इधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
उधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है
कमी रह गयी होगी कुछ तो कशिश में
सदा लौट कर यूँ ही आती नहीं है
मुझे रास वीरानियाँ आ गयी हैं
तिरी याद भी अब सताती नहीं है
ख़फा है महरबान है कौन जाने
हवा जब दिये को बुझाती नहीं है
रिआया समझदार होने लगी अब
अदा हुक्मरां की लुभाती नहीं है
अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है
गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
कसम जब से मेरी वो खाती नहीं है
(ये ग़ज़ल गुरुदेव पंकज सुबीर जी की मेहरबानी से हुई है )
गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
ReplyDeleteकसम जब से मेरी वो खाती नहीं है
...खूबसूरत गजल..मन को छू गई..बधाई.
_______________
शब्द-शिखर / विश्व जनसंख्या दिवस : बेटियों की टूटती 'आस्था'
आज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
____________________________________
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ReplyDeleteये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है
कमी रह गयी होगी कुछ तो कशिश में
सदा लौट कर यूँ ही आती नहीं है
Adbhud abhivyakti Neeraj jee.Kayal aur ghayal kar diya aapne.
-Saurabh.
बहुत सुन्दर ग़ज़ल. हमेशा की तरह. ये शेर बड़े अनोखे बन पड़े हैं;
ReplyDeleteमुझे रास वीरानियाँ आ गयी हैं
तिरी याद भी अब सताती नहीं है
रिआया समझदार होने लगी अब
अदा हुक्मरां की लुभाती नहीं है
इधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
ReplyDeleteउधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
हायेऽऽ… ये मज़बूरियां :)
आदरणीय भाईसाहब नीरज जी
सादर प्रणाम !
आपका भी जवाब नहीं … क्या लिखते हैं !
हर शे'र कलेजा थामने पर मज़बूर कर देता है पढ़ने वाले को ।
अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है हुऽऽम्म… !
बम्बई की जब चाहे तब होने वाली बारिश आपको बहुत जलाती है यह तो सर्वविदित बात है … :))
गुमां प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
कसम जब से मेरी वो खाती नहीं है
प्यारे मक़्ते के साथ पूरी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !
हार्दिक मंगलकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
lovely..
ReplyDeletemaza aa gaya padh k
Last 4 lines were amazing !!
कमी रह गयी होगी कुछ तो कशिश में
ReplyDeleteसदा लौट कर यूँ ही आती नहीं है
waah...sach hai
खूबसूरत ग़ज़ल.. बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteमुझे रास वीरानियाँ आ गयी हैं
ReplyDeleteतिरी याद भी अब सताती नहीं है
....waah waah waah !!!
इधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
ReplyDeleteउधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
कसम जब से मेरी वो खाती नहीं है
जवाब नहीं , बहुत-बहुत-बहुत-बहुत-बहुत सुन्दर ग़ज़ल..
ख़फा है महरबान है कौन जाने
ReplyDeleteहवा जब दिये को बुझाती नहीं है
रिआया समझदार होने लगी अब
अदा हुक्मरां की लुभाती नहीं है
bahut sunder ...
बहुत ही उम्दा और खूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteकहने को बहुत कुछ है मगर ,
इस ग़ज़ल की खुमारी जाती नही है|
नीरज जी,
बधाई और शुभकामनायें!
अहा, बस यही निकलता है पढ़ने के बाद।
ReplyDeleteआदरणीय नीरज गोस्वामीजी
ReplyDeleteइधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
उधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है
बहुत खूबसूरत गजल.
यिआआआ, ये हुई न बात| तभी मैं कहूँ पिछले शनिवार को हुज़ूरेआला के मिज़ाज बदले बदले क्यूँ लग रहे थे| नीरज जी क्या ग़ज़ल पेश की है आपने| भई वाह, मज़ा आ गया| काफ़ियों को ढूंढ ढूंढ कर, उन्हें तराश तराश कर, क्या खूब उकेरा है शब्द चित्रों के माध्यम से| ग़ज़ल अपने लब्बोलुआब के ज़रिये पहले से सीधे आख़िरी शेर तक बेरोकटोक ले जाती है| अब तो हम यही कहेंगे :-
ReplyDeleteइसे पढ़ के भैया जलन हो रही है|
ग़ज़ल हमसे ऐसी क्यूँ आती नहीं है||
:)))))))))))))))))
अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
ReplyDeleteतो बारिश बदन को जलाती नहीं है
बहुत खूबसूरत गज़ल ..
इधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
ReplyDeleteउधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है
गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
कसम जब से मेरी वो खाती नहीं है
गज़ब कर दिया नीरज जी…………हर शेर का भाव शानदार है……………और पूरी गज़ल तो सुभान अल्लाह!
"अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
ReplyDeleteतो बारिश बदन को जलाती नहीं है"
एक सेर तो अगला सवा सेर - वाह
..खूबसूरत गजल..
ReplyDeleteअगर हो गए सोच में आप बूढ़े
ReplyDeleteतो बारिश बदन को जलाती नहीं है
क्या बात कही है | खुदा शायर की सोच को सदा जवान रखे ताकि वो ऐसे ही फड़कते शेर लिखता रहे| बहुत बहुत मुबारकवाद |
सुभानाल्लाह हर एक शेर शानदार है ....दाद कबूल करे|
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल।
ReplyDeleteथमकर एक-एक शे’र कई-कई बार पढ़े तब जाकर मन भरा।
ACHCHHEE GAZAL KE LIYE AAPKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .
ReplyDeleteइधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
ReplyDeleteउधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है
कमी रह गयी होगी कुछ तो कशिश में
सदा लौट कर यूँ ही आती नहीं है
नीरज जी,
क्या कहें,हर शेर लाजवाब ! मतला कमाल का है !
मुबारक हो इतनी बेहतरीन ग़ज़ल के लिए !
इधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
ReplyDeleteउधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
इन पंक्तियों के लिये बधाई स्वीकारें ...नि:शब्द कर दिया इन्होंने तो ।
चलो जी सुबीर जी को भी धन्यवाद
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल. हमेशा की तरह
ReplyDeleteहर शेर शानदार है
अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
ReplyDeleteआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
ग़ज़ल पूरी की पूरी शानदार, ईमानदार, जानदार, लेकिन बारिश में:
ReplyDeleteअगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है
की बात ही कुछ और है।
अपुन की तो बचपन से ही कुछ ऐसी ही हालत है।
इधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
ReplyDeleteउधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
यही अपने आप में सम्पूर्ण ग़ज़ल है .
बहुत खूब लिखा आपने.... मुझे रास वीरानियाँ आ गयी हैं
ReplyDeleteतिरी याद भी अब सताती नहीं है................वीरानियो का संगीत ...वो सिर्फ सुना दिल ही सुन सकता है
रिआया समझदार होने लगी अब
ReplyDeleteअदा हुक्मरां की लुभाती नहीं है
क्या बात है.एकदम सच्ची! ग़ज़ल किनकी है.अत्यंत प्रभावी पोस्ट!
हमज़बान की नयी पोस्ट मेन इटर बन गया शिवभक्त फुर्सत हो तो पढें
"गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
ReplyDeleteकसम जब से मेरी वो खाती नहीं है"
छा गये उस्तादजी।
ख़फा है महरबान है कौन जाने
ReplyDeleteहवा जब दिये को बुझाती नहीं है
क्या खूब अंदाज़ है...ग़ज़ल का बेहतरीन शेर है नीरज जी...
हर शेर बहुत उम्दा.
मतले से ही समां बंधने लगा था बड़े भाई! और मकते तक आते आते तो बस जान ही निकाल दी!!हुक्मरानों को भी नहीं बख्शा, और सोच का बुढापा, कसमें खाना.. बस छा गए!!
ReplyDeleteचाहूँ कुछ कहना आपकी शाइरी पर
ReplyDeleteपर मीठे शब्दों की थाती नहीं है.
मजबूरी में ही अब ये कहना पड़ेगा
ग़ज़ल आपकी ये गुर्राती नहीं है.
नीरज जी ,
ReplyDeleteहर शेर पर बस वाह ही निकला दिल से.... किसको चुनूँ किसको छोडूं ..
बहुत गहरे भाव लिए हैं आपके अशआर ..बेहद उम्दा गज़ल.. मन खुश हो गया पढ़ कर
एक बार फिर इतनी प्यारी गजल पढवाई, शुक्रिया।
ReplyDelete------
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बहुत सुन्दर! पूरी गज़ल ही लाजवाब रही पर न जाने क्यों, निम्न पद थोडा सा ऑउट ऑफ प्लेस लगा
ReplyDeleteअगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है
रिआया समझदार होने लगी अब
ReplyDeleteअदा हुक्मरां की लुभाती नहीं है
अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है
नीरज जी एक एक शेर कमाल का है ।
बहुत सुंदर गज़ल
रिआया समझदार होने लगी अब
ReplyDeleteअदा हुक्मरां की लुभाती नहीं है
उम्दा शेर...लाजवाब....
भाई नीरज जी बहुत ही सुंदर गजल बधाई और शुभकामनायें |
ReplyDeleteहर पंक्ति लाजवाब है !
ReplyDeleteइधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
उधर आँख कुछ भी छुपाती नहीं है !
बहुत सुंदर भाव !
आभार मेरे ब्लॉग पर आने के लिये !
मुझे रास वीरानियाँ आ गयी हैं
ReplyDeleteतिरी याद भी अब सताती नहीं है...
सभी शेर लाजवाब.बहुत प्यारी ग़ज़ल है,नीरज जी.
ReplyDeleteऔर ये शेर:-
गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
कसम जब से मेरी वो खाती नहीं है.
अहा,क्या कहने.
वाक़ई मज़ा आ गया.
bahut achchhi gazal. har sher lajvaab !shubhkamnayen !
ReplyDeleteसामयिक परिस्थितियों का भी अक्स है इस ग़ज़ल में.
ReplyDeleteअंबेडकर और गाँधी
अंतिम चार पंक्तियाँ बेजोड़!
ReplyDeleteअगर हो गए सोच में आप बूढ़े
तो बारिश बदन को जलाती नहीं है
गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
कसम जब से मेरी वो खाती नहीं है
परवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
आभार
सुभानाल्लाह .......!!
ReplyDeleteकहाँ से लाते हैं ऐसे ख्याल .......
वैसे ये आँखें हैं किसकी ......:)
अगर हो गए सोच में आप बूढ़े
ReplyDeleteतो बारिश बदन को जलाती नहीं है ...
नीरज जी ... हम तो आपकी गलों की प्रतीक्षा करते हैं ... हर बार कुछ चोकाने वाला जो देते अहिं आप ... इस लाजवाब गज़ल के बारे में क्या कहूँ ... बहुत ही लाजवाब ... बेहतरीन ... रोज मर्रा के शब्दों से उठाई हुयी गज़ल है ... और ये शेर तो कब से गुनगुना रहा हूँ ... ताकि सोच में बूढा न हो जाऊं ...
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ReplyDeleteये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है
subhanalaah!
ye sher hamara hua....
हर शेर बहुत भावपूर्ण है ..सुन्दर रचना..
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा है आपने ।
ReplyDeletecomment received from B.R.Vipalvi Ji-
ReplyDeletebahut khoob
आपकी गजल इतनी खूबसूरत होती हैं कि कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं होती...
ReplyDeleteवाह...वाह..वाह...
आदरणीय नीरज गोस्वामीजी
ReplyDeleteइधर ये जुबां कुछ बताती नहीं है
उधर आंख कुछ भी छुपाती नहीं है
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है
बहुत खूबसूरत गजल.
बहुत ही बेहतरीन गजल.......वाकई मजा आ गया...धन्यवाद.
ReplyDeleteगुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज'
ReplyDeleteकसम जब से मेरी वो खाती नहीं है
adbhut panktiyan hain... waise saare sher dilkash hain....
Aakarshan
बहुत बोलती है तुम्हारी ये आंखें,
ReplyDeleteज़रा इन आंखों पे पर्दे गिरा दो...
मुझे छू रही हैं तेरी नर्म सांसें.
मेरे रात दिन महकने लगे हैं...
जय हिंद...
पता है रिहाई की दुश्वारियां पर
ReplyDeleteये क़ैदे क़फ़स भी तो भाती नहीं है
-वाह!!!
बेहद ख़ूबसूरत मतला है नीरज जी ,
ReplyDeleteख़फा है महरबान है कौन जाने
हवा जब दिये को बुझाती नहीं है
कमाल के अश’आर बेहद आसान अल्फ़ाज़ में कहना आप की ही ख़ुसूसियत है
बहुत ख़ूब !!