Monday, November 29, 2010

जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी

दीपावली के शुभ अवसर पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर एक तरही मुशायरे का आयोजन हुआ था जो अत्यंत सफल रहा. उस्ताद शायरों के बीच इस नाचीज़ को भी उस तरही मुशायरे में शिरकत का मौका मिला था. उस अवसर पर कही गयी अपनी गज़ल आप सब के लिए यहाँ पेश कर रहा हूँ उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी.



संजीदगी, वाबस्तगी, शाइस्तगी, खुद-आगही
आसूदगी, इंसानियत, जिसमें नहीं, क्या आदमी
वाबस्तगी: सम्बन्ध, लगाव, शाइस्तगी: सभ्यता, खुद-आगही: आत्मज्ञान, आसूदगी:संतोष

ये खीरगी, ये दिलबरी, ये कमसिनी, ये नाज़ुकी
दो चार दिन का खेल है, सब कुछ यहाँ पर आरिजी
खीरगी: चमक, दिलबरी: नखरे, आरिजी:क्षणिक

हैवानियत हमको कभी मज़हब ने सिखलाई नहीं
हमको लडाता कौन है ? ये सोचना है लाजिमी

हर बार जब दस्तक हुई उठ कर गया, कोई न था
तुझको कसम, मत कर हवा, आशिक से ऐसी दिल्लगी

हो तम घना अवसाद का तब कर दुआ उम्मीद के
जलते रहें दीपक सदा कायम रहे ये रौशनी

पहरे जुबानों पर लगें, हों सोच पर जब बंदिशें
जुम्हूरियत की बात तब लगती है कितनी खोखली

फ़ाक़ाजदा इंसान को तुम ले चले दैरोहरम
पर सोचिये कर पायेगा ‘नीरज’ वहां वो बंदगी ?

Monday, November 22, 2010

रंग-ढंग बोलीवुड के

कायदे से तो आज की पोस्ट किसी किताब पर होनी चाहिए थी लेकिन इस बंधी बंधाई लीक पर चलते चलते कुछ ऊब सी होने लगी थी इसलिए सोचा चलो जायका बदला जाए.इस से ये मत समझ लीजियेगा कि मेरे किताबों के खजाने में कुछ नहीं बचा है,ये तो एक लंबी यात्रा के दौरान थोडा सा सुस्ता लेने वाली है बात है बस. साहित्य और क्रिकेट के शौक आलावा जो शौक मुझे आल्हादित करता है वो है सिनेमा।
सिनेमा देखना उसके बारे में पढ़ना मुझे बहुत पसंद है, इस विषय पर भी ढेरों किताबें मेरे पास आपको मिल जायेंगी. मेरे इस शौक का जैसे ही पता मेरे गुरुदेव प्राण शर्मा जी को चला उन्होंने खास तौर पर सिनेमा पर लिखी अपनी एक विलक्षण रचना भेज दी जिसेमें बालीवुड की तल्ख़ सच्चाई परत दर परत खोली गयी है. प्राण जी की प्रखर नज़र से बालीवुड का कोई राज़ छुप नहीं पाया है और उसे उन्होंने बहुत बेबाक तरीके अपनी रचना में प्रस्तुत किया है . उम्मीद करता हूँ सुधि पाठक उनकी इस रचना को पसंद करेंगे.

इस के अलावा मैं आपको अपना सिनेमा देखने का एक पुराना लेकिन रोचक संस्मरण भी सुना रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ ये किस्सा आपको पसंद आएगा.

सबसे पहले पढ़िए गुरुदेव प्राण शर्मा जी की बोलीवुड पर लिखी कविता:"रंग-ढंग बोलीवुड के"


ये बोलीवुड है प्यारे सब खेल यहाँ के न्यारे
रात में उगता सूरज और दिन में चाँद-सितारे

इस बेढंगी मण्डी में है चार दिनों का डेरा
सबको ही पड़ी है अपनी ना तेरा ना कोई मेरा

मुश्किल से मिलेगा कोई गिरतों को उठाने वाला
दिन के सपनों जैसा है इस मण्डी का उजियाला

यदि पुश हो किसी अपने की है सफल यहाँ पे अनाडी
सच ही कहती है दुनिया चलती का नाम है गाड़ी

कोई एक रात ही यारो आकाश को छू लेता है
कोई गिरता है औंधे मुँह सर्वस्व भी खो देता है


इस मण्डी के व्यापारी चाचे हैं या हैं भतीजे
कुछ ज़ोर नहीं औरों का बस साले हैं या जीजे

इस मण्डी चोर बहुत हैं हर चीज़ चुरा लाते हैं
औरों के माल को प्यारे अपना ही बतलाते हैं

काला बाज़ार यहीं पर काले धन के व्यापारी
हर बात यहाँ मुमकिन है तलवार चले दो धारी

चमचों की बदौलत ही से हर काम यहाँ होता है
जो उनका नहीं है संगी वो सर धुन कर रोता है

हीरो" और "हीरोइन" से निर्देशक भी डरते हैं
उनके आगे लेखक भी झुक कर पानी भरते हैं

पिक्चर के हिट होने पर सब को पर लग जाते हैं
जो कल तक थे "बेचारे" वे हाथ नहीं आते हैं

अब रातों-रात बोलियाँ स्टारों की लग जाती हैं
कल तक के "बेचारों" की पुश्तें भी तर जाती हैं

उनके नखरों की चिड़ियें ऊँची-ऊँची उडती हैं
पर ये न समझना प्यारे "यां" खुशियाँ ही जुडती हैं

पिक्चर असफल होने पर सब पर मातम छाता है
हर कोई निज किस्मत को रोता और चिल्लाता है

और अब एक दिलचस्प संस्मरण

दोस्तों बन्दे को फिल्में देखने का बहुत शौक है, ये हमारा खानदानी है शौक है कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, आज भी मेरी माता जी जो अस्सी के ऊपर हैं सिनेमा देखने हमारे साथ जाती हैं और हमसे ज्यादा आनंद लेती हैं. सन चालीस के ज़माने से लेकर आज तक के सभी कलाकार उनकी फिल्में और गाने उन्हें याद हैं...उनकी बात फिर कभी आज मैं आपको अपना फिल्म देखने का एक रोचक किस्सा सुनाता हूँ. ये किस्सा इस से पूर्व चवन्नी छाप ब्लॉग पर दस दिसम्बर २००८ को छप चुका है. आज प्रस्तुत है खास आपके लिए...पढिये और आनंद लीजिये.

बात बहुत पुरानी है शायद 1977 के आसपास की...जयपुर से लुधियाना जाने का कार्यक्रम था एक कांफ्रेंस के सिलसिले में. सर्दियों के दिन थे. दिन में कांफ्रेंस हुई शाम को लुधियाना में मेरे एक परिचित ने सिनेमा जाने का प्रस्ताव रख दिया. अंधे को क्या चाहिए?दो आँखें...फ़ौरन हाँ कर दी.

खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."धरम पाजी दा जवाब नहीं" वाक्य आप वहां खड़े हर दूसरे सरदार जी से सुन सकते थे.

बहुत लम्बी लाइन लगी हुई थी टिकट के लिए...इसकी कोई सम्भावना नहीं थी की लाइन में खड़े हो कर टिकट मिल सकेगा. मेरे परिचित हार मानने वाले कहाँ थे मुझसे बोले एक काम करते हैं मनेजर से मिलते हैं, आप सिर्फ़ उसके सामने इंग्लिश बोलना और कहना की जयपुर से आया हूँ और धर्मेन्द्र पाजी का बहुत बड़ा फेन हूँ...बस, काम हो जाएगा. मैनेजर तक पहुँचने की एक अलग कहानी है. सबसे पहले तो गेट कीपर को दस का नोट दिया जिसने हमें थिएटर में जाने दिया मिलने को.

मैनेजर साहेब एक ऊंचे तगडे सरदारजी थे और फोन पर किसी से बातों में व्यस्त थे, जिसमें बातें कम थीं और गालियाँ ज्यादा थीं...पंजाब में बात करने का एक एक खास स्टाइल है...आप जिसके जितने आत्मीय होंगे उस के साथ उतनी ही गालियाँ बातचीत में प्रयोग करेंगे. हम करीब दस मिनट खड़े रहे. फोन ख़तम करके वो हमारी तरफ़ देख कर बोले हाँ जी दस्सो...(बताओ). मेरे मित्र ने मेरे बारे में बताना शुरू किया की ये जनाब जयपुर से आए हुए हैं और "धरमिंदर पाजी" के बहुत बड़े फेन हैं अभी ये फ़िल्म वहां लगी नहीं है और ये इसे पहले देख कर इसका प्रचार वहां करेंगे...लेकिन समस्या टिकट की है इसलिए आप के पास आए हैं.

मैनेजर साहेब ने मेरी तरफ़ मुस्कुरा कर देखा...पूछा "अच्छा जी तुसी जयपुर तों आए हो? वा जी वा...लेकिन टिकट ते है नहीं..." मैंने अंग्रेजी में कहा की अगर मुझे ये फ़िल्म देखने को नहीं मिली तो बहुत अफ़सोस होगा और जयपुर में धर्मेन्द्र जी के फेन क्लब वाले निराश हो जायेंगे...आप कुछ कीजिये प्लीज" ...मेरी बात उन्हें कितनी समझ आयी कह नहीं सकता लेकिन "प्लीज" जरूर समझ में आ गया, इसलिए वो बोले " ओजी प्लीज की क्या बात है,चलो देखता हूँ तुवाडे लयी क्या कर सकता हूँ ". वे ये बोल कर चल दिए...और दस मिनट में दो टिकट लेकर लौटे..और...टिकट की कीमत धर्मेन्द्र जी के नाम पर दुगनी वसूल कर ली.

टिकट लेकर हम लोग इतने खुश हुए जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो...बाहर निकले तो देखा की अब लाइन टिकट विंडो की जगह थिएटर के गेट के सामने लग चुकी थी...धक्का मुक्का और गालियाँ अनवरत जारी थीं..लोग अन्दर घुसने को बेताब थे...गेट कीपर जंगले वाला गेट बंद कर के आराम से खड़ा था. मैंने अपने परिचित से पूछा की की ये इतनी लम्बी लाइन क्यूँ लगा रखी है और भीड़ अन्दर जाने को बेताब क्यूँ है...उसने कहा की टिकट पर सीट नंबर नहीं है इसलिए जो पहले घुसेगा उसे अच्छी सीट मिलेगी. " मर गए" मैंने मन में सोचा.

हम भी लाइन में जा खड़े हुए...अचानक जोर का शोर हुआ और एक धक्का लगा एक रेला सा आया जो मुझे और मेरे मित्र को लगभग हवा में लहराते हुए अपने आप थिएटर में पहुँचा दिया...अपने आप को संभल पाते तब तक हम थिएटर के अन्दर पहुँच चुके थे...थोड़ा अँधेरा था...परदे पर वाशिंग पौडर निरमा चल रहा था...सीट दिखाई नहीं दे रही थी...धक्के यथावत जारी थे...मेरे परिचित ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा हुआ था...हम किसी तरह पास पास सीट पर बैठ गए.

बैठने के बाद मैंने देखा की लगभग हर दूसरा सरदार अपनी पगड़ी खोल कर फेहराता और पाँच छे सीटों को ढक लेता...जिसकी पगड़ी के नीचे जितनी सीटें दब गयीं वो उसकी..." ओये मल लई मल लई सीट असां" ( हमने सीट रोक ली है) का शोर मचा हुआ था. लोग सीट के ऊपर से इधर उधर से याने हर किधर से कूद फांद कर बैठने की कोशिश कर रहे थे. रात के इस शो में महिलाएं कम नहीं थीं बल्कि वे भी इस युद्ध का हिस्सां थीं...कुछ कद्दावर महिलाएं पुरुषों को धक्का देकर सीट पे बैठ चिल्लाती नजर आ रहीं थीं की " दार जी आ जाओ...सीट मल लई है मैं...मुंडे नू वी ले आओ...तुसी ते किसी काज जोगे नहीं.."( सरदार जी आ जायीये सीट रोक ली है मैंने, लड़के को भी ले आओ, आप तो किसी काम के नहीं हो). कोने में खड़ी चार पाँच लड़कियां जो शायद इंग्लैंड से आयीं हुई थीं( उस ज़माने में अधिकतर लोग पंजाब से इंग्लैंड जा बसे थे और कभी कभी अपने वतन लौटते थे )अपनी पंजाबी युक्त इंग्लिश जबान में गुहार लगा रहीं थी " एय टॉर्च मैन हेल्लो टॉर्च मैन...तुम कहाँ हो टॉर्च मैन...सानू सीट पे बिठाओ प्लीज" . उनकी ये अजीब जबान सुनकर अधिकतर लोग हंस भी रहे थे...टॉर्च मैन ने ना आना था ना आया...आता भी क्या करने?

फ़िल्म शुरू हुई...धर्म पाजी के आते ही " जो बोले सो निहाल...सत श्री अकाल" के नारे से पूरा हाल गूँज उठा. तालियाँ उनके हर एक्शन और संवाद पर जो बजनी शुरू होतीं तो रूकती ही नहीं. फ़िल्म भारी शोर शराबे के बीच अनवरत चलती रही. जब लोग चुप होते तो हाल में चल रहे पंखों की आवाज सुनी देने लगती.

इंटरवल हुआ...आगे पीछे देखा की सारी सीटें भरी हुई हैं...कुछ लोग दीवार के साथ खड़े भी हैं...मित्र को कहा की चलो काफी पी कर आते हैं...हम लोग उठने की सोच ही रहे थे की अचानक पन्द्रह बीस लोग सर पर टोकरियाँ लेकर अन्दर आ गए...ध्वाने ले लो जी ध्वाने...(तरबूज ले लो जी तरबूज)...तिरछी फांकों में कटे लाल तरबूज जिन पर मख्खियाँ आराम से बिराज मान थीं देखते ही देखते बिक गए...इसके बाद खरबूजे, चना जोर गरम, समोसे, जलेबी, मुरमरे, पकोडे और तली मछली का नंबर भी इसी तरह आया...

मैंने सोचा जो लोग फ़िल्म के इंटरवल में आधी रात के बाद इतना कुछ खा सकते हैं वो लोग खाने के समय कितना खाते होंगे? लगता था की लोग शायद इंटरवल में खाने अधिक आए हैं और फ़िल्म देखने कम...या फ़िल्म के बहाने खाने आए हैं. खाने पीने का ये दौर फ़िल्म शुरू होने के बाद तक चलता रहा, लोगों के मुहं से निकली चपड़ चपड़ की आवाजें फ़िल्म से आ रही आवाज से अधिक थी.

एक दृश्य जिसमें धर्मेन्द्र एक गुंडे की ठुकाई कर रहा था परदे पर आया...गुंडा कुछ अधिक ही पिट रहा था...तभी एक आवाज आयी..."ओये यार बस कर दे मर जाएगा"...दूसरी तरफ़ से आवाज आयी " क्यूँ बस कर दे गुंडा तेरा प्यो लगदा ऐ?( क्यूँ बस कर दे गुंडा क्या तेरा पिता लगता है). पैसे दित्ते ने असां...मारो पाजी तुसी ते मारो..." अब पहली तरफ़ से दूसरी तरफ़ लहराती हुई चप्पल फेंकी गयी...येही कार्यक्रम दूसरी तरफ़ से चला...चप्पलों का आवागमन तेज हो गया....अब चप्पलों के साथ गालियाँ भी चलने लगीं...तभी एक कद्दावर सरदार ऊंची आवाज में बोला..." ओये ऐ खेड ख़तम करो फिलम देखन देयो...जिन्नू लड़ना है बाहर जा के लड़े...हुन किसी ने गड़बड़ कित्ती ते देखियो फेर सर पाड़ देयांगा..."( ओ ये खेल ख़त्म करो फ़िल्म देखने दो ...जिसने लड़ना है बाहर जा कर लड़े...अब किसी ने गड़बड़ की तो सर फोड़ दूँगा) सरदार जी की बात का असर हुआ...जो बोले सो निहाल का नारा फ़िर से लगा और फ़िल्म अंत तक बिना रूकावट के चलती रही....

बाहर निकल कर रिक्शा किया तो रिक्शा वाला बोला "साब जी मैं पिछले तिन दिना विच ऐ फ़िल्म तिन वारि देख चुक्या हाँ...धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं....जी करदा है तिन वारि होर वेखां..."

लुधियाना में देखी ये फ़िल्म और माहौल मैं कभी नहीं भूल पाता. आज के मल्टीप्लेक्स ने सिनेमा देखने के इस आनंद का बड़े शहरों में तो कचरा कर ही दिया है

Monday, November 15, 2010

तुम हुए जिस घड़ी हमसफ़र

फोटो: गूगल साभार

(दोस्तों पेश है एक और छोटी बहर की गज़ल)

दूरियां मत बढ़ा इस कदर
दूँ सदाएं तो हों बेअसर

सोच मत, ठान ले, कर गुज़र
जिंदगी है बडी मुख़्तसर

याद तेरी हमें आ गयी
मुस्कुराए, हुई ऑंख तर

बिन डरे सच कहें किस तरह
सीखिये आइनों से हुनर

गर सभी के रहें सुर अलग
टूटने से बचेगा न घर

राह, मंजिल हुई उस घड़ी
तुम हुए जिस घड़ी हमसफ़र

घर जला कर मेरा झूमते
दोस्तों की तरह ये शरर

हैं सभी पास “नीरज” कहाँ
वो जिसे ढूंढती है नज़र


मुख़्तसर: छोटी, शरर: चिंगारियां ,

Monday, November 8, 2010

किताबों की दुनिया - 41

मैं तो गज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
लफ़्ज़ों के एक से बढ़ कर एक आलिशान नगीनों से सजी नायाब किताब के शायर हैं मरहूम जनाब कृष्ण बिहारी "नूर" साहब, जिनका आज जनम दिन है. ये पोस्ट उनकी याद को ताज़ा करने की एक छोटी सी कोशिश है. आज हम उनकी किताब जिसे "आज के प्रसिद्द शायर" श्रृंखला के अंतर्गत राजपाल एंड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है की चर्चा करेंगे. श्री कन्हैया लाल नंदन जी द्वारा सम्पादित इस किताब का एक एक लफ्ज़ पढ़ने वाले के दिल पर छा जाता है.

अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया
शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है

मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है

मैं जिसके हाथ में इक फूल दे के आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है

खालिस शायरी का यह बहता हुआ दरिया जो कृष्ण बिहारी श्रीवास्तव नाम से जाना गया, लखनऊ की देन है और आठ नवंबर सन 1925 को जनाब कुंजबिहारी लाल श्रीवास्तव के बेटे के रूप में पैदा हुआ था. मात्र सत्रह साल की उम्र से उन्होंने शायरी करनी शुरू कर दी और अपने उस्ताद जनाब फज़ल नक़वी की रहनुमाई में "नूर" तख़ल्लुस से शेर कहने लगे.कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़लें जब बोलती है तो साफ साफ बोलती है, बिना किसी लाग लपेट के। ग़ज़ल की रवायत कृष्ण बिहारी नूर के यहाँ ग़ज़ल की रवायत जैसी ही नज़र आती है, न कम न ज़्यादा, ठीक उन्ही के इस शेर की तरह - सच घटे या बढ़े तो सच न रहे/झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं।

उस तश्नालब की नींद न टूटे,ख़ुदा करे
जिस तश्नालब को ख़्वाब में दरिया दिखाई दे

दरिया में यूँ तो होते हैं क़तरे-ही-क़तरे सब
क़तरा वही है जिसमें कि दरिया दिखाई दे

क्यूँ आईना कहें उसे, पत्थर न क्यूँ कहें
जिस आईने में अक्स न उनका दिखाई दे

क्या हुस्न है जमाल है, क्या रंग-रूप है
वो भीड़ में भी जाए तो तनहा दिखाई दे

नूर साहब की शायरी सुनते पढते कभी ये गुमां नहीं होता के वो सिर्फ उर्दू ज़बान के शायर है. वो हमारी गंगा जमनी तहजीब के शायर हैं और खालिस हिन्दुस्तानी में शायरी करते हैं. ये ही वजह है के नामी गरामी शोअराओं के बीच मुशायरे में पढते हुए उन्हें बार बार आवाज़ देकर बुलाया जाता था और जब वो आते तो बस सावन के बादलों की तरह सुनने वालों के दिलो दमाग पर छा जाते और अपने खूबसूरत अशआरों की रिमझिम से उन्हें सरोबार कर देते.

आते -जाते सांस हर दुःख को नमन करते रहे
उँगलियाँ जलती रहीं और हम हवन करते रहे


दिन को आँखें खोल कर संध्या को आँखें मूंदकर
तेरे हर इक रूप की पूजा नयन करते रहे


खैर, हम तो अपने ही दुःख-सुख से कुछ लज्जित हुए
लोग तो आराधना में भी गबन करते रहे


विनम्रता और सादगी में उनका कोई सानी नहीं था. असल में येही सादगी और विनम्रता उनकी शायरी के केन्द्र में है, जिसमें आध्यात्मिकता और उदात्तता हर पल सांस लेती है. उनके गज़ल संग्रह " दुःख-सुख", "तपस्या" और "समंदर मेरी तलाश में है" प्रकाशित हो कर धूम मचा चुके हैं.नूर साहब की शायरी किसी अवार्ड या ईनाम की मोहताज़ नहीं है, उन्हें अमीर खुसरो अवार्ड, ग़ज़ल अवार्ड, उर्दू अकेडमी अवार्ड, मीर अकादमी अवार्ड, दया शंकर नसीम अवार्ड, और इन सब से बड़ा पाठकों और श्रोताओं की बेपनाह मोहब्बतों का अवार्ड मिला है. उन्हें अमेरिका में एक साथ बारह स्थानों पर उनकी शान में रखे मुशायरों में शिरकत करने का मौका भी मिल चुका है जो उनकी अंतर राष्ट्रिय लोकप्रियता का परिचायक है.

इस सज़ा से तो तबियत ही नहीं भरती है
जिंदगी कैसे गुनाहों की सज़ा है यारो


कोई करता है दुआएं तो ये जल जाता है
मेरा जीवन किसी मंदिर का दिया है यारो


मैं अँधेरे में रहूँ या मैं उजाले में रहूँ
ऐसा लगता है कोई देख रहा है यारो


इस संकलन में नूर साहब की अब तक हिंदी में अप्रकाशित चार पांच ग़ज़लें भी हैं, जिन्हें मुशायरों के ज़रिये लोगों ने भले सुना हो लेकिन पढ़ने का अवसर इस संकलन से ही मिलेगा. शाश्वत सच्चाइयां पिरोई उनकी गज़लें बार बार पढ़ने को जी करता है. छोटी बहर की उनकी एक कामयाब गज़ल के चंद शेर देखें:-

जिंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं


इतने हिस्सों में बाँट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आईना झूट बोलता ही नहीं

अपनी रचनाओं में वो जिंदा है
'नूर'संसार से गया ही नहीं.

सच फरमा गए हैं नूर साहब ऐसा हर दिल अज़ीज़ शायर कभी संसार से जा ही नहीं सकता, लखनऊ की एक सड़क दुर्घटना में 30 मई 2003 को ये देह छोड़ कर नूर साहब सदा के लिए अपने चाहने वालों के दिल में बस गए हैं. मेरी शायरी के चाहने वालों से गुज़ारिश है के राजपाल एंड संस् द्वारा प्रकाशित इस किताब को अपने लाइब्रेरी में जरूर जगह दें. किताब प्राप्ति के लिए आप राजपाल की वेब साईट www.rajpalpublishing.com अथवा उनके इ-मेल mail@rajpalpublishing.com पर संपर्क करें. इस किताब की भरपूर जानकारी के लिए आप http://pustak.org/bs/home.php?bookid=1533 पर क्लिक करें.
इस किताब में संकलित गज़लें इतनी खूबसूरत हैं के उन्हें आप तक न पहुंचा कर लगता है जैसे मैं कोई अधूरा काम कर रहा हूँ.मेरी मजबूरी है के छह कर भी मैं ये पूरी किताब आपके समक्ष नहीं रख सकता, हाँ कुछ गज़लों के चुनिन्दा शेर आपतक जरूर पहुंचा रहा हूँ, उम्मीद है पसंद आयेगें...मुझे तो दीवानगी की हद तक पसंद आये हैं...सच...इस किताब का खुमार शायद ही उतरे...

गुज़रे जिधर जिधर से वो पलटे हुए नक़ाब्
इक नूर की लकीर सी खींचती चली गयी

***
लब क्या बताएं कितनी अज़ीम उसकी ज़ात है
सागर को सीपीयों से उलचने की बात है

***
मैं तो अपने कमरे में तेरे ध्यान में गुम था
घर के लोग कहते हैं सारा घर महकता था

***
शख्श मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी, हाथ में पैसा न था

***
तमाम ज़िस्म ही घायल था घाव ऐसा था
कोई न जान सका रख रखाव ऐसा था

***
ज़मीर काँप जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले कि हो गुनाह के बाद

***

लीजिए अब सुनिए ये शेर उन्हीं कि जुबानी...मैं बीच में से हट जाता हूँ और तलाशता हूँ आपके लिए एक और किताब. .


***

Monday, November 1, 2010

चाँद छुपे जब बदली में

(आज की मेरी ये ग़ज़ल मैं हर दिल अज़ीज़ शायर और मेरे बड़े भाई समान जनाब जाफ़र रज़ा साहब को समर्पित कर रहा हूँ जो अचानक हमें और अपने सभी चाहने वालों को मंगलवार छब्बीस अक्टूबर को बिलखता छोड़ कर चले गए. उन जैसा ज़िंदा-दिल इंसान और बेहतरीन शायर दूसरा ढूँढना मुश्किल है. सिर्फ दो दिन पहले रविवार की रात को उनके साथ शिरकत किये मुशायरे की याद हमेशा दिल में ताज़ा बनी रहेगी. खुदा उस नेक रूह को करवट करवट ज़न्नत नसीब करे.)



तन्हाई में गाया कर
खुद से भी बतियाया कर

हर राही उस से गुज़रे
ऐसी राह बनाया कर

रिश्तों में गर्माहट ला
मुद्दे मत गरमाया कर

चाँद छुपे जब बदली में
तब छत पर आ जाया कर

जिंदा गर रहना है तो
हर गम में मुस्काया कर

नाजायज़ जब बात लगे
तब आवाज़ उठाया कर

मीठी बातें याद रहें
कड़वी बात भुलाया कर

‘नीरज’ सुन कर सब झूमें
ऐसा गीत सुनाया कर


(परम आदरणीय गुरु प्राण शर्मा जी की रहनुमाई में कही ग़ज़ल )