आज की किताब के शायर एक ऐसी शाख्यियत हैं जिनके बारे में बहुत कम पढ़ा सुना गया है. आज के दौर के पाठकों की तो बात ही छोडिये हमारे ज़माने के लोग भी, जो शायरी में थोड़ी बहुत दखल रखते हैं, इनका नाम सुन कर हो सकता है अपना सर खुजलाने लगें. कुछ ऐसे बदनसीब शायर होते हैं जो अपनी ज़िन्दगी में वो मकबूलियत हासिल नहीं कर पाते जो उन्हें मरने के बाद नसीब होती है. वैसे भी गुज़रे वक्त और गुज़रे इंसानों की वंदना हमारे खून में है.
कुछ खास दोस्त अक्सर मुझे कहते हैं कि यार तुम अपनी भूमिका में पकाते बहुत हो सीधे सीधे मुद्दे पर क्यूँ नहीं आते, उन्हें मैं हंस कर जवाब देता हूँ के भाई क्या करूँ ये मुझ पर टी.वी. सीरियलस देखने के शौक का असर है, जो सालों चलने के बावजूद भी असली मुद्दे पर नहीं आते. मजाक को यहीं छोड़ चलिए मुद्दे पर आते हैं:-
आ के पत्थर तो मेरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
(सहन: आँगन , पस-ऐ-दीवार: दीवार के पीछे)
मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे
क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
दीदा-ए-तर : आंसू भरी आँखें, संग : पत्थर
देखते क्यूँ हो 'शकेब' इतनी बलंदी की तरफ
न उठाया करो सर को कि ये दस्तार गिरे
दस्तार: पगड़ी
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी
जो दिल का ज़हर था काग़ज़ पर सब बिखेर दिया
फिर अपने आप तबियत मिरी संभलने लगी
जहाँ शज़र पे लगा था तबर का ज़ख्म 'शकेब'
वहीँ पे देख ले कोंपल नयी निकलने लगी
तबर: फरसा, कुल्हाड़ी
'शकेब जलाली' जी ने महज़ पंद्रह साल की उम्र से ग़ज़ल कहना शुरू कर दिया था . उन्होंने उर्दू शायरी को नयी दिशा दी जिसे उनके साथ के और बाद के नामचीन शायरों ने अपनाया. उर्दू शायरी हमेशा शुक्र गुज़ार रहेगी जनाब 'अहमद नदीम कासमी' साहब की,जिन्होंने 'शकेब' की शायरी को उनके इंतकाल के छै साल बाद प्रकाशित करवा और उन्हें दुनिया तक पहुँचाया. नदीम साहब की शायरी में 'शकेब' की झलक साफ़ दिखाई देती है
आकर गिरा था कोई परिंदा लहू में तर
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चटान पर
मलबूस खुशनुमा हैं मगर जिस्म खोखले
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर
मलबूस: वस्त्र
हक़ बात आके रुक सी गयी थी कभी 'शकेब'
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर
अफ़सोस आज के दौर में ऐसी शायरी कहीं पढने सुनने को नहीं मिलती. शकेब की शायरी गुलाब के फूलों की टहनी है जिसमें कोमलता है खुशबू है और कांटे हैं. बदायूं उत्तर प्रदेश से अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद शकेब आगे की पढाई के लिए रावलपिंडी चले गए और फिर नौकरी के सिलसिले में लाहौर. अपनी शादी के दस साल बाद किन्हीं अज्ञात कारणों से उन्होंने रेल की पटरियों पर अपना सर रख कर ख़ुदकुशी कर ली. एक अत्यंत प्रतिभाशाली शायर का ये अंत बहुत दुखद था.
न इतनी तेज़ चले सरफिरी हवा से कहो
शज़र पे एक ही पत्ता दिखाई देता है
बुरा न मानिए लोगों की ऐबजोई का
उन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ऐबजोई: दोष ढूंढना
ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
खालिस याने बिना किसी मिलावट के शायरी पसंद करने वालों के लिए ये किताब किसी नियामत से कम नहीं. इसके हर पन्ने पर शायरी अपने पूरे शबाब पर फैली दिखाई देती है. मिसरे ठिठकने पर मजबूर करते हैं और शेर दांतों तले उँगलियाँ दबाने पर. इस किताब को पढने के बाद हुए असर को लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता इसके लिए आपको इसे पढना ही होगा. किनारे पर बैठ कर लहरें गिनने से समंदर की गहराई का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता.
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख
आलम में जिसकी धूप थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
शाहकार: कृति, तब्सिरे: समीक्षाएं
बिछती थीं जिसकी राह में फूलों की चादरें
अब उसकी ख़ाक घास के पैरों तले भी देख
आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे
तितलियाँ मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर
***
सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में
***
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाये बहुत
***
दोस्ती का फ़रेब ही खाएं
आओ काग़ज़ की नाव तैरायें
***
जंगल जले तो उनको खबर तक न हो सकी
छाई घटा तो झूम उठे बस्तियों के लोग
***
ढूंढती हैं तिरी महकी हुई जुल्फों की बहार
चांदनी रात के ज़ीने से उतर कर यादें
ज़माने ने मारे जवां कैसे कैसे
ज़मीं खा गयी आसमां कैसे कैसे
जनाब शकेब जलाली साहेब
परिचित करने के लिए आपका आभार.बढ़िया पोस्ट.
ReplyDeleteन इतनी तेज़ चले सरफिरी हवा से कहो
ReplyDeleteशज़र पे एक ही पत्ता दिखाई देता है... aapko badhaai aapka shukriya jo hamen shakeb ji se milaya
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ReplyDeleteज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी
यह परिचय और यह पंक्तियां बेहतरीन ..आपका आभार ।
आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे
ReplyDeleteतितलियाँ मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर
बहुत खूब कहा है इन पंक्तियों में ..इस परिचय के लिये आपका आभार ।
ek bar fir shukriya ...
ReplyDeleteआलम में जिसकी धूप थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
aah , kitni samvedansheelta hai ...kaisi deemak chat kar gaee ki aaj ham to uska nichod hi dekh (padh ) paa rahe hain ...
ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
ReplyDeleteतमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
नीरज जी, ये शेर काफ़ी मशहूर हुआ है...आज आपने शकेब जलाली साहब की शख्सियत और शायरी से तआरुफ़ कराया, शुक्रिया.
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
ReplyDeleteसूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख
बेहद खूबसूरती है इन लफ्जो में ...मुझे वैसे भी शायरी से जरा ज्यादा लगाव है ...इतनी उम्दा शायरी मुश्किल से पढने को मिलती हैं ...आपका बहुत -बहुत शुक्रिया नीरज जी ! जो इस कंक्रीट के शहर में रहकर भी अपनी मोलिकता नहीं भूले ...
सभी शेर लाजवाब .जनाब शकेब जलाली साहेब को पढ़कर अच्छा लगा.बेहतरीन समीक्षा.
ReplyDeleteइतनी आला शायरी और उसके फनकार से मिलवाने का शुक्रिया नीरज जी ... आपका ये सफर यूँ ही चलता रहे और हम नए नए हस्ताक्षरों से मिलते रहें ..
ReplyDeleteबेहतरीन गज़लें, पढ़वाने का आभार।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा नीरज भाई, आप हमारे लिए सौ पुस्तकालयों से कम नहीं हैं| घर बैठे ही उम्दा से उम्दा ग़ज़लें पढ़वाए जा रहे हो| पढ़ने के दिनों में शौक़ आया, एक पुराना रजिस्टर लिया और उस पर लिख दिया 'संग्रह मंजरि", दोस्तों से - बड़ों से सुनने के बाद जो छन्द / शेर अच्छे लगते गये उस में लिखता गया| ये सिलसिला मुंबई आने के बाद थम गया| उसी में चार पंक्तियाँ ये भी हैं:-
ReplyDeleteमुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख|
सूरज हूँ, मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख|
काग़ज़ की क़तरनों को भी कहते हैं लोग फूल|
रंगों का एतबार ही क्या, सूंघ के भी देख||
पता नहीं कब किस से कहाँ सुना था इन्हें| आज आपने इन पंक्तियों के शायर का नाम बता कर मुझ पर बहुत एहसान किया| और ये शायर हमारे पड़ोसी कस्बे अलीगढ़ वाले निकले - है न मज़े की बात!! इसे कहते हैं दीपक तले अँधेरा| आप से प्रार्थना है कि पुस्तक में बाकी की दो पंक्तियाँ भी हैं कि नहीं - इसे कन्फर्म ज़रूर करें - मैं आप को फ़ोन करूँ तब बता देना|
उफ़ ये दस्तूर दुनिया में बनाया है किसने|
बेबसी के उदर से जन्मता शायर क्यूँ है||
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल से परिचय हुआ...अच्छा लिखने वाले ना जाने क्यों जल्दी विदा ले लेते हैं...अंग्रेजी के कवि जॉन कीट्स भी १९-२० साल में ही गुज़र गये और उनकी कविता आज भी जिंदा है.. इसी तरह इनकी गज़लें और शेर.. दिल में बस गईं हैं....खास तौर पर यह शेर....
ReplyDeleteये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है...
नीरज भाई आपका बहुत बहुत आभार... हज़ार मित्र के बराबर इस एक किताब से परिचय करने के लिए....
अच्छी शायरी बोलती है और आपके चुने नगीने हों तो बात ही क्या है, बस यही कहूँगा कि:
ReplyDelete'शकेब' तुझको ज़माने ने बहुत याद किया।
Neeraj jee Shakeb sahib ke bare me jaan kar dil bhar aaya.Naman aapki lagan ko.
ReplyDeleteजो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
ReplyDeleteतो हम भी राह से कंकर समेट लाये बहुत..
सभी शेर लाज़वाब...परिचय कराने के लिये आभार..
बड़े भाई नीरज जी!
ReplyDeleteजब आपने चुना है तो वो नगीना ही हो सकता है..और जो बानगी आपने पेश की है वो इस बात को साबित करती है!!
बेहतरीन,
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
वाह एक चुनिन्दा पुस्तक
ReplyDelete'वैसे भी गुज़रे वक्त और गुज़रे इंसानों की वंदना हमारे खून में है'
ReplyDeleteइस मिसरे से मैं पूरा इत्तेफाक रखता हूँ.......
जनाब शकेब साहब की शख्सियत से मैं वाकिफ नहीं था.....हाँ उनकी शायरी मैंने ज़रूर पड़ी थी........गज़ब की शायरी है उनकी.......उनकी एक ग़ज़ल को मैंने अपने ब्लॉग जज़्बात पर भी जगह दी थी......
न इतनी तेज़ चले सरफिरी हवा से कहो
शज़र पे एक ही पत्ता दिखाई देता है.....
उनकी पहली ही ग़ज़ल जो आपने लिखी वो भी मैंने पहले पढ़ी है .....कमल की ग़ज़ल है..........नीरज जी आपका आभार है |
Comment received from INdu Puri Goswami:-
ReplyDeleteनौजवान शायर के बारे में पढ़ कर मन भीग सा गया और आँखें भी.बड़ा ही जज्बाती और ज़हीन शायर थे 'शकेब' किस किस शे'र का ज़िक्र करूं .....कोपी,पेस्ट करके सेव कर लिए हैं.
सच लिखा 'जमीन खा गई आसमा कैसे कैसे '
शकेब साहब जैसे बेहतरीन लोग इतनी जल्दी दुनिया से क्यों विदा हो जाते हैं...
ReplyDeleteजय हिंद...
शकेब साहिब की पुस्तक से परिचय करवाने के लिये धन्यवाद। आप गज़ल- पुस्तक समीक्षा के उस्ताद हो गये हैं। शुभकामनायें।
ReplyDeleteआपके पोस्ट पर आकार समय का ध्यान ही नहीं रहता.....इसलिए समय की कमी की वजह से कम आना हो पाता है. बेहतरीन तरीके से पुस्तकों और शायरों से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद !
ReplyDelete'मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
ReplyDeleteजिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे '
लाजवाब!
इस पुस्तक से परिचय मिला.आभार
ग़ज़ल पुस्तक समीक्षा का संग्रह बन गया है आप का ब्लॉग.
जनाब जलाली साहब और उनके कलाम से परिति होना अच्छा लगा।
ReplyDeleteआपके माध्यम से हमें समकालीन रचनाकारों की सुंदर जानकारी प्राप्त होती रही है।
आपका आभार, नीरज जी।
जनाब जलाली साहब और उनके कलाम से परिति होना अच्छा लगा।
ReplyDeleteआपके माध्यम से हमें समकालीन रचनाकारों की सुंदर जानकारी प्राप्त होती रही है।
आपका आभार, नीरज जी।
आपके माध्यम से परिचय प्राप्त हुआ...वरना बस चंद शेर सुने थे जलाली साब के....शुक्रिया
ReplyDeleteगजलो से सजी हुई और जानकारी से भरी हुई सुन्दर पोस्ट.
ReplyDeleteशकेब जलाली साहब की कुछ गज़लें पहले पढ़ने का मौका मिल चुका है, बहुत कमाल की गज़लें लिखते थे।
ReplyDeleteअल्पायु में दुनिया छोड़नेवाले प्रतिभाशालियों की लिस्ट में एक और नाम जुड़ा, जीवन परिचय करवाने के लिये शुक्रिया।
सुन्दर परिचय ||
ReplyDeleteबधाई ||
nice....सुन्दर पोस्ट.
ReplyDeleteशकेब जलाली साहब की रचनाओं से परिचित कराने के लिए आभार।
ReplyDeleteशकेब जलाली साहब की रचनाओं को पढ़कर आनन्द आ गया....आपका बहुत आभार.
ReplyDeleteशकेब जलाली साहब की बेहतरीन गज़लें पढ़वाने के लिए आभार।
ReplyDeleteमेरे प्रिय शायर शकेब जलाली से मुलाक़ात करवाने के लिए शुक्रिया। एक अच्छे शायर का स्वाभिमान क्या होता है इसे इस शेर से समझ सकते हैं-
ReplyDeleteमुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे
मैं मरहूम शायर जनाब अहमद नदीम क़ासमी का ख़ास तौर पर शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ जिन्होंने सबसे पहले मरहूम परवीन शाकिर, मरहूम शकेब जलाली और और मंसूरा अहमद की प्रतिभा को पहचाना और इनकी हौसला अफ़ज़ाई की। ये लोग प्यार से उन्हें बाबा कहते थे। दो साल पहले गुज़रे बाबा की दरियादिली को मेरा सलाम।
आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे
ReplyDeleteतितलियाँ मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर ..kya kahne! shukria
शुक्रिया नीरज जी, बहुत उम्दा गज़लें हैं यह किताब लिये बिना तो रहा नही जायेगा। शकेब जलाली साहब की रचनाओं को पढकर मज़ा आ गया। वाकई क्या गज़ल कहते थे।
ReplyDeleteजनाब शकेब जलाली साहब की जिंदगी और उनकी शायरी के बारे में इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने का बहुत-बहुत आभार ...
ReplyDeleteहर शेर खूबसूरत...........
.आपकी प्रस्तुति बहुत सुन्दर लगी
अच्छी और रोचक लगी आपकी पोस्ट ..... आभार !
ReplyDeleteसदैव की भांति उत्तम पोस्ट | शकेब साहब से परिचय करवाने के लिए आभार. आपका यह प्रयास स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है.
ReplyDeleteशाकेब साहेब से मिल कर अच्छा लगा। वाकई कमाल का लिखते हैं वे।
ReplyDelete------
TOP HINDI BLOGS !
बेहतरीन !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteखुश रहिये ! सफ़र जारी रखें ....
शुभकामनाएँ!
लोग बानी मनचन्दा , शिकेब जलाली और ज़ेब गौरी जैसे शायरों को नहीं जानते जिसका कारण सिर्फ इतना है कि ये हिन्दी कविता के मुक्तिबोध की भाँति जटिल समय के जटिल कवि/ शायर हैं – इनका बयान शायरों के लिये मानदण्ड है और इन्होंने शायरी को वो दिशा दी जो धर्म को शहादत या जीवन मूल्यों को बनवास जैसी घटनायें देती हैं । शिकेब जलालाबाद के थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये थे – बचपन में इनके पिता ने पागलपन में शिकेब की माँ को रेल की पटरी पर धक्का दे दिया था –इस दुर्घटना ने एक आसेब के रूप मे शिकेब के अंतर्मन पर अपनी छाया हमेशा बनाये रख़ी – और कहीं न कहीं मुस्तक़बिल का कोई लम्हा इस पीड़ा को खुदकुशी की शक्ल में अमली जामा पहनाने को कोंचता रहा । खुदकुशी उन्होंने रेल की पटरियों पर लेट कर इसीलिये की कि शायद वक्त को इस पीड़ा का जवाब देना चाहते थे । इस खुदकुशी का शेरी इज़हार उन्होंने पहले ही कर दिया था –
ReplyDeleteफसीले –जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
हुदूदे वक़्त से आगे निकल गया है कोई
जो तड़प , जो ताबिन्दगी और सिम्बल्स की शक्ति उनके अशआर में है वो और कहीं नहीं मिलती – वह समय ज़दीदियत की बात भी करने वालों के लिये ग़राँ था । लेकिन शिकेब जलाली ने जो सहरा बनाया उसने बागे –रिज़्वाँ को मामूली बना दिया – बहुत से शेर उन्होंने कहे हैं जो अपने आप में दीवान से कम नही –
यूँ आइना ब दस्त मिली परबतों की बर्फ़
शरमा के धूप लौट गयी आफताब में ( 1)
मिरी गिरिफ्त में आ कर निकल गयी तितली
परों के रंग मगर रह गये हैं चुटकी में (2)
मैं खुद ही जल्वा रेज़ हूं , खुद ही निगारे शौक़
शफ़्फ़ाफ़ पानियॉं पे झुकी डाल की तरह ( 3)
शफक़ जो रू –ए सहर पर गुलाल मलने लगी
तो बस्तियों की फिज़ाँ क्यों धुँआँ उगलने लगी (4)
अजब नहीं कि उगें याँ दरख़्त पानी के
कि अश्क बोये हैं शब भर किसी ने धरती में (5)
ये जो शिल्हूटस पिक्चर पोर्ट्रैट शैली है जो आज गज़ल की ज़ीनत है –ये शिकेब जलाली की देन है । मंज़र से ज़ियादा पसमंज़र बोलता है । इस शायरी में ज़िन्दगी का अज़ाब –अनल हक मे गुँथा हुआ है –जो सौन्दर्य और जो पीड़ा इस शायरी में है – वो ही मुक़म्मल ग़ज़ल है जैसा कि खुद अहमद नदीम कासमी ने कहा भी कि मुक़म्मल ग़ज़ल सिर्फ शिकेब ने ही कही है । आपको इस पोस्ट के लिये बहुत बहुत बधाई और धन्यब्वाद नीरज जी !!
बहुत आभार आदरणीय नीरज सर...
ReplyDeleteजनाब शकेब जलाली से परिचित होकर और उनके अशआर पढ़ कर उत्सुकता जाग पडी है.... आज ही इस कताब के लिए 'मेल' करता हूँ.
सादर आभार ठाले बैठे का जहां से इस बेशकीमती पोस्ट का रास्ता मिला.
सादर..
शकेब साहब का एक शेर उनकी ज़िंदगी की तर्जुमानी करता है,फसीले- जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
ReplyDelete