Monday, July 4, 2011

किताबों की दुनिया - 55

किताब खरीदते वक्त एक बात ज़ेहन में रहती है जो पता नहीं कब किसने कही लेकिन साहब खूब कही कि "एक अच्छी किताब १०० दोस्तों के बराबर होती है, लेकिन एक अच्छा दोस्त पुस्तकालय के बराबर होता है, ईश्वर ने हमें माँ, बाप, भाई, बहन और दूसरे रिश्तेदार चुनने की आजादी नही दी है, लेकिन एक अच्छा दोस्त चुनने की आजादी दी है, आइए अच्छे दोस्त बनाएँ!" दोस्त तो किस्मत से मिलते हैं लेकिन किताबें खोजने से मिल जाती है. दोस्तों के पीठ पीछे से वार करने की कला का उर्दू शायरी में खूब बखान किया गया है लेकिन कभी किसी किताब ने आपसे दगाबाजी की हो ये कभी कहीं कहा गया.

आज की किताब के शायर एक ऐसी शाख्यियत हैं जिनके बारे में बहुत कम पढ़ा सुना गया है. आज के दौर के पाठकों की तो बात ही छोडिये हमारे ज़माने के लोग भी, जो शायरी में थोड़ी बहुत दखल रखते हैं, इनका नाम सुन कर हो सकता है अपना सर खुजलाने लगें. कुछ ऐसे बदनसीब शायर होते हैं जो अपनी ज़िन्दगी में वो मकबूलियत हासिल नहीं कर पाते जो उन्हें मरने के बाद नसीब होती है. वैसे भी गुज़रे वक्त और गुज़रे इंसानों की वंदना हमारे खून में है.

कुछ खास दोस्त अक्सर मुझे कहते हैं कि यार तुम अपनी भूमिका में पकाते बहुत हो सीधे सीधे मुद्दे पर क्यूँ नहीं आते, उन्हें मैं हंस कर जवाब देता हूँ के भाई क्या करूँ ये मुझ पर टी.वी. सीरियलस देखने के शौक का असर है, जो सालों चलने के बावजूद भी असली मुद्दे पर नहीं आते. मजाक को यहीं छोड़ चलिए मुद्दे पर आते हैं:-


आ के पत्थर तो मेरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
(सहन: आँगन , पस-ऐ-दीवार: दीवार के पीछे)

मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे

क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
दीदा-ए-तर : आंसू भरी आँखें, संग : पत्थर

देखते क्यूँ हो 'शकेब' इतनी बलंदी की तरफ
न उठाया करो सर को कि ये दस्तार गिरे
दस्तार: पगड़ी

"मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं " जैसे खुद्दारी से भरे मिसरे लिखने वाले इस शायर का नाम है जनाब "शकेब जलाली" साहब जो 1अक्तूबर 1934 को अलीगड़ के पास एक छोटे से गाँव सद्दत में पैदा हुए और 12 नवम्बर 1966 को याने सिर्फ बत्तीस साल की कम उम्र में इस दुनिया ऐ फानी से रुखसत हो गए. आज इसी शायर की अनमोल शायरी के पहले हिंदी संकलन "दरख़्त पानी के" का जिक्र करेंगे जिसे डायमंड बुक्स वालों ने प्रकाशित किया है.


उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी

जो दिल का ज़हर था काग़ज़ पर सब बिखेर दिया
फिर अपने आप तबियत मिरी संभलने लगी

जहाँ शज़र पे लगा था तबर का ज़ख्म 'शकेब'
वहीँ पे देख ले कोंपल नयी निकलने लगी
तबर: फरसा, कुल्हाड़ी

'शकेब जलाली' जी ने महज़ पंद्रह साल की उम्र से ग़ज़ल कहना शुरू कर दिया था . उन्होंने उर्दू शायरी को नयी दिशा दी जिसे उनके साथ के और बाद के नामचीन शायरों ने अपनाया. उर्दू शायरी हमेशा शुक्र गुज़ार रहेगी जनाब 'अहमद नदीम कासमी' साहब की,जिन्होंने 'शकेब' की शायरी को उनके इंतकाल के छै साल बाद प्रकाशित करवा और उन्हें दुनिया तक पहुँचाया. नदीम साहब की शायरी में 'शकेब' की झलक साफ़ दिखाई देती है

आकर गिरा था कोई परिंदा लहू में तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चटान पर

मलबूस खुशनुमा हैं मगर जिस्म खोखले
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर
मलबूस: वस्त्र

हक़ बात आके रुक सी गयी थी कभी 'शकेब'
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर

अफ़सोस आज के दौर में ऐसी शायरी कहीं पढने सुनने को नहीं मिलती. शकेब की शायरी गुलाब के फूलों की टहनी है जिसमें कोमलता है खुशबू है और कांटे हैं. बदायूं उत्तर प्रदेश से अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद शकेब आगे की पढाई के लिए रावलपिंडी चले गए और फिर नौकरी के सिलसिले में लाहौर. अपनी शादी के दस साल बाद किन्हीं अज्ञात कारणों से उन्होंने रेल की पटरियों पर अपना सर रख कर ख़ुदकुशी कर ली. एक अत्यंत प्रतिभाशाली शायर का ये अंत बहुत दुखद था.

न इतनी तेज़ चले सरफिरी हवा से कहो
शज़र पे एक ही पत्ता दिखाई देता है

बुरा न मानिए लोगों की ऐबजोई का
उन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ऐबजोई: दोष ढूंढना

ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है

खालिस याने बिना किसी मिलावट के शायरी पसंद करने वालों के लिए ये किताब किसी नियामत से कम नहीं. इसके हर पन्ने पर शायरी अपने पूरे शबाब पर फैली दिखाई देती है. मिसरे ठिठकने पर मजबूर करते हैं और शेर दांतों तले उँगलियाँ दबाने पर. इस किताब को पढने के बाद हुए असर को लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता इसके लिए आपको इसे पढना ही होगा. किनारे पर बैठ कर लहरें गिनने से समंदर की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता.

मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख

आलम में जिसकी धूप थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
शाहकार: कृति, तब्सिरे: समीक्षाएं

बिछती थीं जिसकी राह में फूलों की चादरें
अब उसकी ख़ाक घास के पैरों तले भी देख

डायमंड बुक्स वालों का इस किताब के प्रकाशन के लिए और श्री सुरेश कुमार का संपादन के लिए शुक्रिया अदा करते हुए मुझे इस सफ़र को न चाहते हुए भी यहीं ख़तम करना होगा. आप अगर इस किताब को खरीदना चाहते हैं तो बराए मेहरबानी 011-51611861-865 पर फोन करें या फिर उन्हें sales@diamondpublication.com पर मेल करें. ‘शकेब’ की शायरी को आपतक पहुँचाने का लालच रोके नहीं रुक रहा सो चलते चलते उनके कुछ मुत्फ़रिक से शेर आप तक पहुंचा रहा हूँ.

आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे
तितलियाँ मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर
***
सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में
***
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाये बहुत
***
दोस्ती का फ़रेब ही खाएं
आओ काग़ज़ की नाव तैरायें
***
जंगल जले तो उनको खबर तक न हो सकी
छाई घटा तो झूम उठे बस्तियों के लोग
***
ढूंढती हैं तिरी महकी हुई जुल्फों की बहार
चांदनी रात के ज़ीने से उतर कर यादें

इस बेजोड़ शायरी की दाद देने के लिए न तो हमारे पास शायर का फोन नंबर है और न ही मोबाइल नंबर और तो और उसका पता भी नहीं है इसलिए चलिए उसे दिल से याद करते हैं और दुआ करते हैं वो ज़िन्दगी के सारे झमेलों से दूर जहाँ है वहाँ सुकून से रहे. आमीन. मजरूह साहब का एक मकबूल शेर याद आ रहा :-

ज़माने ने मारे जवां कैसे कैसे
ज़मीं खा गयी आसमां कैसे कैसे



जनाब शकेब जलाली साहेब

45 comments:

  1. परिचित करने के लिए आपका आभार.बढ़िया पोस्ट.

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  2. न इतनी तेज़ चले सरफिरी हवा से कहो
    शज़र पे एक ही पत्ता दिखाई देता है... aapko badhaai aapka shukriya jo hamen shakeb ji se milaya

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  3. उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
    ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी

    यह परिचय और यह पंक्तियां बेहतरीन ..आपका आभार ।

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  4. आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे
    तितलियाँ मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर

    बहुत खूब कहा है इन पंक्तियों में ..इस परिचय के लिये आपका आभार ।

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  5. ek bar fir shukriya ...
    आलम में जिसकी धूप थी उस शाहकार पर
    दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
    aah , kitni samvedansheelta hai ...kaisi deemak chat kar gaee ki aaj ham to uska nichod hi dekh (padh ) paa rahe hain ...

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  6. ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
    तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है

    नीरज जी, ये शेर काफ़ी मशहूर हुआ है...आज आपने शकेब जलाली साहब की शख्सियत और शायरी से तआरुफ़ कराया, शुक्रिया.

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  7. मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
    सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख

    बेहद खूबसूरती है इन लफ्जो में ...मुझे वैसे भी शायरी से जरा ज्यादा लगाव है ...इतनी उम्दा शायरी मुश्किल से पढने को मिलती हैं ...आपका बहुत -बहुत शुक्रिया नीरज जी ! जो इस कंक्रीट के शहर में रहकर भी अपनी मोलिकता नहीं भूले ...

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  8. सभी शेर लाजवाब .जनाब शकेब जलाली साहेब को पढ़कर अच्छा लगा.बेहतरीन समीक्षा.

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  9. इतनी आला शायरी और उसके फनकार से मिलवाने का शुक्रिया नीरज जी ... आपका ये सफर यूँ ही चलता रहे और हम नए नए हस्ताक्षरों से मिलते रहें ..

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  10. बेहतरीन गज़लें, पढ़वाने का आभार।

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  11. बिल्कुल सही कहा नीरज भाई, आप हमारे लिए सौ पुस्तकालयों से कम नहीं हैं| घर बैठे ही उम्दा से उम्दा ग़ज़लें पढ़वाए जा रहे हो| पढ़ने के दिनों में शौक़ आया, एक पुराना रजिस्टर लिया और उस पर लिख दिया 'संग्रह मंजरि", दोस्तों से - बड़ों से सुनने के बाद जो छन्द / शेर अच्छे लगते गये उस में लिखता गया| ये सिलसिला मुंबई आने के बाद थम गया| उसी में चार पंक्तियाँ ये भी हैं:-

    मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख|
    सूरज हूँ, मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख|
    काग़ज़ की क़तरनों को भी कहते हैं लोग फूल|
    रंगों का एतबार ही क्या, सूंघ के भी देख||

    पता नहीं कब किस से कहाँ सुना था इन्हें| आज आपने इन पंक्तियों के शायर का नाम बता कर मुझ पर बहुत एहसान किया| और ये शायर हमारे पड़ोसी कस्बे अलीगढ़ वाले निकले - है न मज़े की बात!! इसे कहते हैं दीपक तले अँधेरा| आप से प्रार्थना है कि पुस्तक में बाकी की दो पंक्तियाँ भी हैं कि नहीं - इसे कन्फर्म ज़रूर करें - मैं आप को फ़ोन करूँ तब बता देना|

    उफ़ ये दस्तूर दुनिया में बनाया है किसने|
    बेबसी के उदर से जन्मता शायर क्यूँ है||

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  12. बहुत खूबसूरत ग़ज़ल से परिचय हुआ...अच्छा लिखने वाले ना जाने क्यों जल्दी विदा ले लेते हैं...अंग्रेजी के कवि जॉन कीट्स भी १९-२० साल में ही गुज़र गये और उनकी कविता आज भी जिंदा है.. इसी तरह इनकी गज़लें और शेर.. दिल में बस गईं हैं....खास तौर पर यह शेर....
    ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
    तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है...

    नीरज भाई आपका बहुत बहुत आभार... हज़ार मित्र के बराबर इस एक किताब से परिचय करने के लिए....

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  13. अच्‍छी शायरी बोलती है और आपके चुने नगीने हों तो बात ही क्‍या है, बस यही कहूँगा कि:
    'शकेब' तुझको ज़माने ने बहुत याद किया।

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  14. Neeraj jee Shakeb sahib ke bare me jaan kar dil bhar aaya.Naman aapki lagan ko.

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  15. जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
    तो हम भी राह से कंकर समेट लाये बहुत..

    सभी शेर लाज़वाब...परिचय कराने के लिये आभार..

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  16. बड़े भाई नीरज जी!
    जब आपने चुना है तो वो नगीना ही हो सकता है..और जो बानगी आपने पेश की है वो इस बात को साबित करती है!!

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  17. वाह एक चुनिन्दा पुस्तक

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  18. 'वैसे भी गुज़रे वक्त और गुज़रे इंसानों की वंदना हमारे खून में है'

    इस मिसरे से मैं पूरा इत्तेफाक रखता हूँ.......

    जनाब शकेब साहब की शख्सियत से मैं वाकिफ नहीं था.....हाँ उनकी शायरी मैंने ज़रूर पड़ी थी........गज़ब की शायरी है उनकी.......उनकी एक ग़ज़ल को मैंने अपने ब्लॉग जज़्बात पर भी जगह दी थी......

    न इतनी तेज़ चले सरफिरी हवा से कहो
    शज़र पे एक ही पत्ता दिखाई देता है.....

    उनकी पहली ही ग़ज़ल जो आपने लिखी वो भी मैंने पहले पढ़ी है .....कमल की ग़ज़ल है..........नीरज जी आपका आभार है |

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  19. Comment received from INdu Puri Goswami:-

    नौजवान शायर के बारे में पढ़ कर मन भीग सा गया और आँखें भी.बड़ा ही जज्बाती और ज़हीन शायर थे 'शकेब' किस किस शे'र का ज़िक्र करूं .....कोपी,पेस्ट करके सेव कर लिए हैं.
    सच लिखा 'जमीन खा गई आसमा कैसे कैसे '

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  20. शकेब साहब जैसे बेहतरीन लोग इतनी जल्दी दुनिया से क्यों विदा हो जाते हैं...

    जय हिंद...

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  21. शकेब साहिब की पुस्तक से परिचय करवाने के लिये धन्यवाद। आप गज़ल- पुस्तक समीक्षा के उस्ताद हो गये हैं। शुभकामनायें।

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  22. आपके पोस्ट पर आकार समय का ध्यान ही नहीं रहता.....इसलिए समय की कमी की वजह से कम आना हो पाता है. बेहतरीन तरीके से पुस्तकों और शायरों से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद !

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  23. 'मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
    जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे '
    लाजवाब!
    इस पुस्तक से परिचय मिला.आभार
    ग़ज़ल पुस्तक समीक्षा का संग्रह बन गया है आप का ब्लॉग.

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  24. जनाब जलाली साहब और उनके कलाम से परिति होना अच्छा लगा।
    आपके माध्यम से हमें समकालीन रचनाकारों की सुंदर जानकारी प्राप्त होती रही है।
    आपका आभार, नीरज जी।

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  25. जनाब जलाली साहब और उनके कलाम से परिति होना अच्छा लगा।
    आपके माध्यम से हमें समकालीन रचनाकारों की सुंदर जानकारी प्राप्त होती रही है।
    आपका आभार, नीरज जी।

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  26. आपके माध्यम से परिचय प्राप्त हुआ...वरना बस चंद शेर सुने थे जलाली साब के....शुक्रिया

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  27. गजलो से सजी हुई और जानकारी से भरी हुई सुन्दर पोस्ट.

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  28. शकेब जलाली साहब की कुछ गज़लें पहले पढ़ने का मौका मिल चुका है, बहुत कमाल की गज़लें लिखते थे।
    अल्पायु में दुनिया छोड़नेवाले प्रतिभाशालियों की लिस्ट में एक और नाम जुड़ा, जीवन परिचय करवाने के लिये शुक्रिया।

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  29. सुन्दर परिचय ||
    बधाई ||

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  30. nice....सुन्दर पोस्ट.

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  31. शकेब जलाली साहब की रचनाओं से परिचित कराने के लिए आभार।

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  32. शकेब जलाली साहब की रचनाओं को पढ़कर आनन्द आ गया....आपका बहुत आभार.

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  33. शकेब जलाली साहब की बेहतरीन गज़लें पढ़वाने के लिए आभार।

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  34. मेरे प्रिय शायर शकेब जलाली से मुलाक़ात करवाने के लिए शुक्रिया। एक अच्छे शायर का स्वाभिमान क्या होता है इसे इस शेर से समझ सकते हैं-

    मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
    जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे

    मैं मरहूम शायर जनाब अहमद नदीम क़ासमी का ख़ास तौर पर शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ जिन्होंने सबसे पहले मरहूम परवीन शाकिर, मरहूम शकेब जलाली और और मंसूरा अहमद की प्रतिभा को पहचाना और इनकी हौसला अफ़ज़ाई की। ये लोग प्यार से उन्हें बाबा कहते थे। दो साल पहले गुज़रे बाबा की दरियादिली को मेरा सलाम।

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  35. आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे
    तितलियाँ मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर ..kya kahne! shukria

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  36. शुक्रिया नीरज जी, बहुत उम्दा गज़लें हैं यह किताब लिये बिना तो रहा नही जायेगा। शकेब जलाली साहब की रचनाओं को पढकर मज़ा आ गया। वाकई क्या गज़ल कहते थे।

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  37. जनाब शकेब जलाली साहब की जिंदगी और उनकी शायरी के बारे में इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने का बहुत-बहुत आभार ...
    हर शेर खूबसूरत...........
    .आपकी प्रस्तुति बहुत सुन्दर लगी

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  38. अच्छी और रोचक लगी आपकी पोस्ट ..... आभार !

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  39. सदैव की भांति उत्तम पोस्ट | शकेब साहब से परिचय करवाने के लिए आभार. आपका यह प्रयास स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है.

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  40. शाकेब साहेब से मिल कर अच्‍छा लगा। वाकई कमाल का लिखते हैं वे।

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    TOP HINDI BLOGS !

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  41. बेहतरीन !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
    खुश रहिये ! सफ़र जारी रखें ....
    शुभकामनाएँ!

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  42. लोग बानी मनचन्दा , शिकेब जलाली और ज़ेब गौरी जैसे शायरों को नहीं जानते जिसका कारण सिर्फ इतना है कि ये हिन्दी कविता के मुक्तिबोध की भाँति जटिल समय के जटिल कवि/ शायर हैं – इनका बयान शायरों के लिये मानदण्ड है और इन्होंने शायरी को वो दिशा दी जो धर्म को शहादत या जीवन मूल्यों को बनवास जैसी घटनायें देती हैं । शिकेब जलालाबाद के थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये थे – बचपन में इनके पिता ने पागलपन में शिकेब की माँ को रेल की पटरी पर धक्का दे दिया था –इस दुर्घटना ने एक आसेब के रूप मे शिकेब के अंतर्मन पर अपनी छाया हमेशा बनाये रख़ी – और कहीं न कहीं मुस्तक़बिल का कोई लम्हा इस पीड़ा को खुदकुशी की शक्ल में अमली जामा पहनाने को कोंचता रहा । खुदकुशी उन्होंने रेल की पटरियों पर लेट कर इसीलिये की कि शायद वक्त को इस पीड़ा का जवाब देना चाहते थे । इस खुदकुशी का शेरी इज़हार उन्होंने पहले ही कर दिया था –
    फसीले –जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
    हुदूदे वक़्त से आगे निकल गया है कोई
    जो तड़प , जो ताबिन्दगी और सिम्बल्स की शक्ति उनके अशआर में है वो और कहीं नहीं मिलती – वह समय ज़दीदियत की बात भी करने वालों के लिये ग़राँ था । लेकिन शिकेब जलाली ने जो सहरा बनाया उसने बागे –रिज़्वाँ को मामूली बना दिया – बहुत से शेर उन्होंने कहे हैं जो अपने आप में दीवान से कम नही –
    यूँ आइना ब दस्त मिली परबतों की बर्फ़
    शरमा के धूप लौट गयी आफताब में ( 1)
    मिरी गिरिफ्त में आ कर निकल गयी तितली
    परों के रंग मगर रह गये हैं चुटकी में (2)
    मैं खुद ही जल्वा रेज़ हूं , खुद ही निगारे शौक़
    शफ़्फ़ाफ़ पानियॉं पे झुकी डाल की तरह ( 3)
    शफक़ जो रू –ए सहर पर गुलाल मलने लगी
    तो बस्तियों की फिज़ाँ क्यों धुँआँ उगलने लगी (4)
    अजब नहीं कि उगें याँ दरख़्त पानी के
    कि अश्क बोये हैं शब भर किसी ने धरती में (5)
    ये जो शिल्हूटस पिक्चर पोर्ट्रैट शैली है जो आज गज़ल की ज़ीनत है –ये शिकेब जलाली की देन है । मंज़र से ज़ियादा पसमंज़र बोलता है । इस शायरी में ज़िन्दगी का अज़ाब –अनल हक मे गुँथा हुआ है –जो सौन्दर्य और जो पीड़ा इस शायरी में है – वो ही मुक़म्मल ग़ज़ल है जैसा कि खुद अहमद नदीम कासमी ने कहा भी कि मुक़म्मल ग़ज़ल सिर्फ शिकेब ने ही कही है । आपको इस पोस्ट के लिये बहुत बहुत बधाई और धन्यब्वाद नीरज जी !!

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  43. बहुत आभार आदरणीय नीरज सर...
    जनाब शकेब जलाली से परिचित होकर और उनके अशआर पढ़ कर उत्सुकता जाग पडी है.... आज ही इस कताब के लिए 'मेल' करता हूँ.
    सादर आभार ठाले बैठे का जहां से इस बेशकीमती पोस्ट का रास्ता मिला.
    सादर..

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  44. शकेब साहब का एक शेर उनकी ज़िंदगी की तर्जुमानी करता है,फसीले- जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे