लोग फिर भी घर बना लेते हैं भीगी रेत पर
जानते हैं बस्तियां कितनी समंदर ले गया
उस ने देखे थे कभी इक पेड़ पर पकते समर
साथ अपने एक दिन कितने ही पत्थर ले गया
समर: फल
रुत बदलने तक मुझे रहना पड़ेगा मुन्तजिर
क्या हुआ पत्ते अगर सारे दिसंबर ले गया
मुन्तजिर: इंतज़ार में
पुस्तक मेले में हिंदी भाषा की पुस्तकों के पंडाल में मैंने बहुत से हिंदी लेखकों को अपनी बात अंग्रेजी में रखते देख शर्म से गर्दन झुका ली। मैं अंग्रेजी का विरोधी नहीं लेकिन जो भाषा हमारी अपनी है उस से सौतेला व्यवहार करना मुझे पसंद नहीं आता।
वो बार बार बनाता है एक ही तस्वीर
हरेक बार फकत रंग ही बदलता है
गजाले -वक्त बहुत तेज़-रौ सही लेकिन
कहाँ पे जाय कि जंगल तमाम जलता है
गजाले-वक्त: समय का हिरन
अजीब बात है जाड़े के बाद फिर जाड़ा
मेरे मकान का मौसम कहाँ बदलता है
मैं हूँ बिखरा हुआ दीवार कहीं दर हूँ मैं
तू जो आ जाय मेरे दिल में तो इक घर हूँ मैं
कल मेरे साथ जो चलते हुए घबराता था
आज कहता है तिरे कद के बराबर हूँ मैं
इससे मैं बिछडू तो पल भर में फना हो जाऊं
मैं तो खुशबू हूँ इसी फूल के अंदर हूँ मैं
जितनी जानकारी मुझे मिली है उसके अनुसार गेरा साहब का जन्म एक मई 1933 को पंजाब में जालंधर के पास हुआ। उनकी दो किताबें शाया हुई हैं पहली 'पैकार' और दूसरी " लम्हों का लम्स" जिसके लिए सन 1992 में उन्हें आल इण्डिया मीर अकादमी लखनऊ की और से मीर एवार्ड मिला।
ये दायरे तेरी नश्वो-नुमा में हायल हैं
जरा तू सोच बदल कैद से निकल तो सही
नश्वो-नुमा:विकास, हायल: रूकावट
गवाँ न जान यूँही मंजिलों के चक्कर में
सफ़र का लुत्फ़ उठा ज़ाविया बदल तो सही
ज़ाविया "दृष्टिकोण
कहीं वजूद ही तेरा न इसमें खो जाए
बड़ा हजूम है इस शहर से निकल तो सही
तिरे वजूद की खुशबू का पैरहन पहना
तिरे ही लम्स को ओढ़ा तिरा बदन पहना
वजूद:अस्तित्व, लम्स:स्पर्श
वो शख्स भीग के ऐसे लगा मुझे जैसे
कँवल के फूल ने पानी बदन बदन पहना
तिरे बदन की जिया इस तरह लगे जैसे
इक आफताब को तूने किरन किरन पहना
जिया :रौशनी
रुत बदलते ही हर-इक सू मोजज़े होने लगे
पेड़ थे जितने भी सूखे सब हरे होने लगे
ये सफ़र में आ गया कैसा मुकामे-इंतेशार
लोग क्यूँ इक दुसरे से दूर अब होने लगे
मुकामे-इंतेशार:बिखराव का मुकाम
भूलकर सब कुछ समेटें क्यूँ न हम लम्हों का लम्स
ये भी क्या मिलते ही फिर शिकवे-गिले होने लगे
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुतिकरण.
ReplyDeleteमैं हूँ बिखरा हुआ दीवार कहीं दर हूँ मैं
ReplyDeleteतू जो आ जाय मेरे दिल में तो इक घर हूँ मैं
कल मेरे साथ जो चलते हुए घबराता था
आज कहता है तिरे कद के बराबर हूँ मैं
इससे मैं बिछडू तो पल भर में फना हो जाऊं
मैं तो खुशबू हूँ इसी फूल के अंदर हूँ मै..
~सभी शेर लाजवाब हैं.... ऐसे हीरे-नुमा शायरों को ढूँढ लाने का बहुत बहुत शुक्रिया!
जनाब 'मेहर गेरा' का तार्रुफ़ कराने का हार्दिक आभार!:)
~सादर!!!
जनाब शायर मेहर गेरा साहब से परिचय कराने के लिए आभार ,,,
ReplyDeleterecent post: बसंती रंग छा गया
जानदार और शानदार अभिव्यक्ति भावों को | पढ़कर आनंद आया | आभार |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
अजीब बात है जाड़े के बाद फिर जाड़ा
ReplyDeleteमेरे मकान का मौसम कहाँ बदलता है
बहुत सुंदर शायरी ...जनाब मेहर गेहरा साहब की ...
आभर पढ़वाने का नीरज जी ......!!
अरे! हमारी टिप्पणी कहाँ गयी सर ??? कहीं स्पैम में तो नहीं... :((
ReplyDeleteमेहर गेरां साहब का नाम सच में पहली बार सुना, पर उनके शेर तो बडे लाजवाब और मेंजे हुये हैं. आखिर आपकी मेहनत सफ़ल होगयी जो एक लाजवाब शख्स की शायरी से आपने रूबरू करवाया, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
नीरज भाई साहब
ReplyDeleteशुभ संध्या
बहुत ही शानदार किताब से रुबरू हुई मैं
सिर्फ आपकी और आपही की वजह से
शुक्रिया
यशोदा
Msg recd on mail:-
ReplyDeleteMahendra Gupta
19:36 (3 minutes ago)
to me
भूलकर सब कुछ समेटें क्यूँ न हम लम्हों का लम्स
ये भी क्या मिलते ही फिर शिकवे-गिले होने लगे
Wakie khoobsurat rachna, kuch shayer bin padhe hi rah jaten haen jab
ki unki kuch apni vishehta hoti hae,parichaya karane hetu aapka aapka
aabhar
1. दुकानियों को लगता है कि अंग्रेजी बोलने वालों की क्रय क्षमता बेहतर होती है.
ReplyDelete2. आपकी लगन को नमन.
bahut shukriya...
ReplyDeleteWaah bahut achchi kitab ka jikr kiya hai aapne.. aapne apne blog par ek or HEERA jad liya h aaj.
ReplyDeletemaine bhi pahli baar koi gajal : गज़ल 1 likhne ka pryas kiya h. Aapke sujhav sadar aamntrit hain.
Waah bahut achchi kitab ka jikr kiya hai aapne.. aapne apne blog par ek or HEERA jad liya h aaj.
ReplyDeletemaine bhi pahli baar koi gajal : गज़ल 1 likhne ka pryas kiya h. Aapke sujhav sadar aamntrit hain.
आपका ये नगीने ढूँढ कर प्रस्तुत करने का अ्रदाज़ कुछ ऐसा है कि:
ReplyDeleteमै तो केवल वक्त बिताने, यूँ ही घूमा करता हूँ
मोती कोई हाथ लगा तो जग से साझा करता हूँ।
"रुत बदलने तक मुझे रहना पड़ेगा मुन्तजिर
ReplyDeleteक्या हुआ पत्ते अगर सारे दिसंबर ले गया "
बहुत ही मज़े हुए शेर है और शायर से ज्यादा हमे आप पर फक्र है नीरज साहेब आप भी फूस में से सुई निकाल ही लाते है ..लाजबाब ! इसी लिए रोज़ सोचती थी की नीरज साहेब कहाँ गम हो गए बहुत दिनों से मुंह का जायका म नहीं बदला हा हा हा हा
देर आयत दुरस्त आयत ...आज के शेर तो बहुत ही बढ़िया निकले ..जनाब " मेहर गेरा ".साहेब को पढना अपने आप में एक उपलब्धी है ...
"इससे मैं बिछडू तो पल भर में फना हो जाऊं
मैं तो खुशबू हूँ इसी फूल के अंदर हूँ मैं ...."
"भूलकर सब कुछ समेटें क्यूँ न हम लम्हों का लम्स
ये भी क्या मिलते ही फिर शिकवे-गिले होने लगे "
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (20-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
Wonderful!
ReplyDeleteसच है, पुस्तकों के सागर से रत्न निकालकर लाये हैं।
ReplyDeleteमैं हूँ बिखरा हुआ दीवार कहीं दर हूँ मैं
ReplyDeleteतू जो आ जाय मेरे दिल में तो इक घर हूँ मैं
कल मेरे साथ जो चलते हुए घबराता था
आज कहता है तिरे कद के बराबर हूँ मैं
इससे मैं बिछडू तो पल भर में फना हो जाऊं
मैं तो खुशबू हूँ इसी फूल के अंदर हूँ मैं
क्या बात है सर ....आप हर बार कुछ ऐसा पढवा देते हैं कि दिल खुश हो जाता है। ये बात सही है की हिन्दुस्तान में ऐसे बहुत से फ़नकार हैं जो आम आदमी तक नहीं पहुँच पाए। आप कलम के ऐसे सिपाहियों से मिलवा कर बहुत नेक काम कर रहे हैं। आपका बहुत बहुत आभार।
हमेशा की तरह बहुत खुबसूरत
ReplyDeleteनीरज जी! आप उम्दा बहुत लिखते हैं यहाँ!
ReplyDeleteअच्छा किया जो रू-ब-रू हमको करा दिया!!
गूगल का शुक्रिया है जो दूरी घटा के बस,
दरिया के दो किनारों सा हमको बना दिया!!
rang laayee hai apki mehnat.....
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