कायदे से तो आज की पोस्ट किसी किताब पर होनी चाहिए थी लेकिन इस बंधी बंधाई लीक पर चलते चलते कुछ ऊब सी होने लगी थी इसलिए सोचा चलो जायका बदला जाए.इस से ये मत समझ लीजियेगा कि मेरे किताबों के खजाने में कुछ नहीं बचा है,ये तो एक लंबी यात्रा के दौरान थोडा सा सुस्ता लेने वाली है बात है बस. साहित्य और क्रिकेट के शौक आलावा जो शौक मुझे आल्हादित करता है वो है सिनेमा।
सिनेमा देखना उसके बारे में पढ़ना मुझे बहुत पसंद है, इस विषय पर भी ढेरों किताबें मेरे पास आपको मिल जायेंगी. मेरे इस शौक का जैसे ही पता मेरे गुरुदेव प्राण शर्मा जी को चला उन्होंने खास तौर पर सिनेमा पर लिखी अपनी एक विलक्षण रचना भेज दी जिसेमें बालीवुड की तल्ख़ सच्चाई परत दर परत खोली गयी है. प्राण जी की प्रखर नज़र से बालीवुड का कोई राज़ छुप नहीं पाया है और उसे उन्होंने बहुत बेबाक तरीके अपनी रचना में प्रस्तुत किया है . उम्मीद करता हूँ सुधि पाठक उनकी इस रचना को पसंद करेंगे.
इस के अलावा मैं आपको अपना सिनेमा देखने का एक पुराना लेकिन रोचक संस्मरण भी सुना रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ ये किस्सा आपको पसंद आएगा.
सबसे पहले पढ़िए गुरुदेव प्राण शर्मा जी की बोलीवुड पर लिखी कविता:"रंग-ढंग बोलीवुड के"
ये बोलीवुड है प्यारे सब खेल यहाँ के न्यारे
रात में उगता सूरज और दिन में चाँद-सितारे
इस बेढंगी मण्डी में है चार दिनों का डेरा
सबको ही पड़ी है अपनी ना तेरा ना कोई मेरा
मुश्किल से मिलेगा कोई गिरतों को उठाने वाला
दिन के सपनों जैसा है इस मण्डी का उजियाला
यदि पुश हो किसी अपने की है सफल यहाँ पे अनाडी
सच ही कहती है दुनिया चलती का नाम है गाड़ी
कोई एक रात ही यारो आकाश को छू लेता है
कोई गिरता है औंधे मुँह सर्वस्व भी खो देता है
इस मण्डी के व्यापारी चाचे हैं या हैं भतीजे
कुछ ज़ोर नहीं औरों का बस साले हैं या जीजे
इस मण्डी चोर बहुत हैं हर चीज़ चुरा लाते हैं
औरों के माल को प्यारे अपना ही बतलाते हैं
काला बाज़ार यहीं पर काले धन के व्यापारी
हर बात यहाँ मुमकिन है तलवार चले दो धारी
चमचों की बदौलत ही से हर काम यहाँ होता है
जो उनका नहीं है संगी वो सर धुन कर रोता है
हीरो" और "हीरोइन" से निर्देशक भी डरते हैं
उनके आगे लेखक भी झुक कर पानी भरते हैं
पिक्चर के हिट होने पर सब को पर लग जाते हैं
जो कल तक थे "बेचारे" वे हाथ नहीं आते हैं
अब रातों-रात बोलियाँ स्टारों की लग जाती हैं
कल तक के "बेचारों" की पुश्तें भी तर जाती हैं
उनके नखरों की चिड़ियें ऊँची-ऊँची उडती हैं
पर ये न समझना प्यारे "यां" खुशियाँ ही जुडती हैं
पिक्चर असफल होने पर सब पर मातम छाता है
हर कोई निज किस्मत को रोता और चिल्लाता है
और अब एक दिलचस्प संस्मरण
दोस्तों बन्दे को फिल्में देखने का बहुत शौक है, ये हमारा खानदानी है शौक है कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, आज भी मेरी माता जी जो अस्सी के ऊपर हैं सिनेमा देखने हमारे साथ जाती हैं और हमसे ज्यादा आनंद लेती हैं. सन चालीस के ज़माने से लेकर आज तक के सभी कलाकार उनकी फिल्में और गाने उन्हें याद हैं...उनकी बात फिर कभी आज मैं आपको अपना फिल्म देखने का एक रोचक किस्सा सुनाता हूँ. ये किस्सा इस से पूर्व चवन्नी छाप ब्लॉग पर दस दिसम्बर २००८ को छप चुका है. आज प्रस्तुत है खास आपके लिए...पढिये और आनंद लीजिये.
बात बहुत पुरानी है शायद 1977 के आसपास की...जयपुर से लुधियाना जाने का कार्यक्रम था एक कांफ्रेंस के सिलसिले में. सर्दियों के दिन थे. दिन में कांफ्रेंस हुई शाम को लुधियाना में मेरे एक परिचित ने सिनेमा जाने का प्रस्ताव रख दिया. अंधे को क्या चाहिए?दो आँखें...फ़ौरन हाँ कर दी.
खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."धरम पाजी दा जवाब नहीं" वाक्य आप वहां खड़े हर दूसरे सरदार जी से सुन सकते थे.
बहुत लम्बी लाइन लगी हुई थी टिकट के लिए...इसकी कोई सम्भावना नहीं थी की लाइन में खड़े हो कर टिकट मिल सकेगा. मेरे परिचित हार मानने वाले कहाँ थे मुझसे बोले एक काम करते हैं मनेजर से मिलते हैं, आप सिर्फ़ उसके सामने इंग्लिश बोलना और कहना की जयपुर से आया हूँ और धर्मेन्द्र पाजी का बहुत बड़ा फेन हूँ...बस, काम हो जाएगा. मैनेजर तक पहुँचने की एक अलग कहानी है. सबसे पहले तो गेट कीपर को दस का नोट दिया जिसने हमें थिएटर में जाने दिया मिलने को.
मैनेजर साहेब एक ऊंचे तगडे सरदारजी थे और फोन पर किसी से बातों में व्यस्त थे, जिसमें बातें कम थीं और गालियाँ ज्यादा थीं...पंजाब में बात करने का एक एक खास स्टाइल है...आप जिसके जितने आत्मीय होंगे उस के साथ उतनी ही गालियाँ बातचीत में प्रयोग करेंगे. हम करीब दस मिनट खड़े रहे. फोन ख़तम करके वो हमारी तरफ़ देख कर बोले हाँ जी दस्सो...(बताओ). मेरे मित्र ने मेरे बारे में बताना शुरू किया की ये जनाब जयपुर से आए हुए हैं और "धरमिंदर पाजी" के बहुत बड़े फेन हैं अभी ये फ़िल्म वहां लगी नहीं है और ये इसे पहले देख कर इसका प्रचार वहां करेंगे...लेकिन समस्या टिकट की है इसलिए आप के पास आए हैं.
मैनेजर साहेब ने मेरी तरफ़ मुस्कुरा कर देखा...पूछा "अच्छा जी तुसी जयपुर तों आए हो? वा जी वा...लेकिन टिकट ते है नहीं..." मैंने अंग्रेजी में कहा की अगर मुझे ये फ़िल्म देखने को नहीं मिली तो बहुत अफ़सोस होगा और जयपुर में धर्मेन्द्र जी के फेन क्लब वाले निराश हो जायेंगे...आप कुछ कीजिये प्लीज" ...मेरी बात उन्हें कितनी समझ आयी कह नहीं सकता लेकिन "प्लीज" जरूर समझ में आ गया, इसलिए वो बोले " ओजी प्लीज की क्या बात है,चलो देखता हूँ तुवाडे लयी क्या कर सकता हूँ ". वे ये बोल कर चल दिए...और दस मिनट में दो टिकट लेकर लौटे..और...टिकट की कीमत धर्मेन्द्र जी के नाम पर दुगनी वसूल कर ली.
टिकट लेकर हम लोग इतने खुश हुए जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो...बाहर निकले तो देखा की अब लाइन टिकट विंडो की जगह थिएटर के गेट के सामने लग चुकी थी...धक्का मुक्का और गालियाँ अनवरत जारी थीं..लोग अन्दर घुसने को बेताब थे...गेट कीपर जंगले वाला गेट बंद कर के आराम से खड़ा था. मैंने अपने परिचित से पूछा की की ये इतनी लम्बी लाइन क्यूँ लगा रखी है और भीड़ अन्दर जाने को बेताब क्यूँ है...उसने कहा की टिकट पर सीट नंबर नहीं है इसलिए जो पहले घुसेगा उसे अच्छी सीट मिलेगी. " मर गए" मैंने मन में सोचा.
हम भी लाइन में जा खड़े हुए...अचानक जोर का शोर हुआ और एक धक्का लगा एक रेला सा आया जो मुझे और मेरे मित्र को लगभग हवा में लहराते हुए अपने आप थिएटर में पहुँचा दिया...अपने आप को संभल पाते तब तक हम थिएटर के अन्दर पहुँच चुके थे...थोड़ा अँधेरा था...परदे पर वाशिंग पौडर निरमा चल रहा था...सीट दिखाई नहीं दे रही थी...धक्के यथावत जारी थे...मेरे परिचित ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा हुआ था...हम किसी तरह पास पास सीट पर बैठ गए.
बैठने के बाद मैंने देखा की लगभग हर दूसरा सरदार अपनी पगड़ी खोल कर फेहराता और पाँच छे सीटों को ढक लेता...जिसकी पगड़ी के नीचे जितनी सीटें दब गयीं वो उसकी..." ओये मल लई मल लई सीट असां" ( हमने सीट रोक ली है) का शोर मचा हुआ था. लोग सीट के ऊपर से इधर उधर से याने हर किधर से कूद फांद कर बैठने की कोशिश कर रहे थे. रात के इस शो में महिलाएं कम नहीं थीं बल्कि वे भी इस युद्ध का हिस्सां थीं...कुछ कद्दावर महिलाएं पुरुषों को धक्का देकर सीट पे बैठ चिल्लाती नजर आ रहीं थीं की " दार जी आ जाओ...सीट मल लई है मैं...मुंडे नू वी ले आओ...तुसी ते किसी काज जोगे नहीं.."( सरदार जी आ जायीये सीट रोक ली है मैंने, लड़के को भी ले आओ, आप तो किसी काम के नहीं हो). कोने में खड़ी चार पाँच लड़कियां जो शायद इंग्लैंड से आयीं हुई थीं( उस ज़माने में अधिकतर लोग पंजाब से इंग्लैंड जा बसे थे और कभी कभी अपने वतन लौटते थे )अपनी पंजाबी युक्त इंग्लिश जबान में गुहार लगा रहीं थी " एय टॉर्च मैन हेल्लो टॉर्च मैन...तुम कहाँ हो टॉर्च मैन...सानू सीट पे बिठाओ प्लीज" . उनकी ये अजीब जबान सुनकर अधिकतर लोग हंस भी रहे थे...टॉर्च मैन ने ना आना था ना आया...आता भी क्या करने?
फ़िल्म शुरू हुई...धर्म पाजी के आते ही " जो बोले सो निहाल...सत श्री अकाल" के नारे से पूरा हाल गूँज उठा. तालियाँ उनके हर एक्शन और संवाद पर जो बजनी शुरू होतीं तो रूकती ही नहीं. फ़िल्म भारी शोर शराबे के बीच अनवरत चलती रही. जब लोग चुप होते तो हाल में चल रहे पंखों की आवाज सुनी देने लगती.
इंटरवल हुआ...आगे पीछे देखा की सारी सीटें भरी हुई हैं...कुछ लोग दीवार के साथ खड़े भी हैं...मित्र को कहा की चलो काफी पी कर आते हैं...हम लोग उठने की सोच ही रहे थे की अचानक पन्द्रह बीस लोग सर पर टोकरियाँ लेकर अन्दर आ गए...ध्वाने ले लो जी ध्वाने...(तरबूज ले लो जी तरबूज)...तिरछी फांकों में कटे लाल तरबूज जिन पर मख्खियाँ आराम से बिराज मान थीं देखते ही देखते बिक गए...इसके बाद खरबूजे, चना जोर गरम, समोसे, जलेबी, मुरमरे, पकोडे और तली मछली का नंबर भी इसी तरह आया...
मैंने सोचा जो लोग फ़िल्म के इंटरवल में आधी रात के बाद इतना कुछ खा सकते हैं वो लोग खाने के समय कितना खाते होंगे? लगता था की लोग शायद इंटरवल में खाने अधिक आए हैं और फ़िल्म देखने कम...या फ़िल्म के बहाने खाने आए हैं. खाने पीने का ये दौर फ़िल्म शुरू होने के बाद तक चलता रहा, लोगों के मुहं से निकली चपड़ चपड़ की आवाजें फ़िल्म से आ रही आवाज से अधिक थी.
एक दृश्य जिसमें धर्मेन्द्र एक गुंडे की ठुकाई कर रहा था परदे पर आया...गुंडा कुछ अधिक ही पिट रहा था...तभी एक आवाज आयी..."ओये यार बस कर दे मर जाएगा"...दूसरी तरफ़ से आवाज आयी " क्यूँ बस कर दे गुंडा तेरा प्यो लगदा ऐ?( क्यूँ बस कर दे गुंडा क्या तेरा पिता लगता है). पैसे दित्ते ने असां...मारो पाजी तुसी ते मारो..." अब पहली तरफ़ से दूसरी तरफ़ लहराती हुई चप्पल फेंकी गयी...येही कार्यक्रम दूसरी तरफ़ से चला...चप्पलों का आवागमन तेज हो गया....अब चप्पलों के साथ गालियाँ भी चलने लगीं...तभी एक कद्दावर सरदार ऊंची आवाज में बोला..." ओये ऐ खेड ख़तम करो फिलम देखन देयो...जिन्नू लड़ना है बाहर जा के लड़े...हुन किसी ने गड़बड़ कित्ती ते देखियो फेर सर पाड़ देयांगा..."( ओ ये खेल ख़त्म करो फ़िल्म देखने दो ...जिसने लड़ना है बाहर जा कर लड़े...अब किसी ने गड़बड़ की तो सर फोड़ दूँगा) सरदार जी की बात का असर हुआ...जो बोले सो निहाल का नारा फ़िर से लगा और फ़िल्म अंत तक बिना रूकावट के चलती रही....
बाहर निकल कर रिक्शा किया तो रिक्शा वाला बोला "साब जी मैं पिछले तिन दिना विच ऐ फ़िल्म तिन वारि देख चुक्या हाँ...धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं....जी करदा है तिन वारि होर वेखां..."
लुधियाना में देखी ये फ़िल्म और माहौल मैं कभी नहीं भूल पाता. आज के मल्टीप्लेक्स ने सिनेमा देखने के इस आनंद का बड़े शहरों में तो कचरा कर ही दिया है
इस के अलावा मैं आपको अपना सिनेमा देखने का एक पुराना लेकिन रोचक संस्मरण भी सुना रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ ये किस्सा आपको पसंद आएगा.
सबसे पहले पढ़िए गुरुदेव प्राण शर्मा जी की बोलीवुड पर लिखी कविता:"रंग-ढंग बोलीवुड के"
ये बोलीवुड है प्यारे सब खेल यहाँ के न्यारे
रात में उगता सूरज और दिन में चाँद-सितारे
इस बेढंगी मण्डी में है चार दिनों का डेरा
सबको ही पड़ी है अपनी ना तेरा ना कोई मेरा
मुश्किल से मिलेगा कोई गिरतों को उठाने वाला
दिन के सपनों जैसा है इस मण्डी का उजियाला
यदि पुश हो किसी अपने की है सफल यहाँ पे अनाडी
सच ही कहती है दुनिया चलती का नाम है गाड़ी
कोई एक रात ही यारो आकाश को छू लेता है
कोई गिरता है औंधे मुँह सर्वस्व भी खो देता है
इस मण्डी के व्यापारी चाचे हैं या हैं भतीजे
कुछ ज़ोर नहीं औरों का बस साले हैं या जीजे
इस मण्डी चोर बहुत हैं हर चीज़ चुरा लाते हैं
औरों के माल को प्यारे अपना ही बतलाते हैं
काला बाज़ार यहीं पर काले धन के व्यापारी
हर बात यहाँ मुमकिन है तलवार चले दो धारी
चमचों की बदौलत ही से हर काम यहाँ होता है
जो उनका नहीं है संगी वो सर धुन कर रोता है
हीरो" और "हीरोइन" से निर्देशक भी डरते हैं
उनके आगे लेखक भी झुक कर पानी भरते हैं
पिक्चर के हिट होने पर सब को पर लग जाते हैं
जो कल तक थे "बेचारे" वे हाथ नहीं आते हैं
अब रातों-रात बोलियाँ स्टारों की लग जाती हैं
कल तक के "बेचारों" की पुश्तें भी तर जाती हैं
उनके नखरों की चिड़ियें ऊँची-ऊँची उडती हैं
पर ये न समझना प्यारे "यां" खुशियाँ ही जुडती हैं
पिक्चर असफल होने पर सब पर मातम छाता है
हर कोई निज किस्मत को रोता और चिल्लाता है
और अब एक दिलचस्प संस्मरण
दोस्तों बन्दे को फिल्में देखने का बहुत शौक है, ये हमारा खानदानी है शौक है कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, आज भी मेरी माता जी जो अस्सी के ऊपर हैं सिनेमा देखने हमारे साथ जाती हैं और हमसे ज्यादा आनंद लेती हैं. सन चालीस के ज़माने से लेकर आज तक के सभी कलाकार उनकी फिल्में और गाने उन्हें याद हैं...उनकी बात फिर कभी आज मैं आपको अपना फिल्म देखने का एक रोचक किस्सा सुनाता हूँ. ये किस्सा इस से पूर्व चवन्नी छाप ब्लॉग पर दस दिसम्बर २००८ को छप चुका है. आज प्रस्तुत है खास आपके लिए...पढिये और आनंद लीजिये.
बात बहुत पुरानी है शायद 1977 के आसपास की...जयपुर से लुधियाना जाने का कार्यक्रम था एक कांफ्रेंस के सिलसिले में. सर्दियों के दिन थे. दिन में कांफ्रेंस हुई शाम को लुधियाना में मेरे एक परिचित ने सिनेमा जाने का प्रस्ताव रख दिया. अंधे को क्या चाहिए?दो आँखें...फ़ौरन हाँ कर दी.
खाना खाते खाते साढ़े आठ बज गए थे सो किसी दूर के थिएटर में जाना सम्भव नहीं था इसलिए पास के ही थिएटर में जाना तय हुआ. थिएटर का नाम अभी याद नहीं...शायद नीलम या मंजू ऐसा ही कुछ था. वहां नई फ़िल्म लगी हुई थी "धरमवीर". जिसमें धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र हीरो थे. धर्मेन्द्र तब भी पंजाब में सुपर स्टार थे और अब भी हैं..."धरम पाजी दा जवाब नहीं" वाक्य आप वहां खड़े हर दूसरे सरदार जी से सुन सकते थे.
बहुत लम्बी लाइन लगी हुई थी टिकट के लिए...इसकी कोई सम्भावना नहीं थी की लाइन में खड़े हो कर टिकट मिल सकेगा. मेरे परिचित हार मानने वाले कहाँ थे मुझसे बोले एक काम करते हैं मनेजर से मिलते हैं, आप सिर्फ़ उसके सामने इंग्लिश बोलना और कहना की जयपुर से आया हूँ और धर्मेन्द्र पाजी का बहुत बड़ा फेन हूँ...बस, काम हो जाएगा. मैनेजर तक पहुँचने की एक अलग कहानी है. सबसे पहले तो गेट कीपर को दस का नोट दिया जिसने हमें थिएटर में जाने दिया मिलने को.
मैनेजर साहेब एक ऊंचे तगडे सरदारजी थे और फोन पर किसी से बातों में व्यस्त थे, जिसमें बातें कम थीं और गालियाँ ज्यादा थीं...पंजाब में बात करने का एक एक खास स्टाइल है...आप जिसके जितने आत्मीय होंगे उस के साथ उतनी ही गालियाँ बातचीत में प्रयोग करेंगे. हम करीब दस मिनट खड़े रहे. फोन ख़तम करके वो हमारी तरफ़ देख कर बोले हाँ जी दस्सो...(बताओ). मेरे मित्र ने मेरे बारे में बताना शुरू किया की ये जनाब जयपुर से आए हुए हैं और "धरमिंदर पाजी" के बहुत बड़े फेन हैं अभी ये फ़िल्म वहां लगी नहीं है और ये इसे पहले देख कर इसका प्रचार वहां करेंगे...लेकिन समस्या टिकट की है इसलिए आप के पास आए हैं.
मैनेजर साहेब ने मेरी तरफ़ मुस्कुरा कर देखा...पूछा "अच्छा जी तुसी जयपुर तों आए हो? वा जी वा...लेकिन टिकट ते है नहीं..." मैंने अंग्रेजी में कहा की अगर मुझे ये फ़िल्म देखने को नहीं मिली तो बहुत अफ़सोस होगा और जयपुर में धर्मेन्द्र जी के फेन क्लब वाले निराश हो जायेंगे...आप कुछ कीजिये प्लीज" ...मेरी बात उन्हें कितनी समझ आयी कह नहीं सकता लेकिन "प्लीज" जरूर समझ में आ गया, इसलिए वो बोले " ओजी प्लीज की क्या बात है,चलो देखता हूँ तुवाडे लयी क्या कर सकता हूँ ". वे ये बोल कर चल दिए...और दस मिनट में दो टिकट लेकर लौटे..और...टिकट की कीमत धर्मेन्द्र जी के नाम पर दुगनी वसूल कर ली.
टिकट लेकर हम लोग इतने खुश हुए जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो...बाहर निकले तो देखा की अब लाइन टिकट विंडो की जगह थिएटर के गेट के सामने लग चुकी थी...धक्का मुक्का और गालियाँ अनवरत जारी थीं..लोग अन्दर घुसने को बेताब थे...गेट कीपर जंगले वाला गेट बंद कर के आराम से खड़ा था. मैंने अपने परिचित से पूछा की की ये इतनी लम्बी लाइन क्यूँ लगा रखी है और भीड़ अन्दर जाने को बेताब क्यूँ है...उसने कहा की टिकट पर सीट नंबर नहीं है इसलिए जो पहले घुसेगा उसे अच्छी सीट मिलेगी. " मर गए" मैंने मन में सोचा.
हम भी लाइन में जा खड़े हुए...अचानक जोर का शोर हुआ और एक धक्का लगा एक रेला सा आया जो मुझे और मेरे मित्र को लगभग हवा में लहराते हुए अपने आप थिएटर में पहुँचा दिया...अपने आप को संभल पाते तब तक हम थिएटर के अन्दर पहुँच चुके थे...थोड़ा अँधेरा था...परदे पर वाशिंग पौडर निरमा चल रहा था...सीट दिखाई नहीं दे रही थी...धक्के यथावत जारी थे...मेरे परिचित ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा हुआ था...हम किसी तरह पास पास सीट पर बैठ गए.
बैठने के बाद मैंने देखा की लगभग हर दूसरा सरदार अपनी पगड़ी खोल कर फेहराता और पाँच छे सीटों को ढक लेता...जिसकी पगड़ी के नीचे जितनी सीटें दब गयीं वो उसकी..." ओये मल लई मल लई सीट असां" ( हमने सीट रोक ली है) का शोर मचा हुआ था. लोग सीट के ऊपर से इधर उधर से याने हर किधर से कूद फांद कर बैठने की कोशिश कर रहे थे. रात के इस शो में महिलाएं कम नहीं थीं बल्कि वे भी इस युद्ध का हिस्सां थीं...कुछ कद्दावर महिलाएं पुरुषों को धक्का देकर सीट पे बैठ चिल्लाती नजर आ रहीं थीं की " दार जी आ जाओ...सीट मल लई है मैं...मुंडे नू वी ले आओ...तुसी ते किसी काज जोगे नहीं.."( सरदार जी आ जायीये सीट रोक ली है मैंने, लड़के को भी ले आओ, आप तो किसी काम के नहीं हो). कोने में खड़ी चार पाँच लड़कियां जो शायद इंग्लैंड से आयीं हुई थीं( उस ज़माने में अधिकतर लोग पंजाब से इंग्लैंड जा बसे थे और कभी कभी अपने वतन लौटते थे )अपनी पंजाबी युक्त इंग्लिश जबान में गुहार लगा रहीं थी " एय टॉर्च मैन हेल्लो टॉर्च मैन...तुम कहाँ हो टॉर्च मैन...सानू सीट पे बिठाओ प्लीज" . उनकी ये अजीब जबान सुनकर अधिकतर लोग हंस भी रहे थे...टॉर्च मैन ने ना आना था ना आया...आता भी क्या करने?
फ़िल्म शुरू हुई...धर्म पाजी के आते ही " जो बोले सो निहाल...सत श्री अकाल" के नारे से पूरा हाल गूँज उठा. तालियाँ उनके हर एक्शन और संवाद पर जो बजनी शुरू होतीं तो रूकती ही नहीं. फ़िल्म भारी शोर शराबे के बीच अनवरत चलती रही. जब लोग चुप होते तो हाल में चल रहे पंखों की आवाज सुनी देने लगती.
इंटरवल हुआ...आगे पीछे देखा की सारी सीटें भरी हुई हैं...कुछ लोग दीवार के साथ खड़े भी हैं...मित्र को कहा की चलो काफी पी कर आते हैं...हम लोग उठने की सोच ही रहे थे की अचानक पन्द्रह बीस लोग सर पर टोकरियाँ लेकर अन्दर आ गए...ध्वाने ले लो जी ध्वाने...(तरबूज ले लो जी तरबूज)...तिरछी फांकों में कटे लाल तरबूज जिन पर मख्खियाँ आराम से बिराज मान थीं देखते ही देखते बिक गए...इसके बाद खरबूजे, चना जोर गरम, समोसे, जलेबी, मुरमरे, पकोडे और तली मछली का नंबर भी इसी तरह आया...
मैंने सोचा जो लोग फ़िल्म के इंटरवल में आधी रात के बाद इतना कुछ खा सकते हैं वो लोग खाने के समय कितना खाते होंगे? लगता था की लोग शायद इंटरवल में खाने अधिक आए हैं और फ़िल्म देखने कम...या फ़िल्म के बहाने खाने आए हैं. खाने पीने का ये दौर फ़िल्म शुरू होने के बाद तक चलता रहा, लोगों के मुहं से निकली चपड़ चपड़ की आवाजें फ़िल्म से आ रही आवाज से अधिक थी.
एक दृश्य जिसमें धर्मेन्द्र एक गुंडे की ठुकाई कर रहा था परदे पर आया...गुंडा कुछ अधिक ही पिट रहा था...तभी एक आवाज आयी..."ओये यार बस कर दे मर जाएगा"...दूसरी तरफ़ से आवाज आयी " क्यूँ बस कर दे गुंडा तेरा प्यो लगदा ऐ?( क्यूँ बस कर दे गुंडा क्या तेरा पिता लगता है). पैसे दित्ते ने असां...मारो पाजी तुसी ते मारो..." अब पहली तरफ़ से दूसरी तरफ़ लहराती हुई चप्पल फेंकी गयी...येही कार्यक्रम दूसरी तरफ़ से चला...चप्पलों का आवागमन तेज हो गया....अब चप्पलों के साथ गालियाँ भी चलने लगीं...तभी एक कद्दावर सरदार ऊंची आवाज में बोला..." ओये ऐ खेड ख़तम करो फिलम देखन देयो...जिन्नू लड़ना है बाहर जा के लड़े...हुन किसी ने गड़बड़ कित्ती ते देखियो फेर सर पाड़ देयांगा..."( ओ ये खेल ख़त्म करो फ़िल्म देखने दो ...जिसने लड़ना है बाहर जा कर लड़े...अब किसी ने गड़बड़ की तो सर फोड़ दूँगा) सरदार जी की बात का असर हुआ...जो बोले सो निहाल का नारा फ़िर से लगा और फ़िल्म अंत तक बिना रूकावट के चलती रही....
बाहर निकल कर रिक्शा किया तो रिक्शा वाला बोला "साब जी मैं पिछले तिन दिना विच ऐ फ़िल्म तिन वारि देख चुक्या हाँ...धरमिंदर पाजी दा जवाब नहीं....जी करदा है तिन वारि होर वेखां..."
लुधियाना में देखी ये फ़िल्म और माहौल मैं कभी नहीं भूल पाता. आज के मल्टीप्लेक्स ने सिनेमा देखने के इस आनंद का बड़े शहरों में तो कचरा कर ही दिया है
नीरज अंकल, शुरुआत तो मैंने बड़े बोरियत मूड से की थी लेकिन अंत आते-आते अकेले सीट पर हँस रहा हूँ और आँखों में आँसू भी आ गए। मजा आ गया सी। सत् श्री अकाल। प्रकाश पर्व दी बधाई।
ReplyDeleteAJEEB ITEFAAQ HAI , ISI FILM KE KHAATIR PAHLE DIN PAHLE SHOW ME MAINE AUR MERE DOST ABHAY NE APNI WO GAT BANAYI HAI KI POOCHIYE MAT ...
ReplyDeleteNEERAJA JI AB TO MAAN LIJIYE KI HAM DONO KE KUCH JEANS MILTE HAI ...
SIR MAIN BHI BAHUT BADA FAN HOON FILMS , AB SAMAY NAHI HAI ISILIYE DEKH NAHI PAATA HOON ,
WAISE MAIN AAPKO APNI EK LINK DETA HOON JISME MAINE FILM MUSIC KE BAARE ME KUCH LIKHA HAI ...USE JARUR PADHE ..
http://poemsofvijay.blogspot.com/2010/11/part-ii_17.html
HMM, WAISE MUJHE FILM KE POSTER COLLECTION [ SOFT COPY ] KA BHI SHAUK HAI ....
WELL WRITTEN POST AUR UPAR SE PRAN JI KI GAZAL.... WAAH WAAH
REGARDS
VIJAY
:) sansmaran me anand aaya ..bahut rochak tha... :)
ReplyDeletebadhiya rochak sansmaran ...
ReplyDeleteबहुत खूब संस्मरण नीरज जी,
ReplyDeleteएक छोटा सा संस्मरण मेरा भी है| हुआ यों कि मुझे अपने चचेरे भाई के साथ पिक्चर देखने जाना था| पिक्चर थी डीडीएलजे और टिकेट था १५ रूपये, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे| मेरे भाई को उनकी माता जी ने (मेरी ताई जी ने) घर का काम करने के लिए बोला था| तो भाईसाहब , उसके घर पे झाड़ू-पोछा किया ताकि वो मेरे भी पैसे दे| आज याद दिला के हँसता है, और कमबख्त हर किसी को बताता है कि इसने मूवी देखने के लिए हमारे घर पर झाड़ू मारा है|
आखिर देख ही ली धर्मवीर ....धर्म से काफी वीरता दिखानी पड़ी ...रोचक संस्मरण
ReplyDeleteफिल्म टॉकिज का आनंन्द यही मिल गया वाह... नहीं तो अब फिल्म देखने कही बहार नहीं जाना पड़ता ..और वो सब गए दिन हो गए....लेकिन आपके लेख ने पुरानी यादे ताजा कर दीं .. सुन्दर लेख / संस्मरण
ReplyDeleterachna ne bhi hakeekat byaan kee .
ReplyDeletesansmaran ne bhi mood achchha kar diya , shayad ye jaruree hai ki kuchh khushgavaar lamhe ham vakt se cjhura liya karen ..thankyou
आदरणीय प्राण जी की रचना और आपका संस्मरण ... मज़ा आ गया आज तो बोलीवुड छा गया ..
ReplyDeleteलोग पिक्चर देख कर मज़ा लेते हैं और हमने तो पढ़ कर उससे ज्यादा मज़ा लिया हैं
ReplyDeleteमेरे राम जी,,,,,,,,,
ReplyDeleteहंसा हंसा कर बुरा हाल कर दिया.....
वाह
जो बोले-इ-इ-इ सो निहाल....
सत श्री आकाल
वधिया......
एन्ज ही कुज लिखा करो....
कादो दे गजल नाल पका रहे सी.....
नीरज जी,
ReplyDeleteबहुत रोचक पोस्ट.....बॉलीवुड पर कविता बढ़िया लगी....और आपका संस्मरण अत्यंत रोचक था....आज भी छोटे शहरों और गाँवों में सिनेमाहालों का यही हाल है|
बहुत ही मजेदार संस्मरण...पढ़कर आनंद लिया।
ReplyDeleteलो जी हमने तो आपकी फिल्म देख ली। ये तो उससे भी मजे की है।
ReplyDeletebollywoud par gazal achhi lagi aur usse bhi achhi hai aapka sansmaran .. har kisi ke jiwan me aisa koi na koi sansmaran hoga.. hamara bhi hai.. shahansah dekhne gaye the nai saikal se... us se saaikal kee ticket nahi lee.. usne pehle saaikil nahi dee.. baad me kuchh doston ko leke aanaa pada.. ek dost.. shansah jaise chain leke aayaa.. maarpeet hui.. phir jaake saaikil mili.. baad me jab ghar pahuncha to babuji ne dhulai kee... nirma se.... peeth laal kar diya tha... rochak post !
ReplyDeleteShayad apne dhyan nahi diya tha us samay hum bhi the wanha par jab (Post padhte-padhte to yehi lag raha tha ki hum bhi baithe hain)
ReplyDeleteबॉलीवुड के रंग ढंग सचमुच बडे निराले हैं।
ReplyDelete---------
ग्राम, पौंड, औंस का झमेला। <
विश्व की दो तिहाई जनता मांसाहार को अभिशप्त है।
नीरज जी, आपका ये रंग देखकर बस इतना ही कहना है-
ReplyDelete’तुस्सी छा गए’
आदरणीय नीरज जी
ReplyDeleteआज नये रंग में हैं … लेकिन इसमें भी ख़ूब जच रहे हैं ।
क्या बात है !
ऐसी पोस्ट्स भी ब्लोगिंग के अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं । मज़ा आ गया … और पजाबी का लुत्फ़ भी !
… और आदरणीय प्राण शर्मा जी की बोलीवुड पर लिखी कविता:"रंग-ढंग बोलीवुड के" का भी क्या कहना !
इस मण्डी चोर बहुत हैं हर चीज़ चुरा लाते हैं
औरों के माल को प्यारे अपना ही बतलाते हैं
भगवान बचाए चोरों से … हम भी पीड़ित हैं …!
चमचों की बदौलत ही से हर काम यहां होता है
जो उनका नहीं है संगी वो सर धुन कर रोता है
हीरो" और "हीरोइन" से निर्देशक भी डरते हैं
उनके आगे लेखक भी झुक कर पानी भरते हैं
बेचारे अपनी बिरादरी के लेखक … !
बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई !!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
कोई एक रात ही यारो आकाश को छू लेता है
ReplyDeleteकोई गिरता है औंधे मुँह सर्वस्व भी खो देता है
bahut hi badhiyaa
बहुत ही रोचक संस्मरण रहा पढ तो सुबह ही लिया था मगर जाना था काम से तो अब कमेंट कर रही हूँ……………कुछ यादें बहुत ही लाजवाब होती हैं जो कभी नही भूलतीं।
ReplyDeleteबॉलीवुड का सत्य, कविता के माध्यम से। बहुत प्रभावी प्रस्तुति।
ReplyDeleteहाय मनमोहन देसाई है शायद धर्मवीर की निर्देशक ...ये सब सुनते तो कितना खुश होते......वैसे अपन भी धर्म पा जी के बड़े वाले पंखे है ...वे बड़े सरल दिल वाले व्यक्ति है ओर कोरे भावुक ....मुंबई में नानावटी हॉस्पिटल में काम के दौरान एक बार वे किसी रेस्टोरेंट में मिले .......तो नेपकिन पेपर पर उनका ऑटोग्राफ लिया था ... सत्यकाम ओर गुड्डी की बात की तो इमोशनल हो गए .....कल परसों ही धर्मवीर का गाना देख रहा था ."सात अजूबे इस दुनिया के .'...
ReplyDeleteवैसे पुराने यार मिलते है तो ऐसे ही बात करते है .....दो सरदार मेरे भी यार है .....पर सच्ची कहूँ उनके मुंह से गालिया बड़ी स्वीट लगती है
अब गुरुदेव आपने दुखती रग पर उँगली रख दी तो हमें भी झेलना पड़ेगा.. आज आपकी पोस्ट पढकर वो मज़ा आया जो मुझे कृष्णा शाह की फिल्म सिनेमा सिनेमा देखकर आया था... कृष्णा शाह की दुसरी फिल्म शालीमार तो चली पर सिनेमा सिनेमा दा जवाब नहीं.. फिल्मों का इतिहास कहने का इससे बेहतर ढंग नहीं देखा.. फिल्म की सीडी पिछले तीस साल से खोज रहा हूँ, नहीं मिली.. आपको मिले तो माता जी को भी दिखाइए, उनको पुराना सारा ज़माना याद आ जाएगा.. फिल्म में सिनेमा हॉल का जो दृश्य दिखाया गया है बस वो आपकी पोस्ट पढने जैसा आनंददायक है!! नीरज जी! मज़ा आ गया!! पंजाब तो झूमने का नाम है, बैण्ड न हो तो जेनरेटर की आवाज़ पर भी नाचते हैं लोग!!
ReplyDeleteनीरज जी,
ReplyDeleteहमने तो आज तक एक ही फिल्म देखी है। एकमात्र फिल्म है- तीन ईडियट।
पीतमपुरा के किसी मॉल में देखी थी।
सर, शानदार। पढ़कर मज़ा आ गया। अपनी यादों को आपने बेहद ख़बसूरती के साथ हम पाठकों तक पहुंचाया, वो भी पूरी जीवंतता के साथ।।
ReplyDeleteअरे...ये क्या...! यहाँ तो यथातथ्य सत्य का अनावरण-समारोह चल रहा है...हुज़ूर! मैं कहाँ रह गया था? चलिए देर से सही मुझे भी मिला न लुत्फ़...!
ReplyDeleteपढने मैं बहुत ही मज़ा आया.शुक्रिया नीरज साहब
ReplyDeleteयदि पुश हो किसी अपने की है सफल यहाँ पे अनाडी
ReplyDeleteसच ही कहती है दुनिया चलती का नाम है गाड़ी
कोई एक रात ही यारो आकाश को छू लेता है
कोई गिरता है औंधे मुँह सर्वस्व भी खो देता है
वाह वाह प्राण भाई साहिब ने तो गज़ल के माध्यम से पूरी पोल खोल दी फिल्म जगत की आपका संस्मरण बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद।
bohot hi rochak... maja aagaya :))
ReplyDeleteप्राण साहब का मुम्बई वृतान्त और आपका 'धर्मवीर' अनुभव, दोनों ही रोचक। दीवानगी हो तो ऐसी। मैं तो थियेटर में मूवी देखने तभी जाता हूँ जब थियेटर मालिक खुद कहता है कि भाई मूवी की आाखिरी सॉंसे अटकी हुई हैं आपके दर्शन के लिये, आप एक बार देख जायें तो इसे इस थियेटर से मुक्ति मिले किसी अन्य थियेटर में जन्म ले। अब मूवी का कष्ट नहीं देखा जाता तो मुक्तिदाता बन कर पहुँच जाता हूँ वरना गुजारिश गुजारिश ही रह जाती है और एक दिन मूवी अंतत: उस थियेटर से चल देती है।
ReplyDeleterochak kissa........
ReplyDeleteनीरज जी ,
ReplyDeleteओये होए .....
ऐसा सिनेमा हाल .....???
और चप्पलों की मारा मारी के बीच फिल्म का क्या नज़ारा होगा .....??
ओह....! कितने मज़े लुटें हैं आपने .....
सुभानाल्लाह .....पढ़कर ही रोमांच हो आया ....
और आपकी जिन्दादिली ...ओये होए ..क्या बात है ....
और आपने जैसे एक एक सीन का वर्णन किया है न ...सच्च यूँ लगा की हम क्यों नहीं थे वहाँ ......!!
bahut sunder filmi charcha.
ReplyDelete:):):)
ReplyDeleteनमस्कार नीरज जी,
ReplyDeleteये 'धर्मवीर' फिल्म के आप के हिस्से की कहानी के क्या कहने.
सही कहा आप ने, शहरों के multiplex में वो बात कहाँ.
aapki kalam mein bahut taqat hai
ReplyDeletesanmaran ho kitaab ki baat ho yaa gazal ho aap paathak ka man moh lete hain
bada hee rochak sansmaran share karne ke liye bahut bahut dhanyvad Neeraj jee.
ReplyDeletepadkar hume bhee bada mazaa aaya.......