खेतों खलियानों की फसलों की खुशबू
Monday, May 30, 2011
किताबों की दुनिया - 53
खेतों खलियानों की फसलों की खुशबू
Monday, May 23, 2011
सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ
("काव्य लोक" के संस्थापक आदरणीय श्री नन्द लाल सचदेव जी कविता पाठ करते हुए)
इसी महफ़िल में मैंने दो शायरों को पहली बार सुना जिनके बारे में मुझे इस से पहले कुछ इल्म नहीं था. इन दोनों शायरों ने मुझे अपनी शायरी से दीवाना बना दिया. पहले शायर है युवा आकर्षक "अखिलेश तिवारी " और दूसरे धीर गंभीर जनाब "लोकेश साहिल". अखिलेश अधिकतर छोटी बहर में बहुत मारक शेर कहते हैं. साहिल साहब की शायरी में बहुत गहराई है और सुनाने का लहजा...उफ़ यू माँ...है. इन दोनों को सुनना एक ऐसा अनुभव है जिस से बार बार गुजरने को दिल करता है.
(अपनी शायरी से श्रोताओं को भाव विभोर करते हुए श्री अखिलेश तिवारी जी)
"साहिल साहब" ने पिछली बार कमाल के माहिये सुनाये थे और इस बार एक लाजवाब ग़ज़ल. मैंने ग़ज़ल को सुनते वक्त ही तय कर लिया था के ऐसे खूबसूरत कलाम और उसके शायर को अपने पाठकों तक जरूर पहुंचाउंगा. मैं साहिल साहब का तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ क्यूँ की उन्होंने मुझे अपनी इस ग़ज़ल को मेरे ब्लॉग पर पोस्ट करने की अनुमति सहर्ष देदी.
(जनाब लोकेश 'साहिल' जी अपनी बे -मिसाल अदायगी के साथ खूबसूरत शायरी सुनाते हुए)
सुधि पाठक इस ग़ज़ल को पढ़ें और दिली दाद इस ब्लॉग के माध्यम से या फिर सीधे उनके मोबाइल न.09414077820 पर बात कर के उन्हें जरूर दें.
दोस्तों इस ग़ज़ल का एक शेर "दिखाता फिर रहा था..." में कहीं आईने लफ्ज़ का इस्तेमाल नहीं किया है जबकि पूरा शेर उसकी और बड़ी ख़ूबसूरती से इशारा कर रहा है...ऐसा कमाल करने के लिए उस्तादी चाहिए और उनका शेर " मुसलसल तीरगी झेली है...." तो हासिले महफ़िल शेर था. इस शेर को कम से कम उन्हें आठ से दस बार सुनाना पड़ा...लोग थे के मुकरर्र मुकरर्र कहते नहीं थक रहे थे...यक़ीनन ऐसे शेर रोज रोज नहीं होते और जब तक ऊपरवाला न लिखवाये कलम पर उतरते भी नहीं हैं.
Monday, May 16, 2011
किताबों की दुनिया - 52
आज हम उस विलक्षण प्रतिभा के इंसान की किताब की बात करने जा रहे हैं जिसकी पेंटिंगस भारत के राष्ट्रपति भवन , जयपुर के जवाहर कला केंद्र , पंजाब यूनिवर्सिटी के फाइन आर्ट म्यूजियम, मुरारी बापू के गुरुकुल, साहित्य कला परिषद् आदि के अलावा देश- विदेश की प्रसिद्द कला वीथियों की दीवारों की शोभा बढ़ा रही हैं. उसी इंसान ने जब कलम उठाई तो अपने आपको छोटी बहर की ग़ज़ल कहने की विधा में बहुत बड़ा उस्ताद सिद्ध कर दिया. छोटी बहर में कही उनकी ग़ज़लों के चार संकलन अब तक प्रकाशित हो चुके हैं.
"विज्ञान व्रत" जी के उन्हीं चार संकलनो में से एक " बाहर धूप खड़ी है " की चर्चा हम करने जा रहे हैं.
डा. विनय मिश्र जी ने विज्ञान जी के शेरों पर बहुत बढ़िया टिप्पणी की है " घर को लेकर विज्ञान व्रत ने अद्भुत शेर कहे हैं ये घर इस मायने में अनेकार्थी हैं जिसमें अपने समय में विखरती जा रही घर की सम्वेदनाओं से लेकर वसुधैव कुटुम्बकम के निरंतर छीजते जाते हुए एहसास का स्पंदन दिखाई देता है " 17 अगस्त 1947 को एक अनाम से ग्राम तेडा, मेरठ में जन्में विज्ञान जी ने आगरा से फाइन आर्ट में एम् ऐ. किया और फिर राजस्थान से फाइन आर्ट में ही डिप्लोमा भी किया.
आखरी में उनके ये तीन शेर आप तक पहुंचा कर विदा लेते हैं.
Monday, May 9, 2011
साथ बच्चों के जब खिलखिलाने लगे
जब वो मेरी ग़ज़ल गुनगुनाने लगे
तो रकीबों के दिल कसमसाने लगे
आप जिस बात पर तमतमाने लगे
हम उसी बात पर मुस्कुराने लगे
ग़म न जाने कहाँ पर हवा हो गए
साथ बच्चों के जब खिलखिलाने लगे
जिन चरागों को समझा था मज़बूत हैं
जब हवायें चलीं टिमटिमाने लगे
है मुनासिब यही, मयकशी छोड़ दे
पाँव पी कर अगर, डगमगाने लगे
फिर हमें देख कर मुस्कुराए हैं वो
फिरसे बुझते दिये जगमगाने लगे
जुल्म करके बड़े सूरमा जो बने
वक्त बदला तो वो गिड़गिडाने लगे
आज के दौर में, प्यार के नाम पर
देह का द्वार सब, खटखटाने लगे
ख्वाहिशों के परिंदे थे सहमे हुए
देख 'नीरज' तुम्हें चहचहाने लगे
( ये ग़ज़ल सिर्फ मेरी नहीं है इसे कहने में पचास प्रतिशत की भागीदारी मेरे अनुज तिलक राज कपूर साहब की है )
Monday, May 2, 2011
किताबों की दुनिया - 51
मोहब्बत का ज़ज्बा जगा कर के देखो
कभी दिल को तुम दिल बना कर के देखो
हो तुम भी तभी तक, कि जब तक कि हम हैं
न मानो तो हमको मिटाकर के देखो
भुलाना हमें इतना आसाँ नहीं है
है आसाँ तो हमको भुला कर के देखो
सच है ऐसे बाकमाल शेर कहने वाले शायर को कौन भुला सकता है? शीरीं ज़बान में ऐसे रोमांटिक शेर कहने वाले शायर अब गिनती के ही बचे हैं जिन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है. आज हम ऐसे ही अनूठे शायर डाक्टर ऐ.के.श्रीवास्तव उर्फ़ नवाब शाहाबादी साहब की किताब " थोडा सा रूमानी हो लें हम " का जिक्र करेंगे जिसे पढ़ कर थोडा सा नहीं बहुत ज्यादा रूमानी होने की प्रबल संभावनाएं हैं. इस किताब में नवाब साहब की लगभग एक सौ अस्सी लाजवाब ग़ज़लें संकलित हैं.
तल्खी है बहुत ही जीवन में, थोडा सा रूमानी होलें हम
कुछ रंग तुम अपने छलकाओ, कुछ प्यार की मस्ती घोलें हम
हम कैस नहीं, फ़रहाद नहीं, जो होश गँवा बैठें अपना
क्या राज़ है अपनी उल्फ़त का, क्यूँ तुझपे जमाना खोलें हम
है मुंह में जबाँ तो अपने भी, होंठों को सिये बैठे हैं मगर
'नव्वाब' किसी की महफ़िल में, ये सोचते हैं क्या बोले हम
अब आप ही बताइए ऐसी शायरी आजकल कहाँ पढने सुनने को मिलती है. ज़िन्दगी की तल्खियों ने शायरी की जबान को भी तल्ख़ कर दिया है, ये किताब कुछ हद तक उस तल्खी को दूर कर आपकी रूह को सुकून पहुंचाने का काम करती है. कभी कभी मैंने देखा है अचानक पढ़ा एक शेर आपके मूड को बदल देता है आप अवसाद से मुक्ति पा लेते हैं और वाह कह उठते हैं. तभी तो आज भी लोग उस एक शेर की तलाश में सारी सारी रात जाग कर मुशायरा सुनते हैं.
देने चला है जान का नजराना देखिये
लिपटा है जा के शमअ से परवाना देखिये
मज़हब की इन किताबों ने आखिर दिया है क्या
एक बार पढ़ के प्यार का अफ़साना देखिये
मरने लगे हैं वो भी उसी पर के जिस पे हम
यारों का ये सलूके - हरीफ़ाना देखिये
नवाब शाहाबादी साहब पेशे से डाक्टर हैं , आपको शायद मालूम हो लेकिन मुझे इस किताब से ही मालूम पड़ा के उस्ताद शायर जनाब मोमिन खां 'मोमिन' भी अपने ज़माने के मशहूर हकीम थे. जनाब इब्राहिम'अश्क' साहब फरमाते हैं " नवाब साहब ऐसे शायर हैं जो वक्त पड़ने पर सबके काम आते हैं. जो शख्स सबके काम आता है उसका मज़हब इंसानियत होता है" ये इंसानियत उनकी पूरी शायरी में नज़र आती है.
आये तो गुलिस्तां में कुछ ऐसी बहार आये
फूलों को सुकूं आये काँटों को करार आये
लोगों ने गुज़ारी है, जैसी भी वहां गुज़री
कुछ हँस के गुज़ार आये कुछ रो के गुज़ार आये
'नव्वाब' कहीं सदमा पहुंचे न कोई उनको
हम जीती हुई बाज़ी ये सोच के हार आये
काटों के करार और जानबूझ के बाज़ी हारने की बातें करने वाले शायर किस कदर इंसानियत से भरे होंगे इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. बकौल नवाब साहब " कल-कल करते झरनों का संगीत, नीले आकाश में उड़ते हुए बादल, सुरमई साँझ, लहरों का गीत, कलरव करते पक्षी, मुस्कुराती हुई कलियाँ, अमराई की गंध, ओस में नहाई चांदनी आदि कितने बिम्ब मूड को बदल देते हैं. तल्खियाँ कम हो जाती हैं और मन ऐसे वातावरण में चला जाता है जहाँ आनंद की अनूभूति होती है."
किसे देखने को हैं बेताब आँखें
जो खुलने लगी खिड़कियाँ धीरे धीरे
जो मौजों के तेवर से वाकिफ़ नहीं हैं
डुबों देंगे वो कश्तियाँ धीरे धीरे
बड़ा प्यार आया जो बालों पे मेरे
फिराने लगे उँगलियाँ धीरे धीरे
"डायमंड पाकेट बुक्स" ने इस किताब को, जिसे राजेश राज जी ने संकलित किया है, बहुत आकर्षक कलेवर के साथ छापा है. इस किताब को आसानी से किसी भी हिंदी पुस्तकों के विक्रेता से प्राप्त किया जा सकता है फिर भी न मिलने की स्तिथि में आप ओखला इंडस्ट्रियल एरिया दिल्ली स्तिथ डायमंड बुक्स वालों को 011- 41611861 नंबर पर फोन करके इसे मंगवा सकते हैं.
उस सितम को सितम नहीं कहते
जो सितम बार बार होता है
कोई हँसता है सुन के हाले ग़म
और कोई अश्क बार होता है
हाथ डालें जरा संभल के आप
फूल के पास खार होता है
कुछ तो शरीके इश्क़ की नाकामियाँ भी थीं
कुछ हाले - नामुराद ने शायर बना दिया
तुम कोशिशों के बाद भी शायर न बन सके
हमको तुम्हारी याद ने शायर बना दिया
करता अदा हूँ शुक्र तुम्हारा मैं दोस्तों
मुझको तुम्हारी दाद ने शायर बना दिया
तो आप दोस्ती का फ़र्ज़ निभाइए नवाब साहब को उनके कलाम के लिए दाद दीजिये तब तक हम निकलते हैं एक और किताब की तलाश में.