Thursday, December 27, 2007

तभी मुस्कान होती है.



चलिए इस बार आप को कुछ हलकी फुलकी रचनाओं से रूबरू करवाता हूँ. इन्हें समझना आसान है क्यों की ये ग़ज़ल के शेर की तरह घुमावदार नहीं हैं. सीधी बात सीधे ढंग से कही गई है . तकनिकी दृष्टि से ये शायद रुबाई नहीं हैं लेकिन उसी की सगी सम्बन्धी जैसी की कुछ हैं, जो भी हैं आप तो आनंद लीजिये.




मेरे दिल को समझती हो
मैं सच ये मान जाता हूँ
तेरे दिल की हरेक धड़कन को
मैं भी जान जाता हूँ
मगर फ़िर भी ये लगता है
कहीं कुछ बात है हम में
जिसे ना जान पाती तुम
ना मैं ही जान पता हूँ





ये सूखी एक नदी सी है
कहाँ कोई रवानी है
इबारत वो है के जिसका
नहीं कोई भी मानी है
मैं कहना चाहता जो बात
बिल्कुल साफ है जानम
तुम्हारे बिन गुजरती जो
वो कोई जिंदगानी है ?





तुम्हारे साथ हँसते हैं
तुम्हारे साथ रोते हैं
कहीं पर भी रहें
लगता है जैसे साथ रहते हैं
जो दूरी का कभी एहसास
होने ही नहीं देता
मेरी नज़रों से देखो तो
उसी को प्यार कहते हैं





कहाँ किसकी कभी ये
ज़िंदगी आसान होती है
कभी जलती ये सहरा सी
कभी तूफ़ान होती है
मगर जब हाथ ये तेरा
हमारे हाथ आ जाए
तभी खिलती ये फूलों सी
तभी मुस्कान होती है.

Wednesday, December 26, 2007

भटकेगा तू भी बन बन में



दोस्तों आज आप को मेरे एक बहुत ही अज़ीज़ दोस्त और शायर जनाब चाँद शुक्ला "हदियाबादी" साहेब की ग़ज़ल पढ़वा रहा हूँ. चाँद साहेब बरसों से डेनमार्क में रह कर भी अपने वतन और उसकी मिटटी की खुशबू को नहीं भूले हैं. वहां शायरी के अलावा चाँद साहेब प्रवासी भारतीयों के लिए "रेडियो सबरंग" भी चलाते हैं. ग़ज़ल पसंद आए तो आप लिखने के लिए उन्हें और पेश करने के लिए मुझे शुक्रिया कह सकते हैं.



मैं जानता हूँ तुझे क्या मिला है अन बन मैं
तू मुझको ढूँढता रहता है दिल के दर्पण में

तू जा रहा है तो सुन जा सदा फकीरों की
किसी के प्यार में भटकेगा तू भी बन बन में

तुम्हे ख़बर हो के न हो यह लोग कहते हैं
तुम्ही ने आग लगाई है मेरे तन मन में

मेरे चमन में सभी रंग रूप के हैं फूल
न पूछ मुझसे क्यों कांटे हैं तेरे गुलशन में

वो मेरे हाथ लगाते ही मुझसे टूट गया
मिला था मुझको खिलौना जो मेरे बचपन में

"चाँद" जब था तो गगन रौशनी से था भरपूर
आज अँधेरा पनपता है तेरे आँगन में

Saturday, December 22, 2007

प्यार की छाया में सुस्ताने लगे




हमको अपने नोचने खाने लगे
देख इसको गिद्ध शरमाने लगे

मानते गहना जो थे इमान को
आज उसको बेच कर खाने लगे

रो रहे थे देख हालत देश की
हुक्मरां बनते ही वो गाने लगे

रोज उनसे इस कदर पाले पड़े
मेरे दुश्मन अब मुझे भाने लगे

ये उमस तन्हाई की हट जायेगी
याद के बादल से हैं छाने लगे

वो मेहरबान है ये होगा तब यकीं
जब बिना मांगे ही तू पाने लगे

जब थके चलते ग़मों की धूप में
प्यार की छाया में सुस्ताने लगे

सच्ची बातें जब भी नीरज ने कही
फेर कर मुंह लोग मुस्काने लगे



Thursday, December 20, 2007

जीते हैं संग बचपन के





आँख से याद बनके ढलते हैं
साँस जैसे जो साथ चलते हैं

इतनी काँटों से बेरुखी क्यों है
ये भी फूलों के साथ पलते हैं

नाम उनका शराबी ठीक नहीं
पी के गिरने पे जो संभलते हैं

आखरी वक्त पे न जाने क्यों
लोग हसरत से हाथ मलते हैं

इस नए दौर के ये बच्चे भी
हाथ खंज़र हो तो बहलते हैं

हाल क्या हो गया ज़माने का
देख हँसते को लोग जलते हैं

होती सच की ज़मीन ही चिकनी
लोग अक्सर तभी फिसलते हैं

चाहे जितने हों जिस्म फौलादी
नर्म बाँहों में घिर पिघलते हैं

जो भी जीते हैं संग बचपन के
वो न नीरज कभी बदलते हैं

Tuesday, December 18, 2007

डालियों पर देखिये फल भर दिए




जिस शजर* ने डालियों पर देखिये फल भर दिए
उसको चुनचुन कर के लोगों ने बहुत पत्थर दिए

कौन करता याद सच है बात बिल्कुल दोस्तों
वो दीवाने ही हैं जो ये जान कर भी सर दिए

फूल देता है सभी को क्या गज़ब इंसान है
भूल जाता किसने उसको बदले में नश्तर दिए

प्यार गर जागा नहीं दिल में तेरे किसकी खता
हर बशर** को तो खुदा ने सैंकडों अवसर दिए

कैद कर रखना था पंछी को अगर सैय्याद ने
फड्फड़ाने के लिए क्यों छोड़ उसके पर दिए

कुछ नहीं मिलता है रब से जान लो खैरात में
नींद लेता उस से जिसको रेशमी बिस्तर दिए

ज़िंदगी बख्शी खुदा ने इस तरह नीरज हमें
यूँ लगा हमको की जैसे खीर में कंकर दिए

*शजर=पेड़ **बशर= इंसान


Monday, December 10, 2007

जब तू चलेगा तनहा





इन दस्तकों ने हमको कितना सताया है
हर बार यूँ लगा है अब के तू आया है

कितने ही रंग बदले हैं याद ने तुम्हारी
घायल कभी किया कभी मरहम लगाया है

जाने क्या बीतती है उस पेड़ पर ये सोचो
जिसकी न डालियों पे चिडियों ने गाया है

वो दोस्त है तभी तो हँसता है देख कर के
मुश्किल में मैंने जब जब आंसू गिराया है

मंजिल तुझे मिलेगी जब तू चलेगा तनहा
संग भीड़ ना किसी ने कुछ यार पाया है

तकलीफ होती देखी है हर बशर के दिल में
जब छोड़ के चले वो जो कुछ कमाया है

गर्दिश के अंधेरों में होता नज़र से ओझल
फितरत है ये उसी की बनता जो साया है

भोला है दिल तभी तो गाने लगा है नीरज
मिलने का फ़िर भरोसा सच मान आया है

Thursday, December 6, 2007

ज़िंदगी ज्यूँ गुलाब की डाली




हम फकत अटकलें लगाते हैं
किसको पूरा सा समझ पाते हैं

आम की डाल सा है दिल मेरा
आप कोयल से गीत गाते हैं

ज़िंदगी ज्यूँ गुलाब की डाली
साथ काँटों के फूल आते हैं

वक्त खुशियाँ बटोरता देखो
संग बच्चों के जब बिताते हैं

माँ ही आती जबान पर पहले
दर्द से जब भी बिलबिलाते हैं

आप खुश हैं मेरे बगैर अगर
सबसे चेहरे को क्यों छुपाते हैं

कर अमावस में चाँद की बातें
हम अंधेरों को मुंह चिढ़ाते हैं

जिनकी होती ना हसरतें पूरी
वो ही सपनो में कसमसाते हैं

हुस्न निखरे कई गुना नीरज
ओस में फूल जब नहाते हैं

Tuesday, December 4, 2007

मीरा को ज़हर आप पिलाते क्यों हो




नहीं मिलना तो भला याद भी आते क्यों हो
इस कमी का मुझे एहसास दिलाते क्यों हो

डर तुम्हे इतना भी क्या है कहो ज़माने का
रेत पे लिख के मेरा नाम मिटाते क्यों हो

दिल में चाहत है तो काँटों पे चला आएगा
आप पलकों को गलीचे सा बिछाते क्यों हो

हम पर इतने किए उपकार सदा है माना
हम को हर बार मगर आप गिनाते क्यों हो

जाने किस वक्त तुम्हे इनकी ज़रूरत होगी
आप बे वक्त ही अश्कों को गिराते क्यों हो

यारी पिंजरे से ही कर ली है जब परिंदे ने
आसमां उसको खुला आप दिखाते क्यों हो

ज़िंदगी फूस का इक ढेर है इसमें आकर
आग तुम इश्क की सरकार लगाते क्यों हो

मुझको मालूम है दुश्मन नहीं हो दोस्त मेरे
मुझसे खंजर को बिना बात छुपाते क्यों हो

इश्क मरता नहीं नीरज है पता सदियों से
फ़िर भी मीरा को ज़हर आप पिलाते क्यों हो

Saturday, December 1, 2007

परिंदे प्यार के रख हाथ




क्यों ऐसे रहनुमा तुमने चुने हैं
किसी के हाथ के जो झुनझुने हैं

तपिश रिश्तों में न ढूंढे कहीं भी
शुकर करना अगर वो गुनगुने हैं

बहुत कांटे चुभेंगे याद रखना
अलग गर रास्ते तुमने चुने हैं

जबाँ को दिल बनाया है उन्होंने
जिन्होंने गीत कोयल से सुने हैं

यहाँ जीने के दिन हैं चार माना
मगर मरने के मौके सौ गुने हैं

परिंदे प्यार के रख हाथ नीरज
हटा जो जाल नफरत के बुने हैं