वो दोस्त
हो, दुश्मन को भी तुम मात करो हो
हम को जो
मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें ? क्या बात करो हो
दामन पे
कोई छींट न खंज़र पे कोई दाग़
तुम क़त्ल
करो हो कि करामात करो हो
आज के
दौर में ग़ज़ल लेखन में बढ़ोतरी तो जरूर हुई
है पर "तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो" जैसा खूबसूरत मिसरा पढ़ने को
नहीं मिलता। ये कमाल ही रिवायती
शायरी को आज तक ज़िंदा रखे हुए है। वक्त के साथ साथ
इंसान की मसरूफियत भी बढ़ गयी है। आज रोटी
कपडा और मकान के लिए की जाने वाली मशक्कत शायर को मेहबूबा की जुल्फों की तरफ़ देखने
तक की इज़ाज़त नहीं देती सुलझाना तो दूर की
बात है। शायर अपने वक्त का
नुमाइन्दा होता है इसीलिए हमें आज की शायरी में इंसान पर हो रहे जुल्म, उसकी परेशानियां, टूटते रिश्तों और उनके कारण पैदा हुआ अकेलेपन, खुदगर्ज़ी आदि की दास्तान गुंथी मिलती
है।
रखना है
कहीं पाँव तो रखो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा
आया है तो इतराय चलो हो
जुल्फों
की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
जुल्फों
से ज़ियादा तुम्हीं बल खाय चलो हो
मय में
कोई खामी है न सागर में कोई खोट
पीना
नहीं आये है तो छलकाए चलो हो
हम कुछ
नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या
हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो
ऐसे दौर
में सोचा क्यों न रिवायती शायरी के कामयाब शायर जनाब
" कलीम आज़िज़ " साहब के कलाम की मरहम आज के पाठकों की जख्मी हुई रूहों पर रखीं जाएँ ताकि उन्हें थोड़ी बहुत राहत महसूस हो। इसीलिए हमने
आज" किताबों की दुनिया " श्रृंखला
में उनकी किताब "दिल से जो बात निकली ग़ज़ल
हो गयी " का चयन किया है । कुछ भी
कहें साहब रिवायती शायरी का अपना मज़ा है जो सर चढ़ कर बोलता है। कलीम
साहब को तो यकीन जानिये इस फन में महारत हासिल है.
आज अपने
पास से हमें रखते हो दूर दूर
हम बिन न
था क़रार अभी कल की बात है
इतरा रहे
हो आज पहन कर नई क़बा
दामन था
तार तार अभी कल की बात है
क़बा =एक
प्रकार का लिबास
अनजान बन
के पूछते हो है ये कब की बात
कल की है
बात यार अभी कल की बात है
11
अक्टूबर 1924 को तेलहाड़ा (जिला पटना )में जन्में कलीम साहब की शायरी को पढ़ते हुए बरबस 'मीर' साहब याद आ जाते हैं क्यों की उनकी ग़ज़लों का तेवर ‘मीर’ साहब की बेहतरीन ग़ज़लों के तेवर की याद दिलाता है। मीर साहब की
ग़ज़लों के तेवर की नक़ल बहुत से शायरों ने समय
समय पर की है लेकिन कोई भी न इन
तेवरों को दूर तक निभा पाया और न ही
उसमें कुछ इज़ाफ़ा कर पाया । कलीम
साहब ने ही मीर की शैली को पूरी कामयाबी साथ अपनाया और उसे अपने रंग और अंदाज़ से ताजगी भी प्रदान की।
बंसी तो
इक लकड़ी ठहरी लकड़ी भी क्या बोले है
बंसी के
परदे में प्यारे कृष्ण कन्हैया बोले है
घर की
बातें घर के बाहर भेदी घर का बोले है
दिल तो
है खामोश बेचारा लेकिन चेहरा बोले है
अब तक शे'र -ओ-ग़ज़ल में उनकी गूँज रही हैं आवाज़ें
सहरा से
मजनूं बोले है शहर से लैला बोले है
कलीम
साहब की शायरी में , जिसका
दामन उन्होंने छोटी उम्र से ही पकड़ लिया
था , 1946 में तेलहाड़ा में हुए ख़ूनी
साम्प्रदायिक दंगों बाद जिसमें उनका पूरा परिवार तबाह हो गया था, दर्द छलकने लगा । इसी दर्द ने उनकी
शायरी को वो आग प्रदान की जिसकी आंच बहुत तेज थी और जिसकी टीस आजतक सुनाई देती है.
उनकी कहानी जमाने की नहीं उनकी अपनी है।
दिल
टूटने का सिलसिला दिन रात है मियां
इस दौर
में ये कौन नयी बात है मियां
नाराज़गी
के साथ लो चाहे ख़ुशी से लो
दर्दे
जिगर ही वक्त की सौगात है मियां
देने
लगेंगे ज़ख्म तो देते ही जाएंगे
वो हैं
बड़े , बड़ों की बड़ी बात है मियां
फूलों से
काम लेते हो पत्थर का ऐ 'कलीम'
ये शायरी
नहीं है करामात है मियां
हिंदी
भाषी पाठकों को ध्यान में रखते हुए जनाब 'ज़ाकिर
हुसैन' साहब ने 'कलीम' साहब की लगभग चार सौ ग़ज़लों में से जो उनके दो ग़ज़ल संग्रह ' वो जो शायरी का सबब हुआ ' और 'जब फैसले बहाराँ आई थी ' में दर्ज़
हैं, करीब 150 ग़ज़लें इस किताब में सहेजी हैं। अच्छी शायरी के
लिए जरूरी तीन कसौटियों - सांकेतिक,सार्थक और संगीतात्मक पर खरी उतरती इन सभी ग़ज़लों को बार बार पढ़ने का दिल करता है.
पूछो हो
जो तुम हमसे रोने का सबब प्यारे
हम काहे
नहीं कहते गर हमसे कहा जाता
गुज़री है
जो कुछ हम पर गर तुम पे गुज़र जाती
तुम हमसे
अगर कहते हमसे न सुना जाता
होती है
ग़ज़ल 'आज़िज़' जब दर्द का अफ़साना
कहते भी
नहीं बनता चुप भी न रहा जाता
भारत
सरकार द्वारा 1989
में 'पद्मश्री' से सम्मानित कलीम साहब को दूसरे और ढेरों सम्मान प्राप्त हुए
हैं जिनमें ' इम्तियाजे मीर - कुल हिन्द मीर अकादमी
, अल्लामा मिशिगन उर्दू सोसायटी अमेरिका ,प्रशंशा पत्र -उर्दू काउन्सिल आफ
केनेडा , बिहार उर्दू एकेडेमी पुरूस्कार
उल्लेखनीय हैं। कलीम साहब ने 31 साल तक पटना कालेज में अध्यापन का
कार्य किया और 1986 में सेवा निवृत हुए।
मिरी
बरबादियों का डाल कर इल्ज़ाम दुनिया पर
वो ज़ालिम
अपने मुंह पर हाथ रख कर मुस्कुरा दे है
अब
इंसानों की बस्ती का ये आलम है कि मत पूछो
लगे है
आग इक घर में तो हमसाया हवा दे है
कलेजा
थाम कर सुनते हैं लेकिन सुन ही लेते हैं
मिरे
यारों को मेरे ग़म की तल्खी भी मज़ा दे है
वाणी
प्रकाशन -दिल्ली ने सन 2014 में इस
पुस्तक का प्रकाशन किया है। आप वाणी प्रकाशन को इस किताब की प्राप्ति के लिए +91 11
23273167 पर फोन
करें या फिर मेल करें। हज़ारों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने
वाली इस सलीकेमन्द शायर की ग़ज़लें सीधे दिल को छूती हैं। आप इस किताब को प्राप्त करने की जुगत करें तब तक हम निकलते हैं एक
और किताब की तलाश में।
उसे
लूटेंगे सब लेकिन इसे कोई न लूटेगा
न रखियो
जेब में कुछ दिल में लेकिन हौसला रखियो
मुहब्बत
ज़ख्म खाते रहने ही का नाम है प्यारे
लगाये
तीर जो दिल पर उसी से दिल लगा रखियो
न जाने
कौन कितनी प्यास में किस वक्त आ जाए
हमेशा
अपने मयखाने का दरवाज़ा खुला रखियो
यही शायर
का सबसे कीमती सरमाया है प्यारे
शिकस्ता साज़ रखियो दर्द में डूबी सदा रखियो
आपकी लिखी रचना मंगलवार 27 मई 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
KHOOBSOORAT GHAZALON KAA GULDASTA .
ReplyDeleteआज अपने पास से हमें रखते हो दूर दूर
ReplyDeleteहम बिन न था क़रार अभी कल की बात है
बहुत खूबसूरत शायरी ,बहुत गुथीं हुई भूमिका के साथ ऐसी पोस्ट पढ कर
दिल खुश हो जाता है व ब्लॉगिंग की दुनिया के
महत्व का अहसास भी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अक्ल का इक्वेशन - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत शायरी .... सुन्दर पोस्ट..
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर दिन संवर जाता है।
ReplyDeleteकलीम अज़ीज़ जी की शायरी पढ कर आनंद आ गया।
वाह वाह !!आप के इन अदभुद संग्रह को पढ़ कर आनंद आ गया कलीम अजीज जी की रचना से परिचय करने के लिए कोटि कोटि आभार।
ReplyDeleteसादर .....।
भास्कर तिवारी
एकमात्र शब्द है 'ग़ज़ब', अब और क्या कहूँ।
ReplyDeleteजब जब आपकी ये प्रस्त्तुतियॉं पढ़ता हूँ, लगता है शायरी में कुछ और समझ आया।
सार्थक अभिवयक्ति......
ReplyDeleteदिल टूटने का सिलसिला दिन रात है मियां
ReplyDeleteइस दौर में ये कौन नयी बात है मियां...
उम्दा शायर और शायरी से परिचय करवाने के लिए शुक्रिया...
Received on Mail:-
ReplyDeletedear neeraj ji
namstey
i liked ur write up abt shri kaleem aziz- his poetry is realistic one and also finds its way in the established urdue poets, as well. the following lines are being reproduced for their simplicity and impressive way of expression--
बंसी तो इक लकड़ी ठहरी लकड़ी भी क्या बोले है
बंसी के परदे में प्यारे कृष्ण कन्हैया बोले है
घर की बातें घर के बाहर भेदी घर का बोले है
दिल तो है खामोश बेचारा लेकिन चेहरा बोले है
with gud compliments-
-om sapra,
delhi
m- 9818180932
Received on Mail:-
ReplyDeleteकलीम साहब की सच्ची सुच्ची शायरी से हमें रूबरू कराने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया!
Sarv Jeet 'Sarv'
Delhi
कलीम साहब का लहजा और ज़बान बेमिसाल है। मुहब्बत की रिवायात और ज़माने के सवालात को उन्होंने बड़ी ख़ूबसूरती के साथ पेश किया है। ऐसी उम्दा शायरी से रूबरू कराने के लिए नीरज भाई को बहुत बहुत मुबारकबाद।
ReplyDelete----देवमणि पांडेय (मुम्बई)
वाह, मज़ा आ गया
ReplyDeleteवाह !एक रिवायती शायर का कलाम पढने के बाद ही शायरी का भरपूर मज़ा आता है .
ReplyDeleteतुम क़त्ल करो हो की करामत करो हो ...उनकी बहुत ही मशहूर ग़ज़ल है जिसे हर मुशायरे में पढने की मांग होती है .
अच्छे शायर और अच्छी शायरी से रूबरू करने के लिए शुक्रिया
रमेश कँवल
मार डाला... मार डाला
ReplyDeleteबेहतरीन शायर की बेहतरीन शायरी से रुबरु कराने का शुक्रिया....