हाल बेताब हों रुलाने को
तू मचल कहकहे लगाने को
मुश्किलों का गणित ये कैसा है
बढ़ गयीं जब चला घटाने को
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन
थम गये थे तुझे उठाने को
सांस लेना मुहाल कर देगा
सर चढ़ाया अगर ज़माने को
बिजलियों का है खौफ़ गर तारी
भूल जा आशियाँ बनाने को
हमसे दम भर रहे थे रिश्ते का
चल दिए जब कहा निभाने को
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
जब नया कुछ न हो सुनाने को
बहुत सुन्दर रचना लिखी है आपने!
ReplyDeleteएक उम्दा ग़ज़ल... हर शेर ख़ूबसूरत !!
ReplyDeleteसार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeleteनीरज जी ,
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
बढ़ गयीं जब चला घटाने को
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा इतनी ख़ूबसूरती से बयान किया है आप ने वाह!
मतला भी बहुत उम्दा है
हमसे दम भर रहे थे रिश्ते का
चल दिए जब कहा निभाने को
ख़ुदग़र्ज़ी का ये रूप भी बहुत अच्छी तरह शेर में ढाला गया है
अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई
bahut achhi ghazal neeraj ji ..matla aur uske baad ka sher to lazawaaaaaaaabb ....
ReplyDeleteलाजवाब ग़ज़ल है ... एक एक शेर जैसे एक एक अनमोल मोती ..
ReplyDeleteबिजलियों का है खौफ़ गर तारी
ReplyDeleteभूल जा आशियाँ बनाने को
हमसे दम भर रहे थे रिश्ते का
चल दिए जब कहा निभाने को
Waah !
बहुत सुन्दर ग़ज़ल....सच को दर्शाती...
ReplyDeleteसांस लेना मुहाल कर देगा
ReplyDeleteसर चढ़ाया अगर ज़माने को !!
वाह्! क्या बात है! बेहतरीन गजल नीरज जी....
bahut achhi ghazal hai ..par mushkilon ka ganit mera sabse pasandeeda sher hua.. :)
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन
थम गये थे तुझे उठाने को
बहुत उम्दा नीरज जी .. रोज़मर्रा की बोलचाल के शब्दों से बुनी ... सादा सी ग़ज़ल पर गहरे अर्थ संजोय .... हर शेर खिलते हुवे गैन्दे के फूल के समान ...
ACHCHHEE GAZAL KE LIYE AAPKO
ReplyDeleteBADHAAEE.
बेहद खूबसूरत गज़ल्………………हर शेर उम्दा।
ReplyDeleteसांस लेना मुहाल कर देगा
ReplyDeleteसर चढ़ाया अगर ज़माने को
लाख टके की बात कही है आपने.
bahut sundar..
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
बात सच कही आपने ...vo bhi बड़ी सुन्दरता से
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
ReplyDeleteजब नया कुछ न हो सुनाने को
Laajawaab to har lafz hai,par chup rahne ka hunar kaise seekhen?
नमस्कार नीरज जी,
ReplyDeleteइस शेर के क्या कहने, बिना घुमाये फिराए सच बयानी................
मुश्किलों का गणित ये कैसा है
बढ़ गयीं जब चला घटाने को
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
ReplyDeleteजब नया कुछ न हो सुनाने को
-हाय!! मगर चुप रहा भी तो नहीं जाता...:)
बहुत बेहतरीन गज़ल जनाब!! वाह!
हाल बेताब हों रुलाने को, तू मचल कहकहे लगाने को; वाह साहब वाह क्या मुकाबला है।
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है, बढ़ गयीं जब चला घटाने को;
हुजूर
जिन्दगी को गणित नहीं समझो,
गो कि पल का हिसाब रहता है।
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन, थम गये थे तुझे उठाने को; अब हुजूर ये तो ज़माने की चाल है लेकिन: कोई गिर जाये रस्ते में तो रुक जाना, उठा लेना
मज़ा कुछ और आता है रकीबों को उठाने में।
सांस लेना मुहाल कर देगा, सर चढ़ाया अगर ज़माने को;
सम्हल कर सर चढ़ायें, यहॉं तो:
वो जो अंगुली पकड़ के चलते थे
आज छाती पे मूँग दलते हैं।
गंभीरता से न लें।
मुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
बहुत सुन्दर
जीवन का सत्य है शायद
कहीं गुणक में होती तो
वाहवा.. वाहवा.. भाईजी, क्या बात है.... मज़ा आ गया.... ला..ज..वा..ब.. ग़ज़ल.....
ReplyDeleteसबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
ReplyDeleteजब नया कुछ न हो सुनाने को
इन दिनों मेंढ़कों की तरह ग्रीष्म निष्क्रियता में हूं । गर्मी के समापन की प्रतीक्षा में । लेकिन आपके इस मकते ने ग्रीष्म निष्क्रियता से बाहर निकाल दिया । इसमें रंग-ए-नीरज है । खपोली में तो शायद बरसात आ गई होगी । हमारे यहां तो इतनी सड़ी हुई गर्मी पड रही है कि बस । एक और बेहतरीन ग़ज़ल पर बधाई ।
बहुत खूब ,
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
बढ़ गयीं जब चला घटाने को
चुप रहने की बाबत कितना कुछ कह दिया है ...
भाईजी ,नमस्कार !
ReplyDeleteतरस गया था मैं आपकी ताज़ा ग़ज़ल पढ़ने को । …ख़ैर अवसर तो मिला ।
ज़िंदादिली के पैग़ाम को बहुत ख़ूबसूरती के साथ मत्ले में ढाला है…
हाल बेताब हों रुलाने को
तू मचल कहकहे लगाने को
और यहां बोल रही है एक ख़ूबसूरत इंसान की इंसानियत एक ख़ूबसूरत शे'र के माध्यम से…
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन
थम गये थे तुझे उठाने को
…और ऐसी कहन और कहीं नज़र नहीं आई
मुश्किलों का गणित ये कैसा है
बढ़ गयीं जब चला घटाने को
अगली ग़ज़ल का इंतज़ार आज ही शुरू हो गया है , यह याद रखिएगा भाईसाहब !
हालांकि तब तक तीन-चार बार तो इसी ग़ज़ल के हुस्न-ओ-फ़न से खिंचा हुआ यहां आऊंगा ही आऊंगा ।
नमन आपको और आपकी क़लम को !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
Bau jee,
ReplyDeleteNamaste!
Maine kaha bahut khoob.....
Bina kisi laag-lapet ke khari-khari!
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
ReplyDeleteजब नया कुछ न हो सुनाने को
to kya mulakaat ka intzaam kare fir?
dekhiye shayad us aor aana ho....hamara....
चुप रहकर भी इतना कुछ कह गए ।
ReplyDeleteवाह नीरज जी ।
बहुत बढ़िया ।
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन
ReplyDeleteथम गये थे तुझे उठाने को
कमाल है भाई.... बस कमाल है
टिप्पणी क्या करे कोई इस पर
आप जब आये आज़माने पर
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
ReplyDeleteजब नया कुछ न हो सुनाने को
बहुत सही नीरज जी... एकदम मजा आ गया इस लाईन पर तो.
बहुत ही सुन्दर लिखा है ।
ReplyDeleteबेहतरीन गजल जी , धन्यवाद
ReplyDeleteआज आप हमसे बदला ले लिए नीरज जी! आपका फैन हो गए ई गजल पढकर... हमरा जईसा अनपढ अदमी का भी दिमाग में दूगो शेर आ गया है... बुरा मत मानिएगा...
ReplyDeleteपाप जी भर के करते जाओ तुम
बहती गंगा तो है नहाने को.
हमने सच बोलने की खाई कसम
आ गए झूठ कल डराने को.
उम्दा गज़ल का लाजवाब मक्ता...
ReplyDeleteसबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
जब नया कुछ न हो सुनाने को
...आज तबियत प्रसन्न हो गयी आपकी गज़ल पढ़कर.
.. वाह! क्या बात है !!
Waah waah...bahut khoob
ReplyDeleteदौड़ हम हारते नहीं लेकिन
ReplyDeleteथम गये थे तुझे उठाने को ।
बेहतरीन
बहुत सुन्दर रचना * * * * * *
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
जब नया कुछ न हो सुनाने को
बिजलियों का है खौफ़ गर तारी
भूल जा आशियाँ बनाने को
हमसे दम भर रहे थे रिश्ते का
चल दिए जब कहा निभाने को
bahut sunder aur sarthak shej hain--sabhi k sabhi...inme bar bar dil aayaa...
बहुत सुन्दर गजल है.
ReplyDeleteहर बार सोचते हैं टिप्पणी में कुछ नया लिखें लेकिन अब शब्द कम पड़ते हैं तो क्या करें?
कट पेस्ट करु तो पूरी गज़ल यहा उतारनी होगी . सुन्दर सुन्दर सुन्दर
ReplyDeleteहमसे दम भर रहे थे रिश्ते का
ReplyDeleteचल दिए जब कहा निभाने को
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
जब नया कुछ न हो सुनाने को
ख़ूबसूरत गजल ..
अगली ग़ज़ल का इंतज़ार है ..
बहुत ही अच्छी रचना.
ReplyDelete'सांस लेना मुहाल कर देगा
ReplyDeleteसर चढ़ाया अगर ज़माने को'
har sher umda, magar ye bahut khoob hai..........
सभी शेर एक से बढ़ कर एक। बधाई।
ReplyDeleteकमाल की ग़ज़ल है नीरज भाई ! हर शेर रुकने को विवश करता हुआ ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन
थम गये थे तुझे उठाने को
बेहद खूबसूरत फल्सफा बयान किया आप ने
मुबारक हो.....
और आप मेरे ब्लोग पर तशरीफ लाये, और चंद अल्फाज़ कहे, सलाह भी दी, आप का बहुत बहुत शुक़्रिया.
सभी कहरहे , कमाल की गज़ल है,
ReplyDeleteक्या रहगया कहने , बताने को ।
क्या करें चुप न जब बने रहते
ReplyDeleteऔर कुछ भी न हो बताने को
लोग जज़्बात निभाते हैं, यहाँ-
एक रिश्ता नहीं निभाने को
आशियाँ है यहीं, रहेगा यहीं
बर्क़ जा - ढूँढ सर छिपाने को
कुछ तकल्लुफ़ था कुछ थी मजबूरी
सर चढ़ाना पड़ा ज़माने को
ज़िन्दगी रेस है, जीतेंगे ज़रूर
भले तुझको ही हार जाने को
घटाना-जोड़ना हिकमत ही सही
कर वो जो हो नफ़ा पाने को
दिल में कुछ दर्द न हो पर रस्मन
रोता रह फ़ोटुएँ खिंचाने को
आपकी ग़ज़ल बहुत पसन्द आई नीरज साहब, मगर इस दिल का क्या करूँ जो आज बच्चे की तरह ज़िद कर बैठा उल्टा सोचने की - सो सब उलट-पलट दिया - और आख़री शे'र से शुरू होकर पहले तक गया। गुस्ताख़ी माफ़ कीजिएगा।
ख़ैर, बच्चों का नटखट-पन तो छोड़िए, मगर आपकी आज की ग़ज़ल बहुत पसन्द आई है। बहुत-बहुत।
बधाई!
और वाह! मेरा कमेण्ट 50वाँ था - अब 51वाँ भी ये हो जाएगा। यानी आधा सैकड़ा। इतनी तो पोस्टें लिखना मुहाल हो जाता है बहुतों को।
ReplyDeleteवाह!
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
ReplyDeleteजब नया कुछ न हो सुनाने को
...
सही कह रहे हो जी।
मुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
वाह!
हमसे दम भर रहे थे रिश्ते का
चल दिए जब कहा निभाने को
अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई
एक हलचल सी मच गई है .............. बेहतरीन लिखा है आपने ..........
ReplyDeleteबहुत अच्छे...
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और शानदार ग़ज़ल! हर एक शेर लाजवाब लगा! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteBEHD SUNDAR GJAL .
ReplyDeleteSACH AAJ SARA GNIT HI GDBDA GYA HAI .
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
ReplyDeleteजब नया कुछ न हो सुनाने को
लाजवाब ग़ज़ल.............
सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक आभार
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
wah !! wah wah !!
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
दौड़ हम हारते नहीं लेकिन
थम गये थे तुझे उठाने को
लाजवाब शेर हैं नीरज जी।
आपके ब्लाग पर बहुत दिनो बाद आने के लिये क्षमा चाहती हूँ दूसरी बात आपने कह दी है
सबसे बहतर है चुप रहें 'नीरज'
जब नया कुछ न हो सुनाने को
मेरे पास भे3ए इतने दिन कुछ नया नही था सुनाने को इस लिये नेट से दूर रही
बहुत अच्छी गज़ल है बधाई
बहुत बढ़िया ! हम भी बस यही कह पाते हैं हर बार :)
ReplyDeleteमुश्किलों का गणित ये कैसा है
ReplyDeleteबढ़ गयीं जब चला घटाने को
हमसे दम भर रहे थे रिश्ते का
चल दिए जब कहा निभाने को
Beautiful shers sir... so simple yet so effective
अरे वाह-वाह नीरज जी...वाह-वाह! जबरदस्त काफ़ियों वाली कहर ढ़ाती ग़ज़ल। तू मचल कहकहे लगाने को वाले मिस्रे पे तो पहले सौ दाद कबूल फरमायें। बहुत खूब!
ReplyDeleteइतनी छोटी-सी बहर में जैसे कुछ नहीं छोड़ा आपने। मक्त एकबार फिर लाजवाब करता हुआ....