मैं जब चाहूंगी पिंजरा ले उडूँगी
परों को आज़माना आ गया है
तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच जोश में सुनाया गया हिन्दुस्तान की मशहूर शायरा "लता हया" का ये शेर हमेशा मुशायरे में बैठी महिलाओं में उम्मीद की किरण जगाता आया है. कुछ वक्त के लिए ही सही महिलाओं को लगता है के उनके जीवन में भी स्वतंत्रता आएगी. बस कुछ वक्त के लिए ही क्यूँ के उसके बाद समाज ये शेर उनके ज़ेहन से निकाल देता है. भले ही आज देश के उच्च पदों पर महिलाएं बिराजमान हैं लेकिन आम महिला की स्तिथि आज भी वैसी की वैसी ही है जैसी सदियों पहले थी. शातिर पुरुष प्रधान समाज साल में सिर्फ एक दिन उनके नाम, याने महिला दिवस, मना कर उन्हें खुश कर देता है और बाकी के तीन सौ चौंसठ दिन अपने नाम रखता है.
श्री अखिलेश तिवारी जी
आज मैं, महिलाओं की वास्तविक स्थिति को दर्शाती श्री अखिलेश तिवारी जी की ग़ज़ल आपके सामने रख रहा हूँ. अखिलेश तिवारी जिनका जिक्र मैंने अपने जयपुर प्रवास के दौरान शिरकत की गयी काव्य संध्या वाली पोस्ट "सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ" में किया था, भारतीय रिजर्व बैंक की जयपुर शाखा में कार्यरत हैं. अखिलेश जी जितने अच्छे इंसान हैं उतने ही बेहतरीन शायर हैं. अक्सर छोटी बहर में हैरत अंगेज़ शेर कहते हैं.उनकी शायरी की पहली किताब शीघ्र ही छप कर आने वाली है जिसका जिक्र हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला में भी किया जायेगा.
ग़ज़ल के शेर बहु आयामी होते हैं आप इन्हें किसी दूसरे परिपेक्ष्य में भी पढ़ कर आनंद उठा सकते हैं.
मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान, पिंजरे में
अता हुए हैं मुझे दो जहान, पिंजरे में
है सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
रखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में
यहीं हलाक़ हुआ है परिंदा ख्वाइश का
तभी तो हैं ये लहू के निशान, पिंजरे में
फ़लक पे जब भी परिंदों की सफ़ नज़र आई
हुई हैं कितनी ही यादें जवान, पिंजरे में
तरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
मैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में
(इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए अखिलेश जी को उनके मोबाइल न.09460434278 पर बधाई देना न भूलें.)
फ़लक पे जब भी परिंदों की सफ़ नज़र आई
ReplyDeleteहुई हैं कितनी ही यादें जवान, पिंजरे में
बहुत अच्छा लगा अखिलेश जी को पढ़ना.
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कल 28/06/2011को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है-
आपके विचारों का स्वागत है .
धन्यवाद
नयी-पुरानी हलचल
दिल को छूती ग़ज़ल...
ReplyDeleteआभार! पढवाने के लिए |
तरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
ReplyDeleteमैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में
हर एक पंक्ति बेमिसाल ..आपका आभार इसे पढ़वाने के लिये ।
behad umda ...
ReplyDeleteतरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
मैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में
aah ke koi aur chara bhi nahi ...
सैय्याद ने ले लिये पर ...गिरवी दिखाने के लिये
उम्मीद पर चलते रहो...बेपरों के हौसले आजमाने के लिये
बेहतरीन, लाजवाब ग़ज़ल। हृदयस्पर्शी।
ReplyDeleteहै सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
ReplyDeleteरखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में .....
Akhilesh ji ko badhai
bahut badhiya sher nikale hain unhone....pun: badhai
aapki prastuti ko naman...
Bahut khubsurat ghazal...shukriya neeraj ji...
ReplyDeleteबड़े भाई!
ReplyDeleteजहाँ लोग आत्ममुग्ध हुए जी रहे हैं, वहीं आप नित नए नगीने छाँटकर ले आते हैं हमारे सामने.. यूँ तो ग़ज़ल मुक्तक शैली में कही जाती है.. लेकिन, अखिलेश जी ने जिस तरह से पिंजरे के अलग अलग रूप हमारे सामने रखे हैं, ज़ुबान से वाह भी निकलती है और दिल से टीस भी... एक शेर याद आ गया, किसी फिल्मी गाने से है:
क़फस में हम बहुत महफ़ूज़ होते,
कि पहरे पर खड़ा सय्याद होता!
फ़लक पे जब भी परिंदों की सफ़ नज़र आई
ReplyDeleteहुई हैं कितनी ही यादें जवान, पिंजरे में...
बहुत ही मार्मिक और मर्मस्पर्शी गज़ल..हरेक शेर लाज़वाब..
बेहतरीन ग़ज़ल के लिए अखिलेश जी को हार्दिक बधाई...
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत शेर......वल्लाह......बधाई हो अखिलेश जी को उनकी पहली पुस्तक के प्रकाशन पर.....और आपका आभार परिचय करवाने के लिए|
ReplyDeleteनीरज जी .अखिलेश जी की यह गज़ल बहुत खूबसूरत है... इसको पढ़ कर मुझे अपनी एक नज़्म याद आ गयी ....
ReplyDelete" कफस की कैद में
कर सकते हो
इस जिस्म को
पाबन्द ...
मगर सय्याद मेरे
निगाहों में बसा आकाश
मुझसे कैसे छीनोगे !!
करा ले जाएगा
आज़ाद
इक दिन
ये ही जज़्बा
जिस्म भी मेरा
पतंग मन की उड़ेगी
डोर तुम फिर कैसे खींचोगे !! "
अखिलेश जी का हर शेर दिल में उतरता चला गया बहुत शुक्रिया इसे हमसे बांटने के लिए
बहुत गहरी और धारदार रचना है.
ReplyDeleteकोई बेकली अपनी सारी बंदिशें तोड़कर
अपने वजूद पर लगे सवालिया निशानों को
मिटाने की डगर पर निकल पड़ी मालूम पड़ती है...
आभार आपका.
बधाई अखिलेश जी के लिए....
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आपका
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अखिलेश तिवारी जी से तब से परिचित हूँ जब वो कानपुर में पोस्टेड थे.कुछ दिन लखनऊ में भी वो बाद में पोस्टेड रहे.अच्छा लिखते हैं और मन से लिखते हैं अखिलेश तिवारी जी.
ReplyDeleteहै सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
ReplyDeleteरखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में बहुत सही शुक्रिया इसको यहाँ शेयर करने का
आपका आभार और अखिलेश तिवारी जी को हार्दिक बधाई
ReplyDeleteआपके ब्लॉग के माध्यम से ही अखिलेश जी को इस जबरदस्त गज़ल के लिए बधाई प्रेषित कर रहा हूँ...आप तो बस मोबाईल उठाईये और दे डालिये बधाई हमारी तरफ से पुरजोर!!!!!!
ReplyDeleteगंभीर प्रश्न उठाती ग़ज़ल ... बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteयूँ तो मैं निपट अज्ञानी हूँ साहित्य विधा के विषय में लेकिन कुछ दिनों से चल रहे विचार मंथन से एक बात कुछ कुछ समझ सी आती दिख रही है कि अच्छा काव्य वही है जिसके शब्दार्थ और भावार्थ में भेद हो; और इतना हो कि डफबकियॉं लगाते रहें और भावार्थ चुन कर लाते रहें।
ReplyDeleteएक पिंजरे के माध्यम से ये उड़ान कोई कवि ही कर सकता है।
नीरज भा जी,
ReplyDeleteसलिल जी सही कह गये, आत्ममुग्धता के दौर में अपने अलावा किसी और की विरलों को ही सूझती है। ऐसे बंदों को हमारी कूटभाषा में सिरफ़िरा कहते हैं। ’दाग अच्छे हैं’ वाली टाईप के बंदे जिनके बारे में बेहिचक कह सकते हैं ’सिरफ़िरे अच्छे हैं।’
अखिलेश जी ने गज़ब की कशमकश और जद्दोजहद नुमाया कर दी है इन पंक्तियों में।
उन्हें बधाई और आप को साधुवाद।
हमारी भी बधाई आप उन तक पहुँचायें।
ReplyDeleteबधाई हमारी भी कबूल फरमाएं।
ReplyDeleteएक और नायाब तौहफा लेकर आए हैं नीरज जी । आभार ।
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल पढवाने के लिए धन्यवाद . महिलाओं के प्रति यही जज्बा बनाये रखे .
ReplyDeleteतरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
ReplyDeleteमैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में
अखिलेश जी की खूबसूरत गज़ल पढवाने के लिए शुक्रिया
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल. धन्यवाद ..
ReplyDeleteअखिलेश जी से मिलवाने का शुक्रिया।
ReplyDelete---------
विलुप्त हो जाएगा इंसान?
कहाँ ले जाएगी, ये लड़कों की चाहत?
है सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
ReplyDeleteरखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में ...
बबुत खूब ... अखिलेश जी की इस लाजवाब गज़ल से परिचय करवाने का शुक्रिया ... इन खूबसूरत शेरों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता बस आनद लिक्य जा सकता है ...
बेहतरीन, लाजवाब ग़ज़ल....
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण ग़ज़ल लिखा है आपने ! हर एक पंक्तियाँ दिल को छू गयी! प्रशंग्सनीय प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
अखिलेश जी की गजल की प्रस्तुति के लिए आभार . नीरज जी मेरे ब्लॉग को अनुसारित करने एवं अपनी बहुमूल्य टिप्पणी से उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिये
ReplyDeleteनीरज भाई एक और कोहिनूर हीरे से मुलाकात करवाने के लिए शुक्रिया| बात को कहने का अखिलेश भाई का अंदाज़ प्रभावित करता है|
ReplyDeleteअखिलेशजी की गज़ल तो असर करती ही है लेकिन आपकी भूमिक और परिचय देने का अन्दाज़ भी काबिलेतारीफ़ है.
ReplyDeleteयहीं हलाक़ हुआ है परिंदा ख्वाइश का
ReplyDeleteतभी तो हैं ये लहू के निशान, पिंजरे में
तरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
मैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में
अद्भुत!
अखिलेश बेहतरीन इंसान हैं तभी इतनी उच्चकोटि की गज़लें लिखते हैं. आपने केवल ग़ज़लों से ही नहीं बल्कि तमाम बेहतरीन लोगों से परिचय करवाया है. ये गज़लें, ये शायर, ये लेखक हमें बेहतरीन जीवन दर्शन दे जाते हैं. बिना किसी खर्च के. हमें और क्या चाहिए?
ख़यालों के इस पिंजरे का आसमान बहुत कुशादा है, बधाई! मेरा एक शेर है-
ReplyDeleteजवां हैं ख़्वाब क़फ़स में भी जिन परिंदों के
मेरी दुआ है उन्हें फिर से आसमान मिले
देवमणि पांडेय (मुम्बई)
bahut hi behtarin gazal............
ReplyDeleteनीरज जी, अखिलेश तिवारी जी की उम्दा ग़ज़ल पेश करने के लिए शुक्रिया
ReplyDeleteयहीं हलाक़ हुआ है परिंदा ख्वाइश का
तभी तो हैं ये लहू के निशान, पिंजरे में
कितना दर्द बयान किया गया है...
फ़लक पे जब भी परिंदों की सफ़ नज़र आई
हुई हैं कितनी ही यादें जवान, पिंजरे में
बहुत कमाल का शेर है...बधाई
बेहतरीन पेशकश
ReplyDeleteफ़लक पे जब भी परिंदों की सफ़ नज़र आई
ReplyDeleteहुई हैं कितनी ही यादें जवान, पिंजरे में
तरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
मैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में
वाह हर शेर दिल को छूता हुया। मुझे इस पोस्ट का पता ही नही चला। इतनी लाजवाब गज़ल पढने से रह जाती। शुभकामनायें।
behtareen
ReplyDeleteअखिलेश जी को बहुत बधाई िस गज़ल के लिये । क्या खूब कहा है ष
ReplyDeleteतरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
मैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में
है सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
ReplyDeleteरखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में
यहीं हलाक़ हुआ है परिंदा ख्वाइश का
तभी तो हैं ये लहू के निशान, पिंजरे में
नीरज जी ..कुछ व्यस्तता के कारन आपकी इतनी अच्छी पोस्ट से महरूम रही ..अगर आज आपकी पिछली पोस्ट नहीं देखती तो बड़ी भूल होती ...
बहुत बढ़िया लिखा है ...अखिलेश तिवारी जी को मेरी शुभकामनायें ज़रूर दें ..और आपका आभार ...
Msag received from Sh.Akhilesh Tiwari:-
ReplyDeleteNeeraj Ji
Pranam
Apke blog par apni gazal par itne sare mitron ke utsah badhane vale comment .abhibhut hun.
kripya sabhi tak mera abhar pahuchne men bhi madad karen.aap logon ka ye jazba mujhe n keval utsahit karta hai
balki gazal ke apne meyar par pura utrne aur mujhe zimmedar lekhan ke liye prerit bhi karta hai.
punah abhar
akhilesh tiwari
03.07.11
अखिलेश जी की गज़ल पढवाने के लिए शुक्रिया |
ReplyDelete