार के
मुस्कुरा देते हैं गुमसुम आईने दीवार के

हादसों की दहशतें हैं गाड़ियों का शोर है
शहर में मौसम कहाँ है फ़ाग और मल्हार के

कीमतें रोटी की क्या हैं मुफ़लिसों से पूछिए
भाव जो देखें हैं तुमने झूठ हैं अखबार के

देश के नामी गरामी प्रकाशकों जैसे वाणी, डायमंड, वाग्देवी, अयन जिन्होंने दूर दराज़ के शायरों की शायरी को हिंदी के आम पाठकों तक पहुँचाया है में अब बोधि प्रकाशन, जयपुर का नाम भी जुड़ गया है. बोधि प्रकाशन से शायरी की कुछ बहुत अच्छी किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनमें से कुछ का जिक्र इस श्रृंखला में कर चुका हूँ और कुछ का बाकी है."पहल" भी बोधि प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई है .



दीवारो दर तो उसने सजा कर रखे मगर
खुद को संवारने की ही फुर्सत नहीं मिली

मंगल से ले के चाँद के दर तक पहुँच गया
इंसान को कहीं पे भी राहत नहीं मिली

माँ बाप को तो मिल गयी राहत तलाक से
बच्चों को उनके हक़ कि मुहब्बत नहीं मिली 

इस किताब को खरीद कर पढ़ने के लिए आप बोधि प्रकाशन के माया मृग जी से 98290-18087 पर संपर्क कर सकते हैं या फिर इस किताब को ऑन लाइन भी मंगवा सकते हैं . आप इस किताब की प्राप्ति के लिए चाहे जो विधि अपनाएँ लेकिन इस के शायर नज़र साहब जो इनदिनों पोकरण थार डिस्ट्रिक्ट राजस्थान में कार्यरत हैं, को उनके फेसबुक पेज पर या उनके मोबाइल न. 96497-18589  पर फोन करके उनकी इस उम्दा शायरी के लिए मुबारकबाद जरूर दें .पाठकों की प्रशंसा शायर का खून किस कदर बढ़ा देती है इसका शायद आपको अंदाज़ा नहीं है। इस प्रशंसा से वो और भी अच्छा लिखने को प्रेरित होता है और जो शायर प्रशंसा से फूल कर कुप्पा हो जाते हैं उनके पतन में समय नहीं लगता .   

आज भी घर अपने शायद देर से पहुंचूंगा मैं
रास्ता रोके खड़ी हैं लाल-पीली बत्तियां

बिछ गयीं गलियों में लाशें और घरौंदे जल चुके
आ गयीं पुरसिश को कितनी लाल-नीली बत्तियां

बंद कर कमरे कि बत्ती आ मेरे पहलू में आ
खोल दे बिस्तेर पे मेरे दो नशीली बत्तियां

शहर का सच झील के दामन पे लिख्खा है 'नज़र'
थरथराती बिल्डिगें और गीली-गीली बत्तियां

हार्ड बाउंड में उपलब्ध इस किताब में 'नज़र' साहब की साठ से अधिक ग़ज़लें और ढेरों फुटकर शेर संग्रहित हैं जो पाठकों को इक्कीसवीं सदी की शायरी में प्रेम ,वियोग ,निराशा, आशा, अवसाद , ख़ुशी,समाज का दर्द और भूख की पीड़ा के अनेक रंग वीरान बदलते तेवरों के साथ दिखाते हैं . उनकी ग़ज़लें नव ग़ज़लकारों में अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं. इस युवा ग़ज़लकार से आप उनके af.nazar@rediffmail.com मेल आई डी पे गुफ्तगू करें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए शायरी की एक और किताब ढूढ़ने .

अब आँधियों की ज़द में हैं वीरान खिड़कियां
सर मारती हैं यार परेशान खिड़किया

मिलती हैं हर गली कि हवाओं से झूम कर
घर कि रिवायतों से हैं अनजान खिड़कियां

ये चेहरे जैसे झांकती बेताब ग़ज़लें हों
गोया कि शायरों के हैं दीवान खिड़कियां  

Monday, December 16, 2013

मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे


इन दिनों शादियों का सीजन अपने चरम पर है , हर शहर गली मुहल्लों में शादियों कि धूम मची हुई है। जिनकी हो रही है वो बहुत खुश हैं जिनकी नहीं हुई वो होने कि आस लगाए बैठे हैं और जिनकी हो गयी है वो गा रहे हैं " सोचा था क्या क्या हो गया ...." 

इस मौके को ध्यान में रखते हुए मुम्बई निवासी मेरे प्रिय मित्र श्री सतीश शुक्ला "रकीब" जो गलती से शायर भी हैं ने सप्त पदी पर एक ग़ज़ल कह डाली है। ये ऐसा विषय है जिस पर शायद ही किसी शायर ने कलम चलाई हो।     

मेरी मानें और इस ग़ज़ल को रट कर जिस शादी में जाएँ वहीँ सुनाएँ और वाह वाही पाएं।


अंजान हैं, इक दूजे से पहचान करेंगे
मुश्किल है ये जीवन, इसे आसान करेंगे

खाई है क़सम साथ निभाने की हमेशा 
हम आज सरेआम ये ऐलान करेंगे 

इज़्ज़त हो बुज़ुर्गों की तो बच्चों को मिले नेह
इक दूजे के माँ-बाप का सम्मान करेंगे

हम त्याग, सदाचार, भरोसे की मदद से 
हर हाल में परिवार का उत्थान करेंगे 

आपस ही में रक्खेंगे फ़क़त, ख़ास वो रिश्ते 
हरगिज़ न किसी और का हम ध्यान करेंगे

हर धर्म निभाएंगे हम इक साथ है वादा
तन्हा न कोई आज से अभियान करेंगे

सुख-दुख हो, बुरा वक़्त हो, या कोई मुसीबत 
मिल बैठ के हम सबका समाधान करेंगे 

जीना है हक़ीक़त के धरातल पे ये जीवन 
सपनोँ से नहीं ख़ुद को परेशान करेंगे 

जन्नत को उतारेंगे यही मंत्र ज़मीं पर 
सब मिल के 'रक़ीब' इनका जो गुणगान करेंगे

Monday, December 2, 2013

किताबों कि दुनिया -89


मिरी ज़िन्दगी किसी और की, मेरे नाम का कोई और है
मिरा अक्स है सर-ए-आईना, पसे -ए -आईना कोई और है

न गए दिनों कि ख़बर मिरी, न शरीके हाल नज़र तिरी
तिरे देश में, मिरे भेष में कोई और था कोई और है  

न मकाम का, न पड़ाव का, ये हयात नाम बहाव का
मिरी आरज़ू न पुकार तू, मिरा रास्ता कोई और है

ऐसे दिलकश शेरों से जड़ी ग़ज़ल के शायर "मुज़फ्फ़र वारसी" साहब की ऐसी कई लाज़वाब ग़ज़लों का संपादन किया है जनाब सुरेश कुमार जी ने और जिसे "दर्द चमकता है" शीर्षक से किताब की शक्ल में छापा है "डायमंड बुक्स -दिल्ली ने। आज हम "किताबों कि दुनिया " श्रृंखला की इस कड़ी में इसी किताब का जिक्र करने वाले हैं .


ग़म से छुप कर इज़हार-ए -ग़म करते हैं
पाँव में घुँघरू बाँध के मातम करते हैं

काँटा भी तलवे का निकाल लें कांटे से
दर्द को दर्द कि शिद्दत से कम करते हैं

अपनी प्यास के हाथों हम बदनाम हुए
दरिया पीकर शबनम शबनम करते हैं

एटम बम ईज़ाद मुज़फ्फ़र इंसां की
और कीड़े तख़लीक़-ए-रेशम करते हैं
तख़लीक़-ए-रेशम= रेशम कि रचना

मेरठ के सूफी वारसी नाम से प्रसिद्द जमींदार परिवार में 20 दिसम्बर 1933 को मुज़फ्फर साहब का जन्म हुआ .बचपन से ही उन्हें सूफियाना माहौल मिला . घर में अक्सर जमतीं शायरी की महफिलों में अल्लामा इक़बाल, जोश मलीहाबादी, कुंअर महिंदर सिंह बेदी सहर, हसरत मोहानी जैसे कद्दावर शायरों की संगत में शायरी की बारीकियां सीखीं .

नक्श दिल पर कैसी कैसी सूरतों का रह गया
कितनी लहरें हमसफ़र थीं फिर भी प्यासा रह गया

कैसी कैसी ख्वाइशें मुझसे जुदा होती गयीं
किस क़दर आबाद था और कितना तनहा रह गया

उससे मिलना याद है मिलकर बिछड़ना याद है     
क्या बता सकता हूँ क्या जाता रहा क्या रह गया

मैं ये कहता हूँ कि हर रूख़ से बसर की ज़िन्दगी
ज़िन्दगी कहती है हर पहलू अधूरा रह गया

साधारण बोलचाल की भाषा के लफ़्ज़ों को अपनी ग़ज़लों में ढालने के हुनर से वारसी साहब को उर्दू अदब में बहुत ऊंचा स्थान मिला है . यही वजह है की उनके कलाम को पकिस्तान और हिंदुस्तान के मशहूर ग़ज़ल गायकों ने गा कर लोकप्रिय किया है। पाकिस्तान जो उनका वतन था की बात क्या करनी, उनकी शायरी को हिंदुस्तान से प्रकाशित होने वाली प्रायः सभी उर्दू पत्रिकाओं ने छापा है.      

शोला हूँ भड़कने की गुज़ारिश नहीं करता
सच मुंह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता

गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन
चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश नहीं करता
परस्तिश =पूजा

लहरों से लड़ा करता हूँ दरिया में उतर के
साहिल पे खड़े हो के मैं साज़िश नहीं करता

हर हाल में खुश रहने का फ़न आता है मुझको
मरने कि दुआ, जीने की ख्वाहिश नहीं करता    

'बर्फ की नाव', 'खुले दरीचे बंद हवा', 'कमंद', 'लहू कि हरियाली', 'लहज़ा', आदि उनकी प्रसिद्द किताबें हैं। उनकी आत्मकथा " गए दिनों का सुराग " उर्दू अदब में क्लासिक का दर्ज़ा रखती है." दर्द चमकता है " देवनागरी में उनकी ग़ज़लों का पहला संग्रह है जिसमें उनकी मशहूर ग़ज़लों में से 90 को शुमार किया गया है।

तमाम उम्र मिरी इस तरह कटी जैसे
कमर पे हाथ बंधे हैं गले में फंदा है

जहाँपनाह भी मुझको पनाह क्या देगा
खुदा जो बनता है वो भी खुदा का बन्दा है

हर एक चीज़ मुज़फ्फ़र है किस क़दर महंगी
बस आदमी की शराफ़त का भाव मंदा है   

वारसी जी ने अपने लेखन कि शुरुआत पाकिस्तानी फिल्मों के गीत लिखने से की और फिर धीरे धीरे नज़्म,हम्द और नात लेखन की और मुड़ गए. नात लेखन और उसे गाने के अंदाज़ से उन्हें बहुत मकबूलियत हासिल हुई .इन्हीं सब के बीच उनका ग़ज़ल लेखन का सिलसिला भी चलता रहा.

      
मेरा किरदार है मिरी पहचान
लूं न खैरात दास्तानो से

मुझको ऊंचा उछाल दो लहरो
मेरा क़द कम न हो चटानों से

घिर गया दोस्ती के जंगल में
तीर आने लगे मचानों से 

पाकिस्तान सरकार द्वारा "प्राइड आफ परफॉर्मेंस" पुरूस्कार से सम्मानित मुज़फ्फ़र साहब ने 28 जनवरी 2011 को लाहोर में इस दुनिया-ए -फ़ानी को अलविदा कह दिया. वो चाहे अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी लिखी हज़ारों हम्द ,नात,नज़्म और ग़ज़लें हमेशा ज़िंदा रहेंगी.   

वो अपने ज़ेहन में रहते हैं घर नहीं रखते
दिया जला के जो दीवार पर नहीं रखते
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वो यूँ खामोश रहा, बोलता रहा जैसे
मैं बोलता रहा और कुछ न कह सका जैसे
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अब तो कुछ यूँ हमें तस्वीर हमारी देखे
हार कर जैसे जुआरी को जुआरी देखे
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सर से गुज़रा भी चला जाता है पानी की तरह
जानता भी है कि बरदाश्त की हद होती है
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पहले रग रग से मिरी खून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है कि रंगत ही मिरी पीली है

Monday, November 18, 2013

आप भी तो अब पुराने हो गये




दूर होंठों से तराने हो गये 
हम भी आखिर को सयाने हो गये 

यूं ही रस्ते में नज़र उनसे मिली 
और हम यूं ही दिवाने हो गये 

दिल हमारा हो गया उनका पता 
हम भले ही बेठिकाने हो गये 

खा गई हमको भी दीमक उम्र की 
आप भी तो अब पुराने हो गये 

फिर से भड़की आग मज़हब की कहीं 
फिर हवाले आशियाने हो गये 

खिलखिला के हंस पड़े वो बेसबब 
बेसबब मौसम सुहाने हो गये 

आइये मिलकर चरागां फिर करें 
आंधियां गुजरे, ज़माने हो गये 

लौटकर वो आ गये हैं शहर में 
आशिकों के दिन सुहाने हो गये 

देखकर "नीरज" को वो मुस्का दिये 
बात इतनी थी, फसाने हो गये

Monday, November 4, 2013

किताबों कि दुनिया - 88


सभी पाठकों को दीपावली कि हार्दिक शुभकामनाएं

रिवायती ग़ज़लों की किसी किताब का जिक्र किये एक लम्बा अरसा बीत गया है . आप गौर करें तो पाएंगे कि पिछले कुछ सालों में ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में क्रांति सी आ गयी है .आज कि ग़ज़लें आम इंसान के सुख दुःख परेशानियों और जद्दोजेहद कि नुमाइंदगी करने लगीं हैं .ऐसे में रिवायती ग़ज़लें अपनी पहचान खोती जा रही हैं क्यूँ कि वो अब आम इंसान से नहीं जुड़ पातीं,  लेकिन साहब रिवायती ग़ज़लें पढ़ने का अपना लुत्फ़ है

सबसे तू रस्मो-राह करता जा
ग़ैर से भी निबाह करता जा

मैं दुआ ही दिया करूँगा तुझे
तू मुझे , गो , तबाह करता जा

मना करता है कौन जाने को
       दिल पै भी इक निगाह करता जा       

मैंने सोचा पाठक दिवाली के मूड में होंगे और उस मूड को रिवायती ग़ज़लें ही देर तक बखूबी कायम रख सकती हैं लिहाज़ा इस खास मौके पर आज किताबों कि दुनिया में जनाब माधो प्रसाद सक्सेना 'आज़ाद' लखनवी साहब की संकलित ग़ज़लों की  बेमिसाल किताब 'सहराई फूल " आपकी खिदमत में लेकर हाज़िर हुआ हूँ .


न जानो उसको आशिक़ जिस को मिट जाना नहीं आता
नहीं वह शमआ जिसके पास परवाना नहीं आता

इसे ज़िद है न जाएगा तुम्हारे आस्ताने में
तुम्हीं समझाओ दिल को, मुझको समझाना नहीं आता
आस्ताने : ठिकाना

जला कर शमअ तुर्बत पर,कहा ये नाज़ से उसने
अरे उठ मरने वाले तुझको जल जाना नहीं आता
तुर्बत : क़ब्र

भला वह हुस्न ही क्या हुस्न जिस पर दिल न माइल हो
नहीं वह दिल कि जिस दिल को उलझ जाना नहीं आता

'आज़ाद' लखनवी साहब का जन्म सन 1890 में लखनऊ में हुआ . अपने सत्तर वर्ष के जीवन काल में उन्होंने लगभग पांच सौ ग़ज़लें और नज़में कहीं जो उनके जीते जी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित नहीं हो पायीं . सन 1961 में उनके इंतेकाल के लगभग साठ वर्षों बाद उनके नाती श्री अनिल चौधरी और अलवर के श्री राधे मोहन राय जी के सम्मिलित प्रयासों से उनमें से कुछ ग़ज़लें इस पुस्तक में प्रकाशित की गयीं हैं .   

ख़ुदा जाने मेरे दिल को हुआ क्या
बताओ तो सही तुमने कहा क्या

तेरी फ़ुर्क़त में जो दम तोड़ता हो
दुआ उसके लिए कैसी दवा क्या
फ़ुर्क़त :वियोग

मसल डाला जो चुटकी से मेरा दिल
तुम्हीं बोलो कि तुमको मिल गया क्या   

आज़ाद साहब अपनी रचनाओं को बहुत खूबसूरती से एक रजिस्टर में दर्ज़ किया करते थे और उम्मीद करते थे की किसी दिन उनका ये रजिस्टर एक किताब कि शक्ल में मंज़रे आम पर आएगा , लेकिन उनका सपना उनके सामने साकार नहीं हो पाया। आज़ाद साहब कि शायरी पढ़ते हुए आप किसी और ही दुनिया की सैर पर निकल जाते हैं . उनकी शायरी में विरह प्रेम पीड़ा और एक तरफ़ा मुहब्बत और उसके तमाम पहलुओं का जिक्र मिलता है। इश्के-हक़ीक़ी में सरोबार उनकी चंद ग़ज़लें तो लाजवाब हैं।

कोई बतलाय यह मुझको कि परवाने पै क्या गुज़री
बड़ा अरमान था मरने का मर जाने पै क्या गुज़री

शराबे-हुस्न वो आँखों से तो अपनी पिलाते हैं
कोई पूछे कि साग़र और पैमाने पै क्या गुज़री

चमन में चार तिनकों से नशेमन को बनाया था
फ़लक से बिजलियों के फिर चमक जाने पै क्या गुज़री

अगर आप खालिस उर्दू में रचित शायरी पसंद करते हैं और उर्दू लिपि पढ़ नहीं पाते तो ये ये किताब आपके लिए किसी वरदान से कम नहीं। उनकी हर ग़ज़ल में उर्दू के खूबसूरत लफ़्ज़ों कि भरमार है जो हिंदी पाठकों के लिए समझना थोड़ी मुश्किल जरूर लेकिन उनके आसान मानी भी साथ दिए होने की वजह से पढ़ी और समझी जा सकती है. वैसे भी ये उस ज़माने कि शायरी है जब इंसान सीधे सरल ईमानदार और दूसरों कि मदद को हमेशा तत्पर रहा करते थे। आज़ाद साहब रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और अपनी सेवा काल के दौरान बनारस मिर्ज़ापुर फ़ैज़ाबाद आदि स्थानो पर तैनात रहे . वो जहाँ रहे दूसरों कि मदद करते रहे और अपने घर में नियमित रूप से शायरी कि महफिले सजाते रहे।

सख्त-जानी से मेरी तंग आ गया जल्लाद भी
कुंद हो कर रह गया है खंजरे-फ़ौलाद भी 

यह कोई शिकवा नहीं है पूछना है इस क़दर
तुम नहीं आये तो क्यूँ आई तुम्हारी याद भी

शौक़ से ज़ुल्मों -सितम करते रहो आज़ाद पर
लेकिन इतना चाहिए सुनते रहो फ़रियाद भी

इस किताब में श्री राधे मोहन राय साहब का ग़ज़ल और आज़ाद साहब के व्यक्तित्व पर लिखा लेख दिलचस्प और पढ़ने लायक है .ग़ज़ल क्या है कैसे कही जाती है और क्यूँ इतनी लोकप्रिय है जैसे विषयों पर उन्होंने से विस्तार से चर्चा की है। आज़ाद साहब के कलाम के लिए वो लिखते हैं " आज़ाद लखनवी कि ग़ज़ल उपमा-रूपक कि दृष्टि से ही नहीं, विषय वास्तु और शैली कि दृष्टि से भी पूरी तरह रवायती ग़ज़ल कही जा सकती है, उनका कलाम निहायत पाकीज़ा है।

न छुरी है न तो खंज़र है न तलवार है इश्क
आप ही ज़ख्म है और आप ही वार है इश्क

हर जगह एक नये भेस में आता है नज़र
है अजब ढंग,कहीं गुल है कहीं ख़ार है इश्क

इश्क ही इश्क है बस दोनों जहाँ में रौशन
इश्क क्या चीज़ है इक मतलाए -अनवार है इश्क
मतलाए-अनवार: प्रकाश पुंज 

अयन प्रकाशन, महरौली, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह में किमाम के पान और तम्बाकू,हुक्के और पतंग बाज़ी के शौकीन जनाब आज़ाद साहब कि चुनिंदा अस्सी ग़ज़लें और ग्यारह नज़में शामिल हैं। किताब प्राप्ति के लिए आप जैसा कि मैं हर बताता हूँ आप अयन प्रकाशन के श्री भूपल सूद साहब जो ग़ज़ब के इंसान हैं से उनके मोबाइल न. 9818988613 पर संपर्क करें. 

चलते चलते लीजिये पढ़िए आज़ाद साहब की एक ग़ज़ल के कुछ और शेर

हमें क़त्ल करके वो पछता रहे हैं
हम उनकी नदामत से शरमा रहे हैं
नदामत::पश्चाताप

तेरी याद में और तसव्वुर में तेरे
बहरहाल दिल अपना बहला रहे हैं

क़फ़स में भी है हमको यादे नशेमन
परेशान तिनके नज़र आ रहे हैं
कफस: कैद , यादे नशेमन : घौंसले की याद  

Monday, October 21, 2013

राह तयकर इक नदी सी


( एक पुरानी ग़ज़ल नए पाठकों के लिए ) 

 कब किसी के मन मुताबिक़ ही चली है जिन्दगी 
राह तयकर इक नदी सी, ख़ुद बही है जिन्दगी 

ये गुलाबों की तरह नाज़ुक नहीं रहती सदा 
तेज़ काँटों सी भी तो चुभती कभी है जिन्दगी 

मौत से बदतर समझ कर छोड़ देना ठीक है 
ग़ैर के टुकड़ों पे तेरी, गर पली है ज़िन्दगी 

बस जरा सी सोच बदली, तो मुझे ऐसा लगा 
ये नहीं दुश्मन, कोई सच्ची सखी है ज़िन्दगी 

जंग का हिस्सा है यारो, जीतना या हारना 
ख़ुश रहो गर आख़िरी दम तक, लड़ी है जिन्दगी 

मोल ही जाना नहीं इसका, लुटा देने लगे 
क्या तुम्हें ख़ैरात में यारो मिली है जिन्दगी ? 

जब तलक जीना है "नीरज", मुस्कुराते ही रहो 
क्या ख़बर हिस्से में अब कितनी बची है जिन्दगी

Monday, October 7, 2013

किताबों की दुनिया - 87


सुब्हों को शाम, शब को सवेरा नहीं लिखा
हमने ग़ज़ल लिखी है क़सीदा नहीं लिखा

ख़त यूँ तो मैंने लिक्खा है तफ़सील से उन्हें
लेकिन कहीं भी हर्फ़े-तमन्ना नहीं लिखा

जिससे फ़क़त अमीरों के चेहरे दमक उठें
      उस रौशनी को मैंने उजाला नहीं लिखा     

उर्दू शायरी के दीवानों और मुशायरों का लुत्फ़ उठाने वालों के लिए जनाब 'मंसूर उस्मानी' साहब का नाम अनजाना नहीं है . मंसूर भाई अपनी निजामत से किसी भी मुशायरे को बुलंदियों पर पहुँचाने का दम-ख़म रखते हैं। वो उन चंद शायरों में से हैं जिनका   कलाम पाठकों को पढने में उतना ही मज़ा देता है जितना सामयीन को मुशायरे के मंच से उन्हें सुनने में।

आज हम उन्हीं की देवनागरी में छपी किताब " अमानत " का जिक्र अपनी इस श्रृंखला में करेंगे।     

रखिये हज़ार कैद अमानत को इश्क की 
लेकिन ये अश्क बन के छलकती जरूर है

जाने वो दिल के ज़ख्म हैं या चाहतों के फूल
रातों को कोई चीज महकती जरूर है

'मंसूर' ये मिसाल भी है कितनी बेमिसाल
चिलमन हो या नक़ाब सरकती जरूर है

इस किताब में बहुत से शायरों ने मंसूर साहब की शायरी और शख्शियत के बारे में बात की है, इसी क्रम में डा . उर्मिलेश की लिखी बात आप सब को पढवाना चाहता हूँ वो लिखते हैं : मंसूर साहब की ग़ज़लें माचिस की उन तीलियों की तरह हैं,  जिनसे आप कान ख़ुजाने का मज़ा भी ले सकते हैं और वक्त पड़ने पर इनसे आग जलाने का काम भी ले सकते हैं, लेकिन आग लगाने का काम ये नहीं करतीं .   

आवारगी ने दिल की अजब काम कर दिया
ख्वाबों को बोझ, नीदों को इल्ज़ाम कर दिया

कुछ आंसू अपने प्यार की पहचान बन गए
कुछ आंसूंओं ने प्यार को बदनाम कर दिया

जिसको बचाए रखने में अजदाद बिक गए
हमने उसी हवेली को नीलाम कर दिया
अजदाद= पूर्वज

मंसूर साहब की शायरी के बारे में जनाब मुनव्वर राना साहब ने भी क्या खूब कहा है : 'मंसूर साहब की शायरी महबूब के हाथ  पर रखा रेशमी रुमाल नहीं है। मजदूर की हथेलियों के वो छाले हैं, जिनसे मेहनत और ईमानदारी की खुशबू आती है।  उन्होंने ग़ज़ल को महबूब से गुफ्तगू करना नहीं सिखाया बल्कि अपनी ग़ज़ल को हालात से आँख मिलाने का हुनर सिखाया है .    

कांधों पे सब खुदा को उठाए फिरे मगर
बंदों का एहतराम किसी ने नहीं किया

अखबार कह रहे हैं कि लाशें हैं सब गलत
बस्ती में कत्ले-आम किसी ने नहीं किया

'मंसूर' ज़िन्दगी की दुहाई तो सबने दी
   जीने का इंतज़ाम किसी ने नहीं किया   

एक मार्च 1954 को जन्में और मुरादाबाद में बसे मंसूर साहब ने उर्दू में एम ए करने के बाद शायरी से नाता जोड़ लिया। अपनी बाकमाल शायरी का लोहा उन्होंने जेद्दाह , सऊदी अरब, कनाडा, नेपाल, अमेरिका, दुबई, पकिस्तान,मैक्सिको आदि देशों के विभिन्न शहरों में हुए मुशायरों में शिरकत कर मनवाया है। शायरी की लगातार खिदमत करने के लिए उन्हें उ प्र उर्दू अकादमी सम्मान, हिंदी-उर्दू  सम्मान ( लखनऊ ), रोटरी इंटर नेशनल एवार्ड, संस्कार भारती सम्मान आदि अनेको सम्मानों से नवाज़ा गया   है।


चाहना जिसको फ़कत उसकी इबादत करना
वरना बेकार है रिश्तों की तिजारत करना

एक ही लफ्ज़ कहानी को बदल देता है
कोई आसां तो नहीं दिल पे  हुकूमत करना

अपने दुश्मन को भी साये में लिए बैठे हैं
     हमने पाया है विरासत में मुहब्बत करना     

हिंदी भाषी पाठक वाणी प्रकाशन, दरिया गंज,दिल्ली (फोन :+91-11-23273167 ) का ,इस और इस जैसी अनेक उर्दू शायरों की किताबें हिंदी में प्रकाशित करने के लिए, हमेशा आभार मानेंगे. इस किताब में मंसूर साहब की सौ से अधिक ग़ज़लों के अलावा उनके बहुत से फुटकर शेर, कतआत और दोहे भी शामिल किये गए हैं। मंसूर साहब को आप उनके मोबाईल 9897189671 पर फोन कर ऐसी अनूठी शायरी के लिए दाद दें और किताब प्राप्ति का रास्ता भी पूछ लें .   

जब ऐसी किताब हाथ लगती है तो उसमें से शेर छांटना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो जाता है , जिन ग़ज़लों के शेर आप तक नहीं पहुंचा पाता वो मेरी कलम रोक के पूछती हैं हम में क्या कमी थी ये बताओ ?

इन अमीरों से कुछ नहीं होगा
हम ग़रीबों को हुकमरानी दे

क्या तमाशा है यार दुनिया भी
आग अपना दे , गैर पानी दे

याद आयें ग़म ज़माने के
शाम ऐसी भी इक सुहानी दे  

चलते चलते आईये अब पढ़ते हैं मंसूर साहब के चंद खूबसूरत शेर  :-

हमारा प्यार महकता है उसकी साँसों में
बदन में उसके कोई ज़ाफ़रान थोड़ी है
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ज़िद पे आये तो क़दम रोक लिए है तेरे
हम से बेहतर तो तेरी राह के पत्थर निकले
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दामन बचा के लाख कोई मौत से चले
पाज़ेब ज़िन्दगी की खनकती ज़रूर है
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इश्क़ इज़हार तक नहीं पहुंचा
शाह दरबार तक नहीं पहुंचा
मेरी क़िस्मत कि मेरा दुश्मन भी
मेरे मेयार तक नहीं पहुंचा
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बाज़र्फ़ दुश्मनों ने नवाज़ा है इस क़दर
कमज़र्फ़ दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही
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मुहब्बत का मुक़द्दर तो अधूरा था,अधूरा है
कभी आंसू नहीं होते, कभी दामन नहीं होता
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सच पूछिये तो उनको भी हैं बेशुमार ग़म
जो सब से कह रहे हैं कि हम खैरियत से हैं
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